एक गर्भवती महिला का पेट फाड़कर गर्भ बाहर निकाला गया 

सच्चाई: डॉ. जे.एस. कनोरिया, जिन्होंने २ मार्च २००२ को मृत महिला कौसरबानू के शव का पोस्टमॉर्टेम किया, ने पाया कि उस समय उसका गर्भाशय अपनी जगह पर था और उसकी मृत्यु दंगों में जलने के कारण (due to burns) हुई थी।

 

   ‘इंडिया टुडे’ ने ५ अप्रैल २०१० के अंक में दी ख़बर थी: 

 

   “मानवाधिकार कार्यकर्ताओं द्वारा मुस्लिम दंगा-पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए लगातार चलाए गए अभियान के कारण सर्वोच्च न्यायालय ने मार्च २००३ में गुजरात दंगों से संबंधित ९ मुक़दमों पर रोक लगा दी थी। दंगा-पीड़ितों का कहना था कि दंगों के सिलसिले में पुलिस-जाँच में और उसके बाद मुक़दमों में यदि गुजरात सरकार की कोई भूमिका कोई होती है तो दंगा-पीड़ितों को न्याय नहीं मिलेगा। सर्वोच्च न्यायालय की प्रत्यक्ष निगरानी में एस.आई.टी. इन सब मामलों की फिर से जाँच कर रही है और इन मुक़दमों के लिए न्यायमूर्ति और सरकारी वकीलों को चुनने का कार्य भी सर्वोच्च न्यायालय की देखरेख में किया जा रहा है।

   जैसे एस.आई.टी. अपना काम करते जाती है, इस जाँच के दौरान अब ऐसे कई सबूत मिल रहे हैं कि मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के समूह ने अनेक मामलों में बलात्कार और हत्याओं की झूठी डरावनी कहानियाँ बनाकर, गवाहों को पढ़ा-सिखाकर सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष बयान देने के लिए लगाया। इस प्रक्रिया में हो सकता है कि ऐसा करने पर मोदी और उनकी सरकार के विरोध में अपने राजनैतिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय को गुमराह करने में इनकी बड़ी भूमिका रही हो।

   सर्वोच्च न्यायालय की देखरेख में अहमदाबाद के विशेष न्यायालय में पिछले हफ़्ते में (मार्च २०१० में) नरोड़ा पाटिया के मामले की सुनवाई के दौरान भीषण क्रूरता का एक उदाहरण फिर से सामने आया, जिस घटना में ९४ लोग मारे गए थे। दंगों के तत्काल बाद मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और मुस्लिम गवाहों ने यह आरोप किया था कि एक गर्भवती महिला कौसरबानू का पेट फाड़कर उसका गर्भ बाहर निकालकर तलवार की नोक पर नचाया गया। इस अत्यंत घृणास्पद घटना को आधुनिक युग में मध्यकालीन गुंडागर्दी का सबसे भयानक उदाहरण माना जा रहा था।

   पिछले हफ़्ते, इस आरोपित घटना के आठ साल बाद कौसरबानू के शव का दिनांक २ मार्च २००२ को पोस्टमार्टम करने वाले डॉ.जे.एस. कनोरिया ने इस तरह की कोई घटना होने से इंकार किया। इसके विपरीत उन्होंने न्यायालय को बताया कि ‘उस महिला का शव-विच्छेदन करने पर, पेट में भ्रूण सुरक्षित पाया गया था, उसकी मृत्यु दंगों में आग से जलने के कारण हुई थी’। इसके बाद ४० वर्षीय श्री कनोरिया ने ‘इंडिया टुडे’ को बताया कि, ‘मैंने आठ वर्ष पहले मेरी शव परीक्षण रिपोर्ट में जो लिखा था, वही न्यायालय को बताया है। महिला का पेट फाड़ा गया, इस बात पर विश्वास रखने से पहले पत्रकारों को कम-से-कम एक बार शव-विच्छेदन रिपोर्ट पढ़नी चाहिए थी। जहाँ तक मुझे याद है मैंने २ मार्च २००२ को दोपहर में यह शव-विच्छेदन किया था’। 

   दंगाइयों द्वारा कौसरबानू का पेट फाड़ने का दावा करने वाली तीन पुलिस शिकायतों का सतर्क अध्ययन करने पर उसमें अनेक कमियाँ पाई जाती हैं। एक शिकायत में आरोप लगाया गया है कि इस घटना के मुख्य आरोपी गुड्डू चारा ने कौसरबानू का पेट चीर दिया और गर्भ निकालकर उसे तलवार की नोक पर नचाया। जबकि दूसरी शिकायत में कहा गया कि इसी मामले के एक और आरोपी बाबू बजरंगी ने यह दुष्कर्म किया। तीसरी शिकायत में शिकायतकर्ता ने घटना का वर्णन इसी तरह किया लेकिन आरोपी के नाम का उल्लेख नहीं किया।

   …नरोड़ा ग्राम मामले में एक महत्त्वपूर्ण गवाह नानुमिया मलिक के शपथ-पत्र में सबसे बड़ी कमी हैं। सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष १५ नवंबर २००३ को प्रस्तुत शपथ-पत्र में मलिक ने कहा कि मदीना नामक एक नवविवाहिता, जिसके पति सहित चार रिश्तेदार दंगों में मारे गए थे, पर दंगाइयों ने बलात्कार किया था।

   श्री मलिक ने अपने शपथ-पत्र में कहा था, ‘मदीना पर हुए बलात्कार और उसके परिवार की हत्याओं का मैं गवाह हूँ। मैंने ४ अनाथों सहित सात लोगों को ज़िंदा जलते हुए देखा है। सर्वोच्च न्यायालय से मेरा अनुरोध है कि बलात्कार पीड़ित से संबंधित सभी विवरणों को गोपनीय रखा जाए। क्योंकि वह अभी जीवित है और इस शपथ-पत्र का उपयोग केवल मुक़दमे और बलात्कार करने वालों को दोषी ठहराने के लिए ही किया जाए’। परंतु एस.आई.टी. के समक्ष गवाही देते समय ५ मई २००९ को श्री मलिक ने कहा:

  ‘मदीना पर बलात्कार का झूठा दावा मैंने किया था। मैंने तीस्ता सीतलवाड़ के दबाव के कारण यह आरोप लगाया था। शपथ-पत्र में इस आरोप को न जोड़ने के बारे में मैंने बार-बार अनुरोध करने के बाद भी उन्होंने शपथ-पत्र में इस आरोप को जोड़ दिया’। अब पुनर्विवाहित मदीना ने भी एस.आई.टी. के समक्ष गवाही देते हुए २० मे २००८ को कहा कि, ‘दंगाइयों ने मुझ पर बलात्कार करने का दावा करने वाले श्री मलिक का आरोप पूरी तरह ग़लत है। मुझ पर बलात्कार हुआ ही नहीं। दंगाइयों की भीड़ ने मेरे मकान को आग लगाने के बाद मैंने वहाँ से बच निकलने का प्रयास किया लेकिन दंगाइयों में से एक व्यक्ति ने मुझे चाकू मार कर घायल कर दिया, परंतु बाद में मैं एक मुस्लिम समूह के साथ घुलने-मिलने में कामयाब हो गई’। 

   नरोड़ा गाँव और नरोड़ा पटिया दोनों मामलों में बलात्कार का दावा करने वाले अलग-अलग मुस्लिम गवाहों ने १५ नवंबर २००३ को छह शपथ-पत्र दिए थे, लेकिन इसमें विस्तार से कुछ भी नहीं कहा गया था। और चित्तरंजक बात यह थी कि सभी शपथ-पत्रों की भाषा एक समान थी। उसमें कहा गया था, ‘दंगों में न केवल ११० लोग मारे गए बल्कि बलात्कार और अत्याचार भी किए गए, इनमें छोटे बच्चे भी शामिल थे। सर्वोच्च न्यायालय से हमारा अनुरोध है कि इन सभी मुक़दमों पर रोक लगाकर इन्हें किसी पड़ोसी राज्य में स्थानांतरित किए जाए, और इन मामलों की फिर से जाँच की जाए’। इन शपथ-पत्रों में कहा गया था कि ये शपथ-पत्र सीतलवाड़ के इशारे पर और उनके सहयोगी श्री रईसख़ान की उपस्थिति में प्रस्तुत किए गए हैं। 

   जैसे कि इतना काफ़ी नहीं था, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं द्वारा गवाहों को पढ़ाए-सिखाए जाने के प्रयासों के अन्य कई उदाहरण प्रकाश में आए हैं। उदाहरण के लिए, गुलबर्ग सोसायटी में हुए हत्याकांड में, जिसमें श्री एहसान जाफ़री मारे गए, क़रीब एक दर्जन मुस्लिम गवाहों ने पुलिस को बताया कि श्री जाफ़री ने स्वयं की सुरक्षा के लिए गोली चलाई जिसमें एक दंगाई मारा गया और १४ लोग घायल हो गए। इस घटना ने संतप्त भीड़ को हिंसाचार के लिए उकसाया और संतप्त भीड़ ने प्रतिशोध की भावना से गुलबर्ग सोसायटी में मुस्लिमों पर हमले किए। लेकिन विशेष न्यायालय में गवाही देने वालों में से लगभग आधे गवाह उनके पहले दिए गए बयान से मुकर गए।

   गुलबर्ग मामले के ट्रायल में श्री इम्तियाज़ पठान के बयान से भी भौहें चढ़ती हैं। उसने विशेष न्यायालय को बताया, मृत्यु से पहले श्री जाफ़री ने उनसे कहा कि भीड़ के हमले से रक्षा के लिए उन्होंने (जाफ़री) मोदी से फोन पर संपर्क करने पर, नरेंद्र मोदी ने उनके (जाफ़री के) साथ गली-गलौच की। प्रसंगवश, श्री जाफ़री ने मोदी को फोन पर संपर्क करने का कोई रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है। दंगों के तत्काल बाद श्री पठान ने पुलिस के सामने दर्ज किए अपने पहले वाक्य में मोदी का नाम नहीं लिया था। यह चित्तरंजक हैं कि उन्होंने हज़ारों दंगाइयों की भीड़ में से २७ लोगों (इतने अधिक) को व्यक्तिगत रूप से पहचाना।

   एस.आई.टी. ने जब गुलबर्ग सोसायटी मामले में गवाहों का बयान लेना शुरू किया तो क़रीब २० गवाहों ने अपना बयान पहले से ही लिखित रूप में लाया था। लेकिन एस.आई.टी. ने सी.आर.पी.सी. की धारा १६१ के नियमों को बताकर (Section 161 of CrPC) इन लिखित बयानों पर आपत्ति जताई, और कहा कि गवाहों के बयान पुलिस ने ही दर्ज करने होते हैं। एस.आई.टी. द्वारा यह सख्ती बरतने के बाद जाँच के दौरान ही उन गवाहों का बयान दर्ज कराने पर पुलिस के समक्ष दर्ज किए गए बयान और पहले से ‘लिखित रूप में’ लाए गए बयानों में काफ़ी अंतर पाया गया। [यहीं बात ‘टाईम्स ऑफ़ इंडिया’ ने भी १६ अप्रैल २००९ के खबर में कही थी।]

   आरोपियों के एक वरिष्ठ वकील ने कहा कि ‘मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के दबाव के कारण गवाहों ने बयान देते समय उसकी वीडियो रिकॉर्डिंग नहीं होने दिया। यह इन कार्यकर्ताओं का न केवल एस.आई.टी. को, बल्कि न्यायालयों को भी अपने आदेशों से चलाने का स्पष्ट प्रयास हैं’।…” (संदर्भ: https://www.indiatoday.in/magazine/states/story/20100405-inhuman-rights-742440-2010-03-25)

   

   यहाँ एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि ‘इंडिया टुडे’ को यह बात ध्यान में आती नहीं दिखती कि उन्होंने भी अपने १८ मार्च २००२ के अंक में गर्भवती महिला का पेट चीरकर उसका भ्रूण बाहर निकालने के संबंध में झूठी ख़बर प्रकाशित की थी। 

 

   ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने दिनांक १८ मार्च २०१० की ख़बर में कहा:

 

   “डॉक्टर की गवाही के कारण नरोड़ा पाटिया की ‘गर्भ’ कथा के झूठ का पर्दाफ़ाश

   अहमदाबाद: नरोड़ा पाटिया की सबसे क्रूरतम कहानियों में से एक, अर्थात् एक गर्भवती महिला को मारने से पहले उसका पेट चीरकर, भ्रूण को बाहर निकालकर उसे तलवार की नोक पर नचाया गया, यह कहानी सरकारी डॉक्टर की गवाही के कारण झूठी साबित हुई है।

   नरोड़ा पाटिया में २८ फरवरी २००२ को ९५ लोगों की हत्या होने के बाद एक कहानी की चर्चा ज़ोरों पर थी कि हत्यारों ने कौसरबानू शेख़ नामक आठ माह की गर्भवती महिला का पेट चीरकर उसका भ्रूण बाहर निकाला और महिला को मार दिया।   

    इस महिला का २ मार्च (२००२) को शव-विच्छेदन करने वाले डॉ. जे.एस. कनोरिया ने बुधवार (१७ मार्च २०१०) को विशेष न्यायालय में दस्तावेजों के सबूत सहित बताया कि उस महिला का गर्भ सुरक्षित था। उन्होंने बताया कि वे उस समय नडियाद में तैनात थे परंतु आपातकालीन परिस्थिति होने के कारण उन्हें सिविल अस्पताल में बुलाया गया। मृतक को जाने बिना डॉक्टर ने शव-विच्छेदन किया, जिसकी पहचान बाद में कौसरबानू के रूप में हुई।

   श्री कनोरिया ने उस समय की शव-विच्छेदन रिपोर्ट न्यायालय के सामने पेश की, उसमें कहा गया था कि गर्भ महिला के पेट में ही सुरक्षित था। गर्भ का वज़न २५०० ग्राम था और लंबाई ४५ सें.मी. थी। अपनी रिपोर्ट में उन्होंने जलने के कारण चोटों को दर्ज किया था, हालाँकि शरीर पर कोई अन्य चोटों के बारे उन्होंने कुछ टिप्पणी नहीं की थी।

   एस.आई.टी. ने अपनी रिपोर्ट बंद लिफ़ाफ़े में प्रस्तुत करने के बाद गुजरात सरकार ने पिछले साल अप्रैल (२००९) में सर्वोच्च न्यायालय में इस मामले में अपना पक्ष रखा था। सरकार ने यह दावा किया था कि कौसरबानू के गर्भ को उसके पेट से निकालकर उसकी आखों के सामने हिंसक भीड़ ने तलवार से मार डाला, यह आरोप एस.आई.टी. ने ख़ारिज कर दिया है। वरिष्ठ वकील मुकुल रोहतगी ने उस समय कहा था कि एस.आई.टी. की रिपोर्ट से एक स्वयंसेवी सगठन द्वारा लगाया गया यह आरोप ग़लत साबित हुआ। निष्पक्ष गवाह के रूप में माने जाने वाले डॉक्टर ने भी एक साल के बाद न्यायालय के समक्ष यही बयान दिया है।” 

(संदर्भ: http://timesofindia.indiatimes.com/india/Docs-testimony-nails-lie-in-Naroda-Patia-fetus-story/articleshow/5696161.cms)

 

   डॉक्टर कनोरिया ने दी गवाही की ख़बर बहुत कम अंग्रेज़ी अख़बारों ने प्रकाशित की थी, उनमें से एक ‘द हिंदू’ था। उसने १८ मार्च २०१० को यह ख़बर दी थी। वो पढ़ने के लिए खोलिए यह लिंक: https://web.archive.org/web/20130604060300/http://www.hindu.com/2010/03/18/stories/2010031863801300.htm

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