chapter-4

अध्याय ४ गुजरात के रक्तरंजित हिंसाचार का इतिहास

कई बार किसी भी विषय को पूरी तरह से समझने के लिए भूतकाल में झाँकना ज़रूरी होता है। २००२ गुजरात दंगों को भी यही लागू होता है, जिन में कोई ११६९ लोग मारे गए। इतने ही लोग यदि, समझो, महाराष्ट्र के नागपुर शहर में मारे गए होते, तो इसे ‘बड़े पैमाने पर दंगे’ समझा जाता। क्योंकि नागपुर क्षेत्र में वर्ष १९२७-२८ के बाद किसी भी प्रकार के सांप्रदायिक दंगे बहुत ही कम बार हुए, लगभग हुए ही नहीं। परंतु वर्ष २००२ के दंगे गुजरात में होने के कारण उन दंगों को गुजरात के सांप्रदायिक दंगों के इतिहास के संदर्भ में देखना होगा। गुजरात में रक्तरंजित हिंसाचार के इतिहास पर यदि नज़र डालें तो यह पता चलता है कि मार्च २००२ के दंगे तुलनात्मक दृष्टि से काफ़ी छोटे थे। गुजरात में वर्ष १९६९ और १९८५ में भयंकर दंगे हुए। इसके अलावा वर्ष १९८०, १९८२, १९९० और १९९२ में भी बड़े पैमाने पर दंगे भड़के थे। गुजरात में ई.स. १७१४ से हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सांप्रदायिक दंगे हो रहे हैं, यानी मध्ययुग से। संघ परिवार के किसी भी संगठन का जन्म होने कई शताब्दियों से पहले था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना ई.स. १९२५ में, भारतीय जनसंघ की स्थापना वर्ष १९५१ में, विश्व हिंदू परिषद की स्थापना वर्ष १९६४ में, और भारतीय जनता पार्टी की स्थापना वर्ष १९८० में हुई। आज भी भारत में हिंदू-मुस्लिम, चीन, म्यानमार, थाईलैंड में मुस्लिम-बौद्ध, नाइजीरिया, अल्जीरिया, फिलिपींस, चेचेन्या इत्यादि में मुस्लिम-ईसाई के बीच संघर्ष हो रहा है। इन जगहों में विहिंप या संघ- परिवार सामान्य घटक नहीं है। भारत में हिंदू-मुस्लिम संघर्ष लड़ाइयों, युद्धों, और दंगों के रूप में चालू रहा हैं ई.स. ६३६ में अरबों ने ठाणे (मुंबई के निकट) पर आक्रमण करने के बाद से। वीर सावरकर (१८८३-१९६६) ने उनकी पुस्तक ‘सहा सोनेरी पाने’ (‘भारतीय इतिहास के छह स्वर्णिम पृष्ठ’) में लिखा है कि ई.स. १००१ में मोहम्मद ग़ज़नी के आक्रमण करने तक, ई.स. ७१२ से ई.स. १००१ तक लगभग ३०० वर्षों में भारत की पश्चिमी सीमाओं पर हिंदूओं ने लगातार विदेशी मुस्लिम आक्रमणकारियों को हराया। भारत के लिए सांप्रदायिक दंगे कोई नई बात नहीं हैं। ई.स. १८८० से पिछले सवा-सौ वर्षों में देश के सभी कोनों में दंगे होते रहे हैं। परंतु देश में अन्य किसी राज्य की तुलना में गुजरात सांप्रदायिक दृष्टि से शायद सबसे ज़्यादा संवेदनशील राज्य था। विश्व संवाद केंद्र, गुजरात ने कहा है: “…(अहमदाबाद शहर के पिछले ५०० वर्षों के इतिहास) में मराठा और अंग्रेज़ों का शासन रहा। इस काल में यदि सांप्रदायिक दंगों पर विचार करें तो इस संबंध में कुछ बड़ी घटनाएँ इसप्रकार हैं- 1) १७१४ के होली के दंगे हरिराम नामक एक हिंदू अपने मित्रों के साथ अपने घर में होली खेल रहा था। उस समय उससे गुलाल ग़लती से एक मुस्लिम के शरीर पर उड़ा, और कुछ मुस्लिमों ने इसका कड़ा विरोध किया। सुन्नी बोहरा मुल्ला अब्दुल अज़ीज़ के नेतृत्व में लोगों का समूह जुम्मा मस्जिद के पास एकत्रित हुआ। मुस्लिम शासकों के अफ़ग़ान सैनिक भी इस समूह में शामिल हो गए। एक क़ाज़ी ने इस संतप्त समूह को शांत करने का प्रयास किया तो संतप्त समूह ने उस क़ाज़ी का घर जला दिया। बाद में हिंदू बस्तियों में दुकानों को लूटकर उनके घरों को जला दिया। बाद में एक हिंदू कपूरचंद भंसाली के सशस्त्र सैनिकों के द्वारा इन दंगाइयों पर नियंत्रण पाया जा सका। 2) ई.स. १७१५ के दंगे मुस्लिम सैनिकों ने हिंदुओं की दुकानों को लूटने के कारण ये १७१५ के दंगे हुए। मुस्लिम राजप्रतिनिधि दाऊद ख़ान को हटाने के बाद इन दंगों का अंत हुआ। 3) ई.स. १७१६ के ईद के दंगे लगातार तीसरे वर्ष ई.स. १७१६ में ईद के मौक़े पर सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे। ईद मनाने के लिए बोहरा नामक मुस्लिम समुदाय कुछ गाय और भैंसों को मारने के लिए लाया था। एक मुस्लिम हवलदार ने सिर्फ़ दया आने से एक गाय को छोड़ दिया। कुछ मुस्लिमों ने इसकी शिकायत क़ाज़ी ख़ैरुल्ला ख़ान को कर दी। परंतु क़ाज़ीने उनकी अपेक्षानुसार कार्यवाही नहीं करने के कारण मुस्लिम समूह ने दंगे किए, हिंदुओं की दुकानों, घरों को लूटकर आग के हवाले कर दिया। हिंदू सरदार अजित सिंह के कड़े प्रयासों से स्थिति को सामान्य बनाया जा सका। 4) ई.स. १७५० मंदिर को उद्ध्वस्त करना ‘पास के मंदिर से होने वाले घंटानाद के कारण हमारी नमाज़ में बाधा आती है’, यह कारण बताकर मुस्लिमों ने दंगे शुरू किए और नमाज़ पढ़कर वापिस लौटते समय मंदिर को उद्ध्वस्त कर दिया। 5) सितंबर १९२७ अहमदाबाद के दंगे इस दंगे का कारण मस्जिद में मुस्लिम प्रार्थना और हिंदू मंदिर में भजन का होना माना जाता है। 6) ई.स. १९४१ के दंगे १८ अप्रैल १९४१ को सांप्रदायिक दंगे शुरू हुए। इन दंगों के बाद मुसलमान मुस्लिम लीग का समर्थन करने लगे और उसके कार्यक्रमों का आचरण करने लगे। 7) ई.स. १९४६ रथ-यात्रा दंगे १ जुलाई १९४६ को रथ यात्रा थी। शहर कोटड़ा पुलिस थाना क्षेत्र से हमेशा की तरह रथ-यात्रा इस पावन दिन पर गुज़र रही थी। इस रथ-यात्रा को देखने वाले एक मुस्लिम और हिंदू अखाड़े के एक व्यक्ति के बीच मौखिक झगड़ा हुआ। इसके कारण दंगे भड़क उठे और पत्थरबाज़ी, छुरे घोंपने, लट्ठ से मारने, आगजनी इत्यादि की घटनाएँ शुरू हो गई। पुलिस को गोली चलानी पड़ी और स्थिति को नियंत्रित करने के लिए अंत में कर्फ़्यू लगाना पड़ा। 8) ई.स. १९५३ अहमदाबाद के दंगे गणेशोत्सव और मोहर्रम के अवसर पर अहमदाबाद में दंगे भड़क उठे। 9) ई.स. १९६५ सिक्ख दंगे कुछ मुस्लिमों ने दो सिक्ख रिक्शा चालकों की हत्या करने के कारण दंगे भड़क उठे। नाराज़ सिक्ख समुदाय ने दोनों रिक्शा चालकों के शवों को लेकर विशाल अन्त्य-यात्रा निकाली। परंतु दिल्ली दरवाज़े के पास स्थिति बिगड़ गई और सांप्रदायिक दंगों में बदली। 10) ई.स. १९६९ के ऐतिहासिक सांप्रदायिक दंग १८ सितंबर १९६९ को उर्स का अंतिम दिन था। शाम के समय अहमदाबाद के जगन्नाथ मंदिर की गायें हमेशा की तरह मंदिर परिसर में वापिस लौट रही थीं। यह बताना होगा की गायों का वापस आना और आने का रास्ता यह दैनिक था, उर्स के होने या न होते हुए भी। परंतु गायों के लौटने के कारण उर्स में बाधा उत्पन्न होने की वजह बताकर दोनों समुदाय में तीखा वाद-विवाद हुआ और सांप्रदायिक तनाव हो कर अहमदाबाद के अनेक भागों में छुरा घोंपने, हत्याओं की घटनाओं की शृंखला हुई। आज़ाद भारत में १९६९ के दंगे इसप्रकार के सबसे बड़े थे, इन दंगों में हज़ारों लोगों को अपने प्राण गँवाने पड़े। अन्य प्रमुख दंगों में वर्ष १९८५ के पूरे राज्य में फैले दंगे, अहमदाबाद और गोधरा के १९८० और १९८२ के दंगे, राज्य के १९९०, १९९२ के दंगे शामिल हैं।” ‘हिमल’ साउथ एशियन मासिक में मई २००२ में हेमंत बाबू का एक लेख प्रकाशित हुआ एक लेख हम देखते हैं (इस लेख को www.countercurrents.org ने पुनः प्रकाशित किया): “…राज्य में स्थिति की सामान्यता का आकलन हिंसक दंगों की घटनाओं के अधिकृत तौर पर दर्ज आँकड़ों के आधार पर किया जा सकता है। वर्ष १९६९ और १९८५ के दंगों के बाद न्यायिक जाँच के लिए न्या. रेड्डी आयोग तथा न्या. वी.एस. दवे आयोग की नियुक्ति की गई थी। दोनों आयोगों ने गुजरात के दंगों के इतिहास पर थोड़ा गौर किया। न्या. दवे आयोग ने ई.स. १७१४ में होली के दौरान हुए दंगों से सांप्रदायिक दंगों के इतिहास को खोजा। उस समय अहमदाबाद शहर मुग़लों के शासन में था। इसके बाद वर्ष १७१५, १७१६ और १७५० में दंगे हुए… अगली सदियों में भी हिंदू-मुस्लिम हिंसा होती रही और बीसवीं सदी के दुसरे मध्य में ये दंगे और भी अधिक मात्रा में और गति से होने लगे। वर्ष १९४१ में दंगे भड़कने पर, ढाई महीने से अधिक समय तक कर्फ़्यू लगाना पड़ा। न्या. रेड्डी आयोग ने १९६० से १९६९ तक के १० वर्षों के दौरान २,९३८ संघर्षों की घटनाओं को दर्ज किया। अर्थात् इन दस वर्षों में हर चार दिनों में औसतन तीन दंगे हुए… इस दौरान हुए दंगे राज्य के विभिन्न भागों में फैले; और वेरावल, जुनागड़, पाटण, गोधरा, पालनपुर, अंजार, दालखनीया, कोडिनार, और दिसा जैसे नगर भी दंगों से प्रभावित हुए। ये सभी नगर अब की (वर्ष २००२ की) हिंसा से भी प्रभावित रहे। …वर्ष १९६९ के दंगे कुछ अलग ही थे।…हिंदू-मुस्लिम दंगों का अब तक का पैटर्न यहाँ पूरी तरह बदल चुका था। तब तक के दंगों का पैटर्न अलग था… …ये दंगे सभी अर्थों में काफ़ी बड़े और अभूतपूर्व थे। तब तक कोई भी दंगे इतने बड़े पैमाने पर और लंबी अवधि तक नहीं चले थे।… उन दंगों को राज्यभर और देशभर में प्रसिद्धि मिली… …वर्ष १९८५ के दंगे १९ मार्च को शुरू हुए। दो माह पूर्व घोषित नीति के कारण नव-निर्वाचित कांग्रेस सरकार के सत्ता पर आसीन होने के दूसरे दिन ही ये दंगे शुरू हुए। पहले की कांग्रेस सरकार ने जनवरी में पिछड़ी जातियों की सीटों के कोटे में वृद्धि करने का निर्णय लिया था। इस निर्णय के कारण सरकारी नौकरियों तथा सरकारी शैक्षणिक संस्थाओं में पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षित कोटे में बढ़त हो रही थी। अंततः सरकार को अपना निर्णय वापिस लेना पड़ा। इसे वापिस लेने के बावजूद उसके बाद काफ़ी लंबे समय तक, कुल छह माह तक ये दंगे चलते रहे।… इन दंगों में अन्य तत्त्वों के साथ गुंडे, लुटेरे और व्यावसायिक हत्यारे भी शामिल थे… …अयोध्या में विवादित बाबरी मस्जिद कारसेवकोंने उद्ध्वस्त किए जाने के बाद वर्ष १९९२ में गुजरात ने पुनः दंगों का सामना किया। सूरत शहर में तो छह महीने तक बीच-बीच में उपद्रव चलता रहा। वर्ष १९९३ में मुंबई बम विस्फोटों के बाद फिर से दंगे भड़क उठे। ये बम विस्फोट दाऊद इब्राहिम द्वारा कराए जाने का आरोप है।… लेकिन, अद्भुत तौर से वर्ष १९९५ में गुजरात में भाजपा के सत्तासीन होने के बाद लगातार तीन साल तक गुजरात दंगा मुक्त राज्य रहा।…” जिस वेबसाइट ने इसे पुनःप्रसारित किया है, वह वेबसाइट पूरे इंटरनेट पर सबसे घोर भाजपा- विरोधी साइट्स में से एक हैं। संघ परिवार की कट्टर आलोचना करने वाले इस लेख में यह लेखक गुजरात में सांप्रदायिक हिंसा का रक्तरंजित इतिहास बताते हैं। गोधरा शहर में वर्ष १९२७-२८ से भीषण दंगों का इतिहास हमने देखा। विश्व संवाद केंद्र, गुजरात की वर्ष १९६९, १९८५ और २००२ के दंगों के विश्लेषण करने वाली एक रिपोर्ट है: “वर्ष १९६९, १९८५ और २००२ के सांप्रदायिक दंगों में सरकार की भूमिका का तुलनात्मक विश्लेषण गुजरात के लिए सांप्रदायिक तनाव कोई नई बात नहीं है। हाल ही के ‘गोधरा’ के बाद हुए दंगों से पहले वर्ष १९६९ और १९८५ में बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक दंगे हुए थे।… १८ सितंबर १९६९ को अहमदाबाद में बड़ा सांप्रदायिक दंगा शुरू हुआ और बाद में यह दंगा राज्य के अन्य ज़िलों में फ़ैल गया।… इन दंगों की जाँच न्या. जगमोहन रेड्डी आयोग ने की। वर्ष १९६९ के बाद १९८५ में बड़े आंदोलन तथा दंगे भड़के। वर्ष १९८५ में पहले आरक्षण-विरोधी आंदोलन शुरू हुआ और यह आंदोलन सांप्रदायिक दंगों के रूप में बदल गया। यह हिंसा फरवरी से जुलाई १९८५ तक चलती रही। इन दंगों की जाँच न्या. दवे आयोग ने की थी। इससे पहले के दो दंगों में और हाल ही में हुए [२००२] दंगों में सरकार की भूमिका के संबंध में महत्त्वपूर्ण तथ्य इसप्रकार हैं— वर्ष १९६९ में दंगों की शुरूआत १८ सितंबर को दोपहर ३:४५ बजे हुई। २१ सितंबर १९६९ को दोपहर ४:३० बजे सेना सीमित क्षेत्रों में (केवल तीन पुलिस थाना-क्षेत्र में) तैनात की गई, जबकि पूरे शहर में २२ सितंबर की शाम को ६ बजे सेना तैनात की गई। वर्ष १९८५ में १५ अप्रैल को दंगे शुरू हुए और १६ अप्रैल को सेना को बुलाया गया परंतु इसके पहले ही १७७ मौते हो चुकी थी। इसकी तुलना में हाल ही [गोधरा व बाद के दंगे] की घटना में २८ फरवरी को ही सेना को बुलाया गया। इस संबंध में एक बात ध्यान में रखनी चाहिए की इस बार [२००२ में] पूरी सेना सीमा पर तैनात होते हुए भी अहमदाबाद में सेना तत्काल दाख़िल हो गई। वर्ष १९६९ और १९८५ में सम्पूर्ण सेना सीमा पर तैनात नहीं थी। सीमा पर तैनात होने के कारण अल्पावधि में सेना का गुजरात पहुँचना आसान नहीं था, परंतु मुख्यमंत्री [नरेंद्र मोदी] ने गुजरात की तत्कालीन स्थिति के बारे में प्रधानमंत्री [अटल बिहारी वाजपेयी] और सरंक्षण मंत्री [जॉर्ज फर्नांडिस] को अवगत कराया और शीघ्रतापूर्वक सेना भेजने का अनुरोध किया। केंद्र सरकार ने भी तेज़ी से निर्णय लेकर उसी रात [२८ फरवरी] सेना को हवाई जहाज़ से अहमदाबाद में भेजा। सेना की कार्यवाही के लिए ज़रूरी औपचारिकताएँ, जैसे: एक्ज़िक्यूटिव मजिस्ट्रेट की नियुक्ति, सेना के लिए वाहन की व्यवस्था आदि, रात [२८ फरवरी की रात और १ मार्च की सुबह] को ही पूरी होने के कारण सेना अगले दिन [१ मार्च को] प्रातःकाल से ही कार्य में लग गई। वर्ष १९६९ में घटना १८ सितंबर को शुरू हुई, परंतु पाँचवे और छठे दिनों को भी दंगे नियंत्रण से बाहर थे। छठवें दिन के बाद भी हिंसा की घटनाएँ हो रही थीं। वर्ष १९८५ में ५ माह तक हिंसा हो रही थी, फरवरी से जुलाई तक। इसके विपरीत २००२ में तीसरे-चौथे दिन में ही स्थिति नियंत्रण में लाई गई। वर्तमान मामले में गोधरा हत्याकांड के केवल चार घंटों में ही उसी दिन कर्फ़्यू लगा दिया गया। [वास्तव में दो ही घंटों में, प्रातः ९:४५ बजे] इसकी तुलना में पहले घटित दो दंगों में कर्फ़्यू लागू करने में विलंब किया गया था। इस विलंब की शिकायत भी जाँच समिति से की गई थी। पुलिस और स्थानीय प्रशासन की निष्क्रियता की शिकायत जाँच आयोग के समक्ष की गई थी [१९६९ व १९८५ में]। जबकि वर्तमान मामले में गुजरात में क़ानून और व्यवस्था बनाए रखने और हिंसाचार को नियंत्रित करने के लिए प्रशासन द्वारा प्रो-एक्टिव भूमिका निभाई गई। [३ मार्च २००२ तक] पुलिस ने ३९०० राउंड से अधिक फ़ायरिंग की [वास्तव में ५४५०], आँसू गैस के ६५०० गोले छोडे और २८०० से अधिक लोगों को गिरफ़्तार किया। एक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि पुलिस गोलीबारी में ९० लोग मारे गए [वास्तविक आँकड़ा ९८]। इससे सिद्ध होता है कि पुलिस ने दंगाइयों के ख़िलाफ़ किसी प्रकार से ढिलाई नहीं बरती।… इन सब तथ्यों से स्पष्ट है कि इस बार के दंगों में हिंसा को नियंत्रित करने के लिए सरकार ने तत्काल और प्रभावपूर्ण ढंग से क़दम उठाए और मजबूत राजनैतिक इच्छाशक्ति का परिचय दिया।” (संदर्भ: VSK, Gujarat www.vskgujarat.com) १२ दिसंबर २००२ को होने वाले गुजरात विधानसभा चुनाव के लगभग एक सप्ताह पहले एन.डी.टी.वी.-स्टार न्यूज़ चैनल ने ‘द बिग फ़ाइट’ कार्यक्रम का अहमदाबाद से सीधा प्रसारण किया। इस कार्यक्रम में भाजपा के हरिन पाठक (अहमदाबाद के भाजपा सांसद), कांग्रेस के शंकर सिंह वाघेला और एक दंगा-पीड़ित प्रा. बंदूकवाला शामिल थे। चर्चा में भाग लेते हुए हरिन पाठक ने ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ में वर्ष १९६९ में प्रकाशित एक लेख का संदर्भ देते हुए कहा कि उस लेख के अनुसार १९६९ के दंगों में मारे गए लोगों का अधिकृत आँकड़ा ५ हज़ार था, जबकि वास्तव में यह आँकड़ा इससे तीन से पाँच गुना अधिक था। उस दौरान कांग्रेस पार्टी सत्तासीन थी और गांधीवादी हितेन्द्र देसाई मुख्यमंत्री थे। श्री पाठक द्वारा दिए गए उद्धरण को यदि सही समझा जाए तो वर्ष १९६९ के दंगों में मारे गए लोगों की संख्या १५ से २५ हज़ार होती है। इसकी तुलना २००२ से कीजिए, जहाँ कांग्रेस के केंद्रीय मंत्री ने दिए आँकड़ों के अनुसार २००२ के दंगों में ७९० मुस्लिम और २५४ हिंदू मारे गए, और १२७ लोग लापता रहे! ‘ऑर्गनाइज़र’ के १६ मई २००४ के अंक में देवेंद्र स्वरूप (१९२६-२०१९) ने लिखा: “…महात्मा गांधी के जीवित होने के दौरान ही गुजरात ने भीषण दंगों का सामना किया। वर्ष १९२४ में अहमदाबाद में हुए दंगों के कारण महात्माजी को हुई यातनाओं का दर्शन उनके सम्पूर्ण लेख (Complete Works) से होता है। स्वतंत्रता के बाद गोधरा और अहमदाबाद के मुस्लिम बहुसंख्यक क्षेत्रों में दंगे फैले। सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण रोकने के लिए मोहम्मद ग़ज़नी को फिर से निमंत्रण भेजा गया, जिसके कारण महात्मा गांधी को असहनीय पीड़ा हुई। महात्मा गांधी की मृत्यु के बाद अपने आप को उनका एकमात्र उत्तराधिकारी समझने वाली कांग्रेस पार्टी के कार्यकाल में गुजरात में काफ़ी सांप्रदायिक दंगे हुए। वर्ष १९६९ में गांधीवादी नेता मुख्यमंत्री हितेंद्र देसाई के कार्यकाल में ही अहमदाबाद में सांप्रदायिक दंगों में तीन हज़ार से अधिक लोग मारे गए, अर्थात् वर्ष २००२ के दंगों में मारे गए लोगों से कहीं अधिक। अतः विचारधारा की बहस में न पड़ते हुए, गुजरात में सांप्रदायिक दंगों की अंतहीन शृंखला के कारणों का पता लगाया जाना ज़रुरी है।…” (संदर्भ:https://www.organiser.org/archives/dynamic/modules९c४४.html?name=Content&pa=showpag e&pid=23&page=6) यहाँ देवेंद्र स्वरूप कहते हैं कि १९६९ के दंगों में केवल अहमदाबाद में तीन हज़ार लोग मारे गए थे; उन्होंने दिया आँकड़ा केवल अहमदाबाद का है और सावधानीपूर्वक दिया गया है। यदि भूतपूर्व केंद्रीय गृहराज्य मंत्री हरिन पाठक ने ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ के संदर्भ दिए लेख का आँकड़ा सही है तो पूरे राज्य का अधिकृत आँकड़ा ५ हज़ार है। ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने १२ अप्रैल २००२ के ऑनलाइन संस्करण में लिखा: “तुच्छ कारणों से भड़के पहले के दंगे अहमदाबाद: अगर इक्कीसवीं सदी में गुजरात में बड़े पैमाने पर दंगे होने के लिए गोधरा जैसा धक्कादायक हत्याकांड कारण बना, तो इतिहास दिखाता है कि बीसवीं सदी में अधिकांश दंगे तुच्छ कारणों से ही हुए। वर्ष १९८५ का आरक्षण-विरोधी आंदोलन और उसके बाद हुए सांप्रदायिक दंगों की जाँच करने के लिए नियुक्त राजस्थान उच्च न्यायालय के न्या. वी.एस. दवे आयोग ने अपनी रिपोर्ट का एक पूरा अध्याय ‘गुजरात के आंदोलन और दंगों का इतिहास’ पर ख़र्च किया है। वर्ष १७१४ से हुए दंगों की खोज करते हुए आयोग ने दंगों के कारण, त्योहार, धार्मिक/मज़हबी उत्सव, आक्रमण, और बस्तियों का बदलता हुआ हिंदू-मुस्लिम जनसंख्या का अनुपात (अधिक सुरक्षित स्थान पर स्थानांतरण करने के कारण) आदि दिए हैं। १८ अप्रैल १९४१ को अहमदाबाद में सांप्रदायिक दंगे भड़कने पर अधिकांश भागों में कर्फ़्यू लगाया गया और यह कर्फ़्यू ढाई महीने तक लागू रहा। इन दंगों के कारण कांग्रेस के असहयोग आंदोलन को अक्तूबर १९४१ तक स्थगित करना पड़ा। इन दंगों के कारण अहमदाबाद और राज्य के अन्य भागों में दोनों समुदायों को अलग-अलग मात्रा में काफ़ी नुकसान झेलना पड़ा। आयोग ने इन दंगों का एक महत्त्वपूर्ण परिणाम भी दर्ज किया है। उनके अनुसार, ‘१९४१ के दंगों के बाद अहमदाबाद के मुस्लिमों ने अपना रुख मुस्लिम लीग की ओर कर दिया’। इसके बाद १ जुलाई १९४६ को रथ-यात्रा के दौरान हुई पुलिस गोलीबारी के बाद दंगे भड़क गए और कर्फ़्यू लागू करना पड़ा। अधिकृत जानकारी के अनुसार शेरकोटड़ा पुलिस थाने के क्षेत्र में दोपहर १२:३० बजे दंगा चालू हुआ। रथ-यात्रा के मौक़े पर निकले जुलूस में हिंदू अखाड़े के पहलवान विविध प्रकार की कसरतें कर रहे थे। एक मुस्लिम अखाड़ा कसरत गुरु सिकंदर और अखाड़े के उसके तीन-चार सहयोगी जुलूस में हो रही कसरत देख रहे थे। इस दौरान चित्तरंजन चिंतामणि जिस ढंग से वज़न उठा रहा था उसकी सिकंदर ने आलोचना की। इस पर दोनों के बीच हुई हाथापाई में सिकंदर और चिंतामणि दोनों घायल हो गए। इस मामले में सिकंदर और कुछ साधुओं को (जो दोनों भी उत्साही हुए थे) गिरफ़्तार करके पुलिस लॉक-अप में रखने के कारण दंगे भड़क उठे। इसके बाद १९५८ में (अहमदाबाद में) खाड़िया में दंगे हुए और पुलिस गोलीबारी हुई। तत्कालीन डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट ने १२ अगस्त को खाड़िया में हुई गोलीबारी के बारे में बताया कि ‘इस दंगे में अहमदाबाद का खाड़िया वार्ड सबसे अधिक प्रभावित हुआ है। इससे पहले के दंगों में भी यहीं वार्ड सबसे अधिक प्रभावित था’। लेकिन सांप्रदायिक तनाव केवल हिंदूओं और मुसलमानों के बीच में ही हुए ऐसा सोचना भी ग़लत होगा। वर्ष १९६५ में कुछ मुस्लिमों ने दो सिक्ख रिक्शा-चालकों की हत्या करने के कारण पहली बार शहर (अहमदाबाद) में सिक्ख-मुस्लिम दंगे हुए। दूसरे दिन अंत्ययात्रा दौरान संतप्त सिक्ख समुदाय ने मुस्लिमों की दुकानों पर हमला किया। वर्ष १९६९ के दंगे अपने आप में ही एक स्वतंत्र इतिहास बन गए। रिपोर्ट के अनुसार ‘सितंबर १९६९ सरीखे अत्यंत बड़े पैमाने पर दंगे गुजरात में इससे पहले कभी नहीं हुए। इन दंगों में दोनों समुदायों को भीषण प्राणहानि तो हुई ही, साथ में, आर्थिक हानि भी हुई’। इन दंगों की जाँच करने वाले रेड्डी आयोग के अनुसार इस दंगे में कम-से-कम ५६० लोग मारे गए जबकि ५६१ लोग घायल हुए। अत्यंत तुच्छ कारण से दंगे भड़क उठे जब १८ सितंबर १९६९ को बुख़ारी साहब छैला के उर्स के मौक़े पर लोगों की भारी भीड़ एकत्रित हुई थी। दोपहर ३:४५ बजे मंदिर के साधु अपनी गायों को लेकर मंदिर के पास पहुँचे, इसी बीच कुछ मुसलमानों ने यह आपत्ति जताई कि ‘इन गायों के कारण हमारे उर्स में बाधा उत्पन्न हुई’, इस बात पर मुसलमान और साधुओं के बीच हुई बहस में कुछ साधु घायल हो गए। इसके बाद शहर के विभिन्न हिस्सों में काफ़ी तेज़ी से हिंसाचार फैल गया। इसमें बड़े पैमाने पर जनहानि के साथ-साथ आर्थिक नुकसान भी हुआ। वर्ष १९८५ का आरक्षण-विरोधी आंदोलन बाद में सांप्रदायिक दंगे के रूप में बदल गया। वर्ष १९९२ में बाबरी मस्जिद के ढहते ही बड़े पैमाने पर दंगे हुए।” (संदर्भ: https://timesofindia.indiatimes.com/city/ahmedabad/Trivial-reasons-sparked-earlier- riots/articleshow/6611833.cms?pcode=other) गोधरा की तरह कोई बड़ी घटना कारण न होते हुए भी ये दंगे हुए। वर्ष १९६९ के दंगों में लगातार ६५ दिनों तक कर्फ़्यू लगाया गया था। और ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ऐसा अख़बार है जिस पर ‘मुस्लिम-विरोधी’ होने का आरोप कोई नहीं लगा सकता। भाजपा के कट्टर विरोधी वी. गंगाधर ने अगस्त १९९९ में लिखे एक लेख में कहा: “वर्ष १९४१ के सांप्रदायिक दंगों में (अहमदाबाद में) हिंदू समुदाय ने ज़बरदस्त मार खाई थी और वे इसे कभी भूले नहीं। अहमदाबाद का खाड़िया क्षेत्र हिंदूओं का गढ़ बन गया लेकिन वहाँ किसी प्रकार का लड़ाकुपन नहीं था। वर्ष १९४५ के सांप्रदायिक दंगे उससे कम तीव्रता के थे… १९६९ का वर्ष सांप्रदायिक तनाव का स्वरूप बदलने वाला साल रहा। इस वर्ष के हिंदू-मुस्लिम दंगों में पाँच हज़ार से अधिक लोग मारे गए और अहमदाबाद एक बड़ा कब्रिस्तान बन गया। …शहर में होने वाले दंगो में पहली बार यहाँ की मज़दूर बस्तियाँ प्रभावित हुईं। यहाँ की हत्याएँ अत्यंत क्रूरतम थी। इन घटनाओं के बाद गुजरात कभी भी पहले जैसा नहीं रहा।” (संदर्भ: https://www.rediff.com/news/1999/aug/06abd.htm) यहाँ ये दावा करतें हैं कि १९६९ के दंगों में ५,००० से अधिक लोग मारे गए। कांग्रेस के प्रख्यात नेता के.एम.मुंशी ने १९४०-४१ के अहमदाबाद के दंगों पर अपनी पुस्तक ‘पिलग्रिमेज टु फ़्रीडम’ में पृष्ठ ७५-७६ पर लिखा: “इसके तुरंत बाद [मुस्लिम लीग के १९४० का लाहोर प्रस्ताव पारित होने के बाद, पाकिस्तान के निर्माण की मांग करते हुए] इनके नेताओं ने जहां भी संभव हो सांप्रदायिक दंगों को अंजाम दिया, इनमें से ढाका, अहमदाबाद और बॉम्बे [गुजरात उस समय बॉम्बे प्रोविन्स का एक हिस्सा था इसीलिए शायद ‘बॉम्बे’ से उनका मतलब केवल मुंबई शहर नहीं है] में के दंगे सबसे क्रूरता भरे रहे। यह दंगे…भीड़ की हिंसा के जरिए हिंदुओं को आतंकित करके पाकिस्तान को देश पर थोपने के इरादे से थे। देश में हिंदुओं को लक्ष्य कर सांप्रदायिक उन्माद के बढ़ते हमले के विरोध में गांधीजी के नेतृत्व में कांग्रेस कोई सुरक्षा नहीं दे पाई थी, प्रतिरोध तो बिलकुल भी नहीं… अहमदाबाद में हुए पाकिस्तान दंगे तांडव वाले (orgiastic, नंगा नाच वाले) थे। स्थानीय हिंदू, एक बहुत ही शांतिपूर्ण समुदाय, जो अपना सारा जीवन नेतृत्व के लिए गांधीजी और कांग्रेस को देखते थे, इस समय दंगाइयों की दया पर निर्भर थे। ऐसी स्थिति में, शहर के एक प्रमुख कांग्रेस नेता भोगीलाल लाला ने गांधीजी से सलाह मांगी कि कांग्रेसियों को इस भयानक स्थिति में, जिसका सामना हिंदू कर रहे थे, क्या करना चाहिए। गांधीजी ने सलाह दी कि कांग्रेसियों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से खुद को अखाड़ों (भारतीय शैली की व्यायामशाला) से नहीं जोड़ना चाहिए जहां आत्मरक्षा का प्रशिक्षण दिया जाता है; वो कांग्रेसी जो हिंसा के जरिए आत्मरक्षा के पक्ष में हैं, उन्हें कांग्रेस छोड़ देनी चाहिए। गांधीजी द्वारा भोगीलाल लाला को लिखा हुआ पत्र २५ मई १९४१ को प्रकाशित हुआ। अगले दिन मैंने नैनीताल से, जहां मैं स्वास्थ्य-लाभ करने में था, गांधीजी को पत्र लिखा कि हिंदुओं को हिंसा का सहारा लेकर भी आत्मरक्षा करने से नहीं रोका जाना चाहिए, जब उनकी महिलाएं, बच्चे और घर सुनियोजित सांप्रदायिक उन्माद के शिकार हो रहे थे…. लेकिन उन्होंने मुझे सलाह दी कि अगर मुझे इस तरह के प्रतिरोध को संगठित करने की ईमानदारीपूर्ण तीव्र इच्छा हो, तो मुझे कांग्रेस से बाहर जाकर ऐसा करना चाहिए…।” इस प्रकार गांधीजी ने हिंदुओं को सलाह दी कि वे १९४१ के इन दंगों में पीड़ा को चुपचाप सहते रहें और आत्मरक्षा में भी शामिल न हों, प्रतिशोध की तो बात ही छोड़ दें। वर्ष १९८२ में अहमदाबाद और गोधरा की तरह वडोदरा में भी भीषण दंगे हुए थे। आई.पी.सी.एस. रिसर्च पेपर की संशोधन रिपोर्ट के तीसरे खंड में मार्च २००४ में बी. राजेश्वरी ने लिखा: “वर्ष १९९० में अप्रैल से दिसंबर तक गुजरात में बड़े पैमाने पर दंगे हुए। इसमें हिंसा की क़रीब १४०० घटनाएँ हुई और अधिकृत रूप से २२४ लोग मारे गए जबकि ७७५ लोग घायल हुए। इसके तत्काल बाद वर्ष १९९१ में जनवरी से अप्रैल के बीच दंगों की क़रीब १२० घटनाएँ हुईं जिसमें अधिकृत रूप से ३८ लोग मारे गए और १७० लोग घायल हुए। अहमदाबाद में अक्तूबर १९९० में आडवाणी की रथ-यात्रा शुरू होने के बाद हुए दंगों में अधिकृत रूप से ४१ लोग मारे गए। वडोदरा में वर्ष १९९१ में अप्रैल से जुलाई के बीच दंगे हुए जो एक रिक्शावाले द्वारा एक लड़के को टक्कर मारने की छोटी सी घटना के कारण हुए थे। वर्ष १९९२ में अयोध्या में विवादित ढाँचा ढहने के बाद सूरत के दंगों में लगभग २०० लोग मारे गए थे।” यह लेखिका बी. राजेश्वरी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्राध्यापिका हैं और एक ज्ञात संघ-भाजपा की कट्टर विरोधी है। कुछ लोग रेड्डी आयोग का हवाला देते हुए दावा करते हैं कि ‘१९६९ के गुजरात दंगों में केवल ६६० लोग मारे गए’। लेकिन रेड्डी आयोग ने कहा कि ‘कम से कम ६६० लोग मारे गए’ यानी संख्या इससे कितनी भी ज्यादा हो सकती थी। इसने सभी मृतकों और लापता लोगों की कुल संख्या नहीं दी, जैसा कि २००२ के दंगों में हुआ था। इसके अलावा जनसंख्या के अनुपात में मरने वालों की संख्या भी बहुत अधिक थी। १९७१ की जनगणना के अनुसार गुजरात की जनसंख्या लगभग २.६६ करोड़ थी, जबकि २००१ की जनगणना के अनुसार ५.०६ करोड़ थी। वर्ष १३९९ में मुस्लिम आक्रमक तैमूर ने एक ही दिन में एक लाख हिंदुओं की हत्या कर दी थी। प्रा. के.एस. लाल के अनुसार ई.स. १००० से १५२५ के दौरान हिंदुओं की जनसंख्या आठ करोड़ से कम हो गई, यह हम पहले अध्याय में देख चुके हैं। अत्यधिक धर्मांध मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब (जीवनकाल १६१७–१७०७, और १६५८–१७०७ के दौरान यह सम्राट सत्तासीन था) की जन्मस्थली के रूप में गोधरा और उसके जुड़वा शहर दाहोड को जाना जाता है। ‘रेडिफ.कॉम’ के २ मार्च २००५ और ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ के ३० मई २००२ के लेख के अनुसार गोधरा के कई लोगों का संपर्क पाकिस्तान के हिंसाग्रस्त शहर कराची के लोगों के साथ है। वामपंथी ‘फ्रंटलाइन’ पाक्षिक ने लिखा: “अहमदाबाद की रथ-यात्रा कई बार सांप्रदायिक दंगों का कारण रही है, और वर्ष १९६९ का सबसे भीषण हत्याकांड भी इसी कारण हुआ था।” (फ्रंटलाइन, १३ से २६ मार्च २००४) इसी पाक्षिक के ‘द हिंदुत्व एक्सपेरिमेंट’ (लेखिका- डोनी बुंशा) लेख के अनुसार: “सबसे पहला दर्ज हुआ दंगा वर्ष १७१४ में मुग़ल शासन के दौरान होली के समय ग़लती से गुलाल उड़ने की छोटी सी घटना के कारण अहमदाबाद में हुआ। वर्ष १९८५ के दंगों की जाँच करने वाले वी.एस. दवे आयोग ने अपनी रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख किया है। बाद में मराठा शासनकाल, जो १८१७ तक चला, में भी अनेक दंगे हुए। ब्रिटिश शासनकाल के दौरान वर्ष १९४१ में दंगों के कारण असहयोग आंदोलन को स्थगित करना पड़ा। उसी समय से अहमदाबाद के मुस्लिम ‘मुस्लिम लीग’ का समर्थन करने लगे। वर्ष १९४६ में पुनः दंगों का विस्फोट हुआ। देश के स्वतंत्र होने के बाद अहमदाबाद में वर्ष १९५८, १९६५, १९६९ में दंगे हुए। वर्ष १९६९ के दंगे अत्यंत तुच्छ घटना के कारण हुए परंतु ये दंगे गुजरात के सबसे अधिक रक्तरंजित दंगों में से एक थे।” (फ्रंटलाइन, ११-२४ मई २००२) कम्युनिस्ट ‘फ्रंटलाइन’ पाक्षिक ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया कि कांग्रेस के शासनकाल में वर्ष १९६९ के दंगे गुजरात के सबसे भीषण थे, और नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में वर्ष २००२ के दंगे नहीं। ‘द पायनियर’ में दिनांक २० अप्रैल २००२ को प्रकाशित राकेश सिन्हा का लेख था: “श्वान को अपराधी मानकर उसे फाँसी पर लटकाएँ ऐसा नहीं है कि गुजरात पहली बार दंगों का सामना कर रहा है। गुजरात का सम्पूर्ण इतिहास ही मज़हबी तनाव और संघर्ष से भरा पड़ा है। गुजरात में सितम्बर १९६९ में जगन्नाथ मंदिर के दो साधुओं पर एक हज़ार मुस्लिमों के समूह द्वारा हमला किए जाने के तात्क्षणिक कारण के कारण विभाजन के बाद के सबसे भीषण दंगों में से एक दंगे हुए। १८ सितंबर १९६९ को उर्स मनाने के लिए यह मुस्लिम समुदाय एकत्रित हुआ था। इस घटना के बाद बडोदा और अहमदाबाद सहित अन्य भागों में सुनियोजित हिंसाचार हुआ। इन दंगों में ६००० परिवार बेघर हो गए और अपनी संपत्ति, घर, और अपना सब कुछ गँवा बैठे। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि यह दंगे कितने भीषण थे। ‘सांप्रदायिकता विरोधी समिति’ ने इन दंगों के संबंध में ‘गुजरात्स रायट एक्सरेड’ की रिपोर्ट में मृतकों की संख्या तीन हज़ार दी। दंगों के दौरान तो ‘मज़हबी भूकंप’ ही देखे गए।… वर्ष १९६९ में सम्पूर्ण दंगों के दौरान (एक माह) इन दंगों का परिवर्तन राजनैतिक युद्ध या सत्तासीन कांग्रेस को अस्थिर करने या तत्कालीन मुख्यमंत्री हितेंद्र देसाई से हिसाब चुकाने में नहीं हुआ। प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के २५ सितम्बर को राज्य के अल्पकालीन दौरे के पहले और बाद में भी पूर्वनियोजित हिंसाचार हुआ। उसी दिन अहमदाबाद के निकट जनता एक्स्प्रेस में १७ यात्रियों की हत्या कर दी गई। परंतु ऐसी भयानक घटनाओं के कारण किसी ने भी प्रधानमंत्री पद की प्रतिष्ठा या क़द को चुनौती नहीं दी…” (संदर्भ: http://www.hindunet.org/hvk/articles/0402/171.html) ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ अख़बार में ३० मार्च २००२ को प्रकाशित गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के इंटरव्यू के कुछ अंश थे: “प्रश्न– गोधरा में साबरमती एक्स्प्रेस के ५८ कारसेवकों को जलाकर मारने की घटना आपकी नज़र में पूर्वनियोजित थी या उत्स्फूर्त थी? क्या इस हमले को प्रवृत्त करने वाली कोई अनुचित घटना प्लैटफ़ार्म पर हुई थी? उत्तर- साबरमती एक्स्प्रेस के ५८ निर्दोष कारसेवकों को जिस तरीक़े से ज़िंदा जलाकर मारा गया, उस तरीक़े को देखकर तो यह स्पष्ट है कि वह एक षड्यंत्र था। यह हमला पूर्वनियोजित और निर्दयी (cold blooded) था। यह गाड़ी गोधरा में ७:४३ बजे पहुँची और ५ मिनट के बाद ७:४८ मिनट पर गोधरा से रवाना हुई। केवल ५०० मीटर पर सिग्नल फालिया में गाड़ी रोककर सामूहिक हमला किया गया। इस तरह का हमला उत्स्फूर्त कैसे हो सकता है? यह गाड़ी फैज़ाबाद से निकलकर ३६ घंटों के लंबे सफ़र के बाद गोधरा पहुँची, इस सम्पूर्ण यात्रा के दौरान कारसेवकों के किसी प्रकार के अनुचित व्यवहार की कोई ख़बर नहीं है। परंतु गुजरात कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष श्री अमर सिंह चौधरी ने टी.वी. चैनल को दिए गए इंटरव्यू में आरोप लगाया कि स्टेशन पर कारसेवकों ने चाय के पैसे नहीं देने के कारण यह घटना हुई। इतनी भयावह घटना को सही ठहराना क्या हास्यास्पद नहीं है? प्रश्न– देवबंद की इस्लामी पद्धति के समर्थक तबलीग़ी जमीयत संगठन ने गोधरा में धर्मांधता फैलाने और बहुसंख्यक समुदाय के व्यक्तियों को विगत कुछ वर्षों में जीवित जलाने की घटनाएँ होने की ख़बरें आ रही हैं, क्या ये घटनाएँ सच हैं? यदि हैं तो वे कब हुईं, उन घटनाओं में किसने जलाया, कौन जलाए गए और संबंधित व्यक्तियों पर क्या कार्यवाही की गई? उत्तर– गोधरा का लम्बा रक्तरंजित सांप्रदायिक इतिहास अज्ञात नहीं हैं, परंतु विगत २५-३० वर्षों में होने वाली घटनाओं ने गंभीर और विकृत स्वरूप ले लिया है। एक ही क्षेत्र में एक भयावह घटना में दो परिवारों को जीवित जलाया गया। और दस वर्ष पहले दो महिला शिक्षिकाओं सहित चार शिक्षकों को विद्यर्थियों के समक्ष टुकड़े-टुकड़े करके अत्यंत क्रूरतम तरीक़े से मार डाला गया था। तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने सामान्य तरीक़े से न्यायालय में मुक़दमे दाख़िल किए, परंतु असली अपराधियों को सज़ा देने में वे पूरी तरह नाकाम रहे। इतना ही नहीं इस मामले के मुख्य दोषी अशरफ़ को उसके साथी आरोपियों ने जेल में ही मार डाला और यह सारा मामला हमेशा के लिए ठंडे बस्ते में चला गया। प्रश्न- अहमदाबाद के हिंसाचार की ख़बरों से लगता है कि ये संगठित हिंसाचर था। सशस्त्र लोगों के समूह मतदाता सूची के साथ मुस्लिमों पर हमले कर रहें थे। आई.ए.एस. अधिकारी हर्ष मंदर ने अहमदाबाद के हिंसाचार की दिल दहला देने वाली जानकारी दी है। प्रशासन स्थिति को क़ाबू में क्यों नहीं रख सका? पुलिस का भी रवैया पक्षपातपूर्ण होने के आरोप हैं। कृपया अपनी टिप्पणी दें। उत्तर– जो लोग गुजरात के बारे में जानते हैं उन्हें पता है कि यह राज्य सांप्रदायिक दृष्टि से बहुत संवेदनशील है। यहाँ पर पतंग उड़ाने या क्रिकेट मैच जैसे तुच्छ कारणों से भी भयानक दंगे हुए हैं। पहले के कई अवसरों पर एक ही समय में २०० स्थानों पर दंगे भड़के थे और ३०० से अधिक गाँवों, शहरों में कई महीनों तक कर्फ़्यू लगाया गया था। इसके साथ यदि तुलना करें तो गोधरा जैसी घटना इतिहास में कभी नहीं हुई, फिर भी हमने तत्काल कार्यवाही करके केवल ७२ घंटों में हिंसाचार को नियंत्रित कर लिया। पुलिस ने शुरूआत में ही (पहले तीन दिनों में) ३९०० राउंड फ़ायरिंग की। भारत के सीमावर्ती क्षेत्र में तैनात सेना को हवाई जहाज़ से अहमदाबाद में लाया गया और केवल १६ घंटों में ही दंगाग्रस्त भागों में तैनात कर दिया गया। सरकार या पुलिस की ओर से किसी प्रकार की देरी नहीं की गई…” कल्पना कीजिए, ऐसा राज्य जिसमें एक ही समय २०० स्थानों पर दंगे होते है और ३०० शहरों, गाँवों में लगातार कई महीनों तक कर्फ़्यू लगता है! वस्तुनिष्‍ठ चिंतन कर गुजरात सरकार ने हिंसाचार रोकने के लिए ईमानदारी से किए प्रयासों की प्रशंसा करने के बजाय मीडिया के इस गुट ने बिना विचार किए भाजपा सरकार की निंदा की है। लेकिन जिसे सच देखना ही न हो तो वह उसे देख ही नहीं सकेगा।

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