chapter-1

अध्याय २ गोधरा हत्याकांड

“गोधरा”। यह केवल पश्चिम भारत के गुजरात राज्य के पंचमहल ज़िले के एक शहर का नाम
नहीं। बल्कि उससे आगे इस शब्द से काफ़ी कुछ ध्वनित होता है। यह नाम एक घटना भी सूचित
करता है। मन सुन्न करने वाली, डरावनी, अकल्पनीय और जंगली घटना। ‘गोधरा’ यह शब्द दर्ज
करता है ५९ लोगों की भीषण हत्या, जिसमें २५ महिलाएँ और १५ बच्चे भी थे, और घायल हुए अन्य
४० लोग। स्वतंत्र भारत ने अनेक डरावनी घटनाएँ देखी। उनमें से सबसे भयानक घटनाओं में से यह एक घटना थी।

मन सुन्न करने वाली इस भयानक घटना के कारण हुई इसी तरह की अनेक भयानक कथाएँ,
अनेक घटनाएँ, अनेक दंगे और अनेक राजकीय परिवर्तन। गोधरा की घटना दंगों का तात्कालिक
कारण भी थी जिसमें कुल ११६९ लोगों की मृत्यु हुई। (इसमें पुलिस गोलीबारी से हुए मृतक भी
शामिल हैं।)

परंतु गोधरा में मज़हबी, सांप्रदायिक हिंसा होने की यह घटना न तो पहली थी और न ही अंतिम
थी। इस शहर का सांप्रदायिक (मज़हबी) हिंसाचार का लंबा रक्तरंजित इतिहास था। वह शहर उसके
लिए जाना जाता था। गोधरा के इस हिंसक सांप्रदायिक दंगों के दीर्घ इतिहास पर एक नज़र डालते हैं।

गोधरा के सांप्रदायिक दंगों का इतिहास

पंचमहल ज़िला, जिसमें गोधरा स्थित हैं, सांप्रदायिक दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील माना जाता है।
गोधरा के सांप्रदायिक दंगों/अत्याचारों का घटना क्रम, जो कई सूत्रों ने दिया हैं, आगे वर्णित है।

१९२८:  हिंदुओं के प्रमुख स्थानीय प्रतिनिधि पुरुषोत्तम शाह की हत्या।

१९४६:  इस वर्ष हुए सांप्रदायिक दंगों में पारसी, सोलापुरी फौज़दार पर सदवा हाजी और चूड़ीघर इन
पाकिस्तानवादी मुस्लिम नेताओं के कारण हमला। विभाजन के बाद चूड़ीघर पाकिस्तान में चला गया।

१९४८:  तत्कालीन ज़िलाधिकारी पिंपुटकर पर हमले का षड्यंत्र सदवा हाजी ने रचा परंतु पिंपुटकर के
अंगरक्षक ने स्वयं के प्राण का बलिदान देकर उन्हें बचाया। इसके बाद सदवा हाजी भी पाकिस्तान
चला गया। जहुरपुर क्षेत्र में एक मस्जिद के पास २४ मार्च को एक हिंदू की चाकू घोंपकर हत्या की
गई (stabbed to death)। इसके बाद भड़के दंगों में हिंदुओं के २००० घर (जिसमें कम-से-कम ८६९
शुरू में थे) और कुछ मंदिरों को खबरों के अनुसार जला दिया गया।

 इसके बाद मुसलमानों के ३,००० घर भी जलाए गए। ज़िलाधिकारी (कलेक्टर) पिंपुटकर निषेधाज्ञा (कर्फ़्यू) लागू कर हिंदुओं के अन्य घर बचा सकें, जो छह माह तक लागू रही।

१९६५: क्रमांक ७ की पुलिस चौकी के पास स्थित हिंदुओं की दुकानें पास के ही मुस्लिम घरों से
(बिदनी व भोपा) ज्वालग्राही वस्तुओं को फेंक कर जला दी गईं। इस बारे में आरोप था कि इस क्षेत्र
के अल्पसंख्यक समाज के कांग्रेस विधायक [उसका नाम था तहेराली अब्दुलाली, जो १९६२ का
विधानसभा चुनाव गोधरा से जीता था
] के कारण यह घटना हुई। रेलवे स्टेशन के निकट स्थित पुलिस
चौकी के पुलिस उपमहानिरीक्षक पर भी हमला हुआ।

१९८०: २९ अक्तूबर को हिंदुओं पर इसी तरह का हमला हुआ, जिसका प्रारम्भ गोधरा बस अड्डे से
हुआ। गोधरा स्टेशन रोड क्षेत्र में गुंडागर्दी व समाजविरोधी कार्य करने वाले मुस्लिमों ने इस हमले की
योजना बनाई। इस हमले में ५ व ७ वर्षों के दो बच्चों सहित ५ हिंदुओं को ज़िंदा जला दिया गया।
इस क्षेत्र में शिकारी चाल में एक गुरुद्वारा को भी जला दिया गया। स्टेशन क्षेत्र में स्थित हिंदुओं की
४० दुकानों को भी आग लगा दी गई। इन दंगों के कारण गोधरा में लगाई गई निषेधाज्ञा (कर्फ़्यू) एक
वर्ष तक लागू रही। इस कारण शहर के उद्योग व्यवसाय को बड़ा झटका लगा।

१९९०: २० नवंबर को व्होरवाड़ा क्षेत्र के सैफ़ीया मदरसे में मुसलमान गुंडो ने ४ हिंदू शिक्षकों की
(जिनमें २ महिला शिक्षिकाएँ भी थीं) उनके बच्चों के सामने भीषण हत्या कर दी (उनके टुकड़े-टुकड़े
कर दिए)। इसी क्षेत्र में एक हिंदू दर्जी की भी चाकू घोंपकर हत्या कर दी गई। आरोप था कि कांग्रेस
के पूर्व विधायक खल्पा अब्दुलरहीम इस्माईल, जो कि १९७५ से १९९० तक गोधरा के कांग्रेस विधायक
थे, के कहने पर समाज-विरोधी मुस्लिम घटकों ने इन सब घटनाओं को अंजाम दिया।

१९९२: रेलवे स्टेशन के आसपास का परिसर हिंदुओं से छीनने के लिए हिंदुओं के १०० से अधिक घर
जलाए गए। अधिकांश हिंदू परिवारोंने अन्यत्र स्थलान्तर करने के कारण २००२ में यह क्षेत्र खाली था।

२००२: अहमदाबाद को जाने वाली साबरमती एक्स्प्रेस की बोगियों को २७ फरवरी को २ हज़ार
मुसलमानों ने आग लगा दी। हमलावरों का लक्ष्य इस गाड़ी के एस-६ बोगी के अयोध्या से वापिस
लौटने वाले कारसेवक थे। इस अग्निकांड में स्त्री-पुरुष, बच्चे मिलाकर कुल ५९ निर्दोष लोग मारे गए,
और ४० लोग ज़ख़्मी हुए। हमलावरों की योजना पूरी गाड़ी जला देने की थी परंतु वे सफल न हो
सके, क्योंकि गाड़ी ४ घंटे से अधिक के विलंब से आने के कारण वे रात के अंधेरे का फ़ायदा नहीं
उठा पाए।
(संदर्भ: विश्व संवाद केंद्र, गुजरात और The Indian Express dated 30 th April 2002
http://www.indianexpress.com/storyOld.php?storyld=1822 quoting Gujarat’s then MoS
for Home Gordhan Zadaphiya
)

२००३: सितंबर में हुए गणेश विसर्जन जुलूस पर पत्थरबाज़ी और हिंदूओं और मुसलमानों के बीच
संघर्ष हुआ। रेडिफ़ डॉट कॉम और ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने इस घटना का समाचार दिया। परंतु संघ
परिवार के नेताओं सहित सभी लोग इस घटना को भूल गए।

(संदर्भ: https://timesofindia.indiatimes.com/india/Curfew-in-godhra-after-
clashes/articleshow/167495.cms?)

२००२ मार्च:  १३ मार्च २००२ को ५०० मुसलमानों के समूह ने गोधरा के पुराने बस अड्डे के निकट
जहुरपुरा क्षेत्र में फिर से हिंदुओं पर हमला किया। एन.डी.टी.वी. चेनेल ने इसका समाचार इस प्रकार
दिया था:
गोधरा में समूह द्वारा हमला, १२ लोग गिरफ़्तार
बुधवार, १३ मार्च २००२ (गोधरा): २७ फरवरी को रेलवे स्टेशन पर हुई अफरा-तफरी और बाद में हुई हिंसक
प्रतिक्रिया के दो हफ़्तों के अंदर ही आज पुनः तनाव फैल गया जब एक अल्पसंख्यक समूह ने आरोपों के
अनुसार शहर के नागरिकों पर हमला किया, जिससे पुलिस को गोलीबारी करनी पड़ी। पुलिस ने कहा कि ‘५००
लोगों के एक अल्पसंख्यक समूह ने’ पुराने बस अड्डे के निकट जहुरपुरा क्षेत्र में नागरिकों पर हमला किया।
पुलिस ने बताया कि समूह ने पत्थरबाज़ी की और निजी शस्त्रों से गोलीबारी की। समूह को तितर-बितर करने
के लिए पुलिस ने गोलीबारी की और आँसूगैस के गोले छोड़े। इसमें अब तक किसी की मृत्यु या ज़ख़्मी होने का
समाचार नहीं था।
पुलिस का अतिरिक्त बल, राज्य रिज़र्व पुलिस व दंगा विरोधी ‘रैपिड एक्शन फोर्स’ (शीघ्र कृति दल) के
कर्मचारी वरिष्ठ डी.एस.पी. राजू भार्गव के नेतृत्व में तत्काल घटनास्थल पहुँचे और खोज अभियान शुरू किया।
पुलिस ने बताया कि ‘इस अभियान में दो महिलाओं सहित १२ व्यक्तियों को पास के ही प्रार्थना स्थल से
गिरफ़्तार किया गया’। पुलिस ने यह भी बताया कि स्थिति नियंत्रण में परंतु तनावपूर्ण है।”

   इस प्रकार २७ फरवरी के बाद जल्दी ही गोधरा में मुसलमानों ने हिंदुओं पर पुनः हमला किया।
‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ने भी पी.टी.आई. का यह समाचार दिया, जिसे इस लिंक पर पढ़ा जा सकता है:http://timesofindia.indiatimes.com/Mob-attacks-people-in-godhra-12-arrested/articleshow/3682215.cms

   गोधरा से संबंधित यह सारा विवरण (२००३ की पत्थरबाज़ी और १३ मार्च २००२ का हमला
छोड़कर) ‘मिल्ली गेज़ेट’ (Milli Gazette) नामक पाक्षिक में १६ मार्च २००२ को लिखे हुए एक लेख में
भी प्रकाशित हुआ है। इस लेख का शीर्षक है ‘गोधरा इन फरमेंट इव्हेन बिफोर इंडिपेंडेंस’।
(लिंक: http://www.milligazette.com/archives/15042002/15042002276.htm)

   इस पाक्षिक को भारतीय मुस्लिमों की आवाज़ समझा जाता है। भारतीय मुसलमानों का यह
अंग्रेज़ी समाचार-पत्र है। इस पाक्षिक ने भी गोधरा का यह सारा विवरण प्रकाशित किया है।

   गोधरा हत्याकांड के बाद इसकी जाँच के लिए नानावटी आयोग की नियुक्ति की गई, जिसे
‘कमिशन ऑफ़ इन्क्वायरी एक्ट, १९५२’ के अनुसार जाँच के पूर्ण अधिकार थे, यह एक पूर्ण आयोग
था। नानावटी आयोग ने गोधरा हत्याकांड के संबंध में अपनी रिपोर्ट सितंबर २००८ में सौंपी। इस
रिपोर्ट में कहा कि: 

   “गोधरा नगर एक अत्यंत संवेदनशील स्थान है। इस ज़िले में अनेक स्थानों पर मुस्लिम जनसंख्या का
प्रतिशत अधिक है। गोधरा में वर्ष १९२५, १९२८, १९४६, १९४८, १९५०, १९५३, १९८०, १९८१, १९८५, १९८६, १९८८,
१९८९, १९९०, १९९१, और १९९२ में सांप्रदायिक दंगे हुए थे। १९४८ के दंगे काफ़ी भीषण थे। शुरूआत में मुस्लिमों
ने हिंदुओं के ८६९ घर जलाए थे। इसके बाद हिंदुओं ने मुस्लिमों के ३०७१ घर जलाए थे।”
आयोग की इस पूरी रिपोर्ट को नीचे दिए गए लिंक पर पढ़ा जा सकता है:http://www.home.gujrat.gov.in/homedepartment/downloads/godharaincident.pdf

   गोधरा के मुस्लिमों की सांप्रदायिक धर्मांधता के बारे में महात्मा गांधी (१८६९–१९४८) ने भी लिखा
था। ‘यंग इंडिया’ के ११ अक्तूबर १९२८ के अंक में लिखे हुए लेख में उनके सटीक शब्द इस प्रकार थे:

   “गोधरा की भयंकर घटना के बारे में दो हफ़्ते पहले मैंने ‘नवजीवन’ में एक नोट लिखा था, जिस घटना में
श्री पुरुषोत्तम शाह ने वीरतापूर्वक हमलावरों के हाथ अपनी मृत्यु का सामना किया, और उस नोट को मैंने शीर्षक
दिया था, ‘हिंदू मुस्लिम फ़ाइट इन गोधरा’ (“गोधरा में हिंदू और मुस्लिमों में संघर्ष”)। मेरा यह शीर्षक अनेक
हिंदुओं को पसंद नहीं आया और उन्होंने उनकी संतप्त प्रतिकियाओं के पत्र मुझे भेजे (क्योंकि यह संघर्ष
इकतरफ़ा था) जिनमें उन्होंने मेरे लेख का शीर्षक ठीक करने की माँग की। उनकी इस माँग को मैं स्वीकार नहीं
कर सका। क्योंकि चाहे एक व्यक्ती पीड़ित हो या अधिक, दो समुदायों में मुक्त संघर्ष हो या सिर्फ़ एक
आक्रमण करें और दूसरा केवल मार खाए, ये घटनाएँ यदि दो समाजों के बीच सतत संघर्ष का परिणाम (एक
भाग) हों तो उसे मैंने ‘फ़ाइट’ अर्थात् संघर्ष कहना चाहिए। गोधरा हो या अन्य कोई स्थान, फ़िलहाल दोनों
समुदायों में संघर्ष चालू है। भाग्यवश ग्रामीण क्षेत्र अभी भी इस संघर्ष से दूर हैं (अब तो वह भी नहीं रहा), ये
संघर्ष छोटे व बड़े शहरों तक ही सीमित हैं, जहाँ किसी न किसी प्रकार से लगातार संघर्ष चालू है। जिन
संवाददाताओं ने मुझे गोधरा के संबंध में लिखा है, वे लोग भी यह घटना वहाँ के लगातार सांप्रदायिक तनाव से
उत्पन्न हुई है इस बात को नकारते नज़र नहीं आते हैं।
पत्र भेजने वालों ने यदि केवल शीर्षक के बारे में अपनी नाराज़गी व्यक्त की होती तो मैं उन्हें निजी तौर पर
लिखकर स्वयं को संतुष्ट करता और ‘नवजीवन’ में इस बारे में कुछ नहीं लिखता। परंतु अन्य पत्र हैं, जिनमें
संवाददाताओंने अन्य कई मुद्दों पर गुस्सा व्यक्त किया है। गोधरा जाकर आया अहमदाबाद का एक स्वयंसेवक
(volunteer) लिखता है-
‘आप कहते है कि इन झगड़ों के बारे में हमें शांत रहना चाहिए। परंतु आप ख़िलाफ़त के मामले में शांत क्यों
नहीं रहे, और हमें मुस्लिमों के साथ शामिल होने के लिए क्यों कहा? आप अपने अहिंसा के सिंद्धांतों पर शांत
क्यों नहीं रहते? आप अपने मौन को सही कैसे कराओगे, जब दो समुदाय एक दुसरे के गले पर जा रहें हैं, और
हिंदू बुरी तरह अणुओं तक कुचले जा रहे हैं? यहाँ अहिंसा कैसे आती है? मैं दो घटनाओं की ओर आपका ध्यान
आकर्षित करना चाहता हूँ।

एक हिंदू दुकानदार ने मेरे पास ऐसी शिकायत की- “मुसलमान मेरी दुकान से चावल के बोरे ख़रीदते हैं, और
अनेक बार पैसे देते ही नहीं। वो मेरे गोदाम लूटेंगे इस डर से मैं पैसे देने के लिए ज़ोर नहीं डाल सकता। और
इसीलिए मुझे हर महीने ५०-७० मन चावल की उन लोगों को अनिच्छा से भेंट देनी पड़ती है।”
अन्य लोगों ने शिकायत की- “मुसलमान हमारे घरों में घुसकर हमारे सामने हमारी महिलाओं का अपमान
करते हैं और हमें चुप रहना पड़ता है। हमने यदि इसका विरोध किया तो हम ख़त्म हो जाएँगे। हम उनके
ख़िलाफ़ एक साधारण शिकायत भी दाख़िल करने की हिम्मत नहीं कर सकते।”
इसप्रकार की घटनाओं में आपकी क्या सलाह है? यहाँ पर आप अपनी अहिंसा का प्रत्यक्ष रूप से प्रयोग कैसे
करेंगे? या यहाँ भी आप मौन रखना पसंद करेंगे?’
ऐसे, और इसप्रकार के अनेक प्रश्नों के उत्तर मैंने इन पृष्ठों पर बार-बार दिए हैं। परंतु इन प्रश्नों को फिर से
पूछे जाने के कारण पुनरावृत्ति का ख़तरा होते हुए भी मैंने मेरी राय पुनः स्पष्ट करनी चाहिए।
अहिंसा डरपोक या कायर लोगों का मार्ग नहीं है। मृत्यु के सामने जाने के लिए तैयार रहने वाले बहादुरों का
यह मार्ग है। जो हाथ में तलवार लेकर मृत्यु का सामना करता है वह निश्चित रूप से बहादुर है, परंतु जो कुछ
उँगली भी उठाए बग़ैर मृत्यु का सामना करता है वो अधिक बहादुर है। परंतु मार खाने के डर से अपने चावल
के बोरों को अभ्यर्पित कर देने वाला व्यक्ति कायर (डरपोक) है, और वह अहिंसा का कोई तरफ़दार नहीं। यह
व्यक्ति अहिंसा से दूर है। मार खाने के डर से अपने घर की महिलाओं का अपमान सहने वाला व्यक्ति मर्दाना
(बहादुर) नहीं हैं, बल्कि वह उसके बिलकुल विपरीत है। ऐसे व्यक्ति न पति, न पिता, न भाई होने के लायक़
है। ऐसे व्यक्तियों को शिकायत करने का कोई अधिकार ही नहीं है।
…जहाँ बेवक़ूफ़ हैं वहाँ धूर्त लोग रहेंगे ही, जहाँ डरपोक हैं वहाँ धौंसिये (Bullies) रहेंगे ही, चाहे वो हिंदू हो या
मुसलमान। …इसलिए यहाँ सवाल दो में से एक समुदाय को सबक सिखाना या उसे मानवीय बनाने का नहीं है,
बल्कि एक डरपोक को बहादुर कैसे बनाना है, इसका है…”

इस प्रकार १९२८ में पुरुषोत्तम शाह की गोधरा में हुई हत्या के बारे में गांधीजी ने लिखा था, यह
स्पष्ट होता है। यह भी स्पष्ट दिखाता है कि गोधरा में मुसलमान हिंदुओं के ख़िलाफ़ बहुत पहले से
आक्रामक थे- चावल के बोरे बग़ैर पैसे दिए लेना, या घरों में घुसकर उनकी महिलाओं को अपमानित
करना। गांधीजी के उपर्युक्त शब्द उनके Collected Works, Volume 43, pages 81–82 में भी
पढ़े जा सकते हैं।http://www.gandhiashramsevagram.org/gandhi-literature/mahatma-
gandhi-collected-works-volume-43.pdf

गोधरा हत्याकांड कैसे घटित हुआ

गोधरा का रक्तरंजित इतिहास देखने के बाद अब २७ फरवरी २००२ (बुधवार) को यह हत्याकांड
वास्तव में कैसे घटित हुआ, इसके भयंकर, दिग्भ्रमित करने वाले विस्तृत देखते हैं, पार्श्वभूमि सहित।

विश्व हिंदू परिषद ने अयोध्या में फरवरी-मार्च २००२ में एक ‘पूर्णाहुति यज्ञ’ का आयोजन किया था।
विहिंप ने घोषणा की थी कि अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण १५ मार्च २००२ से प्रारम्भ होगा।
देशभर से लोग अयोध्या में आकर यज्ञ में शामिल होकर वापिस जा रहे थे। अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण अविवादित भूमि पर प्रारम्भ होने की घोषित तारीख़ यानी १५ मार्च तक वे अयोध्या में
रुके नहीं थे। (वर्ष १९९४ में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में अयोध्या की अविवादित ज़मीन
मूल मालिकों को दी जा सकती है ऐसा निर्णय दिया था। अधिकांश अविवादित ज़मीन विहिंप और
उससे संलग्न संस्थाओं के स्वामित्व यानी मिल्कियत की थी और है।)

फरवरी के मध्य से लेकर २७ फरवरी तक देशभर से लोग अयोध्या गए, पूर्णाहुति यज्ञ में शामिल
हुए, और अपने अपने घर लौटे। पूर्णाहुति यज्ञ में सहभागी होने के बाद एक ट्रेन भरकर ऐसे लोग
जिन्हें ‘रामसेवक’ या ‘कारसेवक’ कहते थे, २७ फरवरी २००२ को साबरमती एक्सप्रेस से अयोध्या से
वापिस अहमदाबाद, गुजरात लौट रहे थे। यज्ञ में सहभागी रामसेवक विहिंप के सदस्य थे या
रामजन्मभूमि आंदोलन को समर्थन देने वाले सर्वसामान्य लोग थे, इसकी जानकारी इस लेखक को
नहीं है।

वह ट्रेन, साबरमती एक्स्प्रेस, अहमदाबाद को प्रातः जल्दी पहुँचना अपेक्षित थी। यह गाड़ी चार घंटे
से अधिक के विलंब से चल रही थी (स्रोत: इंडिया टुडे, ११ मार्च २००२)। प्रातः ७ बजकर ४७ मिनट
पर गोधरा स्टेशन छोड़ने के बाद तुरंत एक बड़े समूह ने गाड़ी रोक दी (समूह में शामिल लोगों की
संख्या ५०० से २००० तक बताई जाती है)। गाड़ी जहाँ रोकी गई वह ‘सिग्नल फालिया’ नामक स्थान
था, जो गोधरा स्टेशन से ५०० से ७०० मीटर पर है। ट्रेन रेलवे स्टेशन पर नहीं बल्कि सिग्नल
फालिया पर जलाई गई। इस कारण से हमलावर गाड़ी को बाहर से नहीं जला पाए। यदि ट्रेन और
हमलावर प्लेटफार्म पर होते तो ट्रेन उनकी पहुँच में होती। परंतु सिग्नल फालिया पर (प्लेटफार्म नहीं
होने के कारण) गाड़ी की ऊँचाई के कारण इसे बाहर से जलाया नहीं जा सका। इस कारण हमलावरों
में से कुछ लोग बगल वाली बोगी एस-७ के प्रवेश द्वार (vestibule) को काटकर बोगी एस-६ में घुसे,
एस-६ को अंदर से आग लगा दी और बाहर आ गए।

उस समूह के पास पेट्रोल बॉम्ब, एसिड बॉम्ब और तलवारें भी थीं, ऐसी ख़बरें थीं। हमलावरों ने
बोगी में पेट्रोल डालकर बोगी को जला दिया। बोगी के चारों ओर २ हज़ार हमलावर खड़े थे ताकि
बोगी से रामसेवक बाहर न आने पाएँ, और भाग कर अपनी जान न बचा पाए [इसे सुनिश्चित करने
के लिए उन्होंने ट्रेन पर पत्थरबाजी की]। अंदर आग और बाहर २ हज़ार सशस्त्र मुसलमान हमलावर,
इस दोहरे संकट में रामसेवक फँस गए। इसमें ५९ रामसेवक अत्यंत भीषण तरीक़े से जलकर मृत्यु को
प्राप्त हुए। २७ फरवरी को दिन में ५७ शव मिले और एक बालक का शव देर रात को मिला, और एक
घायल व्यक्ति ३ अप्रैल २००२ को मरा, जिससे कुल मृत संख्या ५९ हुई। अनेक मृतदेह अत्यंत
भयानक रूप से जलकर ख़ाक हुए। मृतकों में २५ महिलाएँ और १५ बच्चे थे, जिसमें ऐसे बच्चे भी थे

जिन्होंने अभी-अभी चलना सीखा था, कुछ चल भी न सकने वाले शिशु (मुन्ना/babies) थे, और साथ
ही महिलाओं समेत ६५ वर्ष से अधिक के वरिष्ठ नागरिक भी थे।

अग्निकांड से बची हुई १६ वर्षीय बालिका का कथन

२७ फरवरी को लौटने वाले रामसेवकों में १६ साल की ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ने वाली बालिका
गायत्री पांचाल भी थी। उस अमानवीय, क्रूर अग्निकांड की गायत्री एक प्रत्यक्षदर्शी गवाह है (जो खुद
सौभाग्य से बची), जिसने अपनी आँखों के सामने अपने माता, पिता, और दो बहनों को ज़िंदा जलते
हुए देखा।

गुजरात के रमोल (अहमदाबाद के निकट का स्थान) गाँव के निवासी हर्षदभाई पांचाल २२ फरवरी
२००२ को अयोध्या में कारसेवा के लिए रवाना हुए। उनके साथ उनकी पत्नी नीताबेन, तीन बेटियाँ
प्रतीक्षा, छाया और गायत्री भी थीं। साथ में हर्षदभाई की साली, उसका बेटा, उनकी पड़ोसन पूजाबेन
और उसका भावी पति भी थे।

लौटते समय हर्षदभाई और उनका परिवार, पूजाबेन और उसका भावी पति एक कम्पार्टमेंट में थे
और उनकी साली, साढ़ू और उनका बेटा दूसरे कम्पार्टमेंट में थे। इन १० लोगों में से बची हुई एकमात्र
व्यक्ति गायत्री ने इस भीषण घटना के बारे में कहा:-

“२७ फरवरी को प्रातः ८ बजे के आसपास गाड़ी ने गोधरा स्टेशन छोड़ा। कारसेवक तेज़ आवाज़ में रामधुन
का घोष कर रहे थे। गाड़ी कुछ मीटर चली नहीं कि अचानक रुक गई। गाड़ी रोकने के लिए शायद किसी ने
ज़ंजीर खिंची थी। क्या घटित हुआ यह किसीको समझने से पहले ही हमने देखा कि एक बहुत बड़ा समूह गाड़ी
की ओर बढ़ रहा है। लोगों के हाथों में तलवारें, गुप्तियाँ, भाले तथा इस तरह के अन्य भयानक शस्त्र थे और
लोग गाड़ी पर पत्थरबाज़ी कर रहे थे। हम सब घबरा गए और हमने बड़ी मुश्किल से किसी तरह कम्पार्टमेंट की
खिड़कियाँ और दरवाज़े बंद कर दिए। गाड़ी के बाहर के लोग ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहे थे “मारो! काटो!” और
गाड़ी पर हमला कर रहे थे। पास ही के मस्जिद के एक लाउडस्पीकर से तेज़ आवाज़ में ‘मारो! काटो! लादेन ना
दुश्मनों ने मारो!’ (‘मारो! काटो! लादेन के शत्रुओं को मारो!) की घोषणाएँ हो रही थीं। हमलावर इतने प्रखर थे
कि उन्होंने गाड़ी की खिड़कियाँ तोड़ दीं और बाहर से दरवाज़े बंद कर दिए। इसके बाद उन लोगों ने गाड़ी में
पेट्रोल डाला और कम्पार्टमेंट में आग लगा दी ताकि कोई भी ज़िंदा न बच पाए। इससे पहले अनेक हमलावर
कम्पार्टमेंट में ज़बरदस्ती से घुसे। उन्होंने रामसेवकों को पीटा और उनका सामान लूट लिया। लूटपाट के बाद
कम्पार्टमेंट में पेट्रोल डाल दिया। हम घबरा गए थे और मदद के लिए चिल्ला रहे थे। परंतु हमारी सहायता के
लिए वहाँ था ही कौन? बाद में कुछ पुलिस कर्मचारी कम्पार्टमेंट की ओर आते दिखे, परंतु गुस्सैल हिंसक समूह
ने वहाँ से उनको भी हटा दिया। कम्पार्टमेंट में इतना अधिक धुआँ भर गया था कि हम लोग एक दूसरे को नहीं
देख पा रहे थे और धुएँ के कारण सभी का दम घुट रहा था। कम्पार्टमेंट के बाहर निकलना अत्यंत मुश्किल था।
परंतु मैं और पूजा किसी तरह खिड़की से कूद कर बाहर आए। खिड़की से कूदने के कारण पूजा को पीठ मे चोटें

आईं जिससे वह उठ भी नहीं पा रही थी। गाड़ी के बाहर खड़े लोग हमें पकड़ने के लिए हमारे पीछे दौड़े पर हम
वहाँ से भाग कर जलती हुई गाड़ी के नीचे पहुँचने में सफल हुए और गाड़ी के नीचे रेंगते हुए केबिन तक पहुँचे।
मैंने, मेरे माता-पिता और दो बहनों को मेरी आँखों के सामने ज़िंदा जलते हुए देखा है।”

भाग्यवश गायत्री ज़्यादा बुरी तरह ज़ख़्मी नहीं हुई थी। आगे उसने बताया: “हम जैसे तैसे स्टेशन
तक पहुँचने में सफल हो गए, और वहाँ हमारी मौसी से भेंट हुई। गाड़ी की बोगी पूरी तरह जलने के बाद
हमलावरों का समूह वहाँ से बिखर गया। हमने देखा कि उस समूह में भी स्त्री, पुरुष और हमारे जैसे युवा भी
थे—लड़के भी और लड़कियाँ भी। परिवार के शवों को गोधरा स्टेशन पर लाने (evacuating) के बाद मैं यहाँ
वापिस आई। हमारे साथ के १८ लोगों में से १० लोगों ने अपने प्राण गँवाए।”

गायत्री के पिता सुतारी (बढ़ई/Carpenter) का काम करते थे और उसकी माँ विद्यालय में
मध्याह्न भोजन योजना में काम करती थी। बड़ी बहन प्रतीक्षा ज़िलाधिकारी कार्यालय (कलेक्टरेट) में
नौकरी करती थी। इतना सब कुछ घटित होने के बाद भी गायत्री को अभी भी लगता है कि अगर
मौका मिला तो वह कभी भी कारसेवा के लिए जा सकती है। उसने कहा: “मेरे माता-पिता का बलिदान
मैं व्यर्थ नहीं जाने दूँगी”। (संदर्भ: विश्व संवाद केंद्र, गुजरात, और अनेक अंग्रेज़ी अख़बार जैसे २८
फरवरी २००२ का ‘इंडियन एक्सप्रेस’)

कुछ विदेशी समाचार-पत्रों ने ‘असोसिएटेड प्रेस’ का हवाला देकर अपनी ख़बर में कहा कि:
“अयोध्या में धार्मिक कार्यक्रम में भाग लेकर वापस लौटते समय हुए अग्निकांड में १६ वर्षीय गायत्री पांचाल ने
अपने माता पिता और दो बहनों को उस अग्निकांड में जल कर मरते हुए अपनी आँखों से देखा। ‘…जिधर भी
देखो चारों ओर अग्नि की ज्वालाएँ फैली हुईं थीं। मेरी माँ जल रही थी, उसके कपड़े जल रहे थे। बाद में मेरे
पिताजी का मृत शरीर ले जाते हुए मैंने देखा। उनका मृत शरीर संपूर्णतः काला हो गया था। उसके बाद मैं
बेहोश हो गई’।”
(संदर्भ:https://www.mrt.com/news/article/Violence-Spreads-Across-Indian-State-
7754265.php
)
एक दलित कारसेवक, उमाकांत गोविंदभाई नामक २५ वर्षीय युवक कलेक्टर कार्यालय में काम
करता था। उमाकांत जलते हुए डिब्बे के बंद दरवाज़े को तोड़कर बाहर निकलने प्रयास कर रहा था,
हमलावरों ने उसपर पत्थरबाज़ी की और बाँसो से उसे जलते हुए डिब्बे में धकेला, ऐसा उल्लेख डॉ.
सुवर्णा रावल ने दैनिक मराठी समाचार-पत्र ‘तरुण भारत’ में दिनांक २१ जुलाई २००२ को लिखे हुए
लेख में किया है।

इस घटना के एक वर्ष के बाद २७ फरवरी २००३ को ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने कहा:

“चार पांचाल बहनों—कोमल (२०), अवनी (१९), गायत्री (१७), और प्रियंका (१५) के लिए बीता हुआ पूरा वर्ष
अश्रुओं से भरा था। २७ फरवरी के गोधरा हत्याकांड की क्रूरतम घटना में उनके पिता हर्षद पांचाल, माता मीता
पांचाल व बहनों प्रतीक्षा और छाया की मृत्यु हुई। और, इसके बाद उनका जीवन पहले जैसा कभी नहीं रहा।
इसका परिणाम—मैट्रिक (दसवी कक्षा की बोर्ड परीक्षा) में उत्तम श्रेणी से उत्तीर्ण हुई (टॉपर रहने वाली) गायत्री
अब बीमार रहती है और बारहवीं का अभ्यास पूरा करने के लिए संघर्षरत है। अपने पालकों को गँवाने के बाद
ये लड़कियाँ अनेक बार रात को आँखों में अश्रु लेकर सोने के लिए जाती हैं, क्योंकि उस भीषण घटना की याद
प्रतिदिन आती है। कोमल कहती है, ‘हम अपनी ज़िंदगी जीने का प्रयास कर रहे हैं परंतु यह कठिन है। पालकों
के प्रेम के बग़ैर सारा जीवन निरर्थक लगता है’।”
(संदर्भ: http://articles.timesofindia.indiatimes.com/2003-02-
27/ahmedabad/27273391_1_godhra-victims-panchal-family-panchal-sisters
)

गोधरा के जैसा नरसंहार स्वतंत्र भारत में तब तक कहीं देखने को नहीं मिला था। अन्य किसी भी
घटना, जैसे इंदिरा गांधी की हत्या या केरल के कन्नूर ज़िले में हुए क्रूर राजनैतिक हत्याकांड (जो
ज़िला हिंसक मुठभेड़ों के लिए जाना जाता है) के साथ भी गोधरा हत्याकांड की तुलना नहीं हो सकती।
गांधीनगर में अक्षरधाम मंदिर पर २४ सितंबर २००२ को हुआ आतंकी हमला या भारत में अन्य
मंदिरों पर हुए हमले और देशभर में विभिन्न स्थानों पर हुए भीषण बम धमाके, इनमें से किसी की
भी तुलना गोधरा के भीषणतम हत्याकांड से नहीं हो सकती।

गोधरा हत्याकांड यह अचानक भड़का हिंसाचार या आतंकी हमला नहीं था। कई लोग इसे
आतंकवादी कृत्य कहते हैं। परंतु आतंकवाद पूरी तरह अलग होता है। आतंकवादी घटनाओं की वेदना
क्षणभर के लिए टिकती है (momentary pain)। इंदिरा गांधी (१९१७-१९८४) की हत्या गोली मारकर
की गई। कहीं भी होने वाली हत्याएँ आमतौर पर चाकू घोंपकर या गोली मारकर होती हैं।
परंतु गोधरा वह नहीं था। वह उससे कहीं ज़्यादा बुरा था। यह सच्चे आतंकवाद का नहीं बल्कि
पूर्वनियोजित अमानवीयता का कृत्य (act of sadistic barbarism) था। गोधरा का अग्निकांड एक
या दो आतंकवादियों ने नहीं किया। यह कार्य एक समूह ने किया, पाँच सौ से अधिक का जनसमूह
जो सर्वसामान्य नागरिकों का था, जिन्होंने आतंकी प्रशिक्षण नहीं लिया। और वे एके-४७, एके-५६ की
रायफ़लें या ग्रेनेड्स धारी आतंकवादी नहीं थे। ये लोग विदेशी नहीं थे बल्कि स्थानीय नागरिक थे।
गोधरा का यह धर्मांध, भीषण, आपराधिक और पूर्वनियोजित कृत्य स्थानीय मुसलमानों ने किया।

अंग्रेज़ी माध्यमों की प्रतिक्रिया

गोधरा हत्याकांड के बाद पहले तीन दिन गुजरात में भड़के दंगे केवल गोधरा की घटना का
परिणाम नहीं थे। वह अन्य कुछ दूसरी बातों का भी परिणाम थे और ये अन्य कुछ दूसरी बातें यानी
गोधरा घटना के बाद वामपंथी-उदारमतवादी-‘धर्मनिरपेक्ष’ माध्यमों और नेताओं की प्रतिक्रिया थी।

इसमें सामान्य तौर पर मिडिया, विशेष कर स्टार न्यूज़ और एन.डी.टी.वी. (उस समय उन दोनों
की भागीदारी थी) जैसे टी.वी. चेनेल (वाहिनियाँ), लगभग सभी अंग्रेज़ी समाचार पत्रों के संपादक और
भाजपा, शिवसेना के अलावा लगभग सभी राजनैतिक नेता इस वामपंथी, उदारमतवादी, ‘धर्मनिरपेक्ष’
समूह में शामिल थे। २७ फरवरी २००२ को देश के सभी टी.वी. वाहिनियों पर अपनी प्रतिक्रिया देने
वाले, गैर-भाजपा के लगभग प्रत्येक व्यक्ति ने- राजनेता या पत्रकार, यह बताकर कि गोधरा हत्याकांड
कैसे न्यायसंगत है (justified), या कैसे तर्कसंगत (rationalizing) है, लोगों के ज़ख्मों पर नमक
छिड़कने का काम किया। विदेशी समाचार पत्र तो भारतीय माध्यमों से भी ज़्यादा बुरे थे। इसे हम
बाद में देखेंगे।

उस समय ‘द हिंदुस्तान टाइम्स’, इस अंग्रेज़ी समाचार-पत्र के मुख्य संपादक वीर संघवी (जन्म
१९५६) थे। ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ के २८ फरवरी २००२ के अंक में उन्होंने ‘वन वे टिकट’ नामक लेख
लिखा था। यह लेख गोधरा हत्याकांड की घटना के दिन, २७ फरवरी को ही लिखा गया होगा। यह
सम्पूर्ण लेख इसप्रकार है:

“गोधरा में हुए हत्याकांड पर धर्मनिरपेक्षतावादी कहे जाने वाले सभी, जिसे कहां जा सकता हैं धर्मनिरपेक्ष
संस्थान, की ओर से आई हुई प्रतिक्रिया में कुछ अत्यंत चिंताजनक है। हालाँकि विवरणों के संबंध में कुछ वाद-
विवाद है, परंतु रेलमार्ग पर क्या घटित हुआ यह अब हम जानते हैं। गोधरा स्टेशन छोड़ने के बाद कुछ-ही देर
में साबरमती एक्स्प्रेस को दो हज़ार लोगों के समूह ने रोका। अयोध्या में पूर्णाहुति यज्ञ में सहभागी होने के बाद
अहमदाबाद वापिस लौटने वाले करसेवकों से गाड़ी की अनेक बोगियाँ भरी थी। लोगों के समूह ने गाड़ी पर
पेट्रोल और एसिड बमों से हमला किया। कुछ गवाहों के अनुसार विस्फोटकों का भी उपयोग किया गया। चार
बोगियाँ जल गईं और कम-से-कम ५७ लोग ज़िंदा जल गए, जिसमें दर्जन से अधिक बच्चों का भी समावेश था।
कुछ वर्णनों के अनुसार कारसेवकों ने मुस्लिम-विरोधी घोषणाबाज़ी की, तो कुछ के अनुसार उन्होंने मुस्लिम
यात्रियों को चिढ़ाया और परेशान किया। इन वर्णनों के अनुसार मुस्लिम यात्री गोधरा स्टेशन पर उतरे और
उन्होंने अपने समाज के लोगों की सहायता माँगी। कुछ लोगों के अनुसार स्थानीय मुस्लिमों को भड़काने के लिए
घोषणाएँ ही काफ़ी थी और यह हमला एक बदला था।

इन वर्णनों में कितनी सच्चाई है, इसे जाँचने में थोड़ा समय लगेगा, पर कुछ बातें एकदम स्पष्ट लगती हैं।
किसी ने भी यह नहीं कहा कि हिंसाचार कारसेवकों ने शुरू किया। सबसे बुरा यह कहा गया है कि कुछ यात्रियों
के साथ उन्होंने दुर्व्यवहार किया। साथ ही में, यह आश्चर्यजनक लगता है कि चलती गाड़ी में या प्लेटफार्म पर
की गई घोषणाएँ स्थानीय मुसलमानों को भड़काने के लिए पर्याप्त थीं, उनमें से दो हज़ार लोगों को प्रातः ८ बजे
तत्काल एकत्रित होने के लिए काफ़ी थी, और उन्हें पेट्रोल बम, एसिड बम लेकर आने का समय भी मिला।

कुछ कारसेवकों का यह कहना कि यह हमला पूर्वनियोजित था और लोगों का समूह तैयार था और गाड़ी का
इंतज़ार कर रहा था, इस पर आपको संदेह भी हो, तो भी इस बात को कोई नकार नहीं सकता कि जो कुछ
हुआ वह असमर्थनीय था, अक्षम्य था और किसी भी कारण का (उकसाने वाला) परिणाम नहीं माना जा सकता।
परंतु फिर भी धर्मनेरपेक्ष संस्थान ने बिलकुल इसी तरह की प्रतिक्रियाएँ दी हैं।

बुधवार (२७ फरवरी २००२) को टी.वी. चैनलों पर आने वाले भाजपा सदस्यों को छोड़कर लगभग अन्य सभी
नेता और लगभग सभी माध्यमों ने गोधरा हत्याकांड को ‘अयोध्या आंदोलन की प्रतिक्रिया’ बताया। हत्याकांड के
पीड़ित कारसेवक थे, यहाँ तक यह अवलोकन ठीक है।

परंतु लगभग किसी ने भी आगे की स्वाभाविक स्पष्ट बात नहीं कही—यह हमला स्वयं कारसेवकों ने अपने
ऊपर आमंत्रित नहीं करवाया। दिसंबर १९९२ में बाबरी मस्जिद ढहाने के बाद विहिंप के स्वयंसेवकों पर वापिस
लौटते समय यदि इस तरह का हमला होता, तो भी वह ग़लत ही होता, परंतु कम-से-कम गुस्सा किस कारण से
भड़का यह समझा जा सकता था।

लेकिन इस बार ऐसा किसी प्रकार का उत्तेजक कृत्य बिलकुल ही नहीं हुआ। यह संभव है कि सरकार और
न्यायालयों के आदेशों को ठुकराकर विश्व हिंदू परिषद राम मंदिर का निर्माण शुरू करेगा। पर अब तक ऐसा
नहीं हुआ है। इतना ही नहीं अब तक अयोध्या में भी किसी प्रकार का कोई असली संघर्ष नहीं हुआ है।
लेकिन फिर भी सभी धर्मनिरपेक्षतावादियों का यही कहना है कि ‘कारसेवकों का यह हत्याकांड तो होना ही
था’।

मूलतः वे हत्याकांड का निषेध करते हैं, पर दोष पीड़ितों को देते हैं।

हम (अर्थात् ‘धर्मनिरपेक्षता’वादी लोग) भारत में जिस प्रकार की धर्मनिरपेक्षता के संदर्भ में यह घटना (गोधरा)
देखते हैं, उस संदर्भ से इस घटना को बाहर निकालकर अन्य किसी दूसरे संदर्भ में देखने की कोशिश की जाए
तो इस तरह की मनोवृत्ति कितनी विचित्र लगती है देखिए। पिछले वर्ष ट्विन टॉवरों (Twin Towers of the
World Trade Centre in New York i.e. ९/११) पर हमला हुआ तब क्या ‘न्यूयार्क पर यह हमला तो होना
ही था’ ऐसा हमने कहा था? उस समय भी अमेरिका कि नीतियों को लेकर मतांध मुसलमानों के मन में काफ़ी
नाराज़गी थी। परंतु हमने यह भी नहीं सोचा की यह नाराज़गी सही है कि नहीं।

इसके बजाय हमने वह भूमिका ली जो सभी समझदार लोगों ने लेनी चाहिए—कि कोई भी नरसंहार बुरा होता
है और उसका निषेध किया जाना चाहिए।

ग्राहम स्टेंस और उसके बच्चों को ज़िंदा जला दिया गया, उस समय क्या हमने ‘ईसाई मिशनरियों ने
धर्मांतरण करने के कारण स्वयं को कुप्रसिद्ध किया था और इस कारण यह तो होना ही था’, ऐसा कहा था?
नहीं, अर्थात् ही हमने ऐसा नहीं कहा।

तो ये बेचारे ग़रीब कारसेवक ही इसके लिए क्यों अपवाद हैं? इन कारसेवकों की मानवता को हम इतना क्यों
नकार रहे हैं कि हम इस भीषण घटना को एक दु:खद मानवीय शोक के रूप में भी नहीं देखते है, जो वह
निश्चय ही थी, और उसे ‘विहिंप की मतांध नीतियों का ही परिणाम है’, ऐसा समझते हैं?

मुझे संदेह है इसका उत्तर यह है कि हिंदू-मुस्लिम संबंधो को देखने के बारे में हमारी ‘प्रोग्रामिंग’ इस तरह हुई
है कि—हिंदू भड़काते हैं और मुस्लिम मार खाते हैं। (“We are programmed to see Hindu-Muslim
relations in simplistic terms; Hindus provoke, Muslims suffer.”)

जब यह सूत्र चल नहीं सकता—अब यह स्पष्ट है कि (गोधरा की घटना में) निःशस्त्र हिंदुओं को एक बड़े
सशस्त्र मुस्लिम समूह ने मार डाला—तब हमें (‘धर्मनिरपेक्ष’ लोगों को) पता ही नहीं कि इसका सामना कैसे किया जाए, किस प्रकार की प्रतिक्रिया दी जाए। हम सत्य से दूर भागते हैं—कि कुछ मुसलमानों ने एक ऐसा
कृत्य किया जिसका समर्थन करना संभव नहीं है—और घटना में मारे गए लोगों को, पीड़ितों को दोष देने का
रास्ता चुनते हैं।

अर्थात्, ऐसी भूमिका लेने के लिए हमारे पास ‘तर्कसंगत कारण’ होते है। मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं इसीलिए वे
विशेष विचार के लिए पात्र हैं (deserve ‘special consideration’), मुसलमान पहले से ही भेदभाव के शिकार
होते हैं, तो उनके लिए और मुश्किल स्थिति क्यों बनाई जाए? यदि आप सच्चाई बताते हैं, तो हिंदुओं की
भावनाएँ भड़केंगी और यह एक ग़ैरज़िम्मेदार कृत्य होगा। इस तरह के अन्य कई कारण दिए जाते हैं। यह सारे
कारण मुझे भलीभाँति पता है, क्योंकि—अन्य अधिकांश पत्रकारों की तरह—मैंने ख़ुद ने ही उनका उपयोग किया
है। और कई बार ये कारण योग्य और आवश्यक भी होते हैं, यह आज भी मैं कहता हूँ।

पर अंत में एक समय ऐसा आता है जब इसप्रकार का कट्टर ‘धर्मनिरपेक्ष’ व्यवहार न सिर्फ़ मर्यादा पार कर
जाता है, बल्कि उसका परिणाम विपरीत भी होता है। जब सबको यह स्पष्ट दिखता हैं कि रेलगाड़ी भरे हिंदुओं
का एक मुस्लिम समूह ने हत्याकांड किया, तब हत्याओं के लिए विहिंप को दोषी ठहराने से या यह कहने से कि
मृत महिला और पुरुष इस हत्याकांड के लिए स्वयं ज़िम्मेदार हैं, कुछ साध्य नहीं होता। (और उन बच्चों का
क्या? क्या वो भी अपनी हत्याओं के लिए ज़िम्मेदार थे?)

इसप्रकार की बातें करने से मृतकों का (बच्चों का भी) अपमान तो होता ही है, पर पाठकों की बुद्धिमत्ता का
भी अपमान होता है। विहिंप के विरोधी, उदारमतवादी हिंदू भी अब गुजरात से आने वाले समाचारों से बहुत
रोषित हैं, जैसे कि रेलवे बोगी को बाहर से पहले बंद कर दिया गया और बाद में आग लगा दी गई, और किस
प्रकार महिलाओं की बोगी को सर्वाधिक नुकसान हुआ। इन समाचारों से १९४७ के समय (विभाजन) की दुःखद
स्मृतियाँ जागृत हो गई हैं।

सर्वसमान्य व्यक्तियों की प्रामाणिक चिंताओं पर यदि मीडिया या किसी भी धर्मनिरपेक्ष संस्था ने ध्यान नहीं
दिया तो स्वयं उनकी विश्वासार्हता जाने का ख़तरा रहता है। ऐसा ही कुछ १९८० के दशक में हुआ, जब मीडिया
और सरकार द्वारा ली गई अत्यधिक आक्रामक धर्मनिरपेक्ष भूमिका के कारण उदारमतवादी हिंदुओं को भी
विश्वास हुआ कि वो अपने ही देश में दूसरे दर्जे के नागरिक बन गए हैं। इस बात से हुए हिंदू प्रतिकार के
कारण ही अयोध्या आंदोलन आगे आया (सम्मुख), एक प्रमुख राजनैतिक केंद्र बनकर उभरा, जो कि तब तक
बिलकुल ही छोटा सा आंदोलन था, और इसी से लालकृष्ण आडवाणी की भाजपा का उदय हुआ।

मुझे डर लगता है कि पुनः ऐसा ही कुछ होगा। “ग्रैहम स्टेंस को ज़िंदा जलाया जाता है तो वह अत्यंत दुःखद
घटना है, लेकिन ५७ रामसेवक जलाकर मार डाले जाते हैं, तब वह मात्र ‘अपरिहार्य राजकीय घटना’ होती है,
ऐसा क्यों?” इसप्रकार का स्वाभाविक हिंदुओं का सवाल विहिंप हिंदुओं के सामने रखेगी।

क्योंकि, धर्मनिरपेक्षतावादी होने के नाते हम इस सवाल का कोई भी अच्छा उत्तर नहीं दे सकते, इसलिए हिंदू
विहिंप की प्रतिक्रियाओं पर ही विश्वास रखेंगे। हिंदुओं को फिर से लगेगा कि उनपर होने वाले अत्याचारों की
चिंता किसी को नहीं है। धर्मनिरपेक्षतावादियों द्वारा हिंदुओं पर होने वाली यातनाओं की उपेक्षा किए जाने के
परिणामस्वरूप इस पर विजय पाने के लिए हिंदू अस्मिता के प्रतीक के रूप में अयोध्या में राम मंदिर के
निर्माण के लिए वे प्रलोभित होंगे, इसमें ही वे अपनी सार्थकता खोजेंगे।

परंतु अगर ऐसा कुछ नहीं हुआ, और हिंदुओं द्वारा किसी प्रतिरोध का कोई ख़तरा न भी हो, तो भी मुझे
लगता है कि धर्मनिरपेक्षतावादियों को थोड़े समय के लिए रुक कर विचार करना चाहिए।

हमें अपने आपसे एक प्रश्न पूछने की आवश्यकता है—क्या हम अपनी ही नीतियों में, आरोपों में, के इस हद
तक कैदी हो गए हैं कि एक भयानक हत्याकांड भी केवल संघ-परिवार को ठोंकने का प्रसंग बन जाता है?

(संदर्भ:http://www.hvk.org/specialreports/guild/1.html )
इस लेख को आज वीर संघवी की वैयक्तिक वेबसाइट पर भी पढ़ा जा सकता है। http://www.virsanghvi.com/Article-Details.aspx?key=611

वीर संघवी ने जब यह लेख लिखा तब गुजरात में दंगों की शुरूआत नहीं हुई थी। पर उनके लेख
से लगता है कि गोधरा हत्याकांड पर ‘पंथनिरपेक्षता’वादियों की अमानुष प्रतिक्रियाओं के बाद गुजरात
में प्रतिकार होने वाला है, इस बात का उन्हें पता था। उनके केवल दो वाक्यों को देखिए—“विहिंप के
विरोधी, उदारमतवादी हिंदू भी अब गुजरात से आने वाले समाचारों से बहुत रोषित हैं, जैसे कि रेलवे बोगी को
बाहर से पहले बंद कर दिया गया और बाद में आग लगा दी गई, और किस प्रकार महिलाओं की बोगी को
सर्वाधिक नुकसान हुआ” और “मुझे डर लगता है कि पुनः ऐसा ही कुछ होगा”।

वीर संघवी के इस लेख के ज़रिये हर बात का स्पष्टीकरण मिल जाता है, केवल गोधरा के बारे में
ही नहीं, बल्कि गोधरा के बाद जो कुछ हुआ उसका भी। इस इक़बालिया बयान वाले लेख के कारण
ख़ुद को ‘धर्मनिरपेक्षता’वादी कहलाने वाले सभी संपादकों का अन्य सभी मुद्दों पर (उदाहरण के लिए
देश में हुए सभी सांप्रदायिक दंगे और हिंदू तथा अल्पसंख्यकों के बीच संघर्ष, और इस पर
‘धर्मनिरपेक्षता’वादियों द्वारा दिया हुआ प्रतिसाद) व्यवहार का भी पता चलता है।

उनका यह वाक्य देखिए, “हिंदू मुस्लिम संबंधो को देखने के बारे में हमारी ‘प्रोग्रामिंग’ इस तरह हुई है
कि—हिंदू भड़काते हैं और मुस्लिम मार खाते हैं”। (“We are programmed to see Hindu-Muslim relations in simplistic terms; Hindus provoke, Muslims suffer.”)

वीर संघवी द्वारा छद्म-धर्मनिरपेक्षता (pseudo-secularism) का यह पहला और सबसे बड़ा
क़बूलनामा है—केवल ख़ुद के लिए नहीं बल्कि सभी स्वयंघोषित धर्मनिरपेक्षतावादियों के लिए

भड़काता कोई एक है, और अत्याचार किसी और पर ही होता है, इस तरह की पूर्वाग्रह-दूषित
भावनाओं से किसी घटना को देखने पर देखने वाले के नैतिक और मानसिक दिवालियापन का भी
पता चलता है। विहिंप के कार्यकर्ताओं ने किसी मुस्लिम पर हमला किया हो या मुस्लिमों ने विहिंप
कार्यकर्ताओं के साथ मारपीट की हो या उन्हें जला दिया हो, कुछ भी हुआ तो भी स्वघोषित
धर्मनिरपेक्ष संपादक केवल विहिंप को ज़िम्मेदार ठहराएँगे और उसे ठोक डालेंगे। प्रत्यक्ष रूप से क्या
घटना हुई, दोष किसका है, किस पर अत्याचार हुआ, इसकी जाँच पड़ताल न करते हुए आँखें बंद
करके प्रत्येक हिंदू-मुस्लिम संघर्ष में ये केवल एक गुट को ही ज़िम्मेदार ठहराएँगे—हिंदू गुट को।

कांग्रेस के ज्येष्ठ नेता कन्हैयालाल मुंशी (१८८७–१९७१) ने भी कुछ इसी तरह कहा था—“अगर कभी
भी सांप्रदायिक संघर्ष होने पर क्या घटित हुआ, इसका गुणवत्ता पर विचार न करते हुए यदि हर बार बहुसंख्यक
समाज को दोष दिया जाए… तो सहिष्णुता के पारंपरिक झरने सूख जाएँगे”। (संदर्भ: “Pilgrimage to
Freedom” by K. M. Munshi, p 312, प्रकाशक: भारतीय विद्या भवन)

इसी पृष्ठ पर उन्होंने आगे लिखा था—“जब बहुसंख्यक समाज सहिष्णु होता है तब अल्पसंख्यक समाज
को उनके साथ रहने के लिए अपने आपको बदलना चाहिए। अन्यथा भविष्य अनिश्चित है और एक बड़ा
विस्फोट रोकना असंभव है” (“an explosion cannot be avoided”)।

किसी भी घटना में उसकी गुणवत्ता पर जाँच न करते हुए, अबक ने क्षयज्ञ पर हमला किया या
इसके विपरीत हुआ, इसे न देखते हुए, अबक और क्षयज्ञ के नाम पर या उनकी पहचान पर (हिंदू व
मुसलमान) कौन दोषी है और कौन पीड़ित है यह निश्चित करना दर्शाता है कि ‘तटस्थ निरीक्षक’
(यहाँ, स्वघोषित धर्मनिरपेक्षतावादी) पूर्वाग्रह-दूषित भावनाओं से ग्रस्त हैं।

भारत में हिंदू-मुस्लिम संबंध वास्तव में कुछ अलग ही रहे हैं। अनेक बार अल्पसंख्यक समाज
द्वारा ही दंगों की शुरूआत की जाती है। कट्टर संघ-भाजपा विरोधी और वामपंथी पत्रकार गणेश
कनाटे ने ‘द हितवाद’ इस अंग्रेज़ी अख़बार में १५ अगस्त २००३ को उनके स्तंभ में लिखा था-
“मुसलमान दंगों की शुरूआत करते हैं और फिर वे उन्होंने ही शुरू किए दंगों में ज़बरदस्त मार खाते हैं”। गणेश
कनाटे ने भी कहा कि अधिकांश दंगों की शुरूआत मुसलमान करते हैं। 

कांग्रेस सरकार के ही गृहमंत्रालय ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि वर्ष १९६८ से १९७० के दौरान भिवंडी (महाराष्ट्र) में हुए २४ दंगों में से २३ दंगों की शुरूआत मुस्लिमोंने की। इस रिपोर्ट का उल्लेख पूर्व प्रधानमंत्री अटल
बिहारी वाजपेयी (१९२४-२०१८) ने १४ मई १९७० को संसद में दिए अपने भाषण में किया था। 

यह लेखक स्पष्ट करता है कि उसे ऐसा लगता है कि किसी भी समाज के बारे में पूर्वाग्रह न रखते हुए
प्रत्येक दंगे पर स्वतंत्र रूप से विचार करते हुए, इसकी जाँच करके कि उसमें कौन दोषी है, यह
गुणवत्ता के आधार पर सुनिश्चित किया जाना चाहिए।

‘BJP vis-à-vis Hindu Resurgence’ इस पुस्तक में बेल्जियम के विश्व-प्रसिद्ध विद्वान डॉ.
कोनराड एल्स्ट ने कहा है: “दूसरा उदाहरण है दंगों के समाचारों का। अधिकांश दंगे मुसलमानों द्वारा शुरू
किए जाने पर भी (उदा. दिसंबर १९९२ व जनवरी १९९३ के मुंबई के दंगे) उनका समाचार देते समय विश्व
मीडिया में ‘पूरी तरह से तैयार हिंदुओं के सशस्त्र मृत्यु गुटों (‘death squads’) द्वारा बेचारे असुरक्षित मुस्लिमों
का नरसंहार हुआ’, इसप्रकार से व्यवस्थित ढंग से समाचार दिए जाते हैं। पत्रकारों और विद्वानों के संदर्भों में
वर्ष १९९० में आडवाणी की वास्तविक शांतिपूर्ण रथ-यात्रा यह एक ‘हिंसक, रक्तरंजित ख़ूनी यात्रा’ बन गई है।”

लगभग सभी ‘धर्मनिरपेक्ष’ माध्यमों ने गोधरा की घटना को युक्तिसंगत (rationalize) बताया।
गोधरा कांड को युक्तिसंगत कहते हुए वह उसे न्यायसंगत (justified) नहीं मानते, इस तरह का
स्पष्टीकरण भी अधिकांश लोगों ने दिया। परंतु वस्तुतः उन्होंने गोधरा अग्निकांड को युक्तिसंगत तो
बताया पर कुछ हद तक इसे न्यायसंगत भी बताया।

माध्यमोंने फैलाए हुए ‘उकसाहट’ के झूठ

वीर संघवी के बताए अनुसार कुछ लोगों ने यह कहा कि रामसेवकों ने मुस्लिम-विरोधी
घोषणाबाज़ी की, तो कुछ लोगों ने कहा कि उन्होंने मुस्लिम यात्रियों को परेशान किया। पहले तो यहीं
संपूर्णतः झूठ हैं। और दूसरा, ये ‘उकसाने’ वाली बातों का केवल एक विस्तार, एक विवरण था। उनमें
से अधिकांश लोगों ने गोधरा हत्याकांड को विहिंप के राम मंदिर आंदोलन की ही प्रतिक्रिया कहा।
अयोध्या आंदोलन को ही इस हत्याकांड के लिए ‘उकसाने का कारण’ बताया गया।

‘इंडिया टुडे’, ‘द वीक’, ‘आउटलुक’ इन साप्ताहिकों ने और ‘फ्रंटलाइन’ पाक्षिक ने अपने अंकों में
पूरी तरह से झूठी कहानियाँ प्रकाशित करके ‘उकसाने’ के काल्पनिक प्रसंगों को रचा, जैसे गोधरा
स्टेशन पर ‘मुस्लिम चाय वाले और रामसेवकों के बीच हुआ झगड़ा’ या स्टेशन से ‘रामसेवकोंने एक
मुस्लिम लड़की को भगाकर ले जाने का किया हुआ प्रयास’, या ऐसी अन्य कई झूठी बातें।

गोधरा हत्याकांड पूर्वनियोजित था, यह अच्छी तरह से मालूम होने के बावजूद भी अधिकांश
माध्यमों ने इसमें ‘उकसाने’ वाली बात को ज़बरदस्ती से ढूँढकर इसे ‘उत्सुर्फ्त’ कहकर इसे तर्कसंगत
बताने का प्रयास किया। वीर संघवी के ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ ने ही गोधरा हत्याकांड का वार्तांकन करते
समय २८ फरवरी २००२ को प्रथम पृष्ठ पर शीर्षक दिया था—‘अयोध्या के प्रतिकार का गुजरात को
झटका’। अर्थात् उन्होंने गोधरा हत्याकांड के लिए अयोध्या आंदोलन को मुख्य और सबसे बड़ा कारण
बताया, और वो भी इतना कि शीर्षक में मूल घटना का उल्लेख भी न करते हुए केवल ‘उकसाने’
वाली बात को ही बताया गया, जो भी पूर्णतः काल्पनिक थी। “गोधरा के भीषण हमले में ५८
रामसेवकों की जलाकर हत्या” इस तरह का भी कोई शीर्षक देने का कष्ट ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ ने नहीं
किया।

दक्षिण भारत में सबसे ज़्यादा पढ़े जाने वाले अंग्रेज़ी अख़बार “द हिंदू” ने अपने १ मार्च २००२ के
अंक में इस संदर्भ में लिखे अपने संपादकीय में कहा:

प्राणघातक चक्र

“बुधवार को हुए गोधरा (गुजरात) के भयानक अग्निकांड में साबरमती एक्स्प्रेस में ५० से अधिक लोगों को
जला डालने की घटना- जिनमें से अधिकांश अयोध्या से लौटने वाले कारसेवक थे- और उसके प्रतिकार स्वरूप
गुजरात में फैला नासमझ हिंसाचार, जिसमें समूहों ने अल्पसंख्यकों को लक्ष्य करके उनकी संपत्ति पर हमले
किए, दोनों घटनाएँ देशभर में बन रहे भड़काऊ सांप्रदायिक माहौल की ओर चिंताजनक संकेत हैं—जो अयोध्या में
राम मंदिर के निर्माण के लिए विश्व हिंदू परिषद् द्वारा देशभर में शुरू किए गए उत्तेजक और विध्वंसक
अभियान का सीधा परिणाम हैं। गोधरा में जो घटित हुआ, जिसके बारे में अलग-अलग और परस्पर विरोधी
संस्करण व्यक्त हुए हैं, उस भयंकर घटना का निःसंदेह कठोर शब्दों में निषेध किया जाना चाहिए और निष्पाप
लोगों की हत्या को योग्य ठहराने के लिए किसी भी उकसाने वाली बातों को बीच में नहीं लाया जा सकता।
सरकार द्वारा इस हत्याकांड के लिए दोषी लोगों का तत्काल पता लगाकर उन्हें जल्द से जल्द न्याय की
कसौटी पर परखने का कोई प्रयास कम नहीं पड़ना चाहिए। राज्य में बढ़ रही हिंसक घटनाओं को अनियंत्रित
होने से पहले ही नियंत्रण में लाए जाने के लिए जल्दी क़दम उठाने चाहिए और लोगों के मन में सुरक्षा की
भावना का फिर से निर्माण किया जाना चाहिए।
यह सब कहने के बाद एक कटु सत्य स्पष्ट रूप से बताया ही जाना चाहिए कि गोधरा जैसी भयंकर घटनाएँ
पूर्वकथनीय थी (पहले से ही पता था कि होने वाली है), विहिंप के आक्रामक धर्मांध आंदोलन के परिणाम में।
‘चाहे जो भी हो पर हम १५ मार्च से अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण शुरू करके रहेंगे’ यह रवैया रख कर
विहिंप अपना एजेंडा ले कर चल रही हैं, विहिंप द्वारा चलाए गए जनांदोलन में दस लाख से अधिक रामसेवकों
को एकत्रित किया गया—जिससे धर्मांधता की भावना फैलाने में मदद मिली। विहिंप और संघ-परिवार ने
तथाकथित ‘अविवादित’ ज़मीन के अधिग्रहण के लिए वाजपेयी सरकार को अल्टिमेटम दिया है। यह पूरा
आंदोलन क़रीब एक महीना पहिले गति लेने लगा, यह संघ परिवार की प्ररुपी (‘typical’) और बहुत परिचित
रणनीति का हिस्सा है… (शेष पूरे संपादकीय में विहिंप, संघ-परिवार की बहुत आलोचना की गई है, तथा
आडवाणी की १९९० की वास्तविक शांतिपूर्ण रथ-यात्रा के पूरे मार्ग पर सांप्रदायिक शांति भंग होने का
आरोप लगाया गया है।)”

गोधरा हत्याकांड के लगभग एक हफ्ते बाद एक दुर्भावनापूर्ण, विद्वेषपूर्ण मेल प्रसारित किया गया
था, जो एक इस्लामी वेबसाइट, जो समाचार पोर्टल होने का नाटक कर रहीं थी, से कॉपी किया गया
था। इस मेल में गोधरा के मृत कारसेवकों पर भयानक चरित्र हनन करने वाले और फर्जी आरोप
लगाए गए थे। प्रेमशंकर झा ने ‘आउटलुक’ के २५ मार्च २००२ के अंक में इसका खुलासा किया।
उन्होंने लिखा:

“मैं यह कॉलम मुख्य रूप से एक युवा लड़के से किया अपना वादा निभाने के लिए लिख रहा हूं। गोधरा में
ट्रेन जलाने के लगभग एक हफ्ते बाद दिल्ली, मुंबई, और एन आर्बर, मिशिगन (अमेरिका में) इतने दूर के
स्थानों पर एक रहस्यमय ई मेल प्रसारित होना शुरू हुआ था। इसमें गोधरा में ट्रेन के जलने की घटनाओं की
सच्ची कहानी बताने का नाटक किया गया था। ई-मेल में कहा गया था:

गोधरा रेलवे स्टेशन से लगभग 1 कि.मी. दूरी पर हुई साबरमती एक्स्प्रेस की दुःखद घटना ने उन लोगों पर
सवालिया निशान लगाता है जो धर्मनिरपेक्ष या उदार होने का दावा करते हैं। कई पहलुओं और तथ्यों की
अनदेखी की गई है जिन्हें मैं आपके सामने लाना चाहता हूँ । साबरमती एक्स्प्रेस के दो अन्य डिब्बो के साथ
डिब्बा क्रमांक एस-६ में विश्व हिंदु परिषद के कार्यकर्ता यात्रा कर रहे थे और डिब्बा क्रमांक एस-6 के कारसेवकों
के कारण यह घटना हुई । वास्तविक कहानी गोधरा से शुरू नहीं हुई थी जैसा कि हर जगह बताया जा रहा है,
परंतु यह कहानी शुरू हुई थी गोधरा रेलवे स्टेशन से पहले ७५ कि.मी. दूर दाहोद रेलवे स्टेशन से। सुबह करीब
५:३० से ६:०० बजे गाड़ी दाहोद रेलवे स्टेशन पहुंची। इन कारसेवकों ने स्टेशन पर चाय नाश्ते के बाद स्टाल
मालिक के साथ कुछ वादविवाद करके स्टाल की तोड़फोड़ की और निकलने वाली गाड़ी में वापिस चले गए। इस
घटना के बाद स्टाल मालिक ने कारसेवकों के विरुद्ध स्थानीय पुलिस स्टेशन में उक्त घटना के लिए एन सी
दाखिल की। इसके बाद प्रातः लगभग ७:०० से ७:१५ बजे के बीच गाड़ी गोधरा स्टेशन पर पहुंची। सभी
कारसेवक अपने आरक्षित डिब्बों से उतरकर प्लेटफॉर्म पर एक छोटे स्टाल पर चाय नाश्ता करने लगे, उस छोटे
स्टाल का मालिक एक दाढ़ीवाला वृद्ध व्यक्ति था जो अल्पसंख्यक समुदाय का था। स्टाल पर इस वृद्ध
व्यक्ति की सहायता के लिए एक नौकर था। कारसेवकों ने जानबूझकर उससे वादविवाद किया और उसके साथ
मारपीट की, उसकी दाढ़ी को नोंचा। यह सब योजनाबद्ध तरीके से उस वृद्ध व्यक्ति को अपमानित करने के
लिए किया गया क्योंकि वह अल्पसंख्यक समुदाय का था। ये कारसेवक बारबार नारेबाजी कर रहे थे “मंदिर का
निर्माण करो, बाबर की औलाद को बाहर करो”।

 यह शोर सुनकर स्टेशन पर मौजूद उस वृद्ध व्यक्ति की १६ वर्षीय बेटी आगे आई और कारसेवकों से अपने पिता का बचाव करने का प्रयास करने लगी। वह अपने पिता की मारपीट को रोकने के लिए कारसेवकों से दया की भीख मांगती रही, और विनती करती रहीं कि उसे छोड़ दे।
लेकिन उसकी मिन्नतें सुनने के बजाय करसेवकों ने उस लड़की को उठाकर कंपार्टमेंट एस-६ में ले गए और
कंपार्टमेंट के दरवाजे बंद कर दिए। गाड़ी गोधरा रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म से निकलने लगी थी। वह वृद्ध
व्यक्ति डिब्बे के दरवाजे को पीटता रहा और अपनी बेटी को छोड़ने के लिए जोर से बोलता रहा। गाड़ी के
प्लेटफॉर्म से बाहर निकलने से ठीक पहले दो स्टाल वेंडर गार्ड केबिन के बाद आने वाली अंतिम बोगी में कूद
गए और लड़की को बचाने के इरादे से उन्होंने जंजीर खींचकर गाड़ी को रोक दिया। जब गाड़ी पूरी तरह रुक गई
तब वह रेलवे स्टेशन से १ कि.मी. पर थी।
इसके बाद वे दोनो व्यक्ति उस बोगी में आए जिसमें वह लड़की थी और दरवाज़ा खटखटाना शुरू किया और
कारसेवकों से लड़की को छोड़ने का अनुरोध करने लगे। यह सब अफरातफरी सुन कर गाड़ी के आसपास के लोग
रेलवे ट्रेक पर इकठ्ठा होने लगे। लड़के और जमा भीड़ (जिसमें महिलाएं भी शामिल थीं) काररसेवकों से लड़की
को वापिस करने का अनुरोध करने लगे। लेकिन लड़की को वापिस करने के बजाय कारसेवकों ने डिब्बे की
खिड़कियाँ बंद कर दी। इससे भीड़ भड़क गई और उसने गाड़ी पर पथराव करके बदला लिया। डिब्बा क्रमांक
एस-६ से लगे हुए दोनों डिब्बों में वी.एच.पी. के कारसेवकों की भीड़ थी, ये कारसेवक लंबी काठियों में लगे हुए
बैनर अपने हाथों में लिए हुए थे। ये कारसेवक गाड़ी से नीचे उतरे और लड़की को बचाने के लिए इकट्ठी भीड़
पर काठियां बरसने लगे। इकट्ठी भीड़ के लिए इस घटना ने आग में घी का काम किया और भीड़ का गुस्सा
अनियंत्रित हुआ। भीड़ ने गेरेज में खड़े ट्रकों और रिक्शों से डीजल और पेट्रोल लाना शुरू कर दिया। उन्होंने
किसी भी पेट्रोल पंप से पेट्रोल नहीं लाया था जैसा कि हर जगह रिपोर्टिंग की जा रही है और न ही जलाने की
योजना पूर्व नियोजित थी, जैसा कि कई लोग इस बात का उल्लेख कर रहे हैं, बल्कि यह घटना केवल निराशा
और गुस्से का परिणाम थी। इस घटना के बारे में सुनकर इस क्षेत्र में रहने वाले वी. एच. पी. के कार्यकर्ताओं ने

सिग्नल फड़िया के गेरेजों में आग लगाना शुरू कर दिया, उन्होंने शहरा भागड़ (गोधरा का एक छोटा क्षेत्र) की
बादशाह मस्जिद को भी आग के हवाले कर दिया। विश्वसनीय सूत्रों ने इस घटना की यह साड़ी जानकारी इन
तथ्यों सहित मुझे दी और उनकी जानकारी पर कोई संदेह नहीं किया जा सकता। मैं अपने स्रोतों में श्री अनिल
सोनी और नीलम सोनी (रिपोर्टर गुजरात समाचार और पी. टी.आई. तथा ए.एन.आई. के सदस्य) का उल्लेख
करता हूँ जिन्होंने तथ्यो को खोज निकालने में कड़ी मेहनत की है और उनकी इस कड़ी मेहनत के लिए वे
प्रशंसा के पात्र हैं।
इसके बाद पत्र में सोनी के आवास, कार्यालय और मोबाइल नंबर दिए गए। कहानी कम से कम कहने के
लिए परेशान करने वाली थी। इसका अधिकांश भाग पहले ही छप चुका था, लेकिन अजीब विसंगतियां थी। क्या
कारसेवक अपने परिवार के सदस्य होने वाले कम्पार्टमेंट में लड़की को जबरन ले जाते? सोनी के मोबाइल नंबर
में 0098 लिखा था न कि 098। अंत मैं प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफ.आई.आर.) से परिचित था लेकिन एन. सी.
के बारे में मैंने कभी नहीं सुना था। इसीलिए अधिक जानकारी के लिए मैंने गोधरा में अनिल सोनी को फोन
किया। तभी मुझे मेरा पहला सरप्राइज़ (आश्चर्य) मिला। सोनी ने न केवल इस तरह की कहानी दर्ज करने से
स्पष्ट रूप से इंकार किया बल्कि कहा कि जो कुछ हुआ था वह उस कहानी के बिलकुल उलटा था। बातचीत के बीच दूसरे फोन कॉल ने व्यवधान डाला (पूछताछ से उनका जीवन दयनीय हो रहा था)। अगले दिन मैंने उसे दोबारा फोन लगाया तो वह बाहर था परंतु लाइन पर उसका युवा बेटा विमल मुझे मिल गया। विमल ने मुझे विस्तार से बताया कि पिता को वास्तव में त्रासदी वाले स्थान पर क्या पता चला था। उसने कहा वह पूर्वनियोजित था और उसने रोचक विवरण बताए जिन्हें उसके पिताजी ने अपनी कहानियों में शामिल नहीं किया था। उसने इस बात को प्रचारित करने के लिए अनुरोध किया, विनती की कि उसके पिता ने ऐसी कोई कहानी दर्ज नहीं की।
मैं उससे किया हुआ वादा पूरा कर रहा हूं।”
https://www.outlookindia.com/magazine/story/the-mystery-e-mail/214976

यह ठीक था। लेकिन इसके बाद ‘आउटलुक’ को गोधरा पर अनिल सोनी की असली रिपोर्ट
प्रकाशित करनी चाहिए थी जिसमें कहा गया था कि यह पूर्वनियोजित था, भीड़ तैयार थी और इंतजार
कर रही थी, कारसेवकों ने किसी का स्टाल नष्ट नहीं किया था और किसी मुस्लिम लड़की के
अपहरण का कोई प्रयास (सफल या असफल) नहीं किया था और गोधरा स्टेशन पर गाड़ी ७:४२ बजे
पहुंची न कि ७:०० से ७:१५ बजे के बीच। प्रेम शंकर झा बीजेपी और मोदी के कट्टर विरोधी हैं। परंतु
उनके लेख ने मेल की वास्तविकता को उजागर कर दिया। लेकिन उन्होंने पहले उस मेल पर विश्वास
रखा, और जब अनिल सोनी को ‘अधिक विवरण जानने के लिए’ फोन किया तब उन्हें ‘पहला
आश्चर्य’ मिला। उन्होंने समझना चाहिए था कि यदि अनिल सोनीने सचमुच ऐसी रिपोर्ट लिखी होती,
तो वह पी.टी.आय. में उनके नाम से प्रसिद्ध होती, न कि एक मेल में, जो बहुत स्वाभाविक रूप से
झूठी थी।

वर्षा भोसले ने ११ मार्च २००२ को रेडिफ़.कॉम में लिखा:

“….(फर्जी मेल) ने सोनी के तीन नंबर दिए। खैर मुझे श्री सोनी (०२६७२) ४०२६४ पर मिले। उन्होंने कहा:
‘क्या आप ई मेल के बारे में कॉल कर रहे हैं? यह पूरी तरह से फर्जी व बकवास है। यह मेरे शत्रुओं का काम
है’।
इस्लामवादी इसी तरह काम करते हैं, यह अच्छी तरह से जानकार कि “धर्मनिरपेक्षतावादी” किन बातों पर
विश्वास *करना चाहते* हैं।
जिस पोर्टल से समाचार उठाया गया था वह “उम्मा के लिए मूल सटीक समाचार” का प्रसार करने की
घोषणा करता है और कथित आइटम राजिल शेख द्वारा लिखा गया है और २ मार्च को प्रकाशित किया गया
(जब मैंने इसे पढ़ा था, बेवकूफ़ों ने मुझे ज्ञान देने की कोशिश करने के तीन दिन पहले)।”
https://www.rediff.com/news/2002/mar/11varsha.htm

   इस दुर्भावनापूर्ण और झूठे दावे को पहली बार एक इस्लामिक वेबसाइट पर (इस वेबसाइट ने
आरोप लगाया था कि यहूदियों ने ९/११ की घटना की, कश्मीर में आतंकवादियों के मारने को
‘भारतीय सेना का आतंकवाद’ कहा, इत्यादि) सबसे बड़ी भारतीय वृत्तसंस्था पी.टी.आई. के रिपोर्टर
अनिल सोनी के नाम पर झूठे तरीके से करने के बाद ही गोधरा के मृत कारसेवकों की बदनामी
अकल्पनीय रूप से नीचे के स्तर पर पहुंच गई। इस दावे को ब्रिटिश और अमेरिका के समाचार पत्रों
सहित कई जगह मेल के माध्यम से भेजा गया था। इसके बाद इस दावे को भारत और विदेशों में
कई अखबारों तथा साप्ताहिकों द्वारा कॉपी किया गया था।

   ब्रिटिश अख़बार ‘द इंडिपेंडेंट’ ने मृत कारसेवकों का अपमान करके उनपर ग़ैरज़िम्मेदार और
निराधार आरोप भी किए। पीटर पोफेम ने २० मार्च २००२ को लिखा वृतान्त्त नीचे दिया है। यह वृतांत
इंटरनेट पर काफी उद्धृत किया गया था व आसानी से उपलब्ध है।

   “…बोगी क्रमांक एस-६ में जो कुछ घटित हुआ वह अंतिम सामना था। इस कहानी का प्रारम्भ ३६ घंटे पहले
ही हो चुका था।
…उनमें से कई लोग शराब के नशे में थे या शराब की बोतलें अपने साथ लेकर यात्रा कर रहे थे। लचीले
और सहिष्णु हिंदू धर्म में इस संबंध में कड़े क़ानून नहीं हैं। कारसेवक देश के (तत्कालीन) एकमात्र ‘ड्राय’ राज्य
गुजरात में वापस आ रहे थे, जो कि उनके द्वारा शराब का सेवन करने या शराब को साथ लेकर यात्रा करने के
लिए एक कारण और था।
…गाड़ी को विलंब हो चुका था। डेढ़ दिन की यात्रा करने के बाद गाड़ी साढ़े चार घंटे देरी से चल रही थी।
इसीलिए यह गाड़ी देर रात २:५५ बजे गोधरा स्टेशन पर पहुँचने के बजाय प्रातः ७:१५ बजे पहुँची। [हमारी
टिप्पणी: यह समय ग़लत है, सही समय ७:४२ है जब वह गोधरा पहुँची] इस समय तक कारसेवक पूरी तरह
शराब के नशे थे।
गोधरा से ७५ किमी पहले दाहोड स्टेशन से संघर्ष प्रारम्भ हो चुका था। गाड़ी दाहोड स्टेशन पर प्रातः ६ बजे
पहुँची और एस-६ बोगी से अनेक कारसेवक चाय-नाश्ते के लिए प्लेटफार्म पर उतरे। पहले से ही शराब के नशे
में होने के कारण उनका स्वयं पर नियंत्रण नहीं था। प्लेटफार्म पर चाय के मुस्लिम ठेलेवाले और कारसेवकों के बीच बहस शुरू हो गई और एक वर्णन के अनुसार इस बहस के दौरान करसेवकों ने चाय वाले को ‘जय श्रीराम
बोलो अन्यथा पैसे नहीं देंगे’ कहा। मुस्लिम चाय वाले द्वारा इनकार करते ही कारसेवकों ने गाड़ी में चढ़ने से
पहले उसके ठेले को उद्ध्वस्त कर दिया। बाद में चाय वाले ने रेलवे पुलिस में इस घटना की शिकायत दर्ज
कराई। [हमारी टिप्पणी: यह सब झूठ है, इस तरह की कोई घटना नहीं हुई, इस संबंध मे किसी प्रकार की
शिकायत भी नहीं है।]
गोधरा में फिर से एक बार इसी तरह की घटना हुई। शराब के नशे में धुत कारसेवक प्लेटफार्म पर उतरे,
उन्होंने चाय नाश्ता मंगवाया, खाया और वहाँ के मुस्लिम चाय वाले से झगड़ा शुरू किया। कारसेवक और
दाढ़ीवाले मुस्लिम चाय वाले के बीच वास्तव में यथातथ्य क्या हुआ, इस बारे में गवाहों के बयान अलग-अलग
हैं। परंतु ‘द इंडिपेंडेंट’ ने देखे सभी गवाहों के बयानों का इस बात पर एकमत हुआ कि बहस हुई। अपना नाम
प्रकाशित न करने की शर्त पर एक गवाह ने बताया कि “कारसेवकों ने चाय वाले के साथ जान-बूझकर झगड़ा
किया। उसकी दाढ़ी खींची, और उसके साथ मारपीट की।… और वे लगातार उद्घोषणा करते रहे: ‘मंदिर का
निर्माण करो, बाबर की औलादों को बाहर करो’।”
अचानक इस घटना को एक ख़तरनाक नया मोड़ मिला। कारसेवकों ने एक मुस्लिम महिला को पकड़ लिया।
वह महिला कौन थी, वह इस मामले में कैसे बीच में आई, ये सब अस्पष्ट है। परंतु चार अलग-अलग गवाहों ने
इस घटना का वर्णन किया है। एक के कथनानुसार वह मुस्लिम महिला चाय वाले की १६ साल की बेटी थी।
अपने ‘पिता को मारपीट से बचाने के लिए वह आगे आई’। दूसरे के अनुसार रेलवे लाइन के पास कपड़े धोने
वाली महिला को कारसेवकों ने पकड़ लिया। तीसरे गवाह के अनुसार बुर्क़ा पहनी हुई एक जवान लड़की स्टेशन
के पास वाले रास्ते से स्कूल जा रही थी, उसे पकड़कर कारसेवकों ने गाड़ी में बैठा दिया। सभी इस बात पर
सहमत थे कि एक मुस्लिम महिला को कारसेवकों ने ट्रेन में डाला, और दरवाज़ा बंद किया और उसे जाने नहीं
दिया। स्थानीय पुलिस के एक कर्मचारी ने अपना नाम न बताते हुए कहा कि यह घटना सत्य है… [हमारी
टिप्पणी: यह सब पूरी तरह झूठ है, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।]
और अब तक एक छोटा-सा मामला, जो कि दारू के नशे में मूकाभिनय शक्तिप्रदर्शन था, अचानक कुछ
ज़्यादा ही विस्फोटक बन गया।
कारसेवक अधिक नशे में थे, अन्यथा इस तरह कि स्टंटबाजी करने के लिए कोई दूसरा स्टेशन चुना होता।
क्योंकि अब गोधरा का विशिष्ट सामाजिक भूगोल इस खेल में रंग भरने लगा।
…हिंदुओं के दुर्भाग्य से गोधरा स्टेशन ऐसे स्थान पर है, जो अब पूरी तरह से मुस्लिम क्षेत्र है। रेल मार्ग पर
दोनों तरफ़ मुस्लिम मिल्कियत के व्यापारों के ढेर हैं जो कि झुग्गी-झोपड़ी में हैं, जिनमें मोटर मरम्मत करने
वालों की दुकानें और गैरेज हैं। इस झोपड़पट्टी वाले इलाके को ‘सिग्नल फालिया’ के नाम से जाना जाता है।
यहाँ के इस व्यवसाय के कारण दंगों के लिए ज़रूरी सामान जैसे पत्थर, इँटें, पेट्रोल, पैराफिन, गैस सिलेण्डर
आदि आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं। पर इसके साथ ही आवश्यक मनुष्य बल भी था—एक ग़रीब और रोषपूर्ण
समुदाय जिसमें से अनेक को अपराध के रूप में रोजी-रोटी मिलती थी।
कारसेवक मुस्लिम महिला को बोगी क्रमांक एस-६ में ले गए यह ख़बर चारों ओर फैल गई। दूसरी ओर जाने
वाली एक गाड़ी पकड़ने के लिए खड़े अहमद नामक लकड़ी विक्रेता ने बताया कि ‘वह लड़की सहायता के लिए
चिल्लाने लगी। उस गाड़ी से यात्रा करने वाले मुस्लिम यात्री गाड़ी से उतर गए और उस लड़की को छुड़वाने के
लिए लोग प्लेटफार्म पर आने लगे। मुझे लगा कि कुछ भयंकर घटित होने वाला है, मैं वहाँ से घर भाग गया’…

गाड़ी आगे बढ़ी और उपस्थित समूह ने गाड़ी पर पत्थरबाज़ी शुरू कर दी। गाड़ी के अंदर किसी व्यक्ति ने
गाड़ी की ज़ंजीर खींच दी, गाड़ी रुक गई, फिर पुनः गाड़ी आगे बढ़ी। गाड़ी के जैसे-तैसे एक किलोमीटर आगे
जाने पर किसी ने फिर से ज़ंजीर खींच दी, और इस बार गाड़ी रुकी और रुकी रही। एक गवाह के अनुसार
‘आसपास के क्षेत्र से लोगों का जत्था गाड़ी के पास जमा होने लगा। समूह ने कारसेवकों से उस लड़की को
छोड़ने की विनती की। परंतु लड़की को छोड़ने की बजाय कारसेवकों ने बोगी की खिड़कियाँ बंद कर दीं, इस
वजह से जमाव के लोग संतप्त हो गए…’
अब बहस, हिंसक संघर्ष में तब्दील हो गई। कारसेवक हाथों में तलवारें और लाठियाँ लेकर लोगों के सामने
आने लगे, और बाहर उपस्थित लोगों की संख्या तब तक हज़ार पहुँच चुकी थी ऐसा कहते हैं, लोग आसपास की
झोपड़पट्टियों से आने लगे, साथ में पेट्रोल, गैस, और जो कुछ ज्वलनशील था ऐसी सारी वस्तुएँ लेकर। उनके
गैस सिलेंडरों ने खिड़कियों को तोड़ा और गाड़ी के अंदर फूटे, और गाड़ी के अंदर फेंके गए पेट्रोल बमों से गाड़ी
के अंदर फँसे हुए यात्रियों और गाड़ी को आग लगी। घंटे भर बाद जब बड़ी संख्या में पुलिस घटनास्थल पर
पहुँची तब वहाँ बचाने लायक़ कुछ भी शेष नहीं था…”

क्या इस लेखक को लगता है कि १५ छोटे बच्चों (जिनमें babies, मुन्ना भी थे) ने भी शराब का
सेवन किया था? उन २५ मृत महिलाओं का क्या? इस विदेशी समाचार-पत्र की झूठी बातें और मृत
कारसेवकों का चरित्र-हनन करना इतने निचले स्तर का है कि उसका उत्तर देना भी उचित नहीं होगा।
यह रिपोर्ट ज्यादातर उस फर्जी मेल पर आधारित है, लेकिन मृत कारसेवकों पर दारु के नशे में होने
का आरोप लगाकर उससे भी नीचे के स्तर पर जाता है, जितना नीचे वो मेल भी नहीं गया। लेकिन
‘इंडिपेंडेंट’ के इस रिपोर्ट को अन्य अखबारों द्वारा कॉपी किया गया, जैसे पाकिस्तान के अंग्रेज़ी
अख़बार डॉन ने २२ मार्च २००२ को इस खबर का हवाला प्रकाशित किया।
[https://www.dawn.com/news/27190/hindu-zealots-sparked-gujarat-riots-paper] पी.टी.आई. रिपोर्टर
अनिल सोनी के नाम से प्रसारित इस दुर्भावनापूर्ण फर्जी मेल ने जो नुकसान करना था वह कर दिया।
यह लेखक पीटर पोफम ट्विटर पर यहाँ हैं https://twitter.com/peterpopham?lang=en
‘इंडिपेंडेंट’ का वह रिपोर्ट यहाँ पढ़ा जा सकता हैं
https://www.independent.co.uk/news/world/asia/the-hate-train-5361630.html उस अख़बार को माफ़ी
माँगने के लिए, और उस लेख को वापिस लेने के लिए कहा जाना चाहिए। उसका ईमेल हैं
newseditor@independent.co.uk और शिकायतें यहाँ की जा सकती हैं
https://www.independent.co.uk/topic/user-policies

‘फ्रंटलाइन’ पाक्षिक जो एक कम्युनिस्ट पत्रिका है, जिसने गोधरा के मृत पीड़ितों का अपमान किया
है और उनका अमानवीकरण किया है और हत्यारों का बचाव किया है, ने भी २० जुलाई २००२ को
इसके प्रिंट संस्करण में डोनी बुंशा ने लिखे लेख में कहा: “लेकिन यह झूठी खबर कि कारसेवकों ने गोधरा स्टेशन के प्लेटफॉर्म से एक मुस्लिम युवती का अपहरण किया, को भी ई मेल के जरिए बड़े पैमाने पर प्रसारित
किया गया था”।

उस ई मेल को अनिल सोनी ने अस्वीकार किया था। इसमें दी गई बाते कुछ ज्यादा ही अतिचारी
थी। इसलिए इसके बाद भारतीय धर्मनिरपेक्षतावादियों और इस्लामवादियों ने मृतकों को दोष देने की
कोशिश की, लेकिन थोड़े कम चरम तरीके से। अप्रैल २००२ में कमल मित्रा शेनोय, एस.पी. शुक्ल, के.
एस. सुब्रमणियम और अचैन वनायक ने गुजरात की स्थिति पर एक ‘स्वतंत्र तथ्य खोज रिपोर्ट’ तैयार
की थी। यह रिपोर्ट झूठों से भरी हुई थी (उदाहरण के लिए उस रिपोर्ट ने कहा कि ‘एहसान जाफरी की
बेटियों पर २८ फरवरी २००२ को दंगों में बलात्कार कर उनकी हत्या कर दी गई’, जबकि वास्तव में वे
अमेरिका में सुरक्षित थीं)। यह रिपोर्ट ‘आउटलुक’ पत्रिका में प्रकाशित की गई थी। ‘आउटलुक’ ने
रिपोर्ट दी थी:

“एक स्वतंत्र तथ्य खोज मिशन द्वारा देश को एक रिपोर्ट
साबरमती एक्सप्रेस लेट थी, यह कोई असामान्य घटना नहीं थी, और गोधरा रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म नंबर
१ पर निर्धारित समय २.५५ के बजाय ७.४३ बजे, लगभग ५ घंटे देरी से पहुंची।… कुछ कारसेवकों ने चाय और
नाश्ते के पैसे देने से इंकार कर दिया और वेंडरों से बहस करने लगे। एक बूढ़े घांची विक्रेता, जो फरार है, को
राम समर्थक नारे लगाने का आदेश दिया और उसके मना करने पर कथित तौर पर उसकी दाढ़ी खीची गई थी
(हमारी टिप्पणी: अगर वह फरार था तो कोई कैसे निष्कर्ष निकाल सकता है कि उसकी दाढ़ी खींची गई थी?
कम से कम उसे ऐसा दावा करना चाहिए।) इसके तुरंत बाद पथराव किया गया और शारीरिक हमले शुरू हुए।
एक मुस्लिम महिला जैतीनबीबी अपनी दो छोटी बेटियों सोफिया और शाहीदी के साथ सुबह करीब ८ बजे
बड़ोदरा जाने वाली ट्रेन का इंतजार कर रही थी। मारपीट होते देख उन्होंने स्टेशन से निकलने का प्रयास किया।
निकलते समय उन्हें एक कारसेवक ने रोका जिसने उसकी किशोर बेटी सोफियाको पकड़ लिया और उसे
कम्पार्टमेंट के अंदर खींचने की कोशिश की, लेकिन बाद में के प्रेस रिपोर्टों और अफवाहों के विपरीत, ऐसा करने
में असफल हुआ। बाद में यह परिवार वडोदरा के लिए रवाना हो गया, लेकिन एक पत्रकार जिसने उनसे बात की
और जिनके पास उनके रेलवे टिकट की फोटोकॉपी है, ने इस कहानी की पुष्टि हमसे की….
…कारसेवकों द्वारा उनके समुदाय के सदस्यों के साथ दुर्व्यवहार, एक मुस्लिम महिला के साथ छेड़छाड़ की
खबरों से, यहां तक कि अपहरण की अफवाहों से गुस्सा सिग्नल फालिया के आरोपित घांचियों के २००० लोगों
की भीड़ ने गाड़ी पर पत्थरों और फायर बमों से हमला कर दिया। लगभग उतनीही ताकत में के कारसेवकों ने
भी पत्थर वापिस फेंके। घांची की भीड़ का मुख्य लक्ष्य कोच एस-६ लगता है जो बुरी तरह से जल गया जिसमें
२६ महिलाओं, १२ बच्चो और २० पुरुषों सहित ५८ यात्रियों की मौत हो गई।…”
https://www.outlookindia.com/website/story/gujarat-carnage-2002/215160

इस रिपोर्ट ने मृत रामसेवकों की निंदा की, उनका अपमान किया, उन पर स्टेशन पर चाय और
नाश्ते के लिए ५ रूपए (पांच रुपये) का भुगतान नहीं करने का आरोप लगाया, मृतकों पर एक विक्रेता
की दाढ़ी खींचने का झूठा आरोप लगाया, और एक मुस्लिम लड़की सोफिया शेख का अपहरण करने का (असफल) प्रयास करने का आरोप लगाया। इस लड़की के अपहरण के (असफल) प्रयास का
रामसेवकों पर लगाया गया वही आरोप ‘तहलका’ ने अक्तूबर २००७ में दोहराया था।

उस फर्जी मेल के बाद उन्हें एक ऐसी लड़की ढूँढना आवश्यक था, जिसे “अपहरण का प्रयास” किए
हुई लड़की के रूप में दिखाया जा सके। सोफिया शेख वास्तव में अस्तित्व थी।

पूर्ण अधिकार वाली जांच आयोग नानावटी आयोग ने अपनी रिपोर्ट २६ सितंबर २००८ को प्रस्तुत
की और कहा कि गोधरा यह मुसलमानों ने किया हुआ सुनियोजित हमला था। ‘इंडिया टुडे’ ने २७
सितंबर २००८ को एक लेख में लिखा था:

“(नानावटी आयोग की रिपोर्ट कहती है) घटना से एक रात पहले उन्होंने (साजिशकर्ताओं ने), एक आरोपी
रज़ाक कुरकुर के स्वामित्व वाले स्टेशन के सामने के अमन गेस्ट हाउस में एक बैठक की। उसके बाद उन्होंने
सात प्लास्टिक के केन में पास के एक पेट्रोल पंप से १४० लिटर पेट्रोल लाया। उस पेट्रोल को… (अमन) गेस्ट
हाउस (गोधरा में रेलवे स्टेशन के सामने) के एक कमरे में रखा…
नानावटी आयोग ने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के एक वर्ग के मुख्य सिद्धांतों (theories) में से एक कि
अयोध्या से आने वाली साबरमती ट्रेन से यात्रा करने वाले रामसेवकों में से एक ने २७ फरवरी २००२ की सुबह
गोधरा रेलवे स्टेशन पर सोफियाबानु शेख नामक एक मुस्लिम लड़की का अपहरण करने की कोशिश की थी, को
खारिज़ किया। शेख के साथ साक्षात्कार के बाद आयोग ने उसकी कहानी में कई खामिया पाईं और निष्कर्ष
निकाला कि वह एक तोते की तरह वह दोहरा रही थी, जो शायद घटना के कुछ दिनों बाद उसे सिखाया/पढ़ाया
गया था।
रिपोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि दुर्भाग्यपूर्ण घटना की सुबह एक मुस्लिम लड़की के अपहरण की कहानी को
झूठे तौर पर फैलाया गया था। यह अफवाह ट्रेन पर हमला करने के लिए भीड़ इकट्ठा करने की साजिश का
एक हिस्सा थी…।”
https://www.indiatoday.in/latest-headlines/story/godhra-carnage-a-conspiracy-nanavati-report-30580-
2008-09-27

इससे पता चलता है कि ऐसी लड़की वास्तव में अस्तित्व में थी और उसने ऐसे अपहरण के
असफल प्रयास का दावा किया लेकिन उसका दावा सच नहीं था (और दूसरा पक्ष अपना पक्ष बताने के
लिए जीवित नहीं था, और जो रामसेवक जीवित बचे, उन्होंने ऐसा कुछ होने से इंकार किया)।
नानावटी आयोग ने निष्कर्ष निकाला कि घटना के कुछ दिनों के बाद (यानि उस फर्जी ई मेल के
बाद) वह लड़की तोते की तरह बोल रही थी जो उसे सिखाया गया था।

एक या दो कारसेवकों ने अगर अपहरण का ऐसा कोई प्रयास किया भी होता, तो भीड़ पूरे कोच के
५९ यात्रियों को क्यों मार डालती, जिनका इससे तथाकथित ‘अपहरण’ के प्रयास से कोई लेना देना
नहीं था, और जिनमें वृद्ध महिलाएं भी शामिल थी जो चिल्लाकर कह रही थी ‘हमें मत मारो’, और कुलमिलाकर २५ महिलाएं, १५ बच्चे (मुन्ना और नन्हें बच्चे भी) भी शामिल थे? ज्यादा से ज्यादा वे
उस लड़की को बरामद करने की कोशिश करते और अपहरणकर्ताओं की पहचान करने के लिए उस
लड़की को कहते और कोच के ५९ यात्रियों को जलाने के बजाय अपहरणकर्ताओं को निशाना बनाते।

रा.स्व.संघ के तत्कालीन प्रवक्ता मा.गो. वैद्य (१९२३-२०२०) ने ‘तरुण भारत’ इस मराठी दैनिक में
जुलाई २००२ में एक लेख में लिखा था—
“‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ के २८ फरवरी के अंक में वार्तांकन का शीर्षक था: ‘गुजरात ट्रेन पर एक समूह का
हमला, ५५ लोगों की मृत्यु’।
इस वार्तांकन के लेखक हैं सज्जद शेख़। गोधरा हत्याकांड घटने के लिए कारणों को ढूंढते हुए वे लिखते
हैं: ‘गाड़ी के कारसेवकों ने सिग्नल फालिया की कपड़े धोने का काम करने वाली कुछ महिलाओं (Washerwomen) के साथ दुर्व्यवहार किया’। आगे वे लिखते हैं ‘दाहोड में मज़हबी स्थलों पर हमला होने की अफ़वाह’ यह गोधरा अग्निकांड होने की एक वजह थी। यहाँ वह सूचित करना चाहता हैं कि हालाँकि ५५ लोगों को जलाकर मार डालना अक्षम्य है, तथापि जो कारण उसने दिए हैं, उनके कारण यह हत्याकांड समझने लायक़ है।
इस मुख्य समाचार में सारा दोष प्रारम्भ से करसेवकों को दिया गया है और सिग्नल फालिया के पास गाड़ी
कैसे रुकी और वहाँ पर हज़ार लोगों का समूह पत्थर, लठियाँ, पेट्रोल बम, विस्फोटक लेकर खड़ा था और गाड़ी
का इंतज़ार रहा था, इसकी जाँच करने का प्रयत्न उसने नहीं किया।
‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ के १ मार्च के अंक में सिद्धार्थ वरदराजन, एक पत्रकार, लिखते हैं: ‘साबरमती एक्स्प्रेस
पर हुआ हमला कितना पूर्व नियोजित था इसका पता अधिकृत जाँच के बाद ही चलेगा, परंतु इस बात के बारे
में बिलकुल शक नहीं है कि गुरुवार (२८ फरवरी) को गुजरात में मुस्लिमों पर हुए हिंसक हमले निश्चित रूप से
पूर्वनियोजित थे’। २७ फरवरी और २८ फरवरी की घटनाओं में फरक करते हुए इस संवाददाताने लगाए दोहरे
मापदंड स्पष्ट रूप से नज़र आते हैं। वो कहते हैं कि २७ फरवरी को कारसेवकों पर किया गया हमला
पूर्वनियोजित था या नहीं यह ‘अधिकृत जाँच के बाद सुनिश्चित होगा’। परंतु २८ तारीख़ को हिंदुओं ने किए
हिंसक प्रतिरोध के संबंध में वे स्वयं निर्णय लेते हैं और मुस्लिमों पर किए गए हमलों के बारे में कहते है कि
ये ‘पूर्वनियोजित’ थे। इससे स्पष्ट है कि मूल भयानक घटना का वे तर्क देते हैं (Rationalization) और उसकी
उत्स्फूर्त प्रतिक्रिया को वे ‘पूर्वनियोजित’ क़रार देते हैं।…”
(संदर्भ: http://hvk.org/2002/0702/99.html)

‘द हिंदू’ ने २७ फरवरी की घटनाओं का वार्तांकन २८ फरवरी २००२ के अंक में इस तरह से किया।
‘समूह ने ट्रेन जलाने के कारण ५७ मृत’, यह समाचार का शीर्षक था। संवाददाता मानस दासगुप्ता ने
यह समाचार देते हुए कहा— “प्रत्यक्ष गवाहों के अनुसार १२०० रामसेवक इस गाड़ी से यात्रा कर रहे थे। कुछ
दिनों पूर्व इसी गाड़ी से अयोध्या जाते समय रामसेवकों द्वारा असभ्य भाषा का प्रयोग करने के कारण स्थानीय
लोग इस मुस्लिम-बहुल गोधरा नगर में चिढ़ (Irritate) गए थे। इस गाड़ी से वापसी यात्रा के समय आज सुबह
गोधरा स्टेशन आने पर रामसेवकों ने ख़बरों के अनुसार घोषणाबाज़ी की थी।”

(संदर्भ: https://web.archive.org/web/20200809101133/https://www.thehindu.com/todays-
paper/57-killed-as-mob-torches-train-in-gujarat/article27833739.ece
)

‘द इंडिपेंडेंट’ जितने निचले स्तर पर गिरा, सौभाग्य से भारतीय पत्रकार उतने स्तर तक नहीं
उतरे, जहाँ तक की मृत लोगों ने दारु पीने के आरोप का सवाल हैं। परंतु ‘द इंडिपेंडेंट’ ने दिए उस
समाचार से भारतीय माध्यमों का असली चेहरा ही दिखा। भारतीय माध्यमोंने भी इसी तरह का वार्तांकन
किया था, अंतर केवल हद का था।

११ सितंबर को हुई घटना के बाद, उसके ‘उकसावे’ की ओर भारतीय धर्म/पंथनिरपेक्षतावादियों ने
कोई ध्यान नहीं दिया। उस समय ११ सितंबर से पहले ओसामा बिन लादेन के आतंकवादी संगठन
अल क़ायदा ने ‘अमेरिका उसकी मुस्लिम-संबंधी नीतियों में परिवर्तन करें, अन्यथा परिणामों के लिए
तैयार रहे’ इस प्रकार की चेतावनियाँ कई बार दी थीं। परंतु ११ सितंबर की घटना के बाद अल क़ायदा
की चेतावनियाँ किसी को याद भी नहीं रहीं और न ही अमेरिका कि मुस्लिम नीतियों के संबंध में
किसी ने सवाल उठाए। अल क़ायदा के इस्लामी आतंकवाद के कारण सारी दुनिया के सामने निर्मित
हुए ख़तरे की चर्चा सभी ने की और केवल आतंकवाद का निषेध किया।

परंतु हमारे यहाँ गोधरा हत्याकांड के बाद भी इस घटना के लिए विहिंप और संघ परिवार को
ज़िम्मेदार ठहराकर उनकी कड़ी निंदा की गई। संघ परिवार के विरुद्ध ज़हर उगलने पर वीर संघवी ने
अपने लेख के आख़री वाक्य में लिखा।

कारसेवकों का अमानवीकरण करने का मुद्दा सबसे महत्त्वपूर्ण है। १५ बच्चों सहित कारसेवकों की
मानवता को मीडिया ने नकारने (dehumanization) के कारण देशभर में गुस्से की लहर उमड़ पड़ी।
‘गोधरा’ जहाँ स्थित हैं, उस राज्य गुजरात में और भी अधिक।

अगर कारसेवकों ने सचमुच किसी के साथ दुर्व्यवहार किया होता, या चाय और नाश्ते के पैसे देने
से मना किया होता, या मुस्लिम-विरोधी घोषणाबाज़ी की होती, या मुस्लिम यात्रियों को परेशान किया
होता, या लगाए गए अनेक आरोपों में से कुछ भी किया होता (यह आरोप परस्पर विरोधी हैं, इसका
अर्थ होता है कि ये ज़बरदस्ती बनाए गए झूठे स्वरचित ‘उकसावे’ हैं), तो उसका उल्लेख करने के बाद
भी मृत लोगों को दोष देना नहीं चाहिए था। क्योंकि मृतकों का अपमान नहीं किया जाना चाहिए।

परंतु इस घटना में कारसेवकोंने कुछ भी नहीं किया होने के बावजूद, घटना के लिए मृतकों को ही
दोष देने के लिए उनपर निराधार और पूरी तरह से ग़लत आरोप किए गए। हिंदुओं को जलाकर मारने
वाले मुस्लिमों को दोष देने के बजाय अधिकांश मीडिया ख़ासतौर पर टी.वी. चैनलों और राजनेताओं

द्वारा कारसेवकों पर झूठे आरोप लगाए गए, जब वो मृत व्यक्ति उसका निराकरण करने के लिए
जीवित भी नहीं थे। यह करने का उद्देश था उन ५९ को अपने ही किए के पीड़ित दिखाना (‘victims
of their own follies’), और न की मुसलमानों की धर्मान्धता के।

टी.वी. माध्यम और समाचार पत्रों की इस नीति की गुजरात के लोगों को आदत थी। कारसेवक,
अयोध्या आंदोलन, विश्व हिंदू परिषद को हमेशा दोष देते हुए मुस्लिमों का समर्थन करने की उनकी
आदत से गुजराती समाज भलीभाँति परिचित था। परंतु जनता को लगा कि गोधरा हत्याकांड कुछ
ज़्यादा ही है। यह लगा कि इतना भीषण हत्याकांड जिसमें १५ बालकों सहित निष्पाप व्यक्तियों की
भीषण मृत्यु हुई, स्वघोषित धर्मनिरपेक्षतावादियों का दिल पिघालेगा। ऐसा लगा कि कम-से-कम इतनी
भीषण घटना में तो ये ‘धर्मनिरपेक्ष’ लोग कारसेवकों का अपमान करना, विहिंप और अयोध्या
आंदोलन की आलोचना करना रोकेंगे। कम-से-कम अब तो मीडिया, ग़ैर-भाजपा राजनेता धर्मांध
मुस्लिमों का निषेध करेंगे, और उन्हें ‘जिहादी’ कह कर बिना किसी उकसावे के यह हत्याकांड करने के
लिए उनकी आलोचना करेंगे।

पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। मीडिया हमेशा की तरह वृत्तांकन करता रहा (अपनी भेड़चाल चलता
रहा)। और वीर संघवी ने व्यक्त किया हिंदुओं की तीव्र प्रतिक्रिया होने का डर गुरुवार दिनांक २८
फरवरी २००२ को भयानक सच साबित हुआ। परंतु हुई प्रतिक्रिया के बाद वीर संघवीने अपने समाचार-
पत्र के संपादकीय पृष्ठ पर कई बार नरेंद्र मोदी को ‘मास मर्डरर’ अर्थात् ‘सामूहिक हत्यारे’ कहा।

हिंदुओं का यह गुस्सा केवल दंगों तक ही नहीं चला बल्कि आगे भी क़ायम रहा, कम-से-कम
दिसंबर २००२ तक। १२ दिसंबर २००२ को गुजरात विधानसभा के चुनाव हुए। इस चुनाव में भाजपा ने
१८२ में से १२७ सीटें जीतकर प्रचंड बहुमत हासिल किया, कांग्रेस केवल ५१ सीटें जीती। इस चुनाव में
भाजपा का मत प्रतिशत ५०% था, जो कि कांग्रेस के ३९ प्रतिशत मतों से ११ प्रतिशत इतना अधिक
था। सौराष्ट्र और कच्छ क्षेत्रों में भी, जहाँ गोधरा के बाद पहले ३ दिनों में भी दंगे नहीं हुए, भाजपा
न सिर्फ़ जीती, बल्कि बडे अंतर से जीती (५८ में से ३९ सीटें)।

‘इंडिया टुडे’ साप्ताहिक के ३० दिसंबर २००२ के अंक में दी गई जानकारी के अनुसार १०२ दंगा
प्रभावित सीटों में से भाजपाने ७९ सीटें हासिल कीं। ये आँकड़े भी शंकास्पद हैं, पर हम इन्हें सही
मानकर चलते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि जो क्षेत्र दंगा प्रभावित नहीं थे वहाँ पर भाजपा ने ८० में
से ४८ सीटें हासिल की, अर्थात् ६० प्रतिशत सीटों पर विजय हासिल की। वर्ष १९९५ से भाजपा के दो
बार सत्ता पर आसीन होते हुए भी (अक्तूबर १९९६ से मार्च १९९८ तक भाजपा ने सत्ता गवाई, और
फिर मार्च १९९८ से लगातार सत्ता में थी) ६० प्रतिशत सीटों पर विजय को प्रचंड जीत ही कहा जाएगा। कई वर्षों से सत्ता में होने के बावजूद (anti-incumbency) भाजपा को मिली सफलता का
कारण कम-से-कम कुछ हद तक गोधरा हत्याकांड और उसपर ‘धर्मनिरपेक्षता’वादी ब्रिगेड की
प्रतिक्रियाओं पर हिंदूओं का रोष था (उदाहरण के लिए, उस समय गुजरात कांग्रेस के बड़े नेता
शंकरसिंह वाघेला ने आरोप लगाया कि ‘गोधरा हत्याकांड मुसलमानों ने नहीं बल्कि मुसलमानों पर
दोष देने के लिए विहिंप/भाजपा ने किया’)।

‘वामपंथी-उदारमतवादी-पंथनिरपेक्षतावादी’ ब्रिगेड ने गोधरा हत्याकांड में हमला करने वाले मुस्लिमों
की संख्या को भी जितनी हो सके उतनी कम रखने का प्रयास किया। कुलदीप नय्यर (१९२३-२०१८)
ने ‘डेक्कन हेराल्ड’ में ३ अप्रैल २००२ लिखे हुए लेख में हमलावरों की संख्या ५०० होने का उल्लेख
किया था। ‘इंडिया टुडे’ ने ११ मार्च २००२ के अंक में यह संख्या ‘५०० से अधिक’ दी थी। गोधरा
हत्याकांड पर कुलदीप नय्यर ने ६ जुलाई २००२ को प्रकाशित एक लेख में लिखा: “गोधरा कांड यदि
घटित नहीं होता तो नरेंद्र मोदी ने यह कांड करवाया होता। दुर्भाग्य यह है कि कुछ मुस्लिम उनके हाथ में खेल
गए”।

अन्य दूसरे लेखकों ने हमलावरों का आँकड़ा कम करके एक हज़ार दिया, तो कुछ ने यह आँकड़ा
डेढ़ हज़ार दिया। सही आँकड़ा लगता है २०००, जो कि वीर संघवी और न्या. तेवाटिया समिति ने दिया
है। आलोक तिवारी नाम के पंथनिरपेक्षतावादी संपादक ने गोधरा हत्याकांड में मारे गए हिंदुओं की
संख्या को ५६ बताते हुए कहा (जो उस समय ५८ थी) कि “केवल इसलिए कि ५६ हिंदुओं की हत्या हुई,
इसका अर्थ यह नहीं होता कि सैकड़ों मुसलमानों की हत्या की जानी चाहिए…”। सच तो यह है कि गोधरा
कांड में हमलावरों की संख्या डेढ़ हज़ार या दो हज़ार थी, यह महत्त्वपूर्ण नहीं है। परंतु इन आँकड़ों के
ज़रिये ‘पंथनिरपेक्षता’वादियों की मनोवृत्ति साफ़ दिखती है- जो हैं ‘हिंदुओं को हुए नुकसान को कम-से-
कम दिखाएँ, मुस्लिमोंने किए अत्याचारों का संभव हो उतना कम-से-कम वर्णन करें और मुस्लिमों को
होने वाले दुःखों की हो सके उतनी अतिशयोक्ति करें’।

गुजरात के दंगों में सैकड़ों हिंदुओं की भी मृत्यु होने के बावजूद वे उसे संपूर्णतः दुर्लक्षित करतें हैं,
और मारे गए मुस्लिमों की संख्या को अतिशयोक्तिपूर्ण, बढ़ा-चढ़ाकर बताने कि कोशिश करतें हैं।

गोधरा हत्याकांड पूर्वनियोजित था, बाद के दंगे उकसाने का परिणाम

गोधरा स्टेशन पर किसी छोटी-सी बहस या झगड़ो का परिणाम इतने बड़े अग्निकांड के रूप में
होना पूरी तरह असंभव है। चलती हुई गाड़ी से या प्लेटफार्म पर की गई घोषणाओं से, या किसी
लड़की के अगवा किए जाने की सच या झूठीं अफवाओं से भी केवल ५ मिनट में दो हज़ार से अधिक
स्थानीय मुसलमान पेट्रोल बम, एसिड बम लेकर पहुँचना असंभव है, वह भी प्रातः ८ बजे। ख़बरों के अनुसार हत्याकांड से पहले वाली रात को १४० लीटर पेट्रोल कैन में भरकर लाया गया था। शुरू में
कई लोगों ने यह हत्याकांड पूर्वनियोजित होने के बारे में यहीं कहा।

रेलगाड़ी पर हमला करने के लिए हमलावरों को गाड़ी को दोनों ओर से घेरना पड़ता। यदि यह
घटना क्षण पर घटी होती तो मुस्लिमोंने गाड़ी को दोनों ओर से घेरना अत्यंत कठिन होता। कम-से-
कम ५०० हमलावर गाड़ी के दूसरी ओर कैसे पहुँचते? हमले के बाद भी कारसेवक गाड़ी के दूसरी ओर
से कूद कर भाग जाते, मुसलमान वहाँ पहुँचने से पहले, और अपनी जान बचाते।

कुलदीप नय्यर अपने चरम संघ-भाजपा विरोधी और मुस्लिम व पाकिस्तान समर्थक मतों के लिए
जाने जाते हैं। उन्होंने भी ३ अप्रैल २००२ को प्रकाशित हुए लेख में स्पष्ट रूप से कहा कि—“(गोधरा का)
हमला पूर्वनियोजित था, इस बारे में मुझे कोई संदेह नहीं है। क्योंकि अन्यथा केवल ३ मिनट में ५०० हमलावरों
का पेट्रोल व मिट्टी का तेल लेकर ऐसे स्थान पर पहुँचना संभव ही नहीं है, जहाँ पर सिर्फ़ काँटेदार झाड़ियों से
गुज़रकर जाना पड़ता हो।”

‘द इंडियन एक्स्प्रेस’ ने ३ मार्च २००२ को लिखा: “…ट्रेन (गोधरा) को जलाना एक भलीभाँति ढंग से
एक बहुत सशस्त्र और भड़क गई हुई मुस्लिम भीड़ द्वारा पूर्व-नियोजित कार्य था। क्योंकि भले ही अगर कोई
उकसावा भी हो, इतनी बड़ी संख्या की भीड़, जिसके हाथ में आग लगाने की इतनी ताकत और दिमाग में इतनी
नफरत हो, गोधरा जैसे स्थान पर कुछ/चंद मिनटों में जमा नहीं हो सकती। कोई इस ट्रेन के आने का इंतजार
कर रहा था और उन्होंने वहां घात लगा दिया।”

बाद में ‘इंडिया टूड़े’ ने अपने २२ जुलाई २००२ के अंक में लिखा: “यह थियरी (सिद्धांत) की इस
नरसंहार के पीछे एक साजिश थी, इसकी विश्वसनीयता को पांच अग्निशामन दल के कर्मियों के बयानों से बल
मिलता है, जो उस ट्रेन को लगी आग बुझाने के लिए लडे। उन्होंने जांचकर्ताओं को बताया कि गोधरा
नगरपालिका के पार्षद और मामले के मुख्य आरोपी हाजी बिलाल ने उनकी दमकल (फायर टेंडर) को रोका और
कोच में लगी आग को बुझाने से रोकने की कोशिश की। दमकल (फायर ब्रिगेड) कर्मियों में से एक, विजय शर्मा
का कहना था कि बिलाल ने २६ फरवरी की रात को दमकल को फोन किया था और अगली सुबह ड्यूटी पर
आने वाले दमकल कर्मियों के नाम मांगे थे। संयोग से उसी शाम दमकल केंद्र से जुड़े एक पानी के टेंकर और
एक दमकल गाड़ी (फायर टेंडर) दोनों के इंजन में गंभीर खराबी आ गई। बेशक यह सोचना भोलापन होगा कि
साजिशकर्ता अपने घातक मिशन को पूरा करने के लिए संयोगो पर निर्भर रहते हैं।”
https://www.indiatoday.in/magazine/states/story/20020722-godhra-massacre-forensic-report-come-in-
handy-for-rival-politicians-794762-2002-07-22


हाजी बिलाल को न्यायालय ने २२ फरवरी २०११ को दोषी घोषित कर मौत के सजा दी, जिसे
गुजरात उच्च न्यायालय ने अक्तूबर २०१७ में उम्रकैद में रूपांतरित किया। उसे हत्याकांड के दिन

फायर ब्रिगेड वालों को घटना-स्थल पर पहुँचने नहीं देने के (बाधा डालने, रोकने के) आरोप के लिए
दोषी पाया गया। हाजी बिलाल ने २६ फरवरी को फायर ब्रिगेड को संपर्क कर अगले दिन सुबह काम
पर रहने वाले कर्मचारियों के नाम पूछना, व ब्रिगेड के उपकरण बिगाड़ने की कोशिश करना यह
निर्णायक तरीके से सिद्ध करता हैं कि वह हमला संपूर्णतः पूर्वनियोजित था, और किसी ‘उकसावे’
का परिणाम नहीं हो सकता। अगर, सिर्फ चर्चा के लिए मान भी ले कि २७ फरवरी की सुबह किसी
लड़की को अगवा करने का असफल प्रयास किया भी गया, तो भी इससे यह बात नहीं बदलती कि
वह हमला पूर्वनियोजित था।

फरवरी २००३ में एक मुस्लिम आरोपी ने न्यायालय में इस बात को क़बूल किया कि गोधरा
हत्याकांड पूर्वनियोजित था, धर्मांध मुसलमानों ने पिछले रात को ही १४० लिटर पेट्रोल २० लिटर की
क्षमता वाले ७ डिब्बों में खरीद कर ला रखा था और इस अग्निकांड में उस आरोपीने स्वयं भाग लिया
था। न्यायालयी क़बूलनामा निर्णायक सबूत होता हैं।
हालाँकि आगे उसने अगस्त २००३ में अपना
क़बूलनामा वापस ले लिया, उसका न्यायालय के समक्ष दिया हुआ क़बूलनामा किसी के भी मन में
गोधरा के बारे में हो सकने वाले सभी संदेहों को मिटाता हैं।

‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ ने ७ फरवरी २००३ को अपनी रिपोर्ट में लिखा:
“वडोदरा: जाबिर बिन यमीन बेहरा ने गोधरा कांड को नया मोड देते हुए मौलाना हुसैन उमरजी पर साजिश
रचने का आरोप लगाकर सबको चौंका दिया हैं। उसने इस मामले में अपनी संलिप्तता/ हिस्सेदारी भी स्वीकार
की है। बेहरा का लंबा आपराधिक इतिहास रहा है।
उसने छोटे और गंभीर दोनों तरह के अपराध किए हैं और छोटी उम्र से ही ज़्यादातर गोधरा शहर के स्टेशन
क्षेत्र में काम किया है। वह अब्दुल रज्जाक मोहम्मद कुरकुर और इसी तरह के लोगों की पंक्ति का हैं। उसके
खिलाफ गोधरा रेलवे थाना और शहर थाना दोनों में मामले दर्ज हैं।…
…जब भीड़ ने ट्रेन पर हमला किया तो बेहरा ने कोच को जलाने में उसका सहभाग होने के अलावा यात्रियों
के गहने और कीमती समान निकालने की बात भी कबूल की है।”
https://timesofindia.indiatimes.com/city/ahmedabad/Behra-was-a-known-history-
sheeter/articleshow/36692246.cms

इस रिपोर्ट में ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ ने यह उल्लेख नहीं किया कि यह क़बूलनामा अदालत में दिया
गया था, अर्थात यह न्यायालयी क़बूलनामा था, जिसका उल्लेख उसने एक अन्य रिपोर्ट में किया,
जिस रिपोर्ट को इस लिंक के जरिए पढ़ा जा सकता है।
https://timesofindia.indiatimes.com/city/ahmedabad/behera-shifted-to-prison-in-
nadiad/articleshow/39605079.cms

उसने यह भी कबूल किया कि डिब्बे को आग लगाने से पहले मुसलमानों ने कारसेवकों के गहने
और कीमती सामान भी लूटा था और लूटपाट करने वालों में वह स्वयं भी था, जिससे इस हमले में
बची हुई १६ वर्षीय गायत्री पांचालने २७ फरवरी २००२ को ही बताई हुई यहीं बात सच साबित हुई

‘द ट्रिब्यून’ ने ७ फरवरी २००३ को प्रकाशित की हुई खबर के अनुसार पी.टी.आई. ने ६ फरवरी
२००३ को रिपोर्ट किया:
“सिग्नल फालिया इलाके से तड़के (सुबह के समय) पुलिस द्वारा मौलवी (उमरजी) की गिरफ्तारी एक
आरोपी जाबिर बी यमीन बेहरा के खुलासे के बाद हुई, जिसने दावा किया कि ट्रेन नरसंहार के पीछे का दिमाग
उमरजी का था। ५६ वर्षीय धर्मगुरु को रेलवे और शहर पुलिस ने संयुक्त अभियान में गिरफ्तार किया गया।
बेहरा ने कल (५ फरवरी २००३) मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के सामने अपने कबूलनामे के दौरान यह आरोप
लगाया कि गोधरा नरसंहार को मौलवी उमरजी ने ‘रचा’ था और अयोध्या में शिलापूजन में भाग लेकर लौटने
से एक दिन पहले काररसेवकों के विरुद्ध मौलवी ने २६ फरवरी को नरसंहार और ‘योजनाबद्ध हमले’ के लिए
युवाओं को उकसाया था।”
https://www.tribuneindia.com/2003/20030207/main4.htm

रेडिफ़.कॉम ने १९ फरवरी २००३ को अपने रिपोर्ट में लिखा:
“गोधरा के आरोपियों के खिलाफ गुजरात पोटा कानून लगाएगा
१९ फरवरी २००३ २०.१८ IST
राज्य के गृहमंत्री अमित शाह ने बुधवार (१९ फरवरी २००३) को कहा कि गुजरात सरकार ने साबरमती एक्स्प्रेस
नरसंहार के सभी आरोपियों पर आतंकवादी निरोधक अधिनियम पोटा लागू करने का फैसला किया है।
शाह ने कहा कि “एक आरोपी जाबिर बिन यमीन बेहरा ने अदालत में इस बात को कबूल करने के बाद कि
हत्याकांड से तीन-चार दिन पहले साजिश रची गई थी और मौलवी हुसैन उमरजी मुख्य साजिशकर्ता थे, यह
फैसला मंगलवार (१८ फरवरी) को लिया गया”।
…इस बीच विशेष जांच दल (एस.आय.टी.) के अधिकारियों ने गोधरा के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश के.सी.केला
के समक्ष प्रस्तुत आवेदन में कहा कि ट्रेन को आग लगाने की साजिश गोधरा शहर में इस हत्याकांड के अन्य
एक मुख्य आरोपी रज्जाक कुरकुर के स्वामित्व के अमन गेस्ट हाउस में रची गई थी।
सूत्रों के अनुसार आवेदन में इस बात का भी उल्लेख किया गया है कि आरोपी सलीम पानवाला जो अभी भी
फरार है, को गोधरा स्टेशन पर साबरमती एक्स्प्रेस के आने के समय पर नज़र रखने का कार्य सौंपा गया था,
जबकि यह तय किया गया था कि पेट्रोल लोडिंग रिक्शाओं के जरिए लाया जाएगा।
गोधरा से प्राप्त रिपोर्ट के अनुसार आवेदन में कहा गया कि आरोपी शौकत लालू, हुसैन लालू और जबीर बिन
यामिन और इमरान द्वारा पेट्रोल लाया गया था।
विशेष जांच दल ने यह भी कहा कि साजिश के तहत स्टेशन के विक्रेता अयोध्या से आने वाले कारसेवकों के
साथ मौखिख वादविवाद करेंगे।
…मामले के एक आरोपी जबीर यामिन बेहरा ने मजिस्ट्रेट के सामने कबूल किया था कि मौलवी उमरजी ने
कोच में आग लगाने के लिए कोर टीम के सदस्यों को प्रतिमाह रू १५००/- देने पर सहमति दी थी।”

http://www.rediff.com/news/2003/feb/19guj.htm

इस स्वीकारोक्ति के बाद ‘इंडिया टुडे’ के २४ फरवरी २००३ के अंक में दी गई रिपोर्ट थी:

“…गोधरा क्षेत्र के देवबंदी-तबलिगी जमात आंदोलन के एक प्रमुख नेता उमरजी पर साजिश का हिस्सा होने
के साथ आरोपियों को बचाकर जांच में बाधा डालने का आरोप लगाया गया है। माना जाता है कि एस-६ डिब्बे
को जलाने वाली भीड़ के लोगों को स्थानीय घांची समुदाय से लिया गया था, जो उत्साही अनुयायी हैं तबलिगी
जमात के, जो एक शुद्धतावादी संप्रदाय हैं जिसने १९७० के दशक के मध्य में गोधरा में स्थापना की थी…।
…गोधरा कांड के मुख्य आरोपी जाबिर बिन्यामीन बेहरा के इक़बालिया बयान (कबूलनामा) ने उमरजी को
घेरा। २२ जनवरी को गिरफ्तार हुए बेहरा ने मुख्य मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट गोधरा के कोर्ट को अहम जानकारी
दी।
बेहरा ने उमरजी को फंसाने के अलावा मामले के एक और आरोपी रज़ाक कुरकुर की भूमिका का भी जिक्र
किया। गोधरा रेलवे स्टेशन के पास स्थित कुरकुर का अमन गेस्ट हाउस वास्तव में लगभग आतंक का अड्डा
था। हत्याओं से एक शाम पहले २६ फरवरी २००२ को रात ०९.३० बजे अमन गेस्ट हाउस में छः लोगों ने एक युद्ध की बैठक की, इसमें बेहरा, कुरकुर, सलीम पानवाला उर्फ बादाम और सलीम ज़र्दा शामिल थे। उन्होंने साबरमती एक्स्प्रेस को आग के हवाले करने का फैसला किया।
रणनीति सरल थी: रामसेवकों के जरा से उकसावे पर, या इसके बिना भी, पूरी तरह से हमला करो। रात
१०.१५ बजे साजिशकर्ताओं ने कालभाई पेट्रोल पंप से २० लीटर के सात केन पेट्रोल लाकर उन्हें अमन गेस्ट
हाउस में रखा। (हमारी टिप्पणी: यही बात बाद में नानावटी आयोग ने भी कही)…
…(सलीम पानवाला) ने बेहरा को बताया कि ट्रेन साढ़े चार घंटे देरी से चल रही है, यह तड़के साढ़े तीन
बजे निर्धारित समय पर नहीं पहुंचेगी। रामसेवकों को भोर से पहले अंधेरे में मारने की मूल योजना को छोड़ना
पड़ा।
साजिशकर्ता सुबह ६.०० बजे फिर जमा हो गए और आखिरकार सुबह ८.०० बजे के बाद ट्रेन पर हमला कर
दिया। पास के सिग्नल फालिया कॉलोनी के घांची मुसलमानों की भीड़ को पहले से ही तैयार रखा गया था। १४० लीटर पेट्रोल रिक्शे द्वारा स्टेशन पर पहुंचाया गया। पहले उनकी सोच थी कि एस-६ डिब्बे के अंदर खिड़कियों से पेट्रोल फेंका जाए।
खिड़कियाँ ७ फूट ऊंची पर थी, जो बहुत अधिक साबित हुई। फिर बेहरा और कुछ अन्य लोगों ने एस-६
कोच के पिछले वेस्टिब्यूल के केनवास कवर को काट दिया और उसमें से चढ़ कर, दरवाज़ा तोड़ कर कोच के
अंदर पेट्रोल के सात केन खाली कर दिए। और फिर बाकी काम करने के लिए कुछ जलती हुई चिथडिया
लगी…।”
https://www.indiatoday.in/magazine/crime/story/20030224-godhra-carnage-probe-gets-a-boost-with-
arrest-of-influential-tableegh-leader-793166-2003-02-24

  इस न्यायालयी क़बूलनामे का मीडिया ने फरवरी २००३ के बाद बार-बार उल्लेख करना चाहिए था,
गोधरा पर खबर देते समय। जनवरी २००५ में फरवरी २००५ के बिहार विधानसभा चुनाव से पहले
लालूप्रसाद यादव द्वारा नियुक्त बेनर्जी समिति [इस समिति को गुजरात उच्च न्यायालय ने वर्ष २००६
में अवैध ठहराया था, और उसके निष्कर्षों को ‘अमान्य और शून्य’ (‘null and void’) घोषित किया
था] ने कहा था (अपेक्षानुसार) कि गोधरा हत्याकांड एक ‘हादसा’ था और यह नहीं बताया कि यदि

रेलवे गाड़ी को हादसे से आग लगी तो ज़ोरदार पत्थरबाज़ी कैसे हुई, जलते हुए कपड़े कैसे फेंके गए,
और आग लगने के बाद कारसेवक ट्रेन से निकलकर भाग क्यों नहीं गए, और इस आरोपी द्वारा
न्यायालय में दिए हुए क़बूलनामे का क्या हुआ? उस समय प्रसार-माध्यमोंने इस न्यायालयी
क़बूलनामे को लोगों के सामने लाना अत्यंत महत्त्वपूर्ण था। परंतु इसे दबा दिया। इस तरह का कोई
क़बूलनामा है, इसकी लोगों को याद भी नहीं दिलाई गई। इसके विपरीत, प्रसार माध्यमों ने
मुसलमानों ने गोधरा हत्याकांड किया इस बात को ही नकार कर गोधरा पर अनावश्यक भ्रम और
शक का निर्माण करने का जानबूझकर प्रयत्न किया।

वास्तविक रूप से इसप्रकार का भीषण अपराध जानवरों के साथ भी नहीं किया जाना चाहिए। ५९
जानवर यदि इसी तरह से गाड़ी में बंद करके बाहर निकलने की कोशिश करने पर आग में धकेलकर
मार दिए जाते, तो भी प्रत्येक समझदार व्यक्ति इसे भीषण शोकांतिका के रूप में देखता। परंतु इन
मरे हुए कारसेवकों पर झूठे आरोप लगाए गए, इस घटना का बनावटी, नाममात्र निषेध किया गया,
और हत्याकांड का सारा दोष मारे गए महिलाओं, बच्चों और पुरुषों पर, और विहिंप पर डाला गया।
वास्तव में कारसेवकों का अमानवीकरण होने के अलावा उनके साथ जानवरों से बदतर सलूक किया
गया।

और इसके बाद जब सीधे-सीधे उकसाने के कारण घटनाएँ हुईं तो मीडिया ने इस ओर (उकसाने पर)
ध्यान ही नहीं दिया। इतने बड़े गोधरा हत्याकांड की घटना जो पहले तीन दिनों में हुए हिंदुओं के
प्रतिकार का केवल ‘उकसावा’ ही नहीं बल्कि ‘कारण’ थी, को और बाद में हुए दंगों का वार्तांकन करतें
समय संपूर्णतः नज़रअंदाज़ किया गया। केवल हिंदू प्रतिकार का बड़े पैमाने पर निषेध किया गया।
कई वर्षों के बाद आज भी यदि उन गुजरात दंगों का उल्लेख किया जाता है तो गोधरा को संपूर्णतः
नज़रअंदाज़ कर ऐसा वार्तांकन किया जाता है कि जैसे उस समय की भाजपा सरकार ने ही विहिंप
और बजरंग दल की सहायता से बग़ैर किसी उकसावे के मुस्लिमों का भीषण क़त्लेआम किया।

मीडिया ने बाद में दी प्रतिक्रियाओं से उनकी मनोवृत्ति का फ़र्क़ पता चलता है। गोधरा हत्याकांड के
बाद कहा गया कि “सरकार द्वारा अपराधियों को पकड़कर न्यायालय के समक्ष खड़ा किया जाए। इस
घटना का निषेध किया जाना चाहिए। परंतु विश्व हिंदू परिषद के अयोध्या आंदोलन के कारण इस
तरह की घटनाएँ होने ही वाली थीं… विहिंप की कड़ी निंदा…” और उसके बाद हुए दंगों के बारे में
कहा गया कि, “नरसंहार, हत्याकांड…मोदी को इस्तीफ़ा देना चाहिए… अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शर्म…
क्या हम रवांडा की तरह हैं… हिटलर…”।

वीर संघवी ने कहा, “यदि आप सच्चाई बताएँगे तो हिंदुओं की भावनाएँ भड़केंगी और यह ग़ैरज़िम्मेदारी
वाली बात होगी।” अर्थात् वीर संघवी मानते हैं कि स्वघोषित पंथनिरपेक्षतावादी सरासर झूठ बोलते हैं
भले ही उनका उद्देश्य कुछ भी हो। झूठ बोल कर मृत कारसेवकों का अपमान कर उन्होंने वास्तव में हिन्दुओं की भावनाएँ भड़काई। अगर वे सच बताते कि पूर्वनियोजित हमलें में मुसलमानों ने
कारसेवकों को मारा, और इसके बाद कहते कि ‘लेकिन इसका बदला अन्य मुस्लिमों पर नहीं लेना
चाहिए’, तो शायद हिंदू प्रतिक्रिया नहीं होती।

२७ फरवरी २००२ को ही गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री और वरिष्ठ कांग्रेस नेता अमर सिंह चौधरी
(१९४१-२००४) रात को टी.वी. पर आए, और गोधरा घटना का नाममात्र निषेध करते हुए उन्होंने
गोधरा के लिए उस घटना को उकसाने का उन पर आरोप करके सारा दोष कारसेवकों पर मढ़ दिया,
स्टेशन पर चाय के पैसे न देने का आरोप लगा कर। (पुनः वीर संघवी के अवलोकन अनुसार, घटना
का निषेध, परंतु दोष मारे गए लोगों पर डालना।) चौधरी के इस वाक्य का भीषण परिणाम हुआ।
रा.स्व.संघ का समर्थक (लेकिन अधिकृत मुखपत्र नहीं) अंग्रेज़ी साप्ताहिक ‘ऑर्गनायज़र’ के १०
मार्च २००२ के अंक में २७ फरवरी तक की घटनाओं का वर्णन हुआ। इस अंक में ‘ऑर्गनायज़र’ ने
एक समाचार भी दिया- “रा. स्व. संघ हत्याओं का निषेध और संयम रखने की अपील करता हैं”। इस
समाचार में संघ के तत्कालीन सह-सरकार्यवाह मदनदास देवी का बयान दिया गया कि ‘संघ हिंदू
समाज से गोधरा हमले के बाद संयम रखने की अपील करता है’। संघ ने गोधरा हत्याकांड के तुरंत
बाद, दंगों की शुरूआत होने से पहले ही हिंदू समाज से प्रतिकार न करने की, और संयम रखने की
अपील की थी।

‘ऑर्गनायज़र’ साप्ताहिक के १० मार्च २००२ के अंक में के समाचार का स्कैन्ड फ़ोटो यहाँ दिया
गया है। इसी अंक में उसी पृष्ठ पर संघ के तत्कालीन सरकार्यवाह मोहन भागवत (१९५०-) की अपील को भी प्रकाशित किया गया है। मोहन भागवत ने अपनी अपील में ‘घोषणाबाज़ी, पत्थरबाज़ी समेत’
शांति भंग होने वाला कोई भी कार्य न करने का आह्वान किया। २७ फरवरी को मोहन भागवत ने की
यह अपील ‘ऑर्गनायज़र’ में प्रकाशित हुई, जिसका फ़ोटो यहाँ दिया गया है।

‘इंडिया टुडे’ के ११ मार्च २००२ के अंक में २८ फरवरी तक की घटनाओं का वर्णन किया गया है।
इस अंक के कवर स्टोरी के आख़िरी परिच्छेद में ‘इंडिया टुडे’ ने लिखा-

“राज्य संघर्ष (युद्ध) के मूड में है। गाड़ी में जलकर मरने वाले अहमदाबाद के निकट रामोल गाँव के ११
मृतकों के शवों के साथ दस हज़ार लोगों ने शवयात्रा निकाली। वे ‘तुम्हारी शाहिदी बेकार नहीं जाएगी, मंदिर
बनाकर ही रहेंगे’ जैसी उद्धोषणाएँ कर रहे थे… इस घटना पर राज्य के मुख्य विरोधी पक्ष कांग्रेस की प्रतिक्रिया
सम्मिश्र स्वरूप की थी। वरिष्ठ कांग्रेस नेता अमर सिंह चौधरी ने इस घटना का निषेध किया, परंतु उकसाने का
आरोप लगाकर दोष रामसेवकों को भी दिया। अ.भा. कांग्रेस समिति के वरिष्ठ सदस्य अहमद पटेल ने इस
घटना की कड़ी निंदा की। उन्हें प्रतिक्रिया देने के लिए समय मिलेगा। गुजरात के लिए चिरपरिचित रक्तरंजित
हिंसाचार की शृंखला अभी शायद केवल प्रारम्भ ही हुई है।”

इसका मतलब ‘इंडिया टुडे’ को २८ फरवरी को ही यह पता था कि गुजरात में रक्तरंजित
हिंसाचार की शृंखला शुरू हो चुकी थी, और आगे भी कई दिनों तक लगातार चल सकती थी। पर
वास्तव में ये दंगे तीन दिनों में ही थम गए; हालाँकि अहमदाबाद, वडोदरा और गोधरा के आसपास कुछ क्षेत्रों में छुट-पुट दंगे (‘stray riots’) और छोटी घटनाएँ बाद में होती रहीं। भाजपा और मोदी के
कट्टर विरोधी ‘आउटलुक’ साप्ताहिक ने भी ११ मार्च २००२ के अंक में (यानी २८ फरवरी को, उस
अंक में २८ फरवरी तक की घटनाएँ दी थी) लिखा कि: “गुजरात हमेशा से ही सांप्रदायिक दृष्टी से
विस्फोटक स्थान रहा है और एक छोटी सी चिंगारी भी बड़ा संकट पैदा करती है। गोधरा का भूत अब अगले
कई महीनों तक इसी रास्ते पर मार्गक्रमण करेगा, ऐसा लगता है।”
(संदर्भ: http://www.outlookindia.com/article/200-On-The–Human-Richter/214849 )

गोधरा और अन्य दुःखद घटनाओं में अंतर

कुछ लोगों ने पूछा हैं कि, “गोधरा के बाद ही दंगे क्यों भड़के? इस तरह के दंगे अक्षरधाम मंदिर
पर हुए हमले के बाद (२४ सितंबर २००२) या मुंबई के २६/११/२००८ के हमले बाद क्यों नहीं हुए?”
इसके अनेक कारण हैं। भारत के विभिन्न स्थानों जैसे मुंबई, जम्मू, नई दिल्ली में हुए हमले
आतंकवादियों ने किए थे और वो आतंकवाद के कृत्य थे। गोधरा का हमला आतंकवादी हमला नहीं
था, बल्कि कट्टर धर्मांधता के कारण हुआ जंगली हमला था (‘an act of communalism and sadistic
barbarism’)।

हमलावर भी अलग थे। कहा जाता है कि ‘आतंकवादियों का कोई मज़हब’ नहीं होता। अक्षरधाम
मंदिर पर हमला करने वालों को मीडिया ने ‘आतंकवादी’ कहा और यही ठीक था। इस हमले में दो
विदेशी आतंकवादियों ने ३० से अधिक लोगों की जानें ली थीं, और वो दोनों आतंकवादी मारे गए,
मुक्त नहीं छूटे। यह हमला स्थानीय मुसलमानों ने नहीं किया था। मीडिया में किसी ने भी यह नहीं
कहा कि “अक्षरधाम में मुस्लिमों ने ३० हिंदुओं को मारा”। बल्कि कहा कि “अक्षरधाम मंदिर पर
आतंकवादियों का हमला”। यदि मीडिया, खासकर टी.वी. चैनल, और गैर-भाजपा नेता जो २७ फरवरी
२००२ को टी.वी. पर आए, ने गोधरा की घटना को ‘मानवीय त्रासदी’ कहा होता और वैसी ही
प्रतिक्रिया दी होती जैसी उन्होंने २६/११ या अक्षरधाम के बाद दी, तो शायद गोधरा घटना के बाद के
दंगों को टाला जा सकता था।

सबसे महत्त्वपूर्ण, गोधरा में एक हज़ार से अधिक लोगों का समूह था और तेवाटिया समिति और
वीर संघवी के अनुसार यह संख्या दो हज़ार थी। चूँकि, अनेक अंग्रेज़ी समाचार पत्रों ने दूसरे दिन दिए
समाचारों के अनुसार २७ फरवरी को शाम तक केवल ३५ लोगों कों गिरफ़्तार किया गया, लोगों को
यह बहुत ही कम लगा। गोधरा हत्याकांड के अधिकांश दोषी मुक्त छूट जाने के कारण दंगे हुए।
गुजरात के सबसे उत्कृष्ट पुलिस अधिकारियों में से एक, एम. एम. सिंह के अनुसार हत्याकांड के बाद
गोधरा के उस सम्पूर्ण परिसर को पुलिस ने घेर लेना चाहिए था। उनके मत में, ऐसा किया जाता तो

हिंदुओं की भावनाएँ कुछ मात्रा में क़ाबू में रखी जा सकती थीं। उनकी राय को ‘इंडिया टुडे’ के १८
मार्च २००२ के अंक में बताया गया, जिसने उस अंक में और भी कहा:

“२८ फरवरी को हुए शुरुआती विस्फोट का दोष मोदी सरकार को दिया जा रहा है गोधरा हत्याकांड के लिए
ज़िम्मेदार लोगों को गिरफ़्तार करने में सरकार की असफलता के कारण। जिस झोपड़पट्टी बस्ती से यह हमला
हुआ वह रेलवे की ज़मीन पर अवैध तौर पर बसाई गई थी और हमलावरों में संदिग्ध मुख्य दस आरोपियों में
सभी का आपराधिक रिकॉर्ड हैं। इनमें से कुछ लोगों को राजनैतिक संरक्षण भी प्राप्त था। एक मुख्य आरोपी
हाजी बिलाल का संबंध तस्करों और छुपी तस्करी करने वालों से (smugglers and traffickers) था। भाजपा के एक विधायक के अनुसार हाजी इतना ताक़तवर गुंडा था कि, ‘कुछ माह पूर्व अधिकारियों को उसके घर पर एक
नोटिस लगाना भी मुश्किल हो गया था’। २७ फरवरी को विश्व हिंदू परिषद ने उन लोगों पर कड़ी कार्यवाही किए
जाने की माँग राज्य सरकार से की थी, और जब वह इसमें नाकामयाब हुई, लोगों का सारा गुस्सा सभी
मुस्लिमों पर निकला।”
(संदर्भ: https://www.indiatoday.in/magazine/india-today-
archives/story/20020318-a-look-at-the-events-that-led-to-the-worst-
riots-in-gujarat-since-partition-795714-1999-11-30
)

न्यायमूर्ति तेवाटिया समिति की रिपोर्ट में कहा गया था:

“गोधरा, अहमदाबाद, और वडोदरा में सरकारी और गैर सरकारी स्रोतों से एकत्र की गई जानकारी के आधार
पर अध्ययन दल का विचार है कि:
1. गोधरा नरसंहार के विरोध में स्थानीय प्रशासन ने तत्काल कार्रवाई नहीं की। पुलिस एक निष्क्रिय दर्शक
बनी रही और उपद्रवियों के खिलाफ बल प्रयोग करने में झिझकती रही। पुलिस ने भीड़ के नेताओं को
पकड़ने का कोई प्रयास नहीं किया, जो अयोध्या से लौट रहे निर्दोष तीर्थयात्रियों को जिंदा जलाने में
शामिल थे। हालांकि ट्रेन पर हमले के विरोध में विंहिप द्वारा गुजरात बंद का आव्हान करने के बाद
(गोधरा के बाद) प्रशासन ने निवारक उपाय किए।”

यह, सारी संभावनाओं में, ‘सांप्रदायिक’ कहे जाने के डर से था।

चूँकि यह स्थानीय मुसलमानों ने किया और अधिकांश अपराधी मुक्त छूट गए, मीडिया मृत
रामसेवकों की निंदा और अपमान करता रहा, परिणामस्वरूप २८ फरवरी को अहमदाबाद और २५
अन्य जगहों में संतप्त लोगों के गुस्से का विस्फोट हो गया।

इंडियन एक्स्प्रेस ने २८ फरवरी २००२ के अंक में लिखा: “‘पत्थरबाज़ी के बाद वे तेल/पेट्रोल लेकर
हमारी बोगी में घुसे और आग लगा दी। हममें से कुछ लोग ही खिड़कियाँ तोड़कर बाहर आ सके। वयस्क लोग
और वृद्ध व्यक्ति अंदर ही फँसे रह गए। वृद्ध महिलाएँ “हमें मत मारो” कहकर विनती कर रही थीं, पर
उन्होंने एक न सुनी।’
ऐसा १६ वर्षीय गायत्री पांचाल कहती हैं, जिसने बताया कि गाड़ी से कूदने के बाद तीन-
चार लोगों ने उसका पीछा किया।”

मिड डे ने ६ मार्च २००२ को लिखा:
“उस दुर्भाग्यपूर्ण गाड़ी से उतरी ६५ वर्षीय देविका लुहाना गुस्से से थरथर काँप रही थी। उसने बताया, ‘यह
सबसे भयंकर गुंडागर्दी थी। उन्होंने मुझ जैसी वृद्ध महिलाओं को भी नहीं छोड़ा और अंधाधुंध पत्थरबाज़ी करते
रहे। इस भयंकर कृत्य के लिए वे नरक में जाएँगे’। ख़ुद को बचाने के प्रयास में वह अपना बैग भी न ले सकी।
दुर्गा वाहिनी की कार्यकर्ती हेतल पटेल ने बताया ‘वे महिलाओं के डिब्बे में घुसे और हमें कुछ समझ में
आता इससे पहले ही उन्होंने पूरी बोगी को आग लगा दी। हममें से कुछ भाग सकीं परंतु हमारी कई बहनें इस
अग्निकांड मे फँस गईं।… यह सब भयंकर था’।
इस घटना की दहशत १३ वर्षीय ज्ञानप्रकाश को अभी भी परेशान करती हैं। वह समय-समय पर रोता रहता
है। अहमदाबाद के अस्पताल में इलाज करवा रहे ज्ञानप्रकाश ने कहा ‘मेरी आँखों के सामने व्यक्ति जलने के दृश्य को मैं भूल नहीं सकता’।
ज्ञानप्रकाश साबरमती एक्स्प्रेस की एस-२ बोगी में यात्रा कर रहा था, जब उसे
बुधवार को गोधरा में जलाया गया। उसका परिवार एक रिश्तेदार का अंतिम संस्कार करके अहमदाबाद वापिस
लौट रहा था। वे कानपुर में गाड़ी में बैठे थे। ज्ञानप्रकाश ने यह आतंक याद किया, ‘गाड़ी ने गोधरा छोड़ने के
तत्काल बाद स्टेशन से थोड़े अंतर पर गाड़ी रुक गई। अचानक गाड़ी पर पत्थरबाज़ी शुरू हो गई। यह
पत्थरबाज़ी लगभग घंटे भर चालू रही। हमारे डिब्बे में कुछ वस्तु आकर गिरी और चारों तरफ़ धुँआ फैल गया।
यह इतना दमघोंटू था कि मुझे साँस लेना मुश्किल हो रहा था। मेरे पिताजी ने मुझे गाड़ी से उतरने के लिए
कहते मैंने सुना। मैं दरवाज़े के पास गया लेकिन मैंने देखा कि गाड़ी से बाहर निकलने का प्रयास करने वालों
को वे लोग चाकू से घोपकर मार रहे थे। मैं दूसरी ओर गया और नीचे कूद गया’।”

वृद्ध महिलाएँ विनती कर रही थीं की “हमें मत मारो”, परंतु हमलावरों ने किसी को नहीं छोडा- न
बच्चों को, न वृद्ध व्यक्तियों को, और महिलाओं को तो बिलकुल ही नहीं।
सबसे भयंकर बात यह थी
कि वे लोग बाहर निकलने वालों को वापस डिब्बे के अंदर धकेल रहे थे, पीड़ा से बिलखने, विनती
करने वाले ५९ हिंदुओं को जल कर मरता हुआ देख रहे थे। (गायत्री पांचाल जैसे जो लोग डिब्बे से
बाहर आने में सफल हुए, उन्हें भी वापस गाड़ी में धकेलने का प्रयास किया गया।) दो हज़ार हमलावरों
ने इन ५९ लोगों को यदि गोली मारकर मार डाला होता, तो यह इतना भयानक नहीं होता। गाड़ी को
आग लगाकर यदि समूह भाग गया होता तो भी लोग इतने संतप्त नहीं होते। परंतु हमलावर
वर्णनातीत जंगली थे। गाड़ी से बाहर निकलने की कोशिश करने वाले व्यक्तियों को उन्होंने अंदर
धकेला और १५ छोटे बच्चों सहित ५९ लोगों को वे जल कर मरते हुए देखते रहे।

क्या कोई पाकिस्तान के कराची रेलवे स्टेशन पर दो हज़ार हिंदुओं ने ५९ हज यात्री मुस्लिमों की
(जिसमें २५ महिलाएँ व १५ बच्चे शामिल हों) जलाकर हत्या करने की कल्पना भी कर सकता हैं?
यदि पाकिस्तानी हिंदुओं ने यह करने की हिम्मत दिखाई तो पाकिस्तान में हिंदुओं पर कैसा बदला
लिया जाएगा, इसकी कल्पना भी करना मुश्किल है।

दूसरे दिन लोगों ने प्रतिकार क्यों किया, इस बात को समझने के लिए गोधरा हत्याकांड के फ़ोटो
देखने चाहिए। इंटरनेट पर ‘गोधरा फ़ोटोज’ सर्च किए जाने पर सारे फ़ोटो देखे जा सकते हैं। इन फ़ोटों
को इस लिंक पर भी देखा जा सकता है।
http://www.gujratriots.com/index.php/2011/10/Godhra-photos/
चेतावनी: भयंकर फ़ोटो

मानवीय पीड़ा को समझने वाला कोई भी व्यक्ति इन फ़ोटों को देखकर गुजरात में हुए प्रतिकार
का कारण समझ सकता है। परंतु कुछ राजनैतिक नेता और मीडिया हिंदुओं की यातनाओं पर अंधे हैं।
कुछ लोग तो हिंदुओं और ख़ासकर विहिंप समर्थकों को इंसान समझते ही नहीं हैं। गोधरा की इतनी
भीषण हत्याएँ भी तथाकथित ‘धर्मनिरपेक्षता’वादियों का हृदय पिघला नहीं सकीं। अगर वे गोधरा की
घटना के लिए भी मुस्लिमों का समर्थन करते हैं और मारे गए बच्चोंको दोष देते हैं, तो सवाल यह
उठता है कि कौन-सी घटना होने पर ये ‘धर्मनिरपेक्षता’वादी मुस्लिमों का निषेध करेंगे?

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