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अध्याय ७ रची गई मनगढ़ंत और बनावटी कहानियाँ और तथ्य

अब तक हमने ‘गोधरा’ के बाद के दंगों के वास्तव का काफ़ी सच देखा है। इस अध्याय में हम पिछले अनेक वर्षों से जान-बूझकर कर प्रसारित कुछ मनगढ़ंत कहानियों को देखेंगे। मनगढ़ंत कथा १: गुजरात दंगों में २ हज़ार मुस्लिम मारे गए सच्चाई: कांग्रेस पार्टी के नेता और तत्कालीन यू.पी.ए. सरकार के केंद्रीय गृहराज्यमंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने ११ मई २००५ को संसद में दंगों के संबंध में लिखित उत्तर में दी जानकारी के अनुसार दंगों में ७९० मुस्लिम और २५४ हिंदू मारे गए, २५४८ लोग घायल हुए, और २२३ लोग लापता थे (उस समय)। इस उत्तर के अनुसार दंगों से प्रभावित विधवा महिलाओं की संख्या ९१९ है जबकि अनाथ हुए बच्चों की संख्या ६०६ है। नरेंद्र मोदी की कट्टर विरोधी यू.पी.ए. सरकार ने यह जानकारी दी है। यू.पी.ए. गठबंधन के अनेक नेताओं ने समय-समय पर दंगों में मृत लोगों के आँकड़ों को मनमाने ढंग से बढ़ा-चढ़ा कर बताया था (उदा. मार्च २००४ में सब टी.व्ही. के ‘खुला मंच’ कार्यक्रम में कांग्रेस नेता नरेंद्र नाथ ने भाजपा के साहिब सिंह वर्मा के साथ हुई चर्चा में कहा कि इन दंगों में ‘लाखों मुसलमान मारे गए’)। (संदर्भ: https://web.archive.org/web/20100406025921/http://www.expressindia.com/news/fullstory.php?newsid =46538) भारतीय मुसलमानों के अंग्रेज़ी अख़बार ‘मिल्ली गेज़ेट’ ने भी यू.पी.ए. सरकार ने दिए इन आंकड़ो की यह ख़बर प्रकाशित की थी। (संदर्भ: http://www.milligazette.com/Archives/2005/01-15June05- Print-Edition/011506200511.htm) कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय अंग्रेज़ी अख़बारों के संपादकीय, और संपादकीय पृष्ठ पर लेखकों द्वारा लिखे गए लेख, और अन्य प्रकाशित वार्तांकनों के ज़रिए कई वर्षों से केवल झूठ की नदियाँ बहाई गईं, और मृतकों की संख्या को अतिशयोक्तिपूर्ण ढंग से काफ़ी बढ़ाकर बताया गया, बोला ‘हज़ारों मुसलमान मारे गए’। एन.डी.टी.वी. ने भी अप्रैल-मई २००४ के लोकसभा चुनाव के दौरान बार- बार यह दोहराया कि “गुजरात में दो हज़ार मुस्लिम मारे गए”। ‘आज तक’ के श्री प्रभु चावला ने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का इंटरव्यू लिया था; यह इंटरव्यू ‘इंडिया टुडे’ के ४ नवंबर २००२ के अंक में प्रकाशित हुआ था, उसके कुछ अंश इस प्रकार हैं: “ …प्रश्न– दंगों में ११०० निर्दोष लोगों की हत्या के लिए आपको ज़िम्मेदार माना जाता है। उत्तर– हमारे पिछले साक्षात्कार (इंटरव्यू) में आपने ९०० कहा था। अब आप ११०० कह रहे हैं। क्या आप महाराष्ट्र और बंगाल जैसे अन्य राज्यों के मृतकों की संख्या को गुजरात की संख्या में मिला रहे हैं? (मोदी महाराष्ट्र के सोलापुर में १० और ११ अक्तूबर २००२ को हुए दंगे और अन्य दंगों के बारे में बात कर रहे थे, जिनका गोधरा से किसी प्रकार का संबंध नहीं था।) प्रश्न– फिर मृतकों की वास्तविक संख्या कितनी है? उत्तर- अगर ‘गोधरा’ घटित नहीं होता तो गुजरात में दंगे होते ही नहीं। … प्रश्न- राज्य में लोगों को सुरक्षा देने में आप असफल रहे, क्या इस बात को आप मानते हैं? उत्तर– यदि हम अपने कर्त्तव्य करने में असफल रहते तो ९८ प्रतिशत गुजरात में शांति नहीं होती। मात्र ७२ घंटों में हमने दंगों पर नियंत्रण पा लिया।…” (संदर्भ: http://indiatoday.intoday.in/story/communal-riots-in-gujarat-were-unfortunate-narendra- modi/1/218681.html) जैसा कि हम देखते हैं, मात्र चार महीनों के अंदर मोदी के दो साक्षात्कारों के बीच में दंगों में मृतकों की संख्या ९०० से ११०० पर पहुँच गई! अब यह संख्या ९०० से २००० तक बढ़ाई गई है। किसी एक निर्दोष व्यक्ति की मौत, चाहे हिंदू हो या मुसलमान, या अन्य किसी धर्म का, भी बहुत दुर्भाग्यपूर्ण हैं, और उसका समर्थन नहीं किया जा सकता। १,००० से अधिक लोगों के जान गई यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण, और निंदनीय हैं। लेकिन इससे अतिशयोक्ति कर यह आकडा २,००० या कोई भी अधिक आकड़ा बताने का समर्थन नहीं किया जा सकता। ‘गोधरा’ के बाद के हुए दंगे एकतरफ़ा थे, यह विश्वास आम लोगों के साथ संघ परिवार में भी था। भारतीय अंग्रेज़ी अख़बारों ने ‘गुजरात दंगों की घटना के कारण हुए’ यह बहाना बताकर देश के विभिन्न शहरों में हुए आतंकवादी हमले और बम विस्फोटों का युक्तिकरण किया (उदहारण- जुलाई २००८ में हुए अहमदाबाद बम विस्फोट)। अनेक आतंकियोंने यह दावा करना कि “हम गुजरात दंगों का प्रतिशोध ले रहे हैं”, यहीं मीडिया की झूठी ख़बरों के भयंकर परिणामों को दर्शाता है। जिस यू.पी.ए. ने संसद में अधिकृत रूप से बताया कि गुजरात दंगों में मारे जाने वालों में ७९० मुस्लिम और २५४ हिंदू थे, उसकी अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी थी, और उसे कम्युनिस्ट (वामपंथी) पार्टियों द्वारा बाहर से समर्थन प्राप्त था, और उसमें मुस्लिम लीग यह पार्टी भी शामील थी। यह उत्तर लिखित रूप में होने के कारण सरकार को निश्चित तौर पता था कि वह क्या कर रही है। कांग्रेस के राज्यसभा सांसद और बाबरी मस्जिद कृति समिति के वकील श्री आर.के. आनंद ने पूछे सवाल के उत्तर में सरकार ने यह जानकारी दी थी। गुजरात सरकार ने ११६९ मृतकों के रिश्तेदारों को मुआवज़ा दिया (इनमें ८६३ मुस्लिम और ३०६ हिंदू होने की जानकारी थी, लेकिन मैं इसकी स्वतंत्र रूप से जाँच नहीं कर पाया)। मई २००८ में यू.पी.ए. सरकार ने भी गुजरात दंगों के पीड़ितों को अतिरिक्त ३.५० लाख दिए, वो भी ११६९ मृत लोगों के ही रिश्तेदारों को थे। http://archive.indianexpress.com/news/govt-enters-poll-year-with-relief-for-gujarat-riot-victims/313352 इससे साबित होता है कि दंगों में मृतकों की अधिकतम संख्या ११६९ ही है, क्योंकि यह पूरी तरह असंभव है कि कट्टर भाजपा विरोधी यू.पी.ए. सरकार किसी भी पीड़ित को मुआवज़ा न दे, जब दंगों का इतना राजनीतिकरण हुआ, जब यू.पी.ए.ने इस विषय पर नरेंद्र मोदी पर इतने हमले किए, और जब उनके नेताओं ने दंगों पर अतिशयोक्तिपूर्ण दावे किए। [और अगर यू.पी.ए., जो नरेंद्र मोदी की कट्टर विरोधी हैं, दावा करती हैं कि ११६९ से अधिक लोग दंगों में मारे गए, तो यह खुद ही मान्य करना होगा कि उसने कुछ मृत लोगों के परिवारों को मुआवज़ा नहीं दिया!] संसद में यू.पी.ए. ने दिए आकडे ११७१ मृत बताते हैं- ७९० मुस्लिम, २५४ हिंदू और १२७ लोग लापता (१०१ गायब लोग जीवित पाए जाने के बाद), ७९०+२५४+१२७=११७१। यह संख्या ११६९ के बहुत क़रीब है, जो ‘एक्स-ग्रेशिया’ गुजरात और यू.पी.ए. सरकार दोनों ने दिया। गुजरात में तैनात की गई सेना की वापसी २१ मई २००२ से होने लगी। ‘द ट्रिब्यून’ ने ३० अप्रैल २००२ को खबर दी कि मृतकों की संख्या २९ अप्रैल को ९०० पार कर गई। तब तक दंगे लगभग समाप्त हुए थे और ज्यादा-से-ज्यादा ५० और लोग १० मई २००२ तक मारे गए होंगे। यह २८ फरवरी, १ मार्च और २ मार्च की मुख्य बड़ी हिंसा के दो महीनों के बाद था, और उन दिनों हुई हत्याओं की अधिकांश लाशें ३० अप्रैल तक मिल गई थी। लापता व्यक्तियों को मृत घोषित करने से पहले आधिकारिक मृत संख्या ९५२ थी, जिसे ‘टेलीग्राफ’ने ७ साल का काल समाप्त होने के बाद १ मार्च २००९ को बताया। (संदर्भ:https://web.archive.org/web/20120608125144/http://www.telegraphindia.com/109031/jsp/natio n/story_10608005.jsp) इस प्रकार सभी लापता लोगों को मृत समझ कर गुजरात में मारे गए लोगों की सबसे अधिक संख्या ११७१ होती हैं। ११७१ से अधिक एक भी व्यक्ति गुजरात दंगों में मारा गया, यह कहने की गुंजाइश किसी को भी, जैसे कोई मज़हबी स्वतंत्रता गुट, या एन.डी.टी.वी. जैसे टी.वी. चैनल, नहीं थी। दो हज़ार, यह संख्या गुजरात के दंगों में मारे गए मुस्लिमों की नहीं है बल्कि गोधरा हत्याकांड में साबरमती एक्स्प्रेस पर हमला करने वाले मुस्लिमों की है। सही आँकड़ा बताना हर एक का कर्त्तव्य है। जैसा कि हमने दूसरे अध्याय में देखा ही है कि तथाकथित पंथनिरपेक्षतावादी हमेशा मुस्लिमों की ज़्यादतियों को कम बताने और हिंदुओं को हुआ नुकसान कम-से-कम दिखाने की कोशिश करते हैं। उनकी इसी मानसिकता के कारण गुजरात दंगों में मुस्लिम मृतकों की संख्या अतिशयोक्तिपूर्ण रूप से आसमान छू रही थी। मनगढ़ंत कथा २: एक तरफा हमलों में केवल मुसलमान मारे गए सच्चाई: बेशक नरोड़ा पाटिया, गुलबर्ग सोसायटी, नरोड़ा गाँव, सदरपुरा, पांडरवाड़ा, ओड़ और अन्य ठिकानों पर एकतरफ़ा हमलों में मुस्लिम मारे गए, परंतु सारे दंगे एकतरफ़ा नहीं थे। जैसा कि हमने पहले के कुछ अध्यायों में देखा है- ख़ास कर पहले तीन दिनों के बाद मुस्लिम भी हिंदुओं की तरह ही आक्रामक थे। मुस्लिमों ने हिम्मतनगर, मोदासा, भरूच, और अहमदाबाद के दानीलिमड़ा, सिंधी मार्केट, और अन्य भागों में हिंदुओं पर भीषण हमले किए गए। ‘इंडियन एक्स्प्रेस’ व ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ की रिपोर्टों के अनुसार मुस्लिमों ने कई स्थानों पर दंगे शुरू किए और अनेक हिंदुओं को उनके घरों से निकाल कर बेघर कर दिया। ‘इंडिया टुडे’ के १५ अप्रैल २००२ के अंक में भी इसी प्रकार की जानकारी दी गई है। कोई चालीस हज़ार हिंदुओं को दंगा-पीड़ित शिविरों में शरण लेनी पड़ी। मुस्लिमों के हाथों दंगों में दलित समुदाय का सबसे अधिक नुकसान हुआ। २१ मार्च २००२ को अहमदाबाद के रेवड़ी बाज़ार में हिंदुओं की ५० दुकानें जला दी गईं, और इस घटना में १५ करोड़ रुपयों का नुकसान हुआ। ३ मार्च २००२ के बाद मुस्लिमों द्वारा १५७ दंगे शुरू करने की घटनाओं को पुलिसने अधिकारिक तौर पर दर्ज किया है। उनके क्षेत्र में अपराधियों की खोज के लिए आई हुई न सिर्फ़ पुलिस, बल्कि भारतीय सेना पर भी मुस्लिमोंने पथराव भी किया और गोलियाँ भी चलाईं। मुस्लिम निवासियों ने दंगाइयों के फ़रार होने और छुपाए हुए हथियारों को लेकर भागने के लिए मानव शृंखलाएँ बनाई और बिजली के तार काट दिए। विभिन्न न्यायालयों ने ‘गोधरा’ के बाद दंगे भड़काने के आरोप में कुछ मुसलमानों को दोषी क़रार दिया। कुल ८० मुस्लिम दोषी घोषित हुए। इसके विवरण हम आगे देखेंगे। मुस्लिमों के दोषी पाए जाने से यह साबित होता है कि मुस्लिम भी उतने ही आक्रामक थे। मनगढ़ंत कथा ३: पूरा गुजरात जल रहा था सच्चाई: उस समय राज्य में १८,६०० गाँव, २४० क़स्बे (towns), २५ ज़िला-मुख्यालय थे, जिनमें से अधिकतम ९० स्थानों पर दंगे भड़के थे। इनमें अहमदाबाद और वडोदरा जैसे बड़े शहरों को शामिल कर लेने पर भी, कल्पनाशक्ति पर कितना भी ज़ोर डालकर ज़्यादा से ज़्यादा यह कहा जा सकता है कि राज्य का दो प्रतिशत हिस्सा जल रहा था। हमने तीसरे अध्याय में देखा कि एक तिहाई गुजरात में, यानी सौराष्ट्र और कच्छ में पहले तीन दिनों में भी दंगे नहीं फैले थे। इसी तरह गुजरात के २५ ज़िलों में से मात्र सात ज़िलों में बड़े पैमाने पर हिंसा हुई। आधिकारिक आँकड़ों के अनुसार शेष १८ ज़िले या तो दंगा-मुक्त थे या वहाँ अत्यंत मामूली हिंसा हुई। हमने इससे पहले कुछ लोगों का दावा, जो उन्होंने आर. श्रीकुमार की रिपोर्ट का संदर्भ दे कर किया, कि ९९३ गाव और १५४ विधानसभा सीटो के क्षेत्रों में दंगे हुए, भी पूरा झूठा सिद्ध किया हैं। मनगढ़ंत कथा ४: गुजरात पुलिस ने दंगों को अनदेखा किया सच्चाई: पुलिस करवाई को हम पहले विस्तार से देख चुके हैं, जिसने कम-से-कम २४ हज़ार मुस्लिमों को बचाया (उदा. संजेली, बोडेली और वीरमगाम में), और अनेक हिंदुओं को भी बचाया। ‘एनसायक्लोपीडिया विकिपीडिया’ ने लिखा कि दंगों पर क़ाबू पाने के प्रयासों में २०० पुलिसकर्मी मारे गए। यह संख्या मुझे असंभव लगती है। आधिकारिक रिकॉर्ड के अनुसार ५५२ सुरक्षाकर्मी घायल हुए, जिनमें से ८३ अधिकारी थे, जबकि ४१९ पुलिसकर्मी और ५० होम गार्ड के जवान थे। इन आँकड़ों में मृतक सुरक्षाकर्मियों की संख्या नहीं दी गई है। मनगढ़ंत कथा ५: गुजरात पुलिस मुस्लिम-विरोधी थी सच्चाई: इसके विपरीत, मीडिया ने ‘मुस्लिम-विरोधी’ होने का आरोप लगाने के डर से पुलिस मुस्लिम कट्टरपंथियों पर कृती करने में देरी कर रहीं थी। पहले तीन दिनों में पुलिस गोलीबारी में मारे गए लोगों में अधिकांश हिंदू थे (९८ में से ६०)। ६ अप्रैल २००२ तक पुलिस गोलीबारी में कुल १२६ लोग मारे गए जिसमें से ७७ हिंदू थे। ७४ दिनों के दंगों के दौरान हिंदू शायद पहले तीन दिनों में आक्रामक थे, जबकि ७४ दिनों में से ७३ दिन शायद मुस्लिम आक्रामक रहे। वास्तव में नरोड़ा पाटिया, गुलबर्ग सोसायटी, सदरपुरा, पांडरवाड़ा जैसे ४-५ ठिकानों पर मुस्लिमों पर बड़े पैमाने पर हमले किए गए, जिसमें कई मुस्लिम मारे गए, और हिंसक भीड़े बेकाबू थी, उनकी तुलना में पुलिस बल अत्यंत कम होने के कारण पुलिस गोलीबारी में इन हमलों में ज़्यादा लोग मारे नहीं जा सके। १ मार्च २००२ को सेना उपस्थित होते हुए, और ‘देखते ही गोली मारने’ के आदेश शुरू होते हुए मुस्लिमों ने प्रतिकारी आक्रमण करने के कारण पुलिस गोलीबारी में मुस्लिम भी मारे गए, क्योंकि उस समय स्थिति नियंत्रण के बाहर नहीं थी। २८ अप्रैल २००२ तक पुलिस गोलीबारी में ७७ से ८० हिंदू, तथा ९३ मुस्लिम मारे गए। पुलिस गोलीबारी में मारे गए मुस्लिमों की संख्या अधिक होने के बारे में स्पष्टीकरण ऊपर आ चुका है। ‘इंडिया टुडे’ ने अपने २० मई २००२ के अंक में स्पष्ट रूप से इस बात को माना है कि पुलिस ने मुस्लिम कट्टरपंथियों के विरुद्ध कार्यवाही करने में देरी की, क्योंकि उन्हें उनपर ‘मुस्लिम-विरोधी’ मुहर लगने का डर सता रहा था। (संदर्भ:https://web.archive.org/web/20131013212042/http://archives.digitaltoday.in/indiatoday/200205 20/states2.html) ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ की २८ अप्रैल २००२ की ख़बर के अनुसार पुलिस ने तब तक प्रतिबंधात्मक उपाय के रूप में लगभग १८ हज़ार हिंदुओं को गिरफ़्तार किया, जबकि दंगों के आरोप में १० हज़ार हिंदुओं को गिरफ़्तार किया। इन सारे दंगों की घटनाओं में कुल ४२७४ मामले यानी एफ.आय.आर. दर्ज किए गए। २०१२ साल तक १९२०० हिंदू और ७७९९ मुस्लिमों को गिरफ़्तार किया गया, यह कुल संख्या २६९९९ अर्थात् क़रीब २७००० है। अक्तूबर २००५ तक २५,२०४ लोगों को गिरफ़्तार किया गया था, गिरफ़्तारी की अंतिम संख्या में इससे थोड़ा इज़ाफ़ा हुआ है। पुलिस ने मामलों को दर्ज करने और उन्हें अंतिम रूप देने में पूरी सक्षमता से कार्य किया, परिणामस्वरूप गोधरा और बाद के दंगों में विभिन्न मुक़दमों में मार्च २०२० तक कम-से-कम ४८८ लोगों को दोषी क़रार दिया गया, जिसमें ३७४ हिंदू और ११४ मुस्लिम थे, जो की एक रिकॉर्ड हैं। मनगढ़ंत कथा ६: गुजरात के दंगे, भारत का ‘सबसे भीषण नरसंहार’ थे सच्चाई: वर्ष २००२ के गुजरात दंगे १९६९ के गुजरात दंगों की तुलना में या स्वतंत्रता से पहले वर्ष १९४० के दशक में अहमदाबाद के दंगों की तुलना में, जिनमें हिंदुओं ने बुरी तरह मार खाई थी, काफी कम गंभीर थे। गुजरात में १९८०, १९८२, १९८५ (लंबे व बड़े), १९९०, और १९९२ में भी बड़े दंगे हुए थे। कांग्रेस के शासन में वर्ष १९८४ में नई दिल्ली में भीषण दंगे हुए। इन दंगों में अधिकारिक तौर पर तीन हज़ार लोग मारे गए। ये दंगे केवल नई दिल्ली तक ही सीमित नहीं थे, बल्कि नई दिल्ली से दूर त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में भी दंगे हुए। भारत में १९९२-९३ के बाबरी विध्वंस के बाद हुए दंगों में २ से ३ हजार लोग मारे गए थे। जम्मू और कश्मीर में वर्ष १९८९ से ४० हज़ार भारतीय मारे गए हैं। गोधरा के बाद हुए दंगों को ‘देश का सबसे भीषण नरसंहार’ कहना तो दूर, ‘नरसंहार’ (massacre) भी नहीं कहा जा सकता। सबसे भीषण हत्याकांड मध्य-युग में हिंदुओं का हुआ था। वर्ष १३९९ में तैमूर ने दिल्ली में एक दिन में ही एक लाख हिंदुओं का नरसंहार किया था। एक और आक्रमणकारी नादिरशाह ने वर्ष १७३९ में दिल्ली में बड़े पैमाने पर क़त्लेआम किया था। मध्य-युग के हिंदुओं के इन हत्याकांडों को देखने के बाद हिटलर ने १९३० के दशक में गैस चेंबरों में किया यहूदी समुदाय का हत्याकांड भी फीका लगता है। मध्य-युग में हिंदुओं के नरसंहार अकबर (जिसका शासनकाल १५५६-१६०५ था) सहित सभी महत्त्वपूर्ण मुस्लिम शासकों ने किए थे। फरवरी १५६८ में अकबर ने ३० हज़ार हिंदुओं की हत्या करने का आदेश दिया था, हालाँकि १५७० के बाद अकबर बदला। पाकिस्तान और बांग्लादेश, ये दोनों देश भारत का हिस्सा थे, और पश्चिम पाकिस्तान में रहने वाले हिंदुओं की संख्या १९४७ में २० प्रतिशत थी, जो अब घटकर १ प्रतिशत रह गई है; शायद आधुनिक युग का, लेकिन कहीं भी दर्ज न किया गया या न बताया गया, यह सबसे बड़ा नरसंहार, हत्याकांड है। इसी प्रकार आज के बांगलादेश में वर्ष १९०१ में ३४ प्रतिशत हिंदू थे, जो १९४७ में घटकर २९ प्रतिशत रह गए और २०११ में वहाँ पर हिंदुओं का प्रतिशत मात्र ८.६ हो गया है। केवल यही नहीं, भारत में वर्ष १९५१ में हिंदुओं की संख्या ८४ प्रतिशत थी जो घटकर वर्ष २०११ में ७९.८ प्रतिशत हुई। पाकिस्तान के सबसे प्रमुख हिंदू नेता श्री सुदामचंद चावला की २९ जनवरी २००२ को अपने राइस मिल से लौटते समय जकोबाबाद में दिन दहाड़े हत्या कर दी गई। उनके हत्यारों को कोई सज़ा नहीं हुई। ‘मेरी जान को ख़तरा है’, इस बारे में श्री चावला ने अनेक वर्षों तक बार-बार पकिस्तान मानवाधिकार समिति और नागरिक संगठनों से शिकायत की थी। यदि हिंदुओं के सबसे प्रमुख नेता की यह कथा थी, तो सामान्य हिंदुओं की क्या हालत होगी? (लिंक: http://www.sudhamchandchawla.com) स्वतंत्र भारत में भी, हिंसाचार की तुलना यदि अन्य अनेक घटनाओं के साथ करें तो २००२ के दंगे इनके सामने कुछ भी नहीं थे। वर्ष १९८९ में बिहार में कांग्रेस के शासनकाल में भागलपुर में हुए दंगों में एक हज़ार से अधिक लोग मारे गए थे, उनमें से अधिकांश मुस्लिम थे। इस मामले में पहले मुस्लिमों ने हिंदुओं की बस्तियों पर बम फेंकने का आरोप है, जिसके बाद प्रतिकार हुआ। वर्ष १९८३ में असम में (कांग्रेस शासन में) दंगे के केवल एक मामले में २१०० लोग मारे गए थे। मनगढ़ंत कथा ७: गुजरात सरकार दंगों में शामिल थी सच्चाई: पूरे राज्य में मशरूम की तरह बढ़ने वाले मदरसों की ओर नरेंद्र मोदी की गुजरात की भाजपा सरकार ने, पिछली केशुभाई पटेल सरकार की तरह, आँख मूँद ली थी। ‘इंडिया टुडे’ के १८ मार्च २००२ के अंक की रिपोर्ट से पता चलता है कि शायद भाजपा को अपनी नई ‘धर्मनिरपेक्ष’ छवि धूमिल होने का खतरा लगने कारण मदरसों पर नियंत्रण रखने के लिए कोई भी क़दम नहीं उठाया गया। इस अंक में कहा गया है: “आम धारणा है कि धर्मांध विचार फैलाने वाले इस्लामी स्कूलों पर नियंत्रण न होने के कारण राज्य में मुस्लिमों के विरुद्ध नफ़रत की एक अव्यक्त भावना पनपने लगी थी, जिसका दंगों के रूप में विस्फोट हो गया। राज्य में मतांध मदरसों पर नियंत्रण रखने में अधिकारी क्यों असफल रहे, इस मुद्दे की राज्य में विशेष चर्चा है। क्या वह इसलिए था कि भाजपा को यह डर सता रहा था कि कट्टरपंथी मुसलमानों पर कड़ी कार्यवाही करने पर उसकी नई अर्जित ‘धर्मनिरपेक्ष’ छवि को धक्का लगेगा? या यह केवल सामान्य प्रशासनिक अक्षमता थी?” तो भाजपा को अपनी ‘पंथनिरपेक्ष’ छवि को धक्का लगने का डर था। शायद यदि ऐसा नहीं होता तो भी सरकार दंगों पर नियंत्रण करते समय निष्पक्ष और कार्यक्षम होती। लेकिन उस समय भाजपा की पंथनिरपेक्ष छवि और एन.डी.ए. में शामिल सहयोगी दल दाव पर लगे होने के कारण, सरकार दंगों को रोकने, या न होने देने के लिए निश्चय ही समर्पित व कटिबद्ध थी। सरकार ने किए कृत्यों को हमने तीसरे अध्याय में विस्तार से देखा है। आरोप है कि कांग्रेस पार्टी ने अपने ‘मोदी हटाओ’ आंदोलन में नरेंद्र मोदी को निशाना बनाने के लिए २१ अप्रैल २००२ के बाद दंगों को भड़काया; लगता हैं इस आरोप में आधार है। राज्यसभा में गुजरात दंगों पर ६ मई २००२ को बहस हुई थी। इस संबंध में आरोप है कि कांग्रेस चाहती थी कि दंगे चालू रहें, ताकि एन.डी.ए. के सहयोगी दल मोदी सरकर के ख़िलाफ़ हो जाएँ। शायद कांग्रेस को उम्मीद थी कि इन दंगों के कारण सहयोगी दल गठबंधन छोड़ेंगे और एन.डी.ए. सरकार गिर जाएगी। इसका विस्तृत विवरण हम आगे देखेंगे। गुजरात में पहले तीन दिनों के दंगे गोधरा हत्याकांड का परिणाम थे। लेकिन गोधरा हत्याकांड ही कुछ स्थानीय मुस्लिम कांग्रेस नेताओं का षड्यंत्र था। इसका विस्तृत विवरण भी हम आगे एक अध्याय में देखेंगे। गोधरा हत्याकांड घटित होने के बाद मीडिया और राजनैतिक नेताओं के उत्तेजनापूर्ण बयानों के कारण बाद के दंगे भड़के थे, उदा. तत्कालीन गुजरात कांग्रेस अध्यक श्री अमर सिंह चौधरी। मनगढ़ंत कथा ८: गुजरात दंगे वर्ष १९८४ के सिक्ख-विरोधी दंगों की तरह थे सच्चाई: इन दोनों दंगों में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ था। न सिर्फ़ दोनों दंगों के स्वरूप में काफ़ी बड़ा अंतर था, बल्कि इन दंगों से निपटने के सरकार के तरीक़े में भी बड़ा फ़र्क़ था। इनका अंतर क्या था, इसे हम विस्तृत रूप अगले अध्याय में विस्तार से देखेंगे। मनगढ़ंत कथा ९: वर्ष २००२ में गुजरात में रहना ख़तरनाक हो गया था सच्चाई: ‘इंडिया टुडे’ ने २५ नवंबर २००२ के अंक में एक जनमत सर्वेक्षण प्रकाशित किया था, जिसमें एक प्रश्न पूछा गया था- ‘क्या इस समय गुजरात में रहते हुए आपको सुरक्षित महसूस होता है’? इस पर ६८ फीसदी लोगों ने जिसमें मुस्लिमों में से ५६ फीसदी लोगों ने ‘सुरक्षित महसूस होता है’ उत्तर दिया था। इस पूरे जनमत सर्वेक्षण पर अपनी राय देते हुए ‘इंडिया टुडे’ ने कहा: “मुख्यमंत्री (नरेंद्र मोदी) की आक्रामक भूमिका के साथ मतदाता दृढ़तापूर्वक उनके समर्थन में हैं। उनका मत कि राज्य के दंगे गोधरा की प्रतिक्रिया थी, इसका वे समर्थन करते हैं। गुजरात के बाहर रहने वालें लोगों ने राज्य को बदनाम किया है, उनके इस आरोप को भी सामान्य जनता का समर्थन है। और गुजरात राज्य रहने के लिए ख़तरनाक बन गया है, ऐसे सुझावों को वे तुच्छतापूर्वक ख़ारिज करते हैं।” (संदर्भ:https://web.archive.org/web/2010613182633/http://archives.digitaltoday.in/indiatoday/2002112 5/cover2.html) मनगढ़ंत कथा १०: एहसान जाफ़री मामले में महिलाओं पर बलात्कार किए गए सच्चाई: सुश्री अरुंधति रॉय ने ‘आउटलुक’ के ६ मई २००२ के अंक में लिखा– “कल रात वडोदरा से मुझे एक सहेली का फोन आया, वह रो रही थी। क्या हुआ यह बताने के लिए उसे १५ मिनट लगे। मामला विशेष जटिल नहीं था, सिर्फ़ उसकी सहेली सईदा एक भीड़ के हाथ लग गई। सिर्फ़ उसका पेट फाड़ा गया और पेट में कपड़ों के जलते हुए चीथड़े भर दिए गए। सिर्फ़ उसकी मौत के बाद किसी ने उसके माथे पर ॐ लिख दिया था… …भूतपूर्व कांग्रेस संसद सदस्य इक़बाल एहसान जाफ़री के मकान को भीड़ ने घेर लिया था। उन्होंने पुलिस महानिदेशक (डीजीपी), पुलिस आयुक्त (पी.सी. पांडे), मुख्य सचिव, अतिरिक्त मुख्य सचिव (गृह) को फोन लगाया, लेकिन इन सभी कॉल्स को नज़रअंदाज़ कर दिया गया। उनके मकान के बाहर की मोबाइल पुलिस गाड़ियों ने हस्तक्षेप नहीं किया। भीड़ जाफ़री के मकान में घुसी। भीड़ ने जाफ़री की बेटियों को निर्वस्त्र करके ज़िंदा जला दिया। इसके बाद श्री जाफ़री का सिर धड़ से अलग कर दिया गया। बेशक राजकोट में फरवरी में विधानसभा उपचुनाव में श्री जाफ़री ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की कठोर शब्दों मे आलोचना की थी, यह महज एक संयोग है…” (संदर्भ: https://magazine.outlookindia.com/story/democracy/215477) भाजपा के वरिष्ठ नेता और तत्कालीन राज्यसभा सदस्य श्री बलबीर पुंज ने अरुंधति रॉय को दिया जवाब ‘आउटलुक’ ने प्रकाशित किया। इस जवाब जिसका शीर्षक था ‘गुजरात जलने के दौरान तथ्यों से खिलवाड़’ (‘Fiddling with facts while Gujarat burns’) ने कहा: “शुरूआत: मीडिया में रॉय जैसे लोग अर्द्धसत्य तथा उससे भी बुरे का इस्तेमाल कर भारत का नुकसान कर रहे हैं। ‘(यहाँ पर श्री पुंज ने रॉय के लेख के कुछ वाक्यों का हवाला दिया है)’… ‘डेमोक्रेसी: हू इज़ शी व्हेन शी इज़ एट होम?’ ‘आउटलुक’ (६ मे २००२) के अपने इस लेख में सुश्री अरुंधति रॉय, जिन्हें ‘द गॉडेस ऑफ़ स्मॉल थिंग्स’ कहा जा सकता हैं, ने गुजरात की एक तस्वीर पेश की है। सुश्री रॉय ने संघ परिवार के विरुद्ध लगभग सभी आरोपों को एक ही लेख में सिलसिलेवार ढंग से प्रस्तुत किया है।…उनका यह सचित्र विवरण देखिए– ‘भीड़ मकान में घुसी, उन्होंने जाफ़री की बेटियों को निर्वस्त्र किया और ज़िंदा जला दिया…’ यह हृदयस्पर्शी तो है लेकिन प्रामाणिक नहीं है। श्री जाफ़री दंगों में मारे गए, लेकिन उनकी बेटियों को न तो ‘निर्वस्त्र’ किया गया और न ही ‘ज़िंदा जलाया’ गया। श्री जाफ़री के बेटे टी.ए. जाफ़री एक अख़बार के प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित एक इंटरव्यू में कहते हैं जिसका शीर्षक है– ‘मेरे पिताजी का मकान निशाना था, यह कोई नहीं जानता था’ (एशियन एज, दिल्ली संस्करण, २ मई २००२), ‘मेरे भाई और बहनों में मैं अकेला ही भारत में रहता हूँ। परिवार में मैं सबसे बड़ा हूँ। मेरा भाई और बहन अमेरिका में रहते हैं। मैं चालीस वर्ष का हूँ और मेरा जन्म तथा पूरी ज़िंदगी अहमदाबाद में हुई है।’ इससे स्पष्ट है कि रॉय झूठ बोल रही हैं, क्योंकि जाफ़री निश्चित रूप से झूठ नहीं बोल रहे हैं। परंतु आज तक पर्दाफ़ाश न हुए मीडिया के उन सैकड़ों झूठों का क्या? उनके सात पृष्ठों वाले लंबे-चौड़े लेख (लगभग ६ हज़ार शब्द) में भारत और संघ परिवार के बारे नफ़रत का ही वमन किया गया है। इस लेख का आधार केवल दो विशिष्ट कहानियाँ थीं, जिसमें से एक कहानी अब हम सब जानते हैं कि झूठी और काल्पनिक है… …वे कहती हैं कि गुजरात संघ परिवार की “प्रयोगशाला” है। वास्तव में पंथनिरपेक्ष-मूलतत्त्ववादियों (secular fundamentalists) ने गोधरा का इस्तमाल घडिया (crucible) के रूप में किया। इस बात में कोई आश्चर्य नहीं कि उन्होंने रामसेवकों को ज़िंदा जलाने की घटना का निषेध करते समय दोष मृत पीड़ितों पर थोप दिया। (गोधरा के) क्रूरतम भीषण अपराध के समर्थन के लिए उनमें से अनेक ने टपरी वालों के साथ विवाद, महिलाओं से दुर्व्यवहार और उत्तेजना पूर्ण घोषणा आदि काल्पनिक घटनाओं को खोज निकाला… …मुग़ल काल में १७१४ में होली के मौक़े पर हुए दंगों से बड़े १० दंगों को अकेले अहमदाबाद शहर में दर्ज किया गया है। वर्ष १७१४ में संघ परिवार नहीं था, तथा १९६९ और १९८५ के दंगों के दौरान वह हावी ताक़त नहीं था। तो फिर गुजरात जब ‘संघ परिवार की प्रयोगशाला’ नहीं था, तब इन दंगों का क्या कारण था?… …गोधरा हत्याकांड के बाद गुजरात के विभिन्न भागों में मुस्लिमों के विरुद्ध उत्स्फूर्त हिंसक विस्फोट हुआ। ये दंगाई मुख्यतः हिंदू होने के कारण पहले तीन दिनों में पुलिस गोलीबारी में मारे गए लोगों में करीब ७५ फीसदी हिंदू थे। वास्तव में, १८ अप्रैल तक पुलिस गोलीबारी में मारे गए लोगों में हिंदुओं की संख्या अधिक थी। परंतु पिछले करीब तीन हफ़्तों से हिंसा मुस्लिमों द्वारा हिंदुओं पर घातक हमलों से की जा रही है, जिससे पुलिस गोलीबारी में मारे जाने वालों में स्वाभाविक रूप से उनकी संख्या अधिक है। पुलिस ने कुल ३४ हज़ार लोगों के ख़िलाफ़ दंगों के मामले दर्ज किए हैं, इनमें से अधिकांश हिंदू हैं। आगजनी और लूटपाट में दोनों समुदायों की संपत्ति और व्यवसाय का भारी नुकसान हुआ है। दंगाई अपने दिमाग़ में सांप्रदायिकता की भावना रखकर अपना लक्ष्य तय करते हैं, लेकिन लूटपाट करने वाले ऐसा नहीं करते, वे कहीं भी अंधाधुंध लूटपाट करते हैं। एक लाख मुस्लिम दंगा-पीड़ित के रूप में शिविर में रह रहे हैं, लेकिन ४० हज़ार हिंदुओं ने भी इन शिविरों में शरण ली है। ये दंगे भीषण और बेहद दुःखद हैं, लेकिन इन्हें ‘नरसंहार’ क्यों कहा जाए? इसका लाभ किसे होता है? दंगा-पीड़ितों को तो नहीं होता, इसका लाभ होता है केवल सीमापार के हमारे दुश्मनों को। …अपनी नफ़रत का विषवमन करने वाले लेख की शुरूआत रॉय (जो कि अनेक ‘पंथनिरपेक्षता’वादियों की रोल मॉडल हैं) एक सईदा नामक महिला की कहानी बताती हैं, ‘जिसका पेट फाड़ दिया गया और पेट में कपड़ों के जलते हुए चीथड़े भर दिए गए’। मैंने इसी तरह की कई भीषण कहानियाँ संसद में भी सुनीं; उसमें कई बार महिलाओं पर बलात्कार की कहानियाँ थीं, कुछ घटनाओं में सामुदायिक बलात्कार की कहानियाँ, महिलाओं का पेट फाड़कर भ्रूण निकालने और त्रिशूल की नोक पर नचाने की कहानियाँ थीं। परंतु सभी विस्तृत विवरणों के साथ एक भी विशेष मामला मुझे कोई भी नहीं दे सका। रॉय ने एक मामला दिया, लेकिन वह पूरी तरह मनगढ़ंत साबित हुआ।… …गुजरात दंगों की रिपोर्टिंग के लिए ‘एडिटर्स गिल्ड’ ने अंग्रेज़ी अख़बारों की जमकर तारीफ़ की और गुजराती मीडिया की कठोर आलोचना की। हालाँकि गुजराती मीडिया अतिशयोक्ति के लिए दोषी हो सकता है, लेकिन मुझे यकीन है कि उसने रॉय की तरह अंग्रेज़ी मीडिया में प्रकाशित मनगढ़ंत कहानियाँ नहीं बनाईं। लेकिन यह आश्चर्यजनक है कि भारत को बदनाम करने, महत्त्वपूर्ण क्षणों में सांप्रदायिक तनाव बढ़ाने, अर्द्धसत्य और संपूर्ण झूठों का उल्लेख करके कुछ नागरिकों का दानवीकरण करने वाले सुश्री रॉय जैसे लोगों और टी.वी. माध्यमों के बारे में ‘गिल्ड’ ने आलोचना का एक शब्द भी नहीं कहा। कुछ अपराधियों ने बलात्कार किए होंगे तो उन्हें उसकी कठोर सज़ा मिलनी चाहिए, लेकिन उन लोगों का क्या जिन्होंने पिछले दो माह से सच्चाई और देश के संग बलात्कार किया है?” (संदर्भ: https://magazine.outlookindia.com/story/fiddling-with-facts-as-gujarat-burns/215655) इसके बाद अरुंधति रॉय ने ‘आउटलुक’ के २७ मई २००२ के अंक में माफ़ीनामा लिखा। ‘टु द जाफ़री फ़ैमिली, एन एपॉलजी’ (जाफ़री परिवार को एक माफ़ीनामा) इस शीर्षक वाला माफ़ीनामा इसप्रकार से है: “पुलिस अपराधों को दर्ज करने के लिए इच्छुक नहीं है, प्रशासन सच्चाई की जानकारी लेने वालों के खुले विरोध में है और हत्याएँ बिना किसी विरोध के हो रही हैं, कुछ इसी तरह के हालात फ़िलहाल गुजरात में हैं, ऐसी स्थिति में भय और अफ़वाहें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। (देखिए, रॉय सारा दोष दूसरों को दे रही हैं!) लापता लोगों को मृत समझा जाता है, जिन्हें जलाकर या विखंडित कर मार डाला गया है उनकी पहचान नहीं हो पाती और सुन्न और घबराए हुए लोगोंका कहना समझा नहीं जा सकता। इसलिए हालाँकि जब हमारे जैसे लोग जो लिखते हैं वह अत्यंत विश्वासार्ह स्रोतों से प्राप्त जानकारी के आधार पर लेखन कार्य करने की कोशिश करते हैं, फिर भी ग़लतियाँ हो सकती हैं। लेकिन वर्तमान के इस हिंसाचार, दुःख और अविश्वास भरे माहौल में बताई गई ग़लतियों को ठीक करना महत्त्वपूर्ण है। मेरे ६ मई के निबंध ‘डेमोक्रेसी: हु इज शी, व्हेन शी इज एट होम’ (Democracy: Who is she when she is at home?) में एक तथ्यात्मक ग़लती है। एहसान जाफ़री की क्रूर हत्या का वर्णन करते हुए मैंने लिखा था कि पिता के साथ-साथ उनकी बेटियाँ भी मारी गई हैं। लेकिन बाद में मुझे बताया गया है कि यह ग़लत है। चश्मदीद गवाहों के अनुसार एहसान जाफ़री के साथ उनके तीन भाई और दो भतीजे मारे गए थे। उस दिन चमनपुरा क्षेत्र में बलात्कार करके मारी गईं दस महिलाओं में उनकी बेटियाँ नहीं थीं। मैं जाफ़री परिवार के दुःख में बढ़त करने के लिए उनसे क्षमा माँगती हूँ। आय एम ट्रूली सॉरी! मेरी जानकारी (जो वास्तव में ग़लत जानकारी निकली) की जाँच दो स्रोतों के ज़रिये की गई थी– ‘टाइम’ पत्रिका के ११ मार्च के अंक में मीनाक्षी गांगुली और एंथनी स्पीथ का लेख, और एक स्वतंत्र सत्यशोधक समिति की रिपोर्ट ‘गुजरात कार्नेज २००२– ए रिपोर्ट टु द नेशन’। इस समिति में त्रिपुरा के भूतपूर्व आई.जी.पी. श्री के.एस. सुब्रमण्यम् और भूतपूर्व वित्त सचिव श्री एस.पी. शुक्ला थे। इस ग़लती के बारे में मैंने श्री सुब्रमण्यम् से बात की, उन्होंने कहा कि एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी द्वारा उन्हें यह जानकारी दी गई थी। (उस ‘वरिष्ठ पुलिस अधिकारी’ का नाम क्या था? यह न तो श्री सुब्रमण्यम्, और न अरुंधती रॉय बताते हैं!) गुजरात हिंसाचार का विवरण देते समय यह, या इसप्रकार की अन्य प्रामाणिक ग़लतियों से मेरे जैसे लेखक, सत्यशोधन समितियाँ या पत्रकार जो कह रहे हैं, उसके सारांश में किसी प्रकार का भी बदलाव नहीं होता।” सालों बाद श्री बलबीर पुंज ने ‘ऑर्गनाइज़र’ के ९ जुलाई २००६ के अंक में लिखा: “कुछ चार वर्ष पहले अरुंधति रॉय के साथ मेरा मुद्रित पत्रिका में वाद-विवाद हुआ था। अवसर था गुजरात दंगे…। लेकिन आज डोडा में हिंदू मारे जाते हैं तब ये ‘सेक्युलर’ लोग कहीं भी दिखाई नहीं देते, यहाँ तक कि दूरबीन से भी नहीं… रॉय ने अपने विषैली नफ़रत की शुरूआत करते हुए एक विवरण दिया था ‘कल रात को वडोदरा से मेरी एक सहेली का फोन आया था, वह रो रही थी, क्या हुआ यह बताने के लिए उसे १५ मिनट लगे। यह इतना जटिल नहीं था। सिर्फ़ उसकी सहेली सईदा भीड़ के हाथ लगी थी। सिर्फ़ उसका पेट फाड़ा गया और पेट में कपड़ों के जलते हुए चीथड़े भर दिए गए। सिर्फ़ उसकी मौत के बाद किसी ने उसके माथे पर ॐ लिख दिया था…’ इस घृणित ‘घटना’ से सदमाग्रस्त होकर मैंने गुजरात सरकार से संपर्क किया। पुलिस जाँचों से पता चला कि सईदा नामक महिला के साथ इस तरह की वारदात होने की ऐसी कोई रिपोर्ट न वडोदरा शहर, न वडोदरा ग्रामीण क्षेत्र में की गई है। इसके बाद इस सईदा नामक महिला की खोज के लिए पुलिस ने अरुंधति रॉय से संपर्क किया और गवाहों तक पहुँचने के लिए उनकी सहायता माँगी, जिससे वो अपराधियों तक पहुँच सके। लेकिन पुलिस को उनसे किसी प्रकार का सहयोग नहीं मिला। इसके उलट, रॉय ने अपने वकील के ज़रिये पुलिस को जवाब दिया कि पुलिस को उनपर समन जारी करने का कोई अधिकार नहीं है। इस तरह वो तकनीकी बहाने की आड़ में छुप गई। ‘आउटलुक’ में रॉय के लेख का जवाब देते समय मैंने ‘डिसिमुलेशन इन वर्ड एंड इमेजेस’ लेख में इसका उल्लेख किया (द आउटलुक, ८ जुलाई २००२)।” यहाँ कुछ बातें बताना ज़रुरी हैं, जिनका श्री बलबीर पुंज ने भी उल्लेख नहीं किया। रॉय का माफ़ीनामा भी झूठा है, क्योंकि इसमें रॉय ने दावा किया कि ‘उस दिन चमनपुरा में १० महिलाओं पर बलात्कार करके उन्हें मार डाला गया’। मार्च २००२ के पहले हफ़्ते के अख़बारों को पढ़ने के बाद एक बात स्पष्ट होती है कि किसी भी अख़बार में बलात्कार का कोई उल्लेख भी नहीं है। ‘टाइम’ पत्रिका के ११ मार्च २००२ के अंक में मनगढ़ंत कहानियों की ख़बरों के बाद मार्च के मध्य से बलात्कार की कहानियों का उल्लेख शुरू हुआ। जाफ़री की बेटियों पर बलात्कार की कहानी भी रॉय ने ‘टाइम’ पत्रिका से उठाई, कॉपी की थी। न रॉय और न ‘टाइम’ के प्रतिनिधि इस गुलबर्ग सोसायटी में बलात्कार का एक भी साबित मामला दिखा नहीं सके। रॉय ने सिर्फ जाफ़री परिवार से माफ़ी माँगी। झूठे दावे कर भाजपा और नरेंद्र मोदी की बदनामी के लिए उन्होंने उनसे माफ़ी नहीं माँगी। उन्होंने भाजपा और मोदी के साथ-साथ पूरे देश से माफ़ी माँगनी चाहिए थी। परंतु रॉय माफ़ी माँगते समय इस बात की सावधानी बरतती हैं कि वह माफ़ीनामा केवल ‘जाफ़री परिवार के लिए’ हो। दूसरी ग़लती– उन्होंने दावा किया किया कि जाफ़री के मकान पर हमला करने वाली भीड़ को रोकने का पुलिस ने कोई प्रयास नहीं किया। रॉय के अनुसार “उन्होंने (श्री जाफ़रीने) डी.जी.पी., पुलिस कमिश्नर, मुख्य सचिव, अतिरिक्त मुख्य सचिव (गृह) को किए कॉल्स को नज़रअंदाज़ किया गया। उनके मकान के बाहर की पुलिस की मोबाइल गाड़ियों ने हस्तक्षेप नहीं किया”। वास्तव में उनके मकान के बाहर पुलिस ने न केवल हस्तक्षेप किया बल्कि ५ दंगाइयों को मकान के बाहर मार गिराया, और पुलिस ने अपनी जान जोखिम में डालकर १८० मुस्लिमों को बचाया। एस.आई.टी. की रिपोर्ट के अनुसार (पृष्ठ १) श्री जाफ़री के मकान के बाहर पुलिस ने आँसू गैस के १३४ गोले छोड़े और १२४ राउंड गोलियाँ चलाईं। ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने भी अपनी ऑनलाइन ख़बर में उस दिन ही कहा था कि पुलिस दल और अग्निशमन दल ने अत्यंत उत्कृष्ट कोशिश की; पुलिस निष्क्रिय थी, इस तरह का आरोप ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने उस दिन की ख़बरों में कहीं भी नहीं लगाया। रॉय दावा करती हैं कि २८ फरवरी को श्री एहसान जाफ़री ने मुख्य सचिव जी. सुब्बाराव और श्री पी.सी.पांडे को फोन किया था! तत्कालीन पुलिस कमिश्नर श्री पी.सी.पांडे को २८ फरवरी २००२ को ३०२ फोन कॉल आए थे या उन्होंने किए थे, लेकिन श्री जाफ़री द्वारा कोई भी कॉल उन्हें नहीं किया गया था, ऐसा एस. आई .टी. ने श्री पांडे के कॉल-रिकॉर्ड की जाँच करके कहा (एस.आई.टी. अंतिम रिपोर्ट, पृष्ठ सं. २०४)। और उस दिन मुख्य सचिव श्री जी. सुब्बाराव छुट्टी पर विदेश में थे! [एस.आई.टी. ने अपनी रिपोर्ट के पृष्ठ सं. ४४८ पर यह कहा है।] तो जाफरी उन्हें कैसे कॉल कर सकते थे? राष्ट्रीय महिला आयोग ने भी उस समय कहा था कि मीडिया सांप्रदायिक दंगों में पीड़ित अल्पसंख्यक महिलाओं की यातनाओं को अनावश्यक रूप से बढ़ा-चढ़ाकर बता रहा है। तहलका की वेबसाइट ने २२ अप्रैल २००२ को कहा, “राष्ट्रीय महिला आयोग की सदस्या श्रीमती नफ़ीसा हुसैन ने दर्ज हुए बयान में कहा, गुजरात के सांप्रदायिक दंगों में पीड़ित अल्पसंख्यक समुदाय की महिलाओं के साथ हुई हिंसा को मीडिया और कई संगठनों द्वारा अतिरंजित तौर पर अनावश्यक तरीक़े से बताया जा रहा है।” यह कहना महिला आयोग की एक मुस्लिम सदस्या का था। मनगढ़ंत कथा ११: कुतुबुद्दीन अंसारी की तस्वीर असली है सच्चाई: देश और विदेश में इस फ़ोटो को बार-बार दिखाया गया है। कहा है कि पीड़ित कुतुबुद्दीन अंसारी इस फ़ोटो में दंगाइयों के सामने दया की भीख माँग रहे हैं। इससे अनेक सवाल खड़े होते हैं। (रा.स्व.संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री के.एस. सुदर्शन [१९३१-२०१२] ने नागपुर में अपने ४ अक्तुबर २००३ के भाषण में इनमें से कुछ प्रश्न पूछे थे।) वे प्रश्न इसप्रकार हैं: १. यह फ़ोटो नकली होने का, मतलब अंसारी वास्तव में इस स्थिति में थे, परंतु घटना के बाद भीड़ के निकल जाने पर यह फ़ोटो लिया गया हो [या इस बात की भी संभावना है कि घटना के बाद फ़ोटोग्राफ़र ने श्री अंसारी को उस पोज़ में फ़ोटो देने के लिए कहा होगा, लेकिन यह संभावना हमें नगण्य लगती है] एक बड़ा सुराग मिलता है इस फ़ोटो में अंसारी के चेहरे पर बंधे हुए बैंडेज से। घटना के बाद बैंडेज लगाकर फ़ोटो निकाला गया होगा यह स्पष्ट है। ख़ून की प्यासी संतप्त भीड़ यदि वास्तव में श्री अंसारी की ओर बढ़ रही होती और उसके द्वारा दया की भीख माँगते समय यह तस्वीर ली गई होती तो उन्हें बैंडेज बाँधने के लिए समय कैसे मिला? २. इस बात पर विश्वास रखना मुश्किल हैं कि इस तस्वीर में श्री अंसारी इमारत की पहली मंज़िल पर दंगाइयों से दया की भीख माँग रहे हैं ऐसा कहते हैं, लेकिन तस्वीर में एक भी दंगाई नज़र नहीं आ रहा है, और फ़ोटोग्राफ़र आर्को दत्त उसी समय तस्वीर लेने के लिए वहाँ उपस्थित थे। ३. दंगाइयों ने उनपर हमला किए बिना उन्हें कैसे छोड़ दिया? ४. दंगाइयों ने फ़ोटोग्राफ़र को इस तरह की तस्वीर कैसे खींचने दी? उनपर हमला क्यों नहीं किया? ५. कम-से-कम फ़ोटोग्राफ़र का कैमरा नष्ट क्यों नहीं किया? ६. क्या रॉयटर के फ़ोटोग्राफ़र श्री आर्को दत्त इनमें से एक भी सवाल का जवाब दे सकते हैं? ७. क्या इन सभी प्रश्नों का या इस घटनाक्रम से उत्पन्न होने वाले अन्य प्रश्नों के जवाब श्री अंसारी दे सकते हैं? इस मामलें पर समझा जाता हैं कि पीड़ित कुतुबुद्दीन अंसारी ने कहा, “लोगों की भीड़ मेरे मकान से चले जाने के बाद यह तस्वीर ली गई है, उस समय पुलिस वहाँ मौजूद थी और मैं बहुत डरा हुआ था, मैंने पुलिस से कहा कि मुझे बचा लो, इसी समय यह तस्वीर ली गई है”। यही जानकारी गुजरात के एक वरिष्ठ पत्रकार ने भी प्रस्तुत लेखक को [गुमनामी की शर्त पर] दी। हालाँकि इस लेखक को इंटरनेट पर इसप्रकार की कोई अखबार की ख़बर का पता नहीं चला। यह भी स्पष्ट किया जाना चाहिए कि ‘दंगाइयों से मैं दया की भीख माँग रहा था’, इस तरह का कोई बयान भी अंसारीने देने की कोई भी ख़बर किसी वेबसाइट पर प्रस्तुत लेखक को नहीं दिखी। इसलिए शायद यह भी हो सकता है कि स्वयं अंसारी ने ही इस बात को ख़ारिज कर दिया हो कि उन्होंने ख़ून की प्यासी भीड़ के सामने इस तरह की भीख माँगी। नीचे दिए हुई लिंक वाली रिपोर्ट में एक मुस्लिम वेबसाइट ही कहती है कि वे भीड़ के जाने के बाद सुरक्षाकर्मियों से विनती कर रहे थे, और न कि किसी भीड़ से। http://www.indianmuslimobserver.com/2013/02/face-of-gujarat-riots-qutubuddin-ansari.html यदि श्री अंसारी यह दावा करते हैं कि उन्होंने भीड़ के सामने दया की भीख माँगी तो उनसे यह पूछा जाना चाहिए कि उनके चहरे पर बैंडेज कैसे आया। अपनी तस्वीर के बार-बार उपयोग किए जाने से हुई परेशानियों के कारण श्री अंसारी वर्ष २००३ से मीडिया से लगातार कह रहे थे कि ‘मुझे परेशान न करें और मुझे छोड़ दें’। (संदर्भ: https://web.archive.org/web/20130516050029/http://www.hindu.com/2003/08/08/stories/2003080806 871100.htm) श्री कुतुबुद्दीन अंसारी के प्रति हमें पूरी सहानुभूति है क्योंकि इसमें कोई संदेह नहीं है कि वे दंगा- पीड़ित हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि झूठी तस्वीरें दुनिया भर में प्रसारित करते हुए निर्दोष लोगों को आतंकी गतिविधियों के लिए उकसाने का लाइसेंस किसी को मिलता हैं। दूसरे अध्याय में हमने गोधरा हत्याकांड की दिल दहला देने वाली तस्वीरों का लिंक देखा। हालाँकि ये तस्वीरें शतप्रतिशत असली हैं, फिर भी एन.डी.टी.वी. जैसे टी.व्ही. चेनेल इन तस्वीरों को दिखाने का सपनों में भी नहीं सोचेंगे। लेकिन लोगों की भावनाओं को भड़काने वाली श्री कुतुबुद्दीन अंसारी की तस्वीर सारी दुनिया में प्रचारित करेंगे। गोधरा में हिंदुओं को ज़िंदा जलाकर मार डालने के बाद मुस्लिमों के मन में निर्माण हुई अपराधबोध की भावना, उस हत्याकांड की तस्वीरें देखकर दूसरे मुस्लिमों तक यदि पहुँचती, तो गोधरा के बाद हुए दंगों पर वो (और शायद अपने तथाकथित उदारमतवादी भी) इतने बड़े पैमाने पर रुष्ट नहीं होते। (ये दंगे भी एकतरफ़ा नहीं थे।) मनगढ़ंत कथा १२: नरेंद्र मोदी ने कहा, ‘प्रत्येक क्रिया की समान और विरुद्ध प्रतिक्रिया होती है’ सच्चाई: श्री बलबीर पुंज ने ‘आउटलुक’ में अपने लेख में मई २००२ में लिखा– “ज़बरदस्त मनगढ़ंत कहानियों के कारण गुजरात का सत्य पूरी तरह पंगु हो गया है। ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने ३ मार्च के अंक की ख़बर में मोदी पर आरोप लगाया कि उन्होंने न्यूटन के तीसरे नियम ‘प्रत्येक क्रिया की समान और विरुद्ध प्रतिक्रिया होती है’ का उल्लेख किया। वास्तव में मुख्यमंत्री (मोदी) ने इस तरह का कोई बयान नहीं दिया था। ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ को छोड़कर अन्य किसी भी अख़बार ने अपनी मूल ख़बरों में इस तरह की ख़बर प्रकाशित नहीं की थी (३ मार्च को)। लेकिन इसके बाद लिखे गए कई संपादकीयों और लेखों में इस आधार पर विषवमन किया गया। श्री मोदी के सभी खंडनों को कूड़े के ढेर में फेंक दिया गया।…” ‘सायबरनून’ के १९ मार्च २००२ के अंक में श्री वीरेंद्र कपूर ने लिखा: “उनके मुँह में ‘उस’ वाक्य को रखने वाले अंग्रेज़ी अख़बार को श्री मोदी ने अपनी संतप्त प्रतिक्रिया और निषेध दर्ज करने वाला पत्र भेजा जिसमें उन्होंने कहा कि वे (मोदी) कभी ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ के उस संवाददाता से नहीं मिले, और न ही कहीं भी उस तरह का वाक्य बोलने का उन्हें कोई अवसर मिला। इसीलिए उस ‘खोजी वार्तांकन’ में की गई ग़लती तत्काल ठीक की जाए। लेकिन अख़बार के संपादकों ने ग़लती को ठीक करने से इनकार कर दिया और श्री मोदी की चिट्ठी पर दो हफ़्ते तक बैठे रहे। इस अंग्रेज़ी अख़बार में यदि सबसे वरिष्ठ संपादक की मर्ज़ी चलती तो शायद वे श्री मोदी का पत्र छापते, परंतु वरिष्ठ संपादक की अकेले की वहाँ कुछ चलती नहीं। ‘संघ परिवार से संबंधित सभी ख़बरों को दबाकर रखने’ की खुले तौर पर बात करने वाले नव संपादकों से वह पूरा अख़बार भरा है, और अख़बार के प्रबंधन को तो विज्ञापन से होने वाले राजस्व के अलावा कुछ दिखता ही नहीं है, इसीलिए श्री मोदी का पत्र अब तक प्रकाशित नहीं हुआ है। अतः श्री मोदी का यह कहना कि, मीडिया उनके बारे में पूर्वाग्रह-दूषित भावना रखता है और उनकी छवि को धूमिल करने का प्रयास करता है, संपूर्णतः ग़लत नहीं है। क्योंकि श्री मोदी का बताया वाक्य उस अख़बार में प्रकाशित होते ही अन्य सभी प्रसार-माध्यमों ने उसे बार-बार प्रकाशित किया। अब जाँच के बाद बाहर आ गया हैं कि अहमदाबाद और राज्य के अन्य ठिकानों पर अल्पसंख्यकों से प्रतिशोध लेने के लिए किए गए जानलेवा हमलों को सही बताने के लिए मुख्यमंत्री ने जिस दिन न्यूटन के तीसरे सिद्धांत को बताने का दावा किया गया, उस दिन ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ अख़बार का कोई भी प्रतिनिधि मुख्यमंत्री से मिला ही नहीं था। उस अख़बार के संपादकों ने भी यह निष्कर्ष निकाला है कि ‘मोदी सरकार की मानसिकता को दर्शाने के लिए उनके पत्रकार ने ‘उस’ वाक्य को अपनी मर्ज़ी से आविष्कृत किया था’। दिल्ली में धर्मनिरपेक्षतावादी रिपोर्टरों के सम्मेलन में इस अख़बार के दिल्ली के डेप्युटी ब्यूरो चीफ़ ने कहा “फ़ासिस्ट ताक़तों से संघर्ष करें और उन्हें ‘अपने’ अख़बारों में कोई जगह न दें।” यह सब करने के लिए यह ख़बर पूरी तरह मनगढ़ंत थी और उसके बाद ग़लती सुधारी नहीं गई। अपना ख़ुद का फ़ासीवादी ब्रांड चलाने वाले इस तरह के लोगों के व्यवहार के संबंध में अब अख़बारों के मालिकों का जाग्रत होना अति आवश्यक है। इस बीच श्री मोदी इस संदर्भ में प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया में अपनी शिकायत ले जाने का विचार कर रहे हैं।” नरेंद्र मोदी ने ‘इंडिया टुडे’ को दिए ८ अप्रैल २००२ के अंक में प्रकाशित इंटरव्यू में कहा, “दंगों की शुरूआत होने के बाद मैंने ‘प्रत्येक क्रिया की उतनी ही और विरोधी प्रतिक्रिया होती है’ कहे जाने की ख़बर प्रकाशित हुई। वास्तव में मैंने ऐसा कुछ भी नहीं कहा था। फिर भी एक अख़बार ने मेरे इस तथाकथित वाक्य को हेडलाइन बनाकर प्रकाशित किया गया। मैंने ऐसा कुछ भी नहीं कहा, ऐसा कहने वाला एक पत्र भी मैंने उस अख़बार को लिखा। मेरी उस पत्रकार परिषद में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी उपस्थित था। आप इसके वीडियो टेप्स पूरी तरह से चेक कर सकते है [हमारी टिप्पणी- कही भी वैसा वाक्य ‘‘प्रत्येक क्रिया के लिए विरोधी प्रतिक्रिया होती हैं” नहीं दिखेगा उन पूरे टेप्स में]।” (संदर्भ: https://www.indiatoday.in/magazine/interview/story/20020408-what-happened-in-godhra-and- afterwards-is-numbing-narendra-modi-795436-2002-04-08) नरेंद्र मोदी ने ‘द हिंदुस्तान टाइम्स’ को दिया इंटरव्यू १० मार्च २००२ के अंक में प्रकाशित हुआ था, जिसमें उन्होंने कहा, “मैंने इस तरह का कोई बयान नहीं दिया। एक बड़े अख़बार ने ‘प्रत्येक क्रिया की समान और विरुद्ध प्रतिक्रिया होती है’, न्यूटन के इस सिद्धांत को मेरे मुँह में रख दिया। स्कूल छोड़ने के बाद मैंने कभी न्यूटन का नाम नहीं लिया है। यदि किसी को अपनी कल्पना और ख़ुद की इच्छा के अनुसार कुछ करना हो तो मैं कुछ नहीं कर सकता। अगर इसका उपयोग समाज के भले के लिए हो रहा हो तो मैं दुःख सहन करने के लिए भी तैयार हूँ। मेरा सभी विरोधियों से अनुरोध है कि गुजरात में स्थिति सामान्य होने तक कृपया इंतज़ार करें।…” दिनांक १२ मई २००२ के ‘द वीक’ में मोदी के साथ एक साक्षात्कार था। उसके कुछ अंश थे: “प्रश्न: गुजरात के घटनाक्रम के दौरान आपके द्वारा की गई कुछ टिप्पणियों ने काफी विवाद खड़ा कर दिया है। क्या अब आपको उन पर पछतावा है ? उत्तर: मेरे द्वारा कथित तौर पर दिए गए बयानों पर कई लेख लिखे गए हैं। लेकिन न तो मैंने कभी ‘न्यूटन’ के नाम का उल्लेख किया है और न ही ‘एक्शन-रियाक्शन’ शब्दों का उच्चारण किया है। इस संबंध में ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ के मुख्य संपादक को कई पत्र भेजने के बावजूद, उन्होंने इस बारे में जनता को जागरूक नहीं किया है।”  http://www.hvk.org/2002/0502/23.html आधिकारिक रिकॉर्ड से यह दिखता है कि उस दिन ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ के किसी भी रिपोर्टर की नरेंद्र मोदी के साथ कोई अपॉइंटमेंट नहीं थी। आज तक कोई भी यह साबित नहीं कर सका है कि श्री मोदी ने ऐसा कुछ कहा। इस बारे में झूठ फैलाने के लिए माफ़ी माँगना तो दूर रहा, उन्होंने श्री मोदी का स्पष्टीकरण भी सही ढंग से प्रकाशित नहीं किया। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित एस.आई.टी. ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा कि ‘प्रत्येक क्रिया की समान और विरुद्ध प्रतिक्रिया होती है’, इस तरह का कोई भी बयान श्री मोदी ने देने का कोई सबूत नहीं है, और उनके वाक्य को ‘संदर्भ-से-बाहर’ उद्धृत किया गया लगता हैं। मनगढ़ंत कथा १३: विहिंप जैसे संघ परिवार के संगठनों ने दंगों का आयोजन किया सच्चाई: वर्ष २००२ के दंगों के समय गुजरात के १८,६०० गाँवों में से १०,००० गाँवों में विश्व हिंदू परिषद की शाखाएँ थी। अगर वे चाहते तो इन १०,००० गाँवों में से कई गाँवों में आसानी से प्रतिक्रियात्मक दंगे भड़का सकते थे। इसके उलट, वास्तव में १८,६०० गाँवों में से मात्र अधिकतम ५० गाँवों में दंगे भड़के थे। विहिंप के तत्कालीन अंतरराष्ट्रीय महासचिव (जो बाद में कार्याध्यक्ष बने) डॉ. प्रवीण तोगड़िया, पटेल समुदाय से हैं, और श्री केशुभाई पटेल की तरह वे भी गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र से हैं। लेकिन सौराष्ट्र में दंगे हुए ही नहीं! इसके विपरीत २८ फरवरी को अहमदाबाद में बड़े पैमाने पर भड़के दंगों को विहिंप या संघ परिवार का कोई भी संगठन आयोजित नहीं कर सकता था। गोधरा हत्याकांड की यह एक उत्स्फूर्त सामाजिक प्रतिक्रिया थी। वरिष्ठ राजनैतिक विश्लेषक श्री अरविंद बोस्मिया ने भी यही कहा है। कुछ लोगों ने सवाल किया हैं कि, “एक ओर आप कहते हैं कि कुछ भी घटित नहीं हुआ, मात्र ४०-५० गाँवों में दंगे हुए। दूसरी ओर आप कहते हैं कि दंगे इतने बड़े पैमाने पर थे कि किसी एक अकेले संगठन द्वारा इन दंगों को किया जाना संभव नहीं है”। ये दोनों बातें एकसाथ सच हैं। अहमदाबाद में २८ फरवरी को एक समय ऐसा आया जब कम-से- कम ५०,००० (पचास हज़ार) लोगों ने एक साथ एक ही समय में विभिन्न मुस्लिम बस्तियों पर धावा बोल दिया। ‘द हिंदू’ ने अगले दिन अपनी ख़बर में कहा कि स्थिति नियंत्रण से बाहर लग रही थी। अहमदाबाद पुलिस को औसतन २०० कॉल प्रतिदिन आते थे, लेकिन उस दिन यह संख्या ३,५०० से अधिक थी। ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने इन दंगों का वर्णन करते हुए लिखा कि, ‘उस समय पुलिस की उपस्थिति हिंसाचार के महासागर में एक बूँद की तरह थी’। अहमदाबाद में महज २४ घंटों में इतनी बड़ी भीड़ जुटाना संघ परिवार या अन्य किसी संगठन की पहुँच से बाहर था। लेकिन गुजरात में २८ फरवरी को या उसके बाद, विहिंप अगर चाहती तो उन दस हज़ार गाँवों में दंगे आसानी से भड़का सकती थी जहाँ उसकी शाखाएँ कार्यरत थीं। गोधरा हत्याकांड २७ फरवरी को घटित हुआ, उसी दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने एक बयान जारी करके कहा, “संघ इस हत्याकांड का निषेध करता है और संयम बरतने की अपील करता है”। ‘हिंदू’ अख़बार ने भी २८ फरवरी के अंक में यह ख़बर दी थी, और उसमें कहा कि “(२७ फरवरी को) रा.स्व. संघ ने लोगों से संयम बनाए रखने की अपील की है”। इस अपील की, और संघ के तत्कालीन सरकार्यवाह मोहन भागवत ने ‘ऑर्गनाइज़र’ के १० मार्च २००२ के अंक में प्रकाशित २७ फरवरी को की अपील की स्कैंड-प्रतिलिपियों को हमने दूसरे अध्याय में देखा है। ‘टेलिग्राफ़’ ने अपने २८ फरवरी २००२ के अंक में कहा: “रा.स्व.संघ संयम बरतने की अपील करके प्रधानमंत्री के साथ मज़बूती से खड़ा रहा। सहसरकार्यवाह श्री मदनदास देवी ने कहा, ‘यह हिंदू समाज की सहिष्णुता की परीक्षा का समय है। क़ानून अपने हाथों में लेने के बजाय गंभीर परिस्थिति को संभालने के लिए जनता को राज्य सरकार का सहयोग करना चाहिए’।” (संदर्भ: https://web.archive.org/web/20130204004811/http://www.telegraphindia.com:80/10 20228/front_pa.htm#head1 ) रेडिफ़ डॉट कॉम ने वृत्त संस्थाओं के हवाले से २ मार्च २००२ को दी ख़बर थी: “संघ और विहिंप की ओर से गुजरात में शांति बनाए रखने की अपील गुजरात में हिंसा भड़कने के बाद संघ और विहिंप ने शनिवार (२ मार्च २००२) को अपने कार्यकर्ताओं से अपील की कि देश में शांति भंग करने वाले किसी भी कृत्य से बचें और आशा व्यक्त की कि ‘गुजरात में समझदारी आएगी’। संघ के सरकार्यवाह श्री मोहन भागवत ने दिल्ली में जारी किए गए एक बयान में कहा कि: ‘हिंदुत्व पर विश्वास रखने वाले सभी संघ स्वंयसेवकों, शुभचिंतकों, और मित्रों से मैं अपील करता हूँ कि देश की विक्षुब्ध (disturbed) स्थिति को देखते हुए शांति भंग करने वाले किसी भी कृत्य जैसे नारेबाज़ी और पत्थरबाज़ी से दूर रहें, क्योंकि इससे केवल राष्ट्रविरोधी आतंकी तत्त्वों को बल मिलेगा’। अन्य मज़हब के लोगों से भी उन्होंने अपील करते हुए कहा, ‘आतंकियों के उकसावे के झाँसे में न आएँ और अपने हिंदू भाइयों के साथ इस देश की संतान के रूप में व्यवहार करें।’ इस बीच, विहिंप ने भी गुजरात की हिंसा को रोकने की अपील करते हुए कहा कि ‘किसी के खिलाफ़ किसी भी प्रकार का हिंसाचार चिंताजनक है’। नई दिल्ली में पत्रकारों से बात करते हुए विहिंप के प्रवक्ता श्री वीरेश्वर द्विवेदी ने कहा, ‘गोधरा की घटना और उसके बाद की हिंसा दुर्भाग्यपूर्ण है और किसी के खिलाफ़ किसी भी प्रकार का हिंसाचार चिंताजनक है’। उन्होंने गुजरात में हो रही हत्याओं को रोकने की अपील करते हुए कहा कि ‘गुजरात में समझदारी आनी चाहिए’। दंगों में मारे गए लोगों के प्रति शोक व्यक्त करते हुए श्री द्विवेदी ने राज्य में हिंसाचार के शिकार लोगों के प्रति अपनी संवेदनाएँ व्यक्त कीं। लेकिन विपक्षी दलों ने स्थिति की जाँच के लिए गुजरात में अब प्रतिनिधि मंडल भेजने का निर्णय लिया है, लेकिन विपक्षी पार्टियों को गोधरा हत्याकांड के बाद ऐसा करना उचित नहीं लगा, इस बारे में उन्होंने खेद व्यक्त किया। उन्होंने कहा कि ‘यह वोटबैंक की राजनीति को ध्यान में रखकर किया जा रहा है’।– समाचार एजेंसी” (संदर्भ: https://www.rediff.com/news/2002/mar/02train10.htm) श्री मोहन भागवत द्वारा यह बयान २७ फरवरी को ही दिया गया था। किसी बड़े दंगे की शुरूआत होने से पहले ही ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने २८ फरवरी को दी खबर हमने पहले देखी हैं जिसमें विहिंप के वरिष्ठ उपाध्यक्ष आचार्य गिरिराज किशोर ने कहा कि ‘हिंदुओं को शांति और संयम बनाए रखना चाहिए’। ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने २७ फरवरी २००२ को ऑनलाइन दी ख़बर में कहा कि गुजरात विहिंप ने दूसरे दिन (२८ फरवरी) बंद के दिन सभी हिंदुओं से अपने घरों के अंदर रहने की अपील की थी। स्वाभाविक है कि यदि हिंदू अपने घरों में ही रहते तो उन्हें हिंसक प्रतिक्रिया करना संभव नहीं होता। मनगढ़ंत कथा १४: नरेंद्र मोदी ने दंगाइयों को तीन दिनों की खुली छूट दी सच्चाई: ‘हिंदू’ के अगले दिन की रिपोर्ट के अनुसार नरेंद्र मोदी ने २८ फरवरी को ही सेना को ‘तत्काल’ अहमदाबाद में बुलाया था। ‘इंडिया टुडे’ के १८ मार्च २००२ के अंक में ‘क्रोनोलॉजी ऑफ़ ए क्राइसिस’ लेख में सम्पूर्ण घटनाक्रम दिया गया है जिसे हमने पहले देखा है, जिससे यह किसी भी संदेह से परे साबित होता है। दंगों के दूसरे ही दिन, अर्थात् १ मार्च २००२ को सेना ने अहमदाबाद, वडोदरा, राजकोट और गोधरा में ध्वज-संचलन किया। इसके बावजूद सी.एन.एन.-आइ.बी.एन. इस हिंदी चैनल ने २६ अक्तूबर २००७ को टी.वी. के परदे पर लिखा कि ‘गुजरात में हत्याकांड के लिए तीन दिनों की छूट दी गई थी’। दंगों के दूसरे दिन अर्थात् १ मार्च को ही अल्पसंख्यकों ने जवाबी हमलों की शुरूआत कर दी थी। अगले दो दिनों का तो सवाल ही नहीं उठता क्योंकि सेना तैनात थी और २८ फरवरी को जब सेना तैनात नहीं थी उस दिन भी पुलिस ने की गई गोलीबारी में ११ हिंदू मारे गए थे और १६ घायल हुए थे, पुलिस ने उस दिन १४९६ राउंड फ़ायरिंग की, जिनमें से कम-से-कम ६०० राउंड फ़ायरिंग अकेले अहमदाबाद में ही की गई। इसी दिन सम्पूर्ण राज्य (अहमदाबाद सहित) में ४२९७ आँसू गैस के गोले छोड़े गए तथा ७०० लोगों को गिरफ़्तार किया गया। तीन दिन तो छोड़िए, नरेंद्र मोदी ने दंगाइयों को तीन मिनट का भी समय नहीं दिया। ‘रेडिफ़ डॉट कॉम’ ने २७ फरवरी को ही कहा: “(गोधरा) घटना की ख़बर संपूर्ण राज्य में फैलने के कारण परिस्थिति तनावपूर्ण बनी, जिस कारण राज्य सरकार ने प्रतिबंधक उपायों के लिए तत्काल क़दम उठाए। गोधरा और गुजरात के अन्य भागों में सुरक्षा व्यवस्था और अधिक कड़ी कर दी गई है।” (संदर्भ: https://www.rediff.com/news/2002/feb/27train.htm) पी.टी.आई. के हवाले से ‘रेडिफ़ डॉट कॉम’ ने २८ फरवरी की शाम को ख़बर दी, “सेना को तैयार रहने के आदेश दिए गए हैं, और शीघ्र कृति दल तथा केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल को अहमदाबाद और अन्य स्थानों पर तैनात कर दिया गया है।” (संदर्भ: https://www.rediff.com/news/2002/feb/28train15.htm) गोधरा हत्याकांड के बाद २७ फरवरी को ‘रेडिफ़ डॉट कॉम’ ने ख़बर दी: “और अधिक हिंसाचार भड़कने से रोकने के लिए गोधरा में शीघ्र कृति दल की दो कंपनियाँ और राज्य रिज़र्व पुलिस बल की एक कंपनी तैनात की गई है। (पी.टीआई. समाचार)” (संदर्भ: http://www.rediff.com/news/2002/feb/27train4.htm) ‘रेडिफ़ डॉट कॉम’ ने उसी दिन दी ख़बर के अनुसार वडोदरा में २८ फरवरी को प्रातः ८ बजे से ही कर्फ़्यू लगा दिया गया। ख़बर में कहा गया: “एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने बताया कि छुरा घोंपने की कुछ घटनाओं के कारण प्रातः ८ बजे से शहर में (वडोदरा) अनिश्चितकालीन कर्फ़्यू लगाया गया है। पुलिस आयुक्त श्री दीनदयाल तुतेजा ने कहा कि तटबंदी क्षेत्र के ६ पुलिस थानों की सीमा में कर्फ़्यू लगा दिया गया है और शीघ्र कृति दल तथा केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल के जवानों को संवेदनशील भागों में तैनात कर दिया गया है। पंचमहल ज़िले के लुनावड़ा नगर में बुधवार (२७ फरवरी) की रात को आगजनी और लूटपाट की घटनाओं के कारण देर रात २ बजे से ही कर्फ़्यू लगा दिया गया है। इस बीच, ट्रेन पर हमले के बाद बुधवार (२७ फरवरी) को गोधरा शहर में लागू किए गए अनिश्चितकालीन कर्फ़्यू में किसी प्रकार की शिथिलता न देते हुए इसे गुरुवार को भी (२८ फरवरी) बरकरार रखा गया। पुलिस के मुताबिक़ कर्फ़्यू के दौरान अबतक किसी प्रकार की अप्रिय घटना नहीं हुई। राज्य के अन्य भागों में भी परिस्थितियाँ रातभर शांत और नियंत्रण में थी, ऐसा पुलिस ने कहा। (पी.टी.आई. समाचार)” (संदर्भ: https://www.rediff.com/news/2002/feb/28train1.htm) दंगों के दूसरे दिन ‘देखते ही गोली मारने’ के आदेश राज्य के ३४ स्थानों तक बढ़ा दिए गए थे। इस संबंध में ‘रेडिफ़ डॉट कॉम’ ने १ मार्च २००२ को दी ख़बर में कहा: “शहर में जारी रहती हुई हिंसा की घटनाओं से चिंतित राज्य सरकार ने शुक्रवार को (१ मार्च २००२) आगजनी और हिंसा करने वालों को ‘देखते ही गोली मारने’ के आदेश पुलिस को दिए। अधिकृत सूत्रों ने कहा कि यह घोषणा मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने अहमदाबाद में की। आगजनी करने वालों से सख्ती ने निपटने और, यदि आवश्यक हो तो हिंसाचार करने वालों को देखते ही गोली मारने के आदेश श्री मोदी ने पुलिस को दिए, ऐसा सूत्रों ने जोड़ा। इस दौरान सेना ने अहमदाबाद के दरियापुर, शाहपुर, शाहीबाग़, और नरोड़ा इन हिंसाग्रस्त क्षेत्रों में लोगों के बीच विश्वास क़ायम करने के लिए ध्वज-संचलन किया। जारी हिंसा में शहर में ही अब तक १११ लोग मारे गए हैं। पुलिस ने कहा कि दरियापुर, शाहपुर, शाहीबाग़, और नरोड़ा क्षेत्रों में सेना के लोग बाहर आ चुके हैं।” (संदर्भ: https://www.rediff.com/news/2002/mar/01train4.htm) तथ्यों पर गलत आरोप करने वाले लोगों पर एकतरफ़ा समाचार प्रकाशित करके मुस्लिमों को भड़काने के कारण आई.पी.सी. की धारा १५३ अ (दो समुदायों में नफ़रत की भावना भड़काना) के तहत, और भाजपा तथा संघ परिवार, और नरेंद्र मोदी की बदनामी करके उनकी छवि को धूमिल करने के कारण आई.पी.सी. की धारा ५०० (बदनामी) के तहत मुक़दमा दायर किया जा सकता है। मनगढ़ंत कथा १५: एक गर्भवती महिला का पेट फाड़कर गर्भ बाहर निकाला गया सच्चाई: डॉ. जे.एस. कनोरिया, जिन्होंने २ मार्च २००२ को मृत महिला कौसरबानू के शव का पोस्टमॉर्टेम किया, ने पाया कि उस समय उसका गर्भाशय अपनी जगह पर था और उसकी मृत्यु दंगों में जलने के कारण (due to burns) हुई थी। ‘इंडिया टुडे’ ने ५ अप्रैल २०१० के अंक में दी ख़बर थी: “मानवाधिकार कार्यकर्ताओं द्वारा मुस्लिम दंगा-पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए लगातार चलाए गए अभियान के कारण सर्वोच्च न्यायालय ने मार्च २००३ में गुजरात दंगों से संबंधित ९ मुक़दमों पर रोक लगा दी थी। दंगा-पीड़ितों का कहना था कि दंगों के सिलसिले में पुलिस-जाँच में और उसके बाद मुक़दमों में यदि गुजरात सरकार की कोई भूमिका कोई होती है तो दंगा-पीड़ितों को न्याय नहीं मिलेगा। सर्वोच्च न्यायालय की प्रत्यक्ष निगरानी में एस.आई.टी. इन सब मामलों की फिर से जाँच कर रही है और इन मुक़दमों के लिए न्यायमूर्ति और सरकारी वकीलों को चुनने का कार्य भी सर्वोच्च न्यायालय की देखरेख में किया जा रहा है। जैसे एस.आई.टी. अपना काम करते जाती है, इस जाँच के दौरान अब ऐसे कई सबूत मिल रहे हैं कि मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के समूह ने अनेक मामलों में बलात्कार और हत्याओं की झूठी डरावनी कहानियाँ बनाकर, गवाहों को पढ़ा-सिखाकर सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष बयान देने के लिए लगाया। इस प्रक्रिया में हो सकता है कि ऐसा करने पर मोदी और उनकी सरकार के विरोध में अपने राजनैतिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय को गुमराह करने में इनकी बड़ी भूमिका रही हो। सर्वोच्च न्यायालय की देखरेख में अहमदाबाद के विशेष न्यायालय में पिछले हफ़्ते में (मार्च २०१० में) नरोड़ा पाटिया के मामले की सुनवाई के दौरान भीषण क्रूरता का एक उदाहरण फिर से सामने आया, जिस घटना में ९४ लोग मारे गए थे। दंगों के तत्काल बाद मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और मुस्लिम गवाहों ने यह आरोप किया था कि एक गर्भवती महिला कौसरबानू का पेट फाड़कर उसका गर्भ बाहर निकालकर तलवार की नोक पर नचाया गया। इस अत्यंत घृणास्पद घटना को आधुनिक युग में मध्यकालीन गुंडागर्दी का सबसे भयानक उदाहरण माना जा रहा था। पिछले हफ़्ते, इस आरोपित घटना के आठ साल बाद कौसरबानू के शव का दिनांक २ मार्च २००२ को पोस्टमार्टम करने वाले डॉ.जे.एस. कनोरिया ने इस तरह की कोई घटना होने से इंकार किया। इसके विपरीत उन्होंने न्यायालय को बताया कि ‘उस महिला का शव-विच्छेदन करने पर, पेट में भ्रूण सुरक्षित पाया गया था, उसकी मृत्यु दंगों में आग से जलने के कारण हुई थी’। इसके बाद ४० वर्षीय श्री कनोरिया ने ‘इंडिया टुडे’ को बताया कि, ‘मैंने आठ वर्ष पहले मेरी शव परीक्षण रिपोर्ट में जो लिखा था, वही न्यायालय को बताया है। महिला का पेट फाड़ा गया, इस बात पर विश्वास रखने से पहले पत्रकारों को कम-से-कम एक बार शव-विच्छेदन रिपोर्ट पढ़नी चाहिए थी। जहाँ तक मुझे याद है मैंने २ मार्च २००२ को दोपहर में यह शव-विच्छेदन किया था’। दंगाइयों द्वारा कौसरबानू का पेट फाड़ने का दावा करने वाली तीन पुलिस शिकायतों का सतर्क अध्ययन करने पर उसमें अनेक कमियाँ पाई जाती हैं। एक शिकायत में आरोप लगाया गया है कि इस घटना के मुख्य आरोपी गुड्डू चारा ने कौसरबानू का पेट चीर दिया और गर्भ निकालकर उसे तलवार की नोक पर नचाया। जबकि दूसरी शिकायत में कहा गया कि इसी मामले के एक और आरोपी बाबू बजरंगी ने यह दुष्कर्म किया। तीसरी शिकायत में शिकायतकर्ता ने घटना का वर्णन इसी तरह किया लेकिन आरोपी के नाम का उल्लेख नहीं किया। …नरोड़ा ग्राम मामले में एक महत्त्वपूर्ण गवाह नानुमिया मलिक के शपथ-पत्र में सबसे बड़ी कमी हैं। सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष १५ नवंबर २००३ को प्रस्तुत शपथ-पत्र में मलिक ने कहा कि मदीना नामक एक नवविवाहिता, जिसके पति सहित चार रिश्तेदार दंगों में मारे गए थे, पर दंगाइयों ने बलात्कार किया था। श्री मलिक ने अपने शपथ-पत्र में कहा था, ‘मदीना पर हुए बलात्कार और उसके परिवार की हत्याओं का मैं गवाह हूँ। मैंने ४ अनाथों सहित सात लोगों को ज़िंदा जलते हुए देखा है। सर्वोच्च न्यायालय से मेरा अनुरोध है कि बलात्कार पीड़ित से संबंधित सभी विवरणों को गोपनीय रखा जाए। क्योंकि वह अभी जीवित है और इस शपथ-पत्र का उपयोग केवल मुक़दमे और बलात्कार करने वालों को दोषी ठहराने के लिए ही किया जाए’। परंतु एस.आई.टी. के समक्ष गवाही देते समय ५ मई २००९ को श्री मलिक ने कहा: ‘मदीना पर बलात्कार का झूठा दावा मैंने किया था। मैंने तीस्ता सीतलवाड़ के दबाव के कारण यह आरोप लगाया था। शपथ-पत्र में इस आरोप को न जोड़ने के बारे में मैंने बार-बार अनुरोध करने के बाद भी उन्होंने शपथ-पत्र में इस आरोप को जोड़ दिया’। अब पुनर्विवाहित मदीना ने भी एस.आई.टी. के समक्ष गवाही देते हुए २० मे २००८ को कहा कि, ‘दंगाइयों ने मुझ पर बलात्कार करने का दावा करने वाले श्री मलिक का आरोप पूरी तरह ग़लत है। मुझ पर बलात्कार हुआ ही नहीं। दंगाइयों की भीड़ ने मेरे मकान को आग लगाने के बाद मैंने वहाँ से बच निकलने का प्रयास किया लेकिन दंगाइयों में से एक व्यक्ति ने मुझे चाकू मार कर घायल कर दिया, परंतु बाद में मैं एक मुस्लिम समूह के साथ घुलने-मिलने में कामयाब हो गई’। नरोड़ा गाँव और नरोड़ा पटिया दोनों मामलों में बलात्कार का दावा करने वाले अलग-अलग मुस्लिम गवाहों ने १५ नवंबर २००३ को छह शपथ-पत्र दिए थे, लेकिन इसमें विस्तार से कुछ भी नहीं कहा गया था। और चित्तरंजक बात यह थी कि सभी शपथ-पत्रों की भाषा एक समान थी। उसमें कहा गया था, ‘दंगों में न केवल ११० लोग मारे गए बल्कि बलात्कार और अत्याचार भी किए गए, इनमें छोटे बच्चे भी शामिल थे। सर्वोच्च न्यायालय से हमारा अनुरोध है कि इन सभी मुक़दमों पर रोक लगाकर इन्हें किसी पड़ोसी राज्य में स्थानांतरित किए जाए, और इन मामलों की फिर से जाँच की जाए’। इन शपथ-पत्रों में कहा गया था कि ये शपथ-पत्र सीतलवाड़ के इशारे पर और उनके सहयोगी श्री रईसख़ान की उपस्थिति में प्रस्तुत किए गए हैं। जैसे कि इतना काफ़ी नहीं था, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं द्वारा गवाहों को पढ़ाए-सिखाए जाने के प्रयासों के अन्य कई उदाहरण प्रकाश में आए हैं। उदाहरण के लिए, गुलबर्ग सोसायटी में हुए हत्याकांड में, जिसमें श्री एहसान जाफ़री मारे गए, क़रीब एक दर्जन मुस्लिम गवाहों ने पुलिस को बताया कि श्री जाफ़री ने स्वयं की सुरक्षा के लिए गोली चलाई जिसमें एक दंगाई मारा गया और १४ लोग घायल हो गए। इस घटना ने संतप्त भीड़ को हिंसाचार के लिए उकसाया और संतप्त भीड़ ने प्रतिशोध की भावना से गुलबर्ग सोसायटी में मुस्लिमों पर हमले किए। लेकिन विशेष न्यायालय में गवाही देने वालों में से लगभग आधे गवाह उनके पहले दिए गए बयान से मुकर गए। गुलबर्ग मामले के ट्रायल में श्री इम्तियाज़ पठान के बयान से भी भौहें चढ़ती हैं। उसने विशेष न्यायालय को बताया, मृत्यु से पहले श्री जाफ़री ने उनसे कहा कि भीड़ के हमले से रक्षा के लिए उन्होंने (जाफ़री) मोदी से फोन पर संपर्क करने पर, नरेंद्र मोदी ने उनके (जाफ़री के) साथ गली-गलौच की। प्रसंगवश, श्री जाफ़री ने मोदी को फोन पर संपर्क करने का कोई रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है। दंगों के तत्काल बाद श्री पठान ने पुलिस के सामने दर्ज किए अपने पहले वाक्य में मोदी का नाम नहीं लिया था। यह चित्तरंजक हैं कि उन्होंने हज़ारों दंगाइयों की भीड़ में से २७ लोगों (इतने अधिक) को व्यक्तिगत रूप से पहचाना। एस.आई.टी. ने जब गुलबर्ग सोसायटी मामले में गवाहों का बयान लेना शुरू किया तो क़रीब २० गवाहों ने अपना बयान पहले से ही लिखित रूप में लाया था। लेकिन एस.आई.टी. ने सी.आर.पी.सी. की धारा १६१ के नियमों को बताकर (Section 161 of CrPC) इन लिखित बयानों पर आपत्ति जताई, और कहा कि गवाहों के बयान पुलिस ने ही दर्ज करने होते हैं। एस.आई.टी. द्वारा यह सख्ती बरतने के बाद जाँच के दौरान ही उन गवाहों का बयान दर्ज कराने पर पुलिस के समक्ष दर्ज किए गए बयान और पहले से ‘लिखित रूप में’ लाए गए बयानों में काफ़ी अंतर पाया गया। [यहीं बात ‘टाईम्स ऑफ़ इंडिया’ ने भी १६ अप्रैल २००९ के खबर में कही थी।] आरोपियों के एक वरिष्ठ वकील ने कहा कि ‘मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के दबाव के कारण गवाहों ने बयान देते समय उसकी वीडियो रिकॉर्डिंग नहीं होने दिया। यह इन कार्यकर्ताओं का न केवल एस.आई.टी. को, बल्कि न्यायालयों को भी अपने आदेशों से चलाने का स्पष्ट प्रयास हैं’।…” (संदर्भ: https://www.indiatoday.in/magazine/states/story/20100405-inhuman-rights-742440-2010-03-25) यहाँ एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि ‘इंडिया टुडे’ को यह बात ध्यान में आती नहीं दिखती कि उन्होंने भी अपने १८ मार्च २००२ के अंक में गर्भवती महिला का पेट चीरकर उसका भ्रूण बाहर निकालने के संबंध में झूठी ख़बर प्रकाशित की थी। ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने दिनांक १८ मार्च २०१० की ख़बर में कहा: “डॉक्टर की गवाही के कारण नरोड़ा पाटिया की ‘गर्भ’ कथा के झूठ का पर्दाफ़ाश अहमदाबाद: नरोड़ा पाटिया की सबसे क्रूरतम कहानियों में से एक, अर्थात् एक गर्भवती महिला को मारने से पहले उसका पेट चीरकर, भ्रूण को बाहर निकालकर उसे तलवार की नोक पर नचाया गया, यह कहानी सरकारी डॉक्टर की गवाही के कारण झूठी साबित हुई है। नरोड़ा पाटिया में २८ फरवरी २००२ को ९५ लोगों की हत्या होने के बाद एक कहानी की चर्चा ज़ोरों पर थी कि हत्यारों ने कौसरबानू शेख़ नामक आठ माह की गर्भवती महिला का पेट चीरकर उसका भ्रूण बाहर निकाला और महिला को मार दिया। इस महिला का २ मार्च (२००२) को शव-विच्छेदन करने वाले डॉ. जे.एस. कनोरिया ने बुधवार (१७ मार्च २०१०) को विशेष न्यायालय में दस्तावेजों के सबूत सहित बताया कि उस महिला का गर्भ सुरक्षित था। उन्होंने बताया कि वे उस समय नडियाद में तैनात थे परंतु आपातकालीन परिस्थिति होने के कारण उन्हें सिविल अस्पताल में बुलाया गया। मृतक को जाने बिना डॉक्टर ने शव-विच्छेदन किया, जिसकी पहचान बाद में कौसरबानू के रूप में हुई। श्री कनोरिया ने उस समय की शव-विच्छेदन रिपोर्ट न्यायालय के सामने पेश की, उसमें कहा गया था कि गर्भ महिला के पेट में ही सुरक्षित था। गर्भ का वज़न २५०० ग्राम था और लंबाई ४५ सें.मी. थी। अपनी रिपोर्ट में उन्होंने जलने के कारण चोटों को दर्ज किया था, हालाँकि शरीर पर कोई अन्य चोटों के बारे उन्होंने कुछ टिप्पणी नहीं की थी। एस.आई.टी. ने अपनी रिपोर्ट बंद लिफ़ाफ़े में प्रस्तुत करने के बाद गुजरात सरकार ने पिछले साल अप्रैल (२००९) में सर्वोच्च न्यायालय में इस मामले में अपना पक्ष रखा था। सरकार ने यह दावा किया था कि कौसरबानू के गर्भ को उसके पेट से निकालकर उसकी आखों के सामने हिंसक भीड़ ने तलवार से मार डाला, यह आरोप एस.आई.टी. ने ख़ारिज कर दिया है। वरिष्ठ वकील मुकुल रोहतगी ने उस समय कहा था कि एस.आई.टी. की रिपोर्ट से एक स्वयंसेवी सगठन द्वारा लगाया गया यह आरोप ग़लत साबित हुआ। निष्पक्ष गवाह के रूप में माने जाने वाले डॉक्टर ने भी एक साल के बाद न्यायालय के समक्ष यही बयान दिया है।” (संदर्भ: http://timesofindia.indiatimes.com/india/Docs-testimony-nails-lie-in-Naroda-Patia-fetus- story/articleshow/5696161.cms) डॉक्टर कनोरिया ने दी गवाही की ख़बर बहुत कम अंग्रेज़ी अख़बारों ने प्रकाशित की थी, उनमें से एक ‘द हिंदू’ था। उसने १८ मार्च २०१० को यह ख़बर दी थी। वो पढ़ने के लिए खोलिए यह लिंक: https://web.archive.org/web/20130604060300/http://www.hindu.com/2010/03/18/stories/201 0031863801300.htm मनगढ़ंत कथा १६: दंगा-पीड़ितों की मदद के लिए गुजरात सरकार ने कुछ भी नहीं किया सच्चाई: गुजरात सरकार ने दंगा-पीड़ितों की सहायता के लिए बड़े पैमाने पर पैसा ख़र्च किया। ११ मई २००५ को राज्यसभा में यू.पी.ए. सरकार के केंद्रीय गृहराज्य मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने इस बारे में जानकारी देते हुए कहा, वो भी एक लिखित उत्तर में, कि गुजरात सरकार ने मृतकों के रिश्तेदारों को डेढ़ लाख रूपए जबकि १०, ३०, ४०, और ५० प्रतिशत तक घायल व्यक्तियों को क्रमशः ५ हज़ार, १५ हज़ार, २५ हज़ार, और ५० हज़ार रूपए दिए। श्री जायसवाल ने अधिक जानकारी देते हुए बताया कि इसके अलावा राज्य सरकार ने दंगा-पीड़ितों को अलग से नकद आर्थिक सहायता के साथ-साथ घरेलू उपयोग की वस्तुएँ, दंगा प्रभावित भागों में ग़रीबी रेखा से नीचे के परिवारों को अनाज, मकान निर्माण के लिए मदद, व्यावसायिक सम्पत्तियों के पुनर्वास के लिए सहायता, छोटे उद्योगों का पुनर्वसन, उद्योग, दुकानों, और होटलों इत्यादि को सहायता दी। श्री जायसवाल ने बताया कि गुजरात सरकार ने जानकारी दी है कि राहत और पुनर्वास पर उसने २०४.६२ करोड़ रूपए ख़र्च किए हैं और साथ ही एन.एच.आर.सी. (ह्यूमन राइट्स कमीशन- राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग) की अनुशंसा पर की गई सहायता के बारे में सम्पूर्ण जानकारी प्रकाशित की है। (संदर्भ:https://web.archive.org/web/20120814014336/http://www.expressindia.com/news/fu llstory.php?newsid=46538) गुजरात सरकार ने ‘इंडिया टुडे’ के ६ मई २००२ के अंक में दिए हुए विज्ञापन में कहा: “राज्य के ९९ राहत शिविरों, जिनमें से ४७ अहमदाबाद में हैं, में शरण लेने वाले १ लाख १० हज़ार दंगा- पीड़ितों को अनाज की आपूर्ति के लिए हर एक व्यक्ति के ३० रूपए प्रतिदिन के हिसाब से सरकार प्रतिदिन ३५ लाख रूपए ख़र्च कर रही है। राज्य सरकार के सचिव स्तर के आई.ए.एस. अधिकारी इन राहत शिविरों की सीधे निगरानी कर रहे हैं। अहमदाबाद के राहत शिविरों को छह समूहों में विभाजित किया गया है और प्रत्येक समूह का नियंत्रण सचिव स्तर का अधिकारी कर रहा है। दंगा-पीड़ितों की छोटी से छोटी समस्याओं पर भी सचिव ध्यान दे रहे हैं। शिविर में रहने वाले बच्चों की परीक्षाओं की तैयारी के लिए शिक्षकों की तैनाती हर एक शिविर में की गई है, और दंगा-पीड़ितों के स्वास्थ्य की देखभाल के लिए स्वास्थ्य विभाग विशेष क़दम उठा रही हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में दंगा-पीड़ितों के पुनर्वास के लिए प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी के निर्देशानुसार राज्य सरकार ने ‘संत कबीर आवास योजना’ शुरू की है। इस योजना के माध्यम से शिविरार्थी मकान बना सकेंगे।” एस.आई.टी. ने अपनी अंतिम रिपोर्ट के पृष्ठ सं ३२० पर अहमदाबाद के तत्कालीन जिलाधीश (कलेक्टर) श्री के. श्रीनिवास का हवाला देते हुए कहा कि १ मार्च २००२ से ३१ दिसंबर २००२ के दौरान अहमदाबाद के दंगा-पीड़ितों के राहत शिविरों में ७१,७४४ लोगों को रखा गया था, और उन्हें दैनिक इस्तेमाल के लिए ज़रूरी वस्तुओं, जैसे गेहूँ, चावल, दाल, तेल, मिल्क पाउडर, शक्कर, आलू-प्याज, चाय, आदि के रूप में सरकारी मदद मिली, जिसकी आपूर्ति के लिए कुल ६,८९,५७,५४,७५० रूपए ख़र्च किए गए (६८९.५७ करोड़ रूपए)। इसके अलावा विविध फुटकर ख़र्चों के लिए सरकार ने ४.१० करोड़ की सहायता प्रदान की, ऐसा उन्होंने कहा। इसप्रकार से मदद करने वाली गुजरात सरकार की बराबरी हिटलर से करना हास्यास्पद है। हिटलर ने यहूदी समुदाय के लोगों की हत्या के आदेश दिए थे, उनकी सहायता के लिए पैसे ख़र्च करने के नहीं। वर्ष १९७१ में पूर्वी पाकिस्तान में हुए हत्याकांड में पश्चिमी पाकिस्तान के सैनिकों ने आरोप और खबरों अनुसार २४ लाख हिंदुओं का क़त्लेआम किया, तथा २.५ लाख बंगाली महिलाओं के साथ बलात्कार किया। (पाकिस्तान के मुस्लिम मज़हबी नेताओं ने बांग्लादेशियों को ग़ैर मुस्लिम घोषित करने के कारण अन्य ६ लाख बंगाली मुस्लिमों का भी क़त्लेआम किया गया, कुल ३० लाख लोग मारे गए)। पाकिस्तान और बांगलादेश में नियमित तौर पर हिंदुओं की हत्याएँ होती हैं, महिलाओं का अपहरण करके जबरन धर्म परिवर्तन कर मुसलमान करवाया जाता है, मंदिरों पर हमले होते हैं। भारत के शासन वाले कश्मीर में जनवरी १९९० में स्थानीय मुस्लिम नेताओं ने वहाँ के हिंदुओं को को तीन विकल्प दिए थे– ‘इस्लाम स्वीकार करो, मरो, या कश्मीर छोड़ दो (महिलाओं को पीछे रखकर)’। गुजरात पुलिस ने २८ अप्रैल २००२ तक प्रतिबंधात्मक उपाय के रूप में बीस हज़ार लोगों को गिरफ़्तार किया गया। पीड़ितों को बचाने के लिए स्टालिन, हिटलर जैसे हत्यारों ने कभी भी प्रतिबंधात्मक गिरफ्तारियाँ नहीं कीं। अब तक गुजरात में हिंसा के आरोप में ४८८ लोगों को न्यायालयों ने दोषी क़रार दिया है, जो कि देश में अब तक हुई किसी हिंसा की सबसे बड़ी संख्या है। किसी भी मुस्लिम देश ने हिंदुओं की हत्याओं के लिए किसी को उतनी सज़ा नहीं दी, जितनी मुस्लिम के मारे जाने पर देते। मनगढ़ंत कथा १७: ‘गोधरा’ के बाद के दंगों पर नरेंद्र मोदी ने कभी भी खेद व्यक्त नहीं किया सच्चाई: यह दावा कि गुजरात दंगों के बारे में नरेंद्र मोदी ने दिसंबर २०१३ तक कभी भी खेद व्यक्त नहीं किया, तथ्यों पर पूरी तरह ग़लत है। नरेंद्र मोदी ने इन दंगों के बारे में दुःख व्यक्त किया था और इन दंगों को ‘दुर्भाग्यपूर्ण’ कहा था। ‘आज तक’ चैनल से नरेंद्र मोदी के इंटरव्यू के कुछ अंश ‘इंडिया टुडे’ के ४ नवंबर २००२ के अंक में प्रकाशित हुए थे। इस में मोदी से पूछा गया था कि “प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और गृहमंत्री श्री आडवाणी जी ने कहा है कि गुजरात में जो कुछ हुआ, वह ग़लत है” इस पर श्री मोदी ने उत्तर दिया, “मैं भी यही कहता हूँ; गुजरात के सांप्रदायिक दंगे दुर्भाग्यपूर्ण थे, और ये दंगे हुए इसका हमें दुःख है।” (संदर्भ: http://indiatoday.intoday.in/story/communal-riots-in-gujarat-were-unfortunate-narendra- modi/1/218781.html) गुजरात में २००२ के दंगों के बाद नरेंद्र मोदी ने मार्च २००२ में गुजरात विधानसभा में एक वक्तव्य दिया था, उसमें एक पैराग्राफ़ था– “क्या इस पर आत्मचिंतन करना अपेक्षित नहीं है? गोधरा की घटना हो या ‘गोधरा’ के बाद के दंगे, इनसे किसी भी सभ्य समाज की प्रतिष्ठा में इजाफ़ा नहीं होता है। दंगे मानवता पर कलंक हैं, और ऐसे दंगों से किसी का भी सर ऊँचा होने में मदद नहीं हो सकती। फिर किसी भी व्यक्ति की राय में अंतर किसलिए होना चाहिए?” नरेंद्र मोदी ने सितंबर २०११ में सद्भावना उपवास किया था, उस समय कुछ अख़बारों ने ख़बर दी: “गुजरात के मुख्यमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने शुक्रवार (१६ सितंबर २०११) को कहा कि ‘राज्य में किसी भी व्यक्ति का दर्द उनका दर्द है, और हर एक व्यक्ति को न्याय दिलाना उनकी ज़िम्मेदारी है’। श्री मोदी के इस वाक्य का यह निष्कर्ष निकाला जा रहा है कि वर्ष २००२ के ‘गोधरा’ के बाद के दंगों के बारे में खेद व्यक्त करने वाला यह उनका पहला बयान है। श्री मोदी ने तीन दिनों के उपवास पर बैठने से पहले की शाम को कहा कि, ‘हमारे लिए भारत का संविधान सर्वोपरि है। राज्य के मुख्यमंत्री की हैसियत से किसी भी व्यक्ति का दर्द मेरा दर्द है और प्रत्येक को न्याय दिलाना राज्य की (मेरे सरकार की) ज़िम्मेदारी है’।” (संदर्भ: https://www.dnaindia.com/india/report-narendra-modi-s-first-sign-of-regret-says-pain-of- anybody-in-state-is-my-pain-1588032) केवल ‘डी.एन.ए.’ अख़बार ही नहीं, लगभग सारे मीडिया ने यही कहा, कि मोदी के सितंबर २०११ का यह बयान ‘खेद व्यक्त करने वाला पहला अवसर’ (जैसे मोदी ने इससे पहले दंगों का निषेध किया ही नहीं) था। ऐसा निष्कर्ष निकालना तथ्यों पर गलत है। वर्ष २०११ के इस उपवास से पहले मोदी ने कई बार इन दंगों का सीधा निषेध किया था। यह सच है कि गुजरात दंगों के लिए मोदी ने कभी भी माफ़ी नहीं माँगी और यह उचित भी है। कोई व्यक्ति यदि ग़लती करता है तो वह ग़लती के लिए माफ़ी माँगता है। इस मामले में नरेंद्र मोदी ने कौन सी ग़लती की? वास्तव में २००२ के दंगों पर नियंत्रण लाने के लिए उन्होंने उत्कृष्ट भूमिका निभाई। एक तर्क किया जाता हैं कि “वर्ष १९८४ के दंगों के लिए कांग्रेस ने माफ़ी माँगी है। २००२ के दंगों के लिए क्या भाजपा माफ़ी माँगेगी?” वर्ष १९८४ के दंगों के लिए कांग्रेस का माफ़ी माँगना कोई प्रशंसा वाली बात नहीं है। माफ़ी माँगने का सीधा अर्थ यह है कि वर्ष १९८४ के दंगों में जो तीन हज़ार सिक्ख मारे गए, उसकी ज़िम्मेदारी को स्वीकार करना। क्या केवल माफ़ी माँग लेने से क्या तीन हज़ार लोगों की हत्या का पाप धुल जाएगा? दोषियों को कड़ी सज़ा मिलनी चाहिए। तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने दंगाइयों के विरुद्ध किसी बडे प्रकार की कार्यवाही नहीं की, और बहुत ही कम लोगों को गिरफ़्तार किया। कांग्रेस के नेता और भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह ने वर्ष १९९९ में दिल्ली से लोकसभा चुनाव लड़ते समय आरोप लगाया था कि वर्ष १९८४ के दंगे रा.स्व.संघ ने कराए। इस हास्यास्पद आरोप के लिए अभी तक उन्होंने संघ या अन्य किसी से माफ़ी नहीं माँगी है। इस विचित्र आरोप के कारण उन्हें दक्षिण दिल्ली चुनाव क्षेत्र से भाजपा के विजय कुमार मल्होत्रा के हाथों हार का मुँह देखना पड़ा। (संदर्भ: https://www.rediff.com/election/1999/sep/02man.htm) मनगढ़ंत कथा १८: २७ फरवरी की रात को अधिकारियों की बैठक में नरेंद्र मोदी ने पुलिस अधिकारियों से हिंदुओं को हिंसा करने की अनुमति देने के लिए कहा सच्चाई: जिस बैठक में अनेक अधिकारी उपस्थित हों उसमें खुलेआम ऐसे आदेश देने के लिए क्या नरेंद्र मोदी मूर्ख हैं, जहाँ कोई भी व्यक्ति उन आदेशों को गोपनीय ढंग से रिकॉर्ड कर सकता था या जिससे श्री मोदी के ख़िलाफ़ ८ गवाह तैयार होते? अगर ये मान भी लें कि मोदी को इस तरह के आदेश देने होते तो ऐसी बैठक में खुले तौर पर कभी नहीं देते, किसी मध्यस्थी या संदेश देने वाले अन्य व्यक्तियों के माध्यम से आदेश देते (जैसे वैयक्तिक सचिव), ख़ुद आगे न आने कि सावधानी बरत कर। ‘इंडिया टुडे’ के लेख ‘क्रोनोलॉजी ऑफ़ ए क्रायसिस’ (१८ मार्च २००२ के अंक में) में कहा गया: “२७ फरवरी २००२ …रात को १०:३० बजे– मुख्यमंत्री ने गांधीनगर में वरिष्ठ आधिकारियों की बैठक बुलाई, और बाद में संवेदनशील भागों में कर्फ़्यू लागू करने और प्रतिबंधात्मक तौर पर गिरफ़्तारी के आदेश दिए।” इससे हमें समझता हैं कि यह बैठक सचमुच २७ फरवरी २००२ को देर रात में हुई थी। (‘आउटलुक’ जैसे नरेंद्र मोदी के विरोधियों ने एक बार दावा किया था कि यह बैठक आधी रात को हुई थी जो ग़लत है।) दूसरी बात यह है कि सरकार ने इस बैठक के बारे में किसी प्रकार की गोपनीयता नहीं बरती या इसके आयोजन से इनकार भी नहीं किया। परंतु यह बैठक दूसरे दिन भड़क सकने वाले संभावित हिंसाचार को कैसे रोका जाए इस विषय पर चर्चा करने के लिए थी। पहले हम २७ फरवरी की इस महत्त्वपूर्ण बैठक की पृष्ठभूमि को देखते हैं। २७ फरवरी को सुबह ८ बजे हुए गोधरा हत्याकांड के बाद नरेन्द्र मोदी ने तुरंत (सबह ९:४५ को) गोधरा में कर्फ्यू लगा कर ‘देखते-ही-गोली मारने’ के आदेश दिए। उनके आदेश पर उस रात ८२७ प्रतिबंधात्मक गिरफ्तारियाँ की गई। हमने सरकार ने हिंसाचार को रोकने के लिए किए उपायों को देखा हैं। २७ फरवरी को रेडिफ़ डॉट कॉम ने भी ख़बर दी थी कि, राज्य सरकार ने दंगों को रोकने के लिए सभी प्रतिबंधात्मक उपाय किए और सुरक्षा व्यवस्था कड़ी कर दी। ७० हज़ार सुरक्षाकर्मियों, शीघ्र कृति दल (RAF), और केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल (CRPF) को तैनात किया गया। २७ फरवरी की शाम को गोधरा में टी.वी. चैनलों से बात करते हुए नरेंद्र मोदी ने लोगों से शांति बनाए रखने और जवाबी हमले न करने की अपील की। इन सब तथ्यों से ही स्पष्ट होता है कि २७ फरवरी की बैठक में ‘हिंदुओं को खुली छूट दे दो’ ऐसा प्रशासन से कहना तो दूर, दूसरे दिन होने वाले संभावित हिंसाचार को न होने देने और नियंत्रित करने के लिए किए जाने वाले उपायों पर चर्चा हुई होगी। और दूसरे दिन पुलिस और प्रशासन ने वास्तव में की गई कार्यवाही को देखकर भी यह स्पष्ट होता है कि ऐसा ही हुआ, जिन्होंने अगले दिन हिंदुओं को किसी प्रकार की छूट नहीं दी और हिंसा रोकने के लिए अपना सर्वोत्तम प्रयास किया। मोदी ने ‘हिंदुओं को अपना गुस्सा ज़ाहिर करने दो’ का उस बैठक में आदेश देने का आरोप किसने लगाया है? ‘आउटलुक’ साप्ताहिक (जो नरेंद्र मोदी का कट्टर विरोधी हैं) ने ३ जून २००२ के अपने अंक में सबसे पहले यह आरोप लगाया कि २७ फरवरी की रात को हुई उस बैठक में मोदी ने अधिकारियों को आदेश दिए कि ‘हिंदुओं को प्रतिशोध लेने की छूट दो’। (लिंक: https://web.archive.org/web/20160920161542/http://www.outlookindia.com/magazine/story/a-plot- from-the-devils-lair/215889) इसके बाद नरेंद्र मोदी ने ‘आउटलुक’ को एक अवमानना नोटिस भेजी, जिसकी ८ जून २००२ को विभिन्न समाचार आउटलेट्स (जैसे रेडिफ़.कॉम, टाइम्स ऑफ इंडिया आदि) ने खबर दी। सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति व्ही. कृष्ण अय्यर की अध्यक्षता में [जो केवल नाममात्र अध्यक्ष थे] स्वगठित ‘कंसर्ण्ड सिटिज़न्स ट्रिब्यूनल’ (‘Concerned Citizens Tribunal’)- सी.सी.टी. समिति ने गुजरात दंगों का ‘अध्ययन’ किया और अपेक्षानुरूप सरकार को इन दंगों के लिए दोषी ठहराया। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि गोधरा हत्याकांड में ट्रेन को ‘अंदर से’ आग लगी थी, किसी भी भीड़ ने उस ट्रेन को नहीं जलाया था; इस तरह गोधरा के मुसलमानों का भीषण पाप धोने की कोशिश करने के हद तक जाकर सी.सी.टी. ने ख़ुद को हँसी का पात्र बनाया। ‘आउटलुक’ के ३ जून २००२ के अंक की ख़बर में कहा गया कि इस ट्रिब्यूनल ने गुजरात सरकार के एक मंत्री से लिए इंटरव्यू में इस मंत्री ने बताया कि नरेंद्र मोदी ने २७ फरवरी की बैठक में अधिकारियों से कहा कि ‘हिंदुओं को खुली छूट दो’। (‘आउटलुक’ ने उस समय उस मंत्री का नाम नहीं था। लेकिन मार्च २००३ में उनकी हत्या होने के बाद ‘आउटलुक’ ने कहा कि वे मंत्री हरेन पंड्या थे।) ‘आउटलुक’ ने दिनांक ३ जून २००२ के लेख में कहा: “मंत्री महोदय ने ‘आउटलुक’ को बताया कि, उन्होंने उनकी गवाही में (सी.सी.टी. समिति को दी गई गवाही में) कहा था कि २७ फरवरी की रात को मोदी ने जिन अधिकारियों को बैठक में बुलाया था उनमें डी.जी.पी. (गुजरात राज्य के तत्कालीन पुलिस प्रमुख) श्री के. चक्रवर्ती, अहमदाबाद के पुलिस कमिश्नर श्री पी.सी. पांडे, मुख्य सचिव श्री जी. सुब्बाराव, गृह सचिव श्री अशोक नारायण, गृह विभाग के सचिव श्री के. नित्यानंद (यह आई.जी. स्तर के पुलिस अधिकारी थे और इस पद पर डेप्युटेशन पर आए थे) और डी.जी.पी. (आई.बी. अर्थात् इंटेलिजेंस ब्यूरो) श्री जी.एस.रायगर थे। इस बैठक में मुख्यमंत्री कार्यालय के श्री पी.के. मिश्रा, अनिल मुखीम और ए.के. शर्मा भी उपस्थित थे। मंत्री महोदय ने ‘आउटलुक’ को यह भी बताया कि यह बैठक मुख्यमंत्री के निवास-स्थान पर हुई थी। (यहाँ इस बात पर ध्यान दें कि इसमें श्री संजीव भट्ट के नाम का कहीं भी उल्लेख नहीं होता है!!) मंत्री महोदय ने ट्रिब्यूनल को बताया कि, उस दो घंटे की बैठक में मोदी ने यह स्पष्ट किया कि दूसरे दिन के विहिंप के बंद के दौरान गोधरा के लिए न्याय होगा। उन्होंने यह आदेश दिया कि ‘हिंदुओं के जवाबी हमले में पुलिस बीच में न आए’। मंत्री की गवाही के अनुसार बैठक में एक समय डी.जी.पी. चक्रवर्ती ने इसका जमकर विरोध किया, लेकिन मोदी ने उन्हें कठोरता से डाँटकर चुप रहने और आदेशानुसार काम करने के लिए कहा। मंत्री महोदय के अनुसार अहमदाबाद के पुलिस आयुक्त (पी.सी. पांडे) ने बाद में इस बारे में निजी तौर पर पछतावा व्यक्त किया, लेकिन बैठक में आपत्ति उठाने का साहस वे नहीं दिखा सके। मंत्री महोदय की गवाही के अनुसार यह बैठक ख़ास मोदी स्टाइल बैठक थी, जिसमें चर्चा कम और आदेश ही ज़्यादा थे। बैठक के अंत तक मोदी यह सुनिश्चित कर सके कि उनके बड़े अधिकारी, ख़ासकर पुलिस, संघ परिवार के लोगों के बीच नहीं आएंगे। इस संदेश को लोगों की भीड़ के समूहों तक पहुँचाया गया। (एक बड़े आई.बी. अधिकारी के अनुसार २८ फरवरी की सुबह पहले विहिंप और बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने अहमदाबाद के कुछ भागों में जाकर थोड़ी-बहुत गड़बड़ की, सिर्फ़ यह देखने के लिए कि क्या वाक़ई में पुलिस इस ओर ध्यान नहीं दे रही है। पुलिस ध्यान नहीं देने पर श्री मोदी के शब्द सच होने का लोगों के बीच विश्वास होने के बाद हत्याकांड की शुरूआत हुई।)” इस ख़बर में स्पष्ट तथ्यात्मक ग़लतियाँ हैं। ‘आउटलुक’ की ख़बर के अनुसार इस बैठक में मुख्य सचिव श्री जी. सुब्बाराव और मुख्यमंत्री कार्यालय के एक अधिकारी श्री ए.के. शर्मा उपस्थित थे। जबकि इन दोनों में से कोई भी उस बैठक में उपस्थित नहीं था। उस दिन श्री सुब्बाराव विदेश में छुट्टी पर थे और उनकी जगह कार्यकारी मुख्य सचिव श्रीमती एस.के. वर्मा इस बैठक में शामिल हुई थीं। एस.आय.टी. रिपोर्ट पृष्ठ ५८ पर कहती हैं कि ए.के.शर्मा १९ फरवरी २००२ से ५ मार्च २००२ तक उनके बहन की शादी के संबंध में छुट्टी पर थे और वे भी उपस्थित नहीं थे। यह एकमात्र ग़लती ‘आउटलुक’ और स्व. श्री हरेन पंड्या [अगर उन्होंने ऐसा दावा किया था तो] का दावा गलत साबित करने के लिए पर्याप्त है। ‘आउटलुक’ को यह एहसास हुआ कि उसने एक बड़ी ग़लती की हैं, और उसने १९ अगस्त २००२ के अंक में श्री पंड्या का एक और इंटरव्यू लिया [पंड्या का नाम लिए बगैर], जिसमें उसने ३ जून २००२ के अंक में की इस गलती को स्वीकार किया। थोड़ी देर के लिए हम मानकर चलते हैं कि, स्व. श्री हरेन पंड्या ने ‘आउटलुक’ को बताया कि “२७ फरवरी की बैठक में मोदी ने अधिकारियों से कहा कि ‘हिंदुओं को अपना गुस्सा प्रकट करने दो’”। जब श्री पंड्या ख़ुद बैठक में उपस्थित नहीं थे, तो उनकी विश्वसनीयता क्या है? जब वे बैठक में उपस्थित लोगों के नाम भी सही बता नहीं सकता, तो उस बैठक के अंदर क्या हुआ यह उन्हें कैसे पता चलेगा? श्री पंड्या ने यह भी कहा कि बैठक दो घंटे तक चली थी, जबकि बैठक केवल ३० से ४५ मिनट तक चली थी (एस.आई.टी. की रिपोर्ट के अनुसार)। नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री बनने के बाद श्री हरेन पंड्या को गृहमंत्री पद से राजस्व मंत्री बना कर कैबिनेट में उनकी पदावनति हो गई थी। ख़बरें थी कि वे मुख्यमंत्री से नाराज़ थे। यह भी कहा जाता है कि अक्तूबर २००१ में मुख्यमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी एलिसब्रिज निर्वाचन क्षेत्र से विधानसभा उपचुनाव लड़ कर विधानसभा में जाना चाहते थे, जिसका प्रतिनिधित्व श्री हरेन पंड्या कर रहे थे (भाजपा के लिए गुजरात और देश में यह सबसे सुरक्षित चुनाव क्षेत्रों में से एक था)। कहते हैं कि मोदी के लिए अपने चुनाव क्षेत्र के विधायक पद से इस्तीफ़ा देने से हरेन पंड्या ने इनकार किया, जिस कारण मोदी को राजकोट-२ से चुनाव लड़ना पड़ा, जो चुनाव वो जीत गए। ‘आउटलुक’ को किसी भी तरीक़े से नरेंद्र मोदी को सूली पर चढ़ाना था, और उसने मंत्री ने दी जानकारी की छानबीन किए बिना ३ जून २००२ के अंक में नरेंद्र मोदी को दोषी कह दिया, अगर पंड्या उनसे बोले तो। एक मुख्यमंत्री के ख़िलाफ़ इस तरह का गंभीर आरोप करने से पहले सच्चाई की जाँच करना ‘आउटलुक’ की ज़िम्मेदारी थी। यदि केवल तर्क के लिए कहा जाए कि मोदी ‘गोधरा के लिए न्याय’ चाहते थे, जैसा कि कथित तौर पर यहां पंडया ने यहां दावा किया, तो उन्होंने २७ फरवरी २००२ को गोधरा में देखते ही गोली मारने के आदेश नहीं दिए होते और कर्फ़्यू भी नहीं लगाया होता। सड़क पर न्याय के हिसाब से कानून को हाथ में लेना जमावों को गोधरा के सिग्नल फालिया इलाके के मुसलमानों पर, जहां से हत्यारे आए थे, हमला करने की अनुमति देना होता, नरोडा पाटिया, चमनपुरा और गुजरात के अन्य क्षेत्रों के मुसलमानों पर हमला करने के बजाय, जिनका गोधरा हत्याकांड से कोई लेनादेना नहीं था। इस सब में ‘आउटलुक’ का पूरा आधार हरेन पंड्या के बयान पर था और उस समय उन्होंने उनका नाम भी नहीं लिया था। लेकिन ट्रिब्यूनल (सी.सी.टी.) या ‘आउटलुक’ दोनों में से किसी ने भी श्री पंड्या के उनसे मिलने, या बयान अथवा साक्षात्कार देने का कोई भी सबूत कभी भी पेश नहीं किया। ‘आउटलुक’ ने बाद में यह दावा किया था कि उसके साथ श्री हरेन पंड्या के अगस्त २००२ के बातचीत की रिकॉर्डिंग उपलब्ध है। लेकिन ३ जून २००२ के अंक में छपे साक्षात्कार की रिकॉर्डिंग होने का दावा भी ‘आउटलुक’ ने कभी नहीं किया। ‘आउटलुक’ ने १९ अगस्त २००२ के अंक में दी ख़बर इसप्रकार है: “श्री मोदी को लग रहा था कि जो मंत्री ट्रिब्यूनल में गए, वे उनके तत्कालीन राजस्व मंत्री हरेन पंड्या थे। उन्होंने अपने खुफ़िया अधिकारियों को पंड्या के ख़िलाफ़ सबूत इकट्ठा करने के निर्देश तक दिए। लेकिन, ‘आउटलुक’ को मिली जानकारी के अनुसार खुफ़िया विभाग मोदी को कोई भी निर्णायक सबूत नहीं दे सका। इसके बावजूद मोदी ने भाजपा प्रदेशाध्यक्ष के माध्यम से पंड्या को ‘कारण बताओ’ नोटिस दिया और उनसे पूछा कि ‘क्या आप ट्रिब्यूनल में गए थे, यदि गए थे तो क्यों और किसकी अनुमति से आपने ट्रिब्यूनल के समक्ष बयान दिया?’ श्री पंड्या ने नरेंद्र मोदी की खिल्ली उड़ाते हुए अपने कड़े जवाब में ट्रिब्यूनल में जाने से साफ़ इनकार कर दिया।” ‘आउटलुक’ या ट्रिब्यूनल के पास श्री पंड्या ने बयान देने का कोई सबूत नहीं है और ख़ुद श्री पंड्या ने इस आरोप से इनकार किया। तो २७ फरवरी की बैठक के संबंध में श्री हरेन पंड्या ने नरेंद्र मोदी पर किसी भी प्रकार का आरोप करने का कोई भी सबूत सार्वजनिक मंच पर उपलब्ध नहीं है। लेकिन इस लेखक को लगता है कि श्री हरेन पंड्या ने ट्रिब्यूनल के समक्ष बयान दिया होगा, और ३ जून २००२ के अंक के लिए ‘आउटलुक’ से बात भी की होगी। हमें सिर्फ़ इतना ही कहना है कि इसका कोई भी सबूत नहीं दिया गया है, और बगैर सबूत के किए हुए दावों की कोई कीमत नहीं होती। ‘आउटलुक’ के १९ अगस्त २००२ के अंक में दिया हुआ इंटरव्यू था (यह मानते हुए कि यह इंटरव्यू रिकॉर्ड करने का ‘आउटलुक’ का दावा सही है): “मंत्री महोदय– (अपनी बात आगे बढ़ाते हुए) देखिए, मैंने जो कुछ बताया, वह किसी असंतुष्ट व्यक्ति का बयान नहीं है। मैंने ये सब इसलिए नहीं कहा क्योंकि मैं नाराज़ हूँ। (हमारा कहना: यही वास्तविक कारण था; कि वे नाराज़ थे! गृहमंत्रालय का पद गया था!) मेरी जगह पर रहने वाला कोई भी व्यक्ति उनसे लड़ नहीं सकता। अतः मेरा अंतरंगी रहना, मंत्रिमंडल में, पद पर रहना, सत्ता में रहना महत्त्वपूर्ण है और इसीलिए मेरी पहचान सुरक्षित रहनी चाहिए। आउटलुक– आपने श्री सुब्बाराव का नाम लिया था, उससे गड़बड़ हो गई। (‘आउटलुक’ ने अपनी ख़बर में कहा था कि इस बैठक में मुख्य सचिव श्री जी. सुब्बाराव और मुख्यमंत्री कार्यालय के श्री ए.के. शर्मा उपस्थित थे। लेकिन बैठक में दोनों में से कोई भी उपस्थित नहीं था।) [कोष्ठक में के शब्द ‘आउटलुक’ के हैं, हमारे नहीं] मंत्री महोदय – वास्तव में यह हुआ कि उस समय प्रभारी मुख्य सचिव कार्यरत थे। मेरी जानकारी में कुछ गड़बड़ हो गई। लेकिन सुनिए, उनका इनकार एकदम कमज़ोर है, है ना? यदि वे इस बात को मुद्दा बना रहे हैं, तो उन्हें कहिए कि आपको (‘आउटलुक’ को) उस ख़बर में प्रकाशित सभी लोगों का अधिकृत इनकार कागज़ पर हस्ताक्षर समेत चाहिए। उनके अनुसार जो दो लोग बैठक में उपस्थित नहीं थे उन्हें छोड़ दीजिए, बाक़ी जो लोग बैठक में शामिल थे उन्हें कागज़ पर हस्ताक्षर सहित यह कहने के लिए बोलिए कि ऐसी कोई भी बैठक नहीं हुई, कोई भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष आदेश भी नहीं मिले। उन्हें कागज़ पर हस्ताक्षर सहित यह कहने दीजिए।… मंत्री महोदय (अपनी बात जारी रखते हुए)– मुख्य सचिव के नाम में मैंने ग़लती कर दी। परंतु बाक़ी सभी बातें सही हैं। बैठक का स्थान, समय सब सही है। यदि वे दबाव बनाते हैं, तो अधिकारियों से (बैठक में उपस्थित अधिकारी) अधिकृत इनकार पत्र की माँग कीजिए। मंत्री महोदय (अपनी बात जारी रखते हुए)– श्री विजय रूपाणी आपको गौरव रथ-यात्रा की जानकारी देंगे (गुजरात गौरव यात्रा का संयोजन श्री रूपाणी करने वाले थे)। लेकिन इन लोगों से बात करते समय सावधान रहें। ये लोग ऐसे हैं कि आपसे बात करते समय वे मेरा नाम उगलवाने की कोशिश करेंगे। अतः सावधान रहें।” https://web.archive.org/web/20120812102044/http://outlookindia.com/article.aspx?2169 05 सरासर झूठ साबित होने के बाद भी ‘आउटलुक’ अपने आरोप पर अड़ा रहा। उस बैठक में उपस्थित दो अधिकारियों के नाम गलत लेने की बात ‘आउटलुक’ ने स्वीकार की। यही इस आरोप को ख़ारिज करने के लिए काफ़ी था, जब ‘आउटलुक’ और एक आरोपित मंत्री बैठक में उपस्थित रहने वाले अधिकारियों के नाम भी सही ढंग से नहीं बता सके। तो फिर बैठक में क्या हुआ, इस संबंध में उन्हें और ‘आउटलुक’ को कैसे पता चलेगा? इसलिए ‘आउटलुक’ के कहने का अर्थ था: “हालाँकि बैठक में कौन उपस्थित थे यह भी हम सही नहीं बता सके, फिर भी मोदी ने इस बैठक में ‘हिंदुओं को अपना गुस्सा व्यक्त करने दो’ का आदेश पुलिस को दिया था, यह हमारा आरोप १०० प्रतिशत सच है!” थोड़ी भी ईमानदारी वाला कोई साप्ताहिक कहता, “हमने ऐसे व्यक्ति पर भरोसा किया, जिसने दी जानकारी ग़लत थी और जिसको व्यक्तिगत नाराज़गी थी। हम अपनी रिपोर्ट और आरोप वापिस लेते हैं।” लेकिन इतना ही नहीं! ‘आउटलुक’ के १९ अगस्त के अंक के लेख में भी ग़लतियाँ हैं! श्री हरेन पंड्या ने कहा (‘आउटलुक’ के अनुसार) कि ‘मैंने एक ग़लती की- मुख्य सचिव का नाम ग़लत लिया, लेकिन बाक़ी की जानकारी एकदम सही है।’ परंतु बाक़ी का सब भी सही नहीं है। बैठक में केवल मुख्य सचिव ही अनुपस्थित नहीं थे, बल्कि श्री ए.के. शर्मा भी अनुपस्थित थे। ‘आउटलुक’ ने इस बात को स्वीकार किया, मंत्री ने नहीं। ‘आउटलुक’ के लिए दुःखद बात यह है कि १९ अगस्त के अंक में भी एक तीसरी बड़ी ग़लती भी है; डी.जी.पी. (आई.बी.) श्री जी.सी. रायगर भी इस बैठक में उपस्थित नहीं थे! न श्री पंड्या और न ‘आउटलुक’ को इस बात का पता था! वास्तव में एक ग़लती भी इन हास्यास्पद दावों को ख़ारिज करने के लिए पर्याप्त है। पर तीन लोगों के नाम ग़लत थे। रायगर का नाम भी इस साप्ताहिक ने ग़लत छापा। उनका नाम जी.सी. रायगर है न कि जी.एस. रायगर! और यह बैठक दो घंटे तक भी नहीं चली थी। यहाँ एक और बात पर ध्यान दीजिए कि ‘आउटलुक’ ने बैठक में उपस्थित लोगों के नामों का उल्लेख किया, उसमें श्री संजीव भट्ट का नाम कहीं भी नहीं था! वे कहीं भी तस्वीर में भी नहीं हैं। इस बैठक के विषय में श्री मोदी को जबरन दोषी कहने वाले ‘आउटलुक’ जैसे साप्ताहिक ने भी श्री संजीव भट्ट का कभी नाम भी नहीं लिया। संजीव भट्ट के अलावा मोदी पर आरोप करने वाले दूसरे एकमात्र पुलिस अधिकारी हैं श्री आर. श्रीकुमार। गुजरात के पूर्व पुलिस अधिकारी श्रीकुमार ने नानावटी आयोग के समक्ष प्रस्तुत किए शपथ- पत्र में और बाद में एस.आई.टी. को बताया कि ‘हिंदुओं को मुस्लिमों पर अपना गुस्सा निकालने दो’ का आदेश मोदी ने उस २७ फरवरी के महत्त्वपूर्ण बैठक में दिया, ऐसा उस बैठक में उपस्थित डी.जी.पी. श्री वी.के. चक्रवर्ती ने उनसे (श्रीकुमार से) कहा था। श्रीकुमार ख़ुद इस बैठक में उपस्थित होने का, या श्री मोदी ने उनके सामने ऐसे आदेश देने का दावा भी नहीं कर रहे हैं। उनका आरोप है कि डी.जी.पी. श्री चक्रवर्ती ने उन्हें यह बताया। श्रीकुमार को श्री चक्रवर्ती ने ऐसा कुछ बताने का कोई भी सबूत नहीं है। अगर श्री चक्रवर्ती ने श्रीकुमार को ऐसा कुछ बताया होता, तो चक्रवर्ती ‘आउटलुक’ जैसे साप्ताहिक, या मीडिया में, या अन्यत्र कहीं, अथवा नानावटी आयोग के समक्ष निजी तौर पर या सार्वजनिक रूप से यही बात निश्चय ही कह सकते थे। लेकिन नानावटी आयोग के समक्ष बयान देते समय श्री चक्रवर्ती, और अन्य अधिकारियों ने इसके बिलकुल विपरीत बात कही थी। उन्होंने बताया कि इस बैठक में मोदी ने कहा था ‘दंगों को रोकिए’। इसके अलावा, गुजरात सरकार ने श्रीकुमार की पदोन्नति को ठोस कारणों से नकार कर उनसे कनिष्ठ अधिकारी को डी.जी.पी. के पद पर पदोन्नति देने के बाद ही श्रीकुमार ने मोदी के विरुद्ध आरोप लगाना शुरू किया। उन्हें पदोन्नति देने से इनकार करने से पहले श्रीकुमार ने नानावटी आयोग को दो शपथ-पत्र प्रस्तुत किए थे, जिसमें उन्होंने कहीं भी यह आरोप नहीं लगाया था। श्री चक्रवर्ती ने श्रीकुमार के दावे को पूरी तरह से ख़ारिज किया, और स्पष्ट रूप से इनकार किया कि उन्होंने श्रीकुमार को उस बैठक के बारे में ऐसा कुछ भी बताया। श्रीकुमार का ‘सबूत’ किसी कीमत का नहीं हैं, क्योंकि वो उस बैठक में उपस्थित नहीं थे, और श्री चक्रवर्ती ने उन्हें ऐसा कुछ बताया, इसका भी कोई सबूत उन्होंने नहीं दिया। और अगर श्री चक्रवर्ती ने उन्हें ऐसा कुछ बताया भी होता तो भी यह कोई ‘सबूत’ नहीं है, क्योंकि श्री चक्रवर्ती को यह नानावटी आयोग या एस.आई.टी. के समक्ष, अथवा न्यायालय में बताना पड़ेगा। एस.आई.टी. की रिपोर्ट पृष्ठ ५८ पर कहती हैं: “श्री आर.बी.श्रीकुमार द्वारा दिया गया बयान अफवाह है, जिसकी पुष्टि के. चक्रवर्ती ने नहीं की है। श्री आर.बी.श्रीकुमार को व्यक्तिगत तौर पर कोई जानकारी नहीं है क्योंकि वे उक्त बैठक में शामिल नहीं हुए थे।” नानावटी आयोग के समक्ष अपने पहले हलफनामे में जो उन्होंने १५ जुलाई २००२ को दायर किया था, श्रीकुमार ने कहा था: “यह प्रशंसनीय है कि दंगाई पुलिस से भारी संख्या में अधिक होने के बावजूद, पुलिस ने प्रभावी और निर्णायक कार्रवाई की, जो इस तथ्य से स्पष्ट है कि पहले कुछ दिनों में २२०० लोगों को गिरफ्तार किया गया था, जिसमें से हिंदुओं की संख्या १८०० थी। पहले कुछ दिनों में पुलिस फाइरिंग में लगभग १०० लोग मारे गए थे, जिनमें ६० हिंदु थे। अतः स्पष्ट है कि पुलिस ने सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के लिए बल प्रयोग करने में कोई संकोच नहीं किया” । हलफनामे में यह भी कहा गया था: “जो भी हो गोधरा घटना पर राज्य सरकार की प्रतिक्रिया तत्काल और त्वरित थी। बचाव और पुनर्वसन के प्रयास तत्काल शुरू किए गए। मुख्यमंत्री, वरिष्ठ मंत्रियों और अन्य अधिकारियों ने घटना स्थल का दौरा किया”। उन्होंने ६ अक्तूबर २००४ को दायर किए अपने दूसरे हलफनामे में भी इसी प्रकार का ही कहा था। लेकिन, अपने तीसरे हलफनामे में जो ९ अप्रैल २००५ में दायर किया गया था, उन्होंने अपने बयान को पूरी तरह बदल दिया। इसके पहले उनको फरवरी २००५ में उन पर चल रहें जे.एम.एफ.सी., भुज ने शुरू किए हुए एक अपराधिक मुकदमे के कारण पदोन्नति नहीं मिली, और उनके कनिष्ठ के.आर. कौशिक को गुजरात राज्य का डायरेक्टर जनरल ऑफ़ पुलिस बनाया गया। इस तीसरे हलफनामे में उन्होंने राज्य सरकार, राजनीतिक नेताओं और गुजरात पुलिस को सांप्रदायिक दंगों के लिए और यहां तक कि अपने उत्पीड़न के लिए दोषी ठहराया। उन्हें पदोन्नति से वंचित कर देने के बाद ही उन्होंने ऐसा किया। अब संक्षेप में २७ फरवरी की बैठक में मोदी ने ‘हिंदुओं को अपना गुस्सा निकालने की छूट दो’ का आदेश अधिकारियों को देने का आरोप लगाने वाले कौन-कौन थे, यह देखते हैं – 1) श्री संजीव भट्ट– २७ फरवरी की बैठक में वे मौजूद नहीं थे, उनकी कोई विश्वसनीयता नहीं है। मोदी को जबरन दोषी ठहराने के इच्छुक ‘तहलका’ और ‘आउटलुक’ जैसे मोदी के सबसे बड़े दुश्मनों सहित किसी ने भी उस बैठक के ९ साल बाद तक यह दावा नहीं किया था कि श्री संजीव भट्ट इस बैठक में मौजूद थे। उनकी पृष्ठभूमि अत्यंत भीषण है, उनके विरुद्ध अनेक मामले लंबित हैं। वे २०११ में बिना किसी कारण के कई दिनों तक ड्यूटी पर अनुपस्थित थे, और जब वे आखिर निलंबित हुए, तब उन्होंने ‘शहीद’ बनने का प्रयास किया। बाद में एस.आई.टी. की रिपोर्ट के अध्याय में संजीव भट्ट के २७ फरवरी के बैठक में उपस्थित रहने के दावे को विस्तार से देखेंगे। 2) श्री आर. श्रीकुमार– २७ फरवरी की बैठक में वे भी मौजूद नहीं थे और उन्होंने मौजूद रहने का दावा भी नहीं किया। 3) श्री हरेन पंड्या– उन्होंने ऐसा कोई आरोप लगाने का ही कोई भी सार्वजनिक सबूत नहीं है। ‘आउटलुक’ से बात करते समय उन्होंने यह दावा भी नहीं किया कि वे ख़ुद उस बैठक में उपस्थित थे, और उपस्थित लोगों के नाम लेने में की गलती को स्वीकारा। मोदी और हरेन पंड्या के बीच आरोपित मतभेद थे। पहले मंत्रिमंडल में उनकी पदावनति हो गई थी (तथा बाद में दिसंबर २००२ के विधानसभा चुनाव में उन्हें टिकट नहीं दिया गया)। इन सब कारणों से अगस्त २००२ में उन्होंने मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा दे दिया था। इससे स्पष्ट है कि मोदी के साथ व्यक्तिगत विवादों और अन्य दूसरे कारणों से श्री हरेन पंड्या मोदी के ख़िलाफ़ बोलने के लिए प्रेरित हो सकते थे। एस.आई.टी. रिपोर्ट के पृष्ठ २४० पर कहती है: “यहां उनके (हरेन पंडया) और श्री नरेंद्र मोदी के तनावपूर्ण संबंध (‘strained relations’) भी प्रासंगिक (‘relevant’) हैं, एक तथ्य जो स्वर्गीय पंडया के स्वर्गीय पिता विठ्ठलभाई पंडया ने प्रकट किया था”। साथ ही, ध्यान दें कि अनेक कार्यकर्ताओं/पंथनिरपेक्षतावादियों ने यह आरोप लगाया था कि २००२ के दंगों में एक दरगाह पर हुए हमले में श्री पंड्या ख़ुद ही शामिल थे। लेकिन जबसे श्री पंड्या ने २००२ में मोदी के ख़िलाफ़ बोलना शुरू किया, और ख़ासकर मार्च २००३ में उनकी हत्या किए जाने के बाद (जिसके लिए मुस्लिमों को न्यायालयों ने दोषी घोषित किया), मीडिया ने उनपर लगाए गए दंगों के आरोप भूलकर उन्हें ‘हीरो’ बना दिया। पंड्या आरोपानुसार १ मार्च २००२ को एक दरगाह को ढहाने का नेतृत्व कर रहे थे। यह दरगाह भाट्ठा (पालड़ी) में उनके मकान के पास मुख्य सड़क पर अवैध तौर पर थी [और शायद वैसे भी नगरपालिका द्वारा गिराई जाती]। बाद में उन्होंने सरकार के ख़िलाफ़ बोलना शुरू कर दिया कि सरकार अल्पसंख्यकों की सुरक्षा नहीं कर रहीं (डबल-टॉक)। उनपर दरगाह ढहाने का आरोप होने के कारण वे मतांध मुस्लिमों की हिटलिस्ट पर थे, और इसलिए उनकी हत्या कर दी गई। लेकिन मोदी को निशाना बनाने की उनकी नीति उनके लिए चमत्कार कर गई। दरगाह को नष्ट करने के आरोप को भूल कर मीडिया ने उन्हें ‘हीरो’ बना दिया। इससे यह स्पष्ट होता है कि नरेंद्र मोदी को निशाना बनाने वाले किसी भी व्यक्ति को मीडिया का पूर्वाग्रह-दूषित गुट ‘हीरो’ बनाने के लिए तत्पर रहता है, और घटना की गुणवत्ता की अनदेखी कर देता हैं। इसप्रकार मोदी पर वैसे आदेश उस बैठक में अधिकारियों को देने का आरोप लगाने वालों में से एक भी व्यक्ति (श्री संजीव भट्ट, श्री आर. श्रीकुमार, और न ही स्व. हरेन पंड्या-यदि उन्होंने यह आरोप लगाया था तो) उस बैठक में मौजूद ही नहीं था। सभी लोग जो वास्तव में उपस्थित थे, जैसे डी.जी.पी. चक्रवर्ती, ने बताया कि मोदी ने उन्हें दंगों पर नियंत्रण रखने के लिए कहा। २७ फरवरी की बैठक में मोदी ने ‘हिंदुओं को अपना गुस्सा व्यक्त करने दो’ का आदेश दिया, इसे पलभर के लिए मान भी ले, तो क्या दूसरे दिन अधिकारियों ने ऐसा किया? बिलकुल नहीं। पुलिस ने वास्तव में की कार्यवाही का ब्यौरा हम देख चुके हैं। पुलिस यदि हिंदू समुदाय को वाक़ई में २८ फरवरी को खुली छूट देती, तो १ मार्च के अंकों में तमाम मीडिया वाले इस पर कड़ी आलोचना करते। मनगढ़ंत कथा १९: ज़किया जाफ़री की नरेंद्र मोदी के विरुद्ध की गई शिकायत असली है सच्चाई: सबसे पहले ध्यान देने वाली बात है कि वर्ष २००६ तक अर्थात् दंगों के चार सालों तक ज़किया जाफ़री ने मोदी के ख़िलाफ़ कोई शिकायत की ही नहीं थी! उन्होंने केवल वर्ष २००६ से श्री मोदी के विरुद्ध बोलना शुरू किया, शायद कुछ ‘सामाजिक’ कार्यकर्ताओं के पढ़ाने, सिखाने पर, जब उनको लगा कि सबसे बड़ी मछली को जाल में फँसाने का यह अवसर है। दंगों में मारे गए एहसान जाफ़री की विधवा पत्नी श्रीमती ज़किया जाफ़री ने श्री मोदी, कुछ मंत्रियों और सरकारी अधिकारियों सहित कुल ६२ लोगों के ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज कराई थी। इस शिकायत में कई त्रुटियाँ व क़ानूनी ख़ामियाँ थीं, और कई जंगली आरोप थे, और यह शिकायत किसी छोटे बच्चे को सिखा-पढ़ाकर लिखाई गई शिकायत की तरह थी। सच्चाई के बारे में तथ्यात्मक गलतियाँ ज़किया के शिकायत में आरोप था कि गोधरा हत्याकांड के तत्काल बाद ओड़ गाँव में हुए भीषण हत्याकांड में आणंद ज़िला पुलिस प्रमुख श्री बी.एस. जेबालिया न केवल प्रत्यक्षदर्शी थे, बल्कि इस दंगे के लिए उनका समर्थन था और वे इसमें शामिल थे। वास्तव में, आणंद ज़िले के तत्कालीन पुलिस प्रमुख श्री जेबालिया नहीं थे बल्कि दूसरे अधिकारी श्री बी.डी. वाघेला थे; यह सच्चाई शिकायतकर्ता को मालूम नहीं थी! श्रीमती ज़किया के शिकायत में आरोप लगाया गया हैं कि २७ फरवरी २००२ कि बैठक में मुख्यमंत्री श्री मोदी ने ‘हिंदुओं को गोधरा हत्याकांड का प्रतिशोध लेने की छूट दो’ का आदेश दिया और उस बैठक में मुख्य सचिव श्री सुब्बाराव मौजूद थे। लेकिन जैसा कि हमने देखा, उस समय श्री सुब्बाराव छुट्टी पर विदेश में थे और उनके स्थान पर प्रभारी मुख्य सचिव एस.के. वर्मा की उपस्थिति थी। केवल इतना ही नहीं! अनेक लोग, जिनका २००२ के दंगों से कोई संबंध नहीं था, या जिन्होंने दंगों को नियंत्रित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की, उनके नाम भी ‘षड्यंत्रकारी’ के रूप में शिकायत में लिए गए। उदाहरण के लिए अहमदाबाद के भूतपूर्व पुलिस आयुक्त श्री के.आर. कौशिक को दंगों पर नियंत्रण के लिए ही इस पद पर लाया गया था, उनका ही नाम आरोपी के रूप में लिया गया। अहमदाबाद के दंगों को रोकने के लिए १० मई २००२ को श्री कौशिक की नियुक्ति की गई थी और उनके आते ही अहमदाबाद में क़ानून-व्यवस्था की स्थिति में सुधार आया, इतना की मात्र १० दिनों में २१ मे २००२ से सेना अहमदाबाद से वापिस लौटना शुरू हुआ। वे षड्यंत्रकारी कैसे हो सकते हैं? उस समय तत्कालीन पुलिस आयुक्त श्री पी.सी. पांडे को हटाने की माँग की गई थी (उन्होंने प्रशंसनीय कार्य करने के बावजूद)। उन्हें हटाने की माँग के कारण विवाद की स्थिति उत्पन्न होने पर श्री कौशिक को तैनात किया गया। श्री कौशिक की तैनाती क्यों और कैसे हुई, इस बात का जिन्हें पता नहीं था उनके द्वारा ही यह शिकायत की गई है। श्रीमती ज़किया ने अपनी शिकायत में आरोप लगाया है कि हिंदुओं को मुस्लिमों के विरुद्ध भड़काने के लिए ही गोधरा हत्याकांड में जले हुए कारसेवकों के शव २७ फरवरी को गोधरा से अहमदाबाद तक एक जुलूस में लाए गए। यह झूठ है। गोधरा के शवों को २७ फरवरी को मध्यरात्रि में जुलूस के साथ नहीं बल्कि गंभीर माहौल में अहमदाबाद लाया गया था। हमने पहले ही देखा है कि इन शवों को पश्चिम अहमदाबाद के दूर स्थित एक अस्पताल में प्रातः ३:३० बजे लाया गया था, जिस समय ज़्यादातर लोग सो रहे थे, और लोगों को दंगों के लिए भड़काना लगभग असंभव था। सनसनीख़ेज आरोप ज़ाकिया जाफ़री ने मोदी के विरुद्ध किया एक आरोप तो कल्पनाशक्ति से बाहर का है। उन्होंने अपनी शिकायत में कहा कि २७ फरवरी की रात को हुई बैठक में ‘हिंदू दंगाइयों को खुली छूट दी जाए’ का आदेश देने के साथ-साथ श्री मोदी ने एक और आदेश दिया कि ‘मुस्लिम महिलाओं पर यौन हिंसाचार के लिए हिंदुओं को प्रोत्साहित किया जाए’। मुस्लिम महिलाओं पर बलात्कार किए जाने का दावा करने वाले तथाकथित मुस्लिम गवाहों ने इस संबंध में वर्ष २००३ में सर्वोच्च न्यायालय में शपथ-पत्र दाख़िल किया था। लेकिन वर्ष २००९ में एस.आई.टी. के समक्ष बयान देते समय उन्होंने बताया कि ‘इस तरह के झूठे आरोप लगाने के लिए हमें मजबूर किया गया था’ (मनगढ़ंत कहानी १५, और उस बैठक के लिए मनगढ़ंत कहानी १८ देखिए)। श्रीमती ज़किया जाफ़री के इन बेतुके और बनावटी आरोपों को इसी पृष्ठभूमि और संदर्भों में देखना पड़ेगा। २७ फरवरी की बैठक में श्री मोदी ने सचमुच ऐसे आदेश दिए (‘हिंदुओं को खुली छूट दी जाए’) इसे पलभर के लिए मान भी लें, तो भी वे पुलिस और अन्य अधिकारियों को आदेश दे सकते हैं कि ‘हिंदुओं को मुस्लिम महिलाओं पर यौन हिंसाचार करने के लिए प्रोत्साहित किया जाए’, यह विश्वसनीय है क्या? यह आरोप पूरी तरह से अविश्वसनीय और अतिशयोक्तिपूर्ण है। क़ानूनी ख़ामियाँ इस शिकायत में श्रीमती ज़किया जाफ़री ने क़ानून की विभिन्न धाराओं का उल्लेख किया है। लेकिन वास्तव में इस शिकायत के उन विषयों पर ये धाराएँ लागू ही नहीं होती हैं। जैसे श्रीमती ज़किया ने आई.पी.सी. की धारा १९३ लगाने के लिए कहा है। इस धारा के तहत न्यायालय में मुक़दमे के दौरान जब झूठा सबूत दिया जाता है, तब वह अपराध माना जाता है। यह धारा किसी व्यक्ति द्वारा नहीं, केवल न्यायालय के आदेश पर लगाई जा सकती है। श्रीमती जाफ़री ने आरोपी लोगों पर जाँच आयोग क़ानून की धारा ६ को लगाने के लिए कहा है। इसका अधिकार भी केवल जाँच आयोग को ही है, कोई व्यक्ति इसे नहीं लगा सकता। इस शिकायत में ‘मानवाधिकार सुरक्षा संबंधी क़ानून’ की धाराओं को भी ग़लत ढंग से घुसाया गया है। शिकायतकर्ता का कहना है कि ‘वर्ष २००२ के दंगों का षड्यंत्र रचने और उसमें शामिल होने के आरोप में श्री मोदी और अन्य लोगों पर अपराध दर्ज करने के लिए मेरी शिकायत का रूपांतर एफ़.आई.आर. के रूप में किया जाए’। मीडिया, जिसपर गुजरात का जुनून सवार था (‘Gujarat obsessed media’), को उपर्युक्त सच्चाई का पता नहीं था, यह असंभव है। लेकिन फिर भी इस सच्चाई को सामने लाने का कष्ट एक भी अख़बार ने नहीं लिया। मीडिया को इतना निश्चित तौर पर पता था कि श्रीमती ज़किया जाफ़री ने की शिकायत की सच्चाई यदि बाहर आई तो सबसे पूर्वाग्रह-दूषित न्यायमूर्ति भी मोदी को दोषी नहीं ठहरा पाएँगे और इस शिकायत को सच नहीं समझेंगे, और इसीलिए मीडिया ने सच्चाई को हमेशा दबाकर रखा। ज़किया जाफ़री की शिकायत और एस.आई.टी. की रिपोर्ट से संबंधित और कई मुद्दे हैं, जिन्हें हम अगले एक अध्याय में देखेंगे। मनगढ़ंत कथा २०: अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा कि ‘नरेंद्र मोदी राजधर्म का पालन नहीं कर रहे हैं’ सच्चाई: यह घटना वाजपेयी ४ अप्रैल २००२ की है जब तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ४ अप्रैल २००२ को गुजरात दौरे पर आए थे। प्रधानमंत्री वाजपेयी और नरेंद्र मोदी के संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में वाजपेयी से एक पत्रकार प्रिया सहगल ने सवाल किया कि “गुजरात के मुख्यमंत्री को आप कौन सा संदेश देना चाहेंगे?” इस पर उन्होंने कहा, “शासनकर्ताओं को राजधर्म का पालन करना चाहिए। न जाति, न पंथ, न जन्म के आधार पर जनता के बीच किसी प्रकार का भेदभाव करना चाहिए। मैं हमेशा से यही करता आया हूँ और करने का प्रयत्न करता हूँ। और मुझे विश्वास है कि नरेंद्र भाई भी ऐसा ही कर रहे हैं”। इस बयान के आखिरी वाक्य ‘मुझे विश्वास है कि नरेंद्र भाई राजधर्म का ही पालन कर रहे है’ को मीडिया ने पूरी तरह अनदेखा कर दिया और उसे प्रकाशित ही नहीं किया, और श्री वाजपेयी का यह वाक्य कि ‘श्री नरेंद्र मोदी को राजधर्म का पालन करना चाहिए’ प्रकाशित किया (जैसे कि उन्होंने कहा कि श्री मोदी तो इसका अनुसरण ही नहीं कर रहे हैं!)। इस पूरी घटना का वीडियो आज भी यूट्यूब पर उपलब्ध है, और कोई भी इसे देख सकता है।  http://www.youtube.com/watch?v=x5W3RCpOGbQ ‘हिंदू’ ने अगले दिन अर्थात् ५ अप्रैल २००२ को ‘श्री वाजपेयी की मोदी को सलाह’ शीर्षक के अंतर्गत ख़बर देते हुए कहा कि: “प्रधानमंत्री (वाजपेयी) ने आगे कहा ‘मुझे विश्वास है कि वे अपने राजधर्म का पालन सही तरीक़े से कर रहे हैं’”। (संदर्भ:https://web.archive.org/web/20140407200003/http://www.hindu.com/thehindu/2002/04/05/stori es/2002040509161100.htm) कुछ ही दिनों के बाद २००२ में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने स्वयं ६ मई २००२ को कहा कि मीडिया ने उनके द्वारा व्यक्त की गई राय कि गुजरात के मुख्यमंत्री को राजधर्म का पालन करना चाहिए को प्रमुखता से प्रकाशित किया, लेकिन ‘मैं वही कर रहा हूँ’ इस श्री नरेंद्र मोदी के जवाब की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया। श्री वाजपेयी जी ने पूछा ‘क्या राजधर्म के पालन के लिए श्री मोदी का इस्तीफ़ा ही एकमात्र उपाय है?’ (संदर्भ: http://www.rediff.com/news/2002/may/06train3.htm) दिनांक १२ मई २००२ के ‘द वीक’ के साथ नरेंद्र मोदी के साक्षात्कार के अंश इस प्रकार हैं: “प्रश्न: प्रधानमंत्री ने आपसे खुले तौर पर राजधर्म का पालन करने के लिए कहा था। क्या यह नहीं दर्शाता कि वे मुख्यमंत्री के रूप में आपके प्रदर्शन से असंतुष्ट हैं ? उत्तर: प्रधानमंत्री द्वारा दिए गए बयान का केवल एक ही हिस्सा बताया गया है। प्रधानमंत्री ने यह भी उल्लेख किया था कि “मुझे विश्वास है कि मोदी जी राजधर्म का पालन कर रहे हैं”। केवल अर्धसत्य बताने वाली इस रिपोर्टिंग से मीडिया की मंशा के बारे में बहुत कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते है”। सोशल मीडिया और यूट्यूब के कारण टी.वी. चैनलों का एकाधिकार समाप्त हो जाने पर सत्य बाहर आ रहा है। १० वर्षों तक सत्य छुपाकर, ‘मुझे विश्वास हैं कि नरेंद्र मोदी राजधर्म का पालन कर रहे हैं’, श्री वाजपेयी के इस स्पष्ट वाक्य को दबाकर रखने के बाद मीडिया के कुछ लोगों ने सच्चाई बाहर आने पर कुछ न कुछ बहाना बनाना शुरू कर दिया। उन्होंने यह बताने का प्रयास किया कि यद्यपि श्री वाजपेयी ने कहा कि ‘मोदी राजधर्म का पालन कर रहे हैं’, परंतु वास्तव में वाजपेयी कहना चाहते थे कि ‘मोदी उसका पालन नहीं कर रहे हैं’! वो कोई भी विश्लेषण करने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन पूरा सच बताने के बाद, कि वाजपेयी ने कहा ‘मुझे विश्वास हैं कि मोदी राजधर्म का पालन कर रहें हैं’। मिथक २१: एहसान जाफरी ने दंगों के दौरान नरेंद्र मोदी को फोन किया था तथ्य: यह पूरी तरह से असत्य है, और घटना होने के बाद काफी विलंब से गढ़ा गया झूठ है। दंगों के समय और कई महीनों के बाद तक ऐसा कोई आरोप नहीं लगाया गया था। एस.आई.टी. रिपोर्ट के पृष्ठ २६१-२६२ पर कहा गया है कि एहसान जाफरी द्वारा नरेंद्र मोदी को किए किसी कॉल का कोई रिकार्ड नहीं है। अरुंधति रॉय ने ‘आउटलुक’ (६ मई २००२ का अंक) में लिखा: “…भूतपूर्व कांग्रेस संसद सदस्य इक़बाल एहसान जाफ़री के मकान को भीड़ ने घेर लिया था। उन्होंने पुलिस महानिदेशक (डीजीपी), पुलिस आयुक्त (पी.सी. पांडे), मुख्य सचिव, अतिरिक्त मुख्य सचिव (गृह) को फोन लगाया, लेकिन इन सभी कॉल्स को नज़रअंदाज़ कर दिया गया।…” यह अरुंधति रॉय का अविश्वसनीयता पूर्ण लेख है, जिसमें झूठा दावा किया गया है कि जाफरी की बेटियों के साथ बलात्कार किया गया था। मिथक १० में हमने इसे देखा था। वास्तव में कम-से-कम पुलिस आयुक्त या मुख्य सचिव (जो उस दिन छुट्टी पर विदेश में थे) को तो कोई कॉल नहीं किए गए थे। लेकिन तथ्यात्मक त्रुटियों से भरे इस लेख में भी रॉय भी यह दावा नहीं करतीं कि जाफरी ने तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को फोन किया था। दरअसल, कांग्रेस की सहयोगी जमीयत उलेमा-ए-हिंद (जे.यू.एच.) ने अगस्त २००३ में आरोप लगाया था कि जाफरी ने वास्तव में सोनिया गांधी को मदद के लिए कॉल किया था! ‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ ने ९ अगस्त २००३ को “गुजरात दंगों से जुड़े कार्यकर्ताओं पर कांग्रेस चुप” इस शीर्षक के रिपोर्ट में लिखा था कि जे.यू.एच. सचिव एन. ए. फारुकी कहते हैं: “कांग्रेस ने दंगों के दौरान गलती करने का पाप किया है। पूर्व सांसद एहसान जाफरी ने मदद के लिए सोनिया गांधी को कॉल किया था। उन्होंने बाद के उनके गुजरात दौरे में कडा रुख नहीं अपनाया। स्थानीय निकायों का नेतृत्व ज़्यादातर कांग्रेस के हाथों में था जो राहत और पुनर्वास के लिए बहुत कुछ कर सकती थी, लेकिन यह सब कार्य एन.जी.ओ. पर छोड़ दिया गया।” अगस्त २००३ इतने समय तक, जाफरी ने मोदी को फोन करने का कोई दावा नहीं किया गया हैं, वास्तव में जे.यू.एच. ने दावा किया कि जाफरी ने सोनिया गांधी को फोन किया था! और फिर भी कुछ ‘सामाजिक कार्यकर्ता’ओंने एक गवाह इम्तियाज़ पठान को पढ़ाया, सिखाया लगता है यह झूठा दावा करने के लिए कि मोदी ने फोन पर जाफरी को गाली गलौच की और जाफरी ने मरने से पहले यह बात उसे (पठान को) बताई। इम्तियाज़ पठान ने एक अदालत में ५ नवम्बर २००९ को यह दावा किया था, उसी दिन ऑनलाइन ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ने इसे रिपोर्ट किया था। उसने यह भी झूठा दावा किया था कि इस घटना में महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया था। इम्तियाज़ पठान का दावा पढ़ने के लिए इन लिंकों को ओपन करें। https://timesofindia.indiatimes.com/india/Modi-abused-Jafri-when-he-called-for- help/articleshow/5198196.cms या https://web.archive.org/web/20151023054226/http://epaper.timesofindia.com/Repository/getFiles.asp ?Style=OliveXLib:LowLevelEntityToPrint_MIRRORNEW&Type=text/html&Locale=english-skin- custom&Path=AMIR/2009/11/05&ID=Ar00201 तत्कालीन पुलिस कमिश्नर श्री पी.सी.पांडे को २८ फरवरी २००२ को ३०२ फोन कॉल आए थे या उन्होंने किए थे, लेकिन श्री जाफ़री द्वारा कोई भी कॉल उन्हें नहीं किया गया था, ऐसा एस. आई .टी. ने श्री पांडे के कॉल-रिकॉर्ड की जाँच करके कहा (एस.आई.टी. अंतिम रिपोर्ट, पृष्ठ २०३-२०४), जिससे अरुंधती रॉय और इम्तियाज़ पठान के झूठ पकडे जाते हैं। एहसान जाफरीने मोदी को फोन करने और मोदीने फोन पर उन्हें गाली देने का यह पूरा आरोप हास्यास्पद है। तर्क के लिए समझते है कि जाफरी ने मोदी को फोन किया था और मोदी उनकी मदद नहीं करना चाहते थे। क्या मोदी ने उन्हें फोन पर गाली दी होगी? मोदीने कहा होता “हम जल्द से जल्द मदद भेजेंगे” और ऐसी स्थिति में मदद नहीं भेजते अगर वे नहीं चाहते तो। क्या जाफरी को फोन पर गाली देने के लिए मोदी मूर्ख हैं जब उन्हें पता है कि फोन पर की जाने वाली कोई भी बातचीत रिकार्ड की जा सकती है? इस तरह के हास्यास्पद आरोप की कोई विश्वसनीयता नहीं है। २००२ में दंगों के तुरंत बाद पुलिस के सामने दी हुई अपनी तत्काल गवाही में, और २००२ के बाद कई वर्षो तक, पठान ने न तो मोदी का नाम लिया और न ही यह आरोप लगाया (जाफरी ने मोदी को फोन करने का और मोदीने उन्हें फोन पर गाली देने का)। पठान ने यह आरोप पहली बार घटना के सालों बाद २००९ में लगाया। अगर यह सच होता तो वह २००२ में ही ऐसा आरोप लगाता, न कि २००९ में ‘आफ्टर-थॉट’ (‘after-thought’, बाद में सोच) के तौर पर। एस.आई.टी. ने अपनी रिपोर्ट में पृष्ठ २०४ पर कहा है कि जाफरी के आवास का लैंडलाइन फोन पूरे कॉम्प्लेक्स में का एकमात्र फोन था और जाफरी के पास मोबाइल नहीं था। अगर जाफरी ने मोदी को फोन किया होता तो वे यह बात अपनी विधवा ज़ाकिया या अन्य लोगों को बताते, न की इम्तियाज़ पठान को, जिसने २००२ के बाद ७-८ साल तक यह आरोप नहीं किया। इम्तियाज़ पठान ने इन बातों का भी गलत दावा किया है: १- एहसान जाफरी ने खुद को भीड़ के हवाले कर दिया, और भीड़ से कहा “मुझे ले लो लेकिन महिलाओं और बच्चों को छोड़ दो”। २- पुलिस कमिश्नर पी.सी.पांडे २८ फरवरी को सुबह १० बजे जाफरी के घर आए थे। (उपर्युक्त सभी दावे तथ्यों के आधार पर गलत हैं।) एहसान जाफरी की विधवा ज़ाकिया जाफरी ने ६ मार्च २००२ को सी.आर.पी.सी. की धारा १६१ के अंतर्गत दर्ज हुए बयान में पुलिस को खुद कहा कि पुलिस ने उन्हें और दर्जनों निवासियों को बचा लिया अन्यथा वे सभी भीड़ द्वारा मारे गए होते। एस.आई.टी. की रिपोर्ट में भी इसका उल्लेख है, जिसे हम बाद में एक अन्य अध्याय में देखेंगे। 1- एहसान जाफरी ने आत्मरक्षा में भीड़ पर गोलियां चलाई। उन्होंने ऐसा करना चाहिए था या नहीं यह बहस का विषय है, लेकिन उनके इस कृत्य ने भीड़ को पागल कर दिया और भीड़ ने उन्हें मारने का संकल्प कर डाला, और इसके लिए भीड़ अपने में से कुछ जाने गवाने के लिए तैयार थी। इम्तियाज़ पठान कहतें हैं: “जाफरी ने भीड़ से महिलाओं और बच्चों को बख्श देने की अपील की और कहा ‘मुझे ले जाओ, मुझे मार दो, लेकिन इन निर्दोष लोगों को छोड़ दो’ और खुद को भीड़ के हवाले कर दिया”। यह दावा अविश्वसनीय है क्योंकि यह स्थापित तथ्य है कि जाफरी ने आत्मरक्षा में भीड़ पर अपनी रिवॉल्वर से गोलियां चलाई। एस.आई.टी. ने भी अपनी रिपोर्ट में पृष्ठ १ पर कहा है कि जाफरी ने वास्तव में भीड़ पर गोलियां चलाई, जिसमें १ की मौत हो गई और १५ घायल हो गए। 2- पठान ने यह भी दावा किया कि अहमदाबाद के तत्कालीन पुलिस आयुक्त पी.सी.पांडे सुबह जाफरी के घर आए थे। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त एस.आई.टी. ने पी.सी. पांडे से बात करके और सभी सबूतों की जांच (पी.सी. पांडे के कॉल रिकार्ड समेत) करने के बाद इस दावे को खारिज कर दिया और कहा कि उनके बजाय कांग्रेस के महामंत्री अंबालाल नादिया थे जो सुबह १०:०० बजे गुलबर्ग सोसाइटी में जाफरी से मिलने आए थे और १०:३० बजे वापिस गए। एस.आई.टी. ने अपनी रिपोर्ट में पृष्ठ २०१ पर कहा है: “यह निर्णायक रूप से स्थापित है कि पी.सी. पांडे ने २८ फरवरी की पूर्वान्ह में गुलबर्ग सोसायटी का दौरा नहीं किया था”। इससे पठान के झूठों का पर्दाफाश होता है। ध्यान देने वाली बात है कि वर्ष २००२ से २०१२ तक लगभग १० वर्षों तक मीडिया में एक मिथक था कि पी.सी. पांडे २८ फरवरी २००२ को पूर्वान्ह में जाफरी के घर उस पर हमला होने से पहले आए थे। वर्ष २०१२ में एस.आई.टी. की रिपोर्ट के साथ सच्चाई सामने आई कि पी.सी.पांडे जाफरी के घर नहीं गए थे। लेकिन वर्ष २००९ में न तो इम्तियाज़ पठान और न ही उनके ज़ाहिर पढ़ाने वाले शिक्षकों को यह पता था, और उन्होंने सोचा कि यह खुद पांडे थे जिन्होंने उस जगह का दौरा किया था [यहां तक कि इस लेखक ने भी उन दिनों में २०१० में एक बार इस झूठ पर विश्वास किया था]। इसीलिए पठान के शिक्षकोंने उसे यह दावा करने के लिए पढ़ाया कि पांडे ने उस जगह का दौरा किया था। इससे साफ पता चलता है कि इम्तियाज़ पठान को जाफरीने मोदी को फोन करने का झूठा दावा करने के लिए पढ़ाया गया था। अगर पठान सच्चे गवाह होते, तो वो ईमानदारी से कहते कि २८ फरवरी २००२ को पूर्वान्ह में उन्होंने पी.सी. पांडे को जाफरी के घर पर नहीं देखा था। एस.आई.टी. ने अपनी रिपोर्ट के पृष्ठ २६१-२६२ पर कहा है कि जाफरी द्वारा मोदी को कॉल किए जाने का कोई रिकार्ड उन्हें नहीं मिला। कॉल रिकार्ड उपलब्ध करने का काम करने की ज़िम्मेदारी होने वाला व्यक्ति मोदी का कट्टर विरोधी अधिकारी था और तीस्ता-एन.जी.ओ-मीडिया ब्रिगेड का पसंदीदा (और उनकी शिकायत में उनका गवाह) राहुल शर्मा था। कोई रास्ता नहीं है कि वह इस तरह के रिकार्ड से चूक जाते, अगर यह सच होता। राहुल शर्मा द्वारा जाफरी के कॉल विवरण उपलब्ध नहीं करने का कारण संभवतः यह हो सकता है कि उनमें सोनिया गांधी को किया गया कॉल हो और नरेंद्र मोदी को कोई कॉल न दर्शाया गया हो। अगर ऐसी किसी कॉल का रिकार्ड होता भी, तो भी किसी तीसरे व्यक्ति के बयान (पठान, जिसने कई झूठे दावे किए, जैसे जाफरी मामले में बलात्कार हुए, पी.सी.पांडे ने जाफरी के घर का दौरा किया, आदि) पर कैसे विश्वास किया जा सकता हैं, जो कथित टेलीफोन कॉल के दोनों में से किसी भी ओर नहीं था? जिन लोगों ने उन्हें सन २००२ के कई वर्षों बाद यह हास्यास्पद आरोप लगाने के लिए पढ़ाया, उन पर भी मुकदमा चलाया जाना चाहिए। जून २०१६ में इस मामले पर ट्रायल कोर्ट के फैसले के बाद इम्तियाज़ पठान के भाई फिरोज खान पठान ने तीस्ता सीतलवाड़ और अन्य गैर सरकारी संगठनों के विरुद्ध गुस्सा प्रकट किया, जिन्होंने अपने ‘व्यक्तिगत लाभ के लिए उनका इस्तेमाल किया’, जैसा कि ३ जून २०१६ को ‘अहमदाबाद मिरर’ ने अपनी रिपोर्ट में कहा था। https://ahmedabadmirror.indiatimes.com/ahmedabad/others/helpless-then-helpless- now/articleshow/52561384.cms?utm_source=contentofinterest&utm_medium=text&utm_campaign= cppst यह इस बात की ओर इंगित करता है उसे किसने पढ़ाया होगा। और साथ ही ‘आउटलुक’, एन.डी.टी.वी. और राणा अयुब जैसों पर भी मुकदमा चलाया जाना चाहिए जिन्होंने ऐसे हास्यास्पद आरोपों को विश्वसनीयता देने का प्रयास किया या वहीं आरोप लगाए। यहाँ कुछ और सवाल खड़े होते हैं। श्री जाफ़री ने अपने प्राणों की रक्षा के लिए ५०० कांग्रेस कार्यकर्ताओं को भेजने के लिए किसी कांग्रेस नेता को फोन क्यों नहीं किया? इस संबंध में ख़बरें हैं कि श्री जाफ़री ने यह भी किया। कांग्रेस पार्टी ने अपने भूतपूर्व सांसद को बचाने के लिए कुछ क्यों नहीं किया? एस.आई.टी. ने कांग्रेस नेता मेघसिंह चौधरी को इस मामले में सबसे महत्त्वपूर्ण आरोपी के रूप में गिरफ़्तार किया था। यह गिरफ़्तारी गुजरात पुलिस ने नहीं की थी। झूठ और मनगढ़ंत कहानियों की यह कथा कभी ख़त्म न होने वाली है। लेकिन अब हमें यहाँ रुकना होगा।

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