मीडिया के एक गुट ने गुजरात के वर्ष २००२ के दंगों और ३१ अक्तूबर १९८४ को तत्कालीन
प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भड़के सिक्ख विरोधी दंगों को समान दिखाने का
प्रयास किया है। इन झूठों के कारण अच्छे इरादे वाले निर्दोष लोग भी इसका शिकार हुए हैं।
श्री बी.पी. सिंघल ने साप्ताहिक ‘ऑर्गनाइज़र’ के ९ अक्तूबर २००५ के, और दैनिक ‘द पायनियर’
के २८ सितंबर के अंक में इस विषय पर लिखा लेख काफ़ी उपयोगी हैं।
https://web.archive.org/web/20051216222540/http://www.organiser.org/dynamic/modules.php?name=
Content&pa=showpage&pid=99&page=14
अब यहाँ दोनों दंगों में के अंतर को विस्तार से देखते हैं।
गोधरा और श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या
श्रीमती इंदिरा गांधी की ३१ अक्तूबर १९८४ को की गई हत्या सिक्ख विरोधी दंगों का कारण बनी।
इंदिरा गांधी की हत्या एक आतंकवादी कृत्य था। दो व्यक्तियों ने उनकी गोली मारकर हत्या की थी।
यह घटना एक बड़ी मानवीय त्रासदी थी। लेकिन यह घटना गोधरा के समान नहीं थी, जहाँ पीड़ितों
को ट्रेन में बंद करके, बाहर निकलने न देकर, जिंदा जला दिया गया था।
इंदिरा गांधी की हत्या का आरोप किसी भी प्रकार से पूरे सिक्ख समुदाय पर नहीं लगाया जा
सकता था, केवल दो व्यक्तियों ने किए कृत्य के लिए जो उनके अंगरक्षक थे। वे सामान्य व्यक्ति
नहीं, बल्कि आतंकवादी थे। इस घटना का स्वरूप धर्मांध, सांप्रदायिक न होकर आतंकवादी था।
अपराधियों को तत्काल गिरफ़्तार कर लिया गया। यह हमला भी मुख्य रूप से एक व्यक्ति पर
था। यह हमला किसी समुदाय या संघटना, जैसे कांग्रेस पार्टी पर भी नहीं था। हमलावरों को केवल
एक ही व्यक्ति की हत्या करनी थी। बाद में उन्हें उसके लिए दंडित भी किया गया था।
इसके विपरीत अनेक लोग भले ही ऐसा दावा करते हों, लेकिन गोधरा हत्याकांड यह असली
आतंकवादी घटना नहीं थी। वह ‘sadistic barbarism’ की थी। गोधरा की तुलना तो स्वतंत्र भारत में
किसी भी घटना के साथ नहीं हो सकती। इंदिरा गांधी की हत्या के समय उन्हें हुआ दर्द शायद
क्षणिक था। गोधरा में रेल के एक पूरे डिब्बे को आग के हवाले कर दिया गया, कोई भी यात्री डिब्बे
से बाहर नहीं निकलने पाए इस उद्देश्य से मुसलमानों ने पूरे डिब्बे को दोनों ओर से घेर लिया था,
और पत्थरबाज़ी की। १५ बच्चों समेत यात्रियों को अत्यंत घृणित तरीक़े से ज़िंदा जलाया गया। उनकी
वेदनाएँ क्षणिक नहीं थी।
गोधरा में हमलावर हाथों में ए.के.-४७ रायफ़लें, बंदूकें, या ग्रेनेड लिए आतंकवादी नहीं थे। वे
स्थानीय सामान्य मुस्लिम थे। इंदिरा गांधी की हत्या दो हज़ार स्थानीय सिक्खों ने नहीं की थी।
गोधरा में दो हज़ार हमलावरों में से एक भी व्यक्ति ने प्रातः ७:४८ बजे के पहले पुलिस को इस
षड्यंत्र की यदि जानकारी दी होती तो शायद इस हत्याकांड को रोका जा सकता था। दो हज़ार में से
किसी ने भी ऐसा नहीं किया। इन हत्यारों को गिरफ़्तार भी नहीं किया गया। २७ फरवरी २००२ को
मात्र ३५ व्यक्तियों को गिरफ़्तार किया गया। ‘इंडिया टुडे’ ने अपने १८ मार्च २००२ के अंक में इस
विषय पर लिखा था:
“गुजरात के भूतपूर्व पुलिस महानिदेशक और गुजरात के अब तक के सर्वोत्तम अधिकारियों में से एक श्री
एम.एम. सिंह के अनुसार समस्या का आरंभ हुआ २७ फरवरी को गोधरा से। उनके अनुसार जिस इलाक़े से
हमलावर आए थे, उस पूरे क्षेत्र में पुलिस को तत्काल घेराबंदी करके कार्यवाही करनी चाहिए थी, और अपराधियों
को बचकर भाग निकलने नहीं देना चाहिए था। उन्होंने कहा कि यदि ऐसा हुआ होता तो हिंदुओं की भावनाएँ
शुरू में ही कुछ हद तक नियंत्रण में आ जातीं। उन्होंने आगे कहा कि ‘जब किसी घटना के कारण सांप्रदायिक
हिंसाचार होने वाला होता है, तो उस घटना में शामिल लोगों के ख़िलाफ़ पुलिस को कड़ी कार्यवाही करनी
चाहिए। उसका परिणाम उत्तम होता है।’… इस बारे में एक और बात की चर्चा हो रही है, जिसके बारे में ज़्यादा
लोग बोलने के लिए उत्सुक नहीं हैं। इस चर्चा के अनुसार २७ फरवरी को विहिंप नेताओं ने मोदी को चेतावनी
दी थी कि ‘गोधरा हत्याकांड से संबंधित लोगों पर शाम तक कार्यवाही करें, अन्यथा परिणामों का सामना करें।’
शाम तक पुलिस ने ६ प्रमुख आरोपियों में से दो व्यक्तियों को गिरफ़्तार किया था, इसके अलावा अन्य ५०
लोगों को गिरफ़्तार किया गया [वास्तव में केवल ३५, न की ५०]। गोधरा में हमलावरों की संख्या एक हज़ार से
अधिक होने के कारण विहिंप को गिरफ़्तार लोगों की संख्या अत्यंत नगण्य लगी।…”
गोधरा हत्याकांड के दो हज़ार हत्यारों में से अधिकांश हत्यारे खुले छूट जाना यही २८ फरवरी को
हुए विस्फोट का सबसे बड़ा कारण था।
गोधरा में किया गया हमला किसी एक व्यक्ति पर नहीं था, बल्कि पूरे हिंदू समुदाय पर था। यह
हमला विहिंप जैसे किसी संगठन पर भी नहीं था, या वर्ष १९८४ की तरह केवल मृत व्यक्तियों पर
नहीं था। और इसीलिए उसका प्रतिकार किसी एक संगठन ने नहीं बल्कि पूरे समुदाय ने किया।
इसके अलावा इंदिरा गांधी की हत्या के बाद किसी ने भी इस हत्या के लिए उन्हें या कांग्रेस पार्टी
को ज़िम्मेदार मानते हुए ज़ख़्मों पर नमक छिड़कने वाला काम नहीं किया। लेकिन इसके विपरीत,
गोधरा के बाद मीडिया और राजनेताओं ने (उदा. अमरसिंह चौधरी) एकसाथ गोधरा हत्याकांड के लिए
विहिंप और मृतक कारसेवकों को ज़िम्मेदार रखकर ज़ख़्मों पर नमक छिड़का, और मृत महिलाओं,
बच्चों, और पुरुषों का अपमान भी किया, और कहा ‘यह तो होना ही था’। कई लोगों ने २७ फरवरी
को यह आरोप लगाया गया कि मृत रामसेवकों ने ही मुस्लिम यात्रियों के साथ दुर्व्यवहार किया,
इत्यादि। इससे लोगों का गुस्सा और भी बढ़ा, और इन सब कारणों से २८ फरवरी २००२ को लोगों के
आक्रोश का विस्फोट हुआ। वर्ष १९८४ में इंदिरा जी की हत्या के बाद, लोगों को उकसाने वाला ऐसा
कुछ नहीं हुआ था।
हमलावरों में अंतर
वर्ष १९८४ के दंगे ‘जन विद्रोह’ जैसे दंगे नहीं थे। एक राजनैतिक पार्टी के समर्थकों ने और
आरोप के अनुसार उसी पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं के सहयोग से इस हत्याकांड को अंजाम
दिया गया। स्व. श्री राजीव गांधी (१९४४-१९९१), श्री पी.वी. नरसिंह राव (१९२१-२००४), श्री कमलनाथ,
श्री सज्जन कुमार, श्री जगदीश टायटलर इत्यादि पर वर्ष १९८४ के दंगों में दोषी होने का आरोप
लगाया जाता है, लेकिन इनमें से कुछ के विरुद्ध किसी प्रकार का मुक़दमा नहीं है या था; और जिन
लोगों पर मुक़दमा है उनमें से किसी को न्यायालय द्वारा दोषी क़रार नहीं किया गया है, सिवाय
सज्जन कुमार के, जिन्हें दिसंबर २०१८ में दोषी घोषित कर उम्रक़ैद की सज़ा दी गई। वर्ष १९८४ में
एक नेता की हत्या होने से एक राजनैतिक पार्टी उत्तेजित हो गई थी। सम्पूर्ण देश भी दुखी और
संतप्त था, लेकिन देश के मन में प्रतिशोध की भावना नहीं थी—यह भावना केवल एक राजनैतिक
पार्टी के मन में थी। वर्ष २००२ में गुजरात में गोधरा हत्याकांड के कारण पूरा समाज ही उत्तेजित हो
गया था। ‘इंडिया टुडे’ के १८ मार्च २००२ के अंक में कहा गया था: “राजनैतिक समीक्षक अरविंद बोस्मिया
के अनुसार, ‘इतने बड़े पैमाने पर विद्रोह का नेतृत्व करना संघ परिवार की शक्ति से परे है। यह गोधरा
हत्याकांड की उत्स्फूर्त प्रतिक्रिया थी’।”
इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि वर्ष २००२ के दंगों को अंजाम देना अकेले संघ परिवार के लिए
संभव नहीं था। इसके विपरीत वर्ष १९८४ के दंगों में केवल कांग्रेस पार्टी के ही समर्थक शामिल थे।
१९८४ में संघ स्वयंसेवकों ने सिक्खों की रक्षा की। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के भूतपूर्व अध्यक्ष श्री
तरलोचन सिंह ने यह रिकॉर्ड पर कहा है (“सिक्ख यह कभी भूल नहीं सकते कि संघ स्वयंसेवकों ने
१९४७ के विभाजन के दौरान, और १९८४ में हुए दंगों में उनका बचाव कैसे किया”– श्री तरलोचन सिंह,
२६ जुलाई २००३)। जबकि २००२ में गुजरात में केवल गोधरा में ही नहीं, बल्कि बाद में हिंदुओं और
मुस्लिमों पर हुए हमलों में भी कांग्रेस कार्यकर्ता शामिल थे। ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने ९ अगस्त
२००३ को दी ख़बर के अनुसार गोधरा के बाद के दंगों में २५ बड़े कांग्रेस नेताओं पर मुस्लिमों पर
आक्रमणों में शामिल होने का आरोप है। (संदर्भ: https://timesofindia.indiatimes.com/india/Cong-
silent-on-cadres-linked-to-Guj-riots/articleshow/122796.cms)
इसके अलावा कुछ मुसलमान कांग्रेस कार्यकर्ता भी २००२ के दंगों में हिंदुओं पर किए गए हमलों
में शामिल थे। इन दंगों के संबंध में कुछ कांग्रेस कार्यकर्ताओं को न्यायालयों ने दोषी घोषित किया है,
जो हम अन्य एक प्रकरण में आगे देखेंगे।
दंगों का पूर्व इतिहास
ई.स. १७१४ से भारत में सैकड़ों हिंदू–मुस्लिम दंगे हुए हैं। ई.स. ६३६ से ही हिंदुओं और मुस्लिमों
के बीच संघर्ष चल रहा है। गुजरात में बिसवी सदी में बड़े दंगे हुए। जनता के मन में भूतकाल के
घाव थे।
वर्ष १९८४ के दंगे यह दो समुदायों के बीच पहला ही संघर्ष था। इससे पहले सिक्खों ने कांग्रेस
नेताओं को आतंकित नहीं किया था, ई.स. ६३६ से तो बिलकुल ही नहीं। स्वतंत्रता के बाद १९८४ से
पहले नई दिल्ली में भाजपा के राज में (या कांग्रेस के राज में भी) हिंदू और सिक्खों के बीच दो बार
तो छोड़िए, कभी भी दंगे नहीं हुए थे। जबकि गुजरात में वर्ष २००२ में भाजपा के शासनकाल में हुए
दंगों की तुलना में कांग्रेस के शासनकाल में उसके पहले कम-से-कम दो बार इससे भीषण दंगे हुए थे।
हमलावरों पर कार्यवाही
वर्ष १९८४ के दंगों में हमलावरों के ख़िलाफ़ कोई विशेष कार्यवाही नहीं की गई थी। इन दंगों में
मृतकों की संख्या तीन हज़ार से अधिक होने पर भी गिरफ़्तार लोगों की संख्या अत्यधिक कम थी।
भूतपूर्व पुलिस महानिदेशक श्री बी.पी. सिंघल के अनुसार ‘इन दंगों में पुलिस या सेना की गोलीबारी में
एक भी हमलावर मारा नहीं गया था। दंगों के पहले तीन दिन तक पुलिस गायब थी। इन दंगों को मीडिया का
कवरेज नहीं मिला था, क्योंकि उस समय टी.वी. माध्यम अपनी बाल्यावस्था में था’। (संदर्भ: श्री बी.पी.
सिंघल ने ‘आर्गनाइज़र’ के ९ अक्तूबर २००५ के अंक में लिखा हुआ लेख)
इसके विपरीत, गुजरात पुलिस ने अक्तूबर २००५ तक २५,४८६ आरोपियों में से २५,२०४ आरोपियों
को गिरफ़्तार किया था। मई २०१२ में २६,९९९ लोगों को गिरफ़्तार किया गया था। २८ अप्रैल २००२
तक २१ हज़ार से अधिक लोगों को प्रतिबंधात्मक उपाय के रूप में गिरफ्तार किया गया था, जिनमें से
हिंदुओं की संख्या १७ हज़ार से अधिक थी। ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ की ९ अगस्त २००३ की ख़बर के
अनुसार दंगों के सिलसिले में ३० हज़ार लोगों को गिरफ़्तार किया गया। गुजरात में २७ फरवरी को ही
७०,००० के पूरे सुरक्षा दल को तैनात किया गया था, शीघ्र कृति दल की सभी उपलब्ध टुकड़ियों के
साथ। सेना को २८ फरवरी को तुरंत बुलाया गया। प्रशासन द्वारा तत्परता से की गई कार्यवाही के
विवरण हमने पहले ही देखे हैं।
गोधरा हत्याकांड और उसके बाद भड़के दंगों के ५२ मामलों में ४८८ लोगों को (जिनमें ११४
मुसलमान थे) न्यायालयों ने दंगों के १५-१६ वर्षों के अंदर दोषी क़रार दिया। इसके विपरीत, नवंबर
२०१४ में सूचना के अधिकार के अंतर्गत पूछे गए सवाल के जवाब में प्राप्त जानकारी के अनुसार वर्ष
१९८४ के दंगों में तब तक केवल ७ मामलों में मात्र २७ लोगों को दोषी क़रार दिया गया था।
(संदर्भ: https://economictimes.indiatimes.com/news/politics-and-nation/1984-anti-sikh-riots-accused-
in-7-cases-out-of-255-convicted/articleshow/45012289.cms?from=mdr)
२००२ के गुजरात दंगों में पुलिस गोलीबारी में पहले तीन दिनों में ९८ लोग और दंगों के कुल
समय में कुल १९९ लोग पुलिस गोलीबारी में मारे गए।
१९८४ में कश्मीर में आतंकवाद का अस्तित्व नहीं था—वहाँ इसका उदय १९८९ के बाद हुआ। इससे
पहले युद्ध हुए किसी भी देश के साथ, पाकिस्तान (जिसके साथ १९४७, १९६५, १९७१ में युद्ध और
१९९९ में कारगिल में मिनी-युद्ध हुआ था), या चीन (१९६२ में युद्ध हुआ था) की सीमा पर
युद्धजन्य स्थिति भी १९८४ में नहीं थी। पूरी सेना सीमा पर तैनात नहीं थी। श्री बी.पी. सिंघल के
अनुसार १९८४ के दंगों में पुलिस गोलीबारी में दिल्ली में एक भी हमलावर नहीं मारा गया था। इस
लेखक ने बाद में खबरें पढ़ी कि दिल्ली में पुलिस गोलीबारी में एक व्यक्ति मारा गया था। ३० नवंबर
१९८४ के ‘इंडिया टुडे’ ने कहा कि १९८४ के दंगों में पुलिस या सेना की गोलीबारी में मध्य प्रदेश
राज्य में ११ लोग मारे गए। नानावटी आयोग जिसने १९८४ के दंगों पर रिपोर्ट पेश किया, ने पृष्ठ
२ पर कहा: “उसने (रंगनाथ मिश्रा आयोग जिसे इन दंगों की जांच करने के लिए नियुक्त किया गया था)
पाया कि दिल्ली प्रशासन याने लेफ्टिनेंट गवर्नर और पुलिस आयुक्त ने सेना को बुलाने में विलंब किया,
हालाँकि कोई ५,००० सेना के जवान ३१ अक्तूबर [१९८४, जिस दिन इंदिरा गाँधी की हत्या हुई] की मध्य-रात्री
तक उपलब्ध थे।”
गुजरात में कोई दंगे शुरू होने से पहले ही २७ फरवरी को ८२७ लोगों की निवारक गिरफ़्तारी की
गई। दूसरी ओर वर्ष १९८४ में दंगों के पहले, या बाद में भी २ दिन तक किसी को भी सावधानी के
तौर पर हिरासत में लिए जाने के बारे में लेखक को कोई जानकारी नहीं मिली। गुजरात में दंगों की
शुरूआत होने पर कई अतिरिक्त (कम-से-कम २० हज़ार) लोगों की प्रतिबंधात्मक गिरफ़्तारी की गई
थी। नरेंद्र मोदी ने २७ फरवरी को ही गोधरा में ‘देखते ही गोली मारने’ के आदेश दिए थे। यही आदेश
गुजरात के अन्य शहरों और ग्रामीण भागों में भी लागू किए थे। जबकि ३१ अक्तूबर १९८४ को, या
इसके बाद १-२ दिनों में ‘देखते ही गोली मारने’ के आदेश नहीं दिए गए थे। वो आदेश अगर दिए
गए, तो बाद में।
गुजरात में २००२ के दंगों में पुलिस ने २४ हज़ार से अधिक मुस्लिमों, और कई हिंदुओं को बचाया
(उदा. मोदासा, भरूच में)। लेकिन १९८४ के दंगों में हमलावर मारे गए हों, और दिल्ली में सिक्खों की
सुरक्षा की गई हो, इस तरह के कोई रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं हैं, कम-से-कम इस लेखक को नहीं मिले,
हालाँकि ऐसा दिल्ली के बाहर अन्य स्थानों पर हुआ होने की संभावना हैं।
दंगों के संस्करण
१९८४ के दंगों की ख़बरों को देते समय पूरे देश के अख़बारों ने दंगों का बिलकुल एकसमान वर्णन
किया था। चाहे वह राष्ट्रीय अंग्रेज़ी दैनिक हो, स्थानीय अंग्रेज़ी या हिंदी अख़बार हो, या देशभर के
प्रादेशिक भाषाओं के अख़बार हों, सभी की ख़बरें बिलकुल एकसमान थीं। टी.वी. तथा आकाशवाणी
(रेडियो) की ख़बरें भी अख़बारों की तरह ही थीं। इन दंगों में मीडिया के किसी भी समूह ने कोई
अलग (किसी भी प्रकार का अंतर) तरह का कवरेज नहीं किया।
इसके विपरीत गुजरात के २००२ के दंगों में राष्ट्रीय अंग्रेज़ी मीडिया ने अपनी ख़बरों के ज़रिए
पेश की दंगों की तस्वीरें, और स्थानीय गुजराती अख़बारों ने दी दंगों की ख़बरों में ज़मीन-आसमान,
दिन और रात का अंतर था। इसका प्रमुख कारण यह था कि गुजराती अख़बार मुस्लिम आक्रमकता
बता कर रहे थे, जबकि अंग्रेज़ी मीडिया मुस्लिमों का एकतरफ़ा पक्ष ले रहे थे; चाहे मुसलमान मार
खा रहें हो, या मुसलमान आक्रामक ढंग से भीषण हत्याकांड कर रहे हों।
राष्ट्रीय अंग्रेज़ी अखबारों ने मार्च-अप्रैल २००२ में दंगों के दौरान किया कवरेज, और दंगों के कुछ
महीने बाद से उसी मीडिया ने की दंगों की रिपोर्टिंग, इनमें भी बड़ा अंतर था। इन्हीं अख़बारों और
साप्ताहिकों ने दंगों के वास्तविक समय की गई अपनी ही रिपोर्टिंग को नज़रअंदाज़ करके बाद में पूरी
तरह गलत ख़बरें दी।
गुजरात दंगों के सिलसिले में ख़बरें देते समय टी.वी. चैनलों ने बहुत शरारत की। एन.डी.टी.वी.
चैनल के मालिक मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सी.पी.एम.) के नेताओं के बहुत क़रीबी रिश्तेदार हैं।
एन.डी.टी.वी. के अध्यक्ष श्री प्रणय रॉय की पत्नी तथा एन.डी.टी.वी. में दूसरे नंबर पर पदासीन
श्रीमती राधिका रॉय, और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्व महासचिव श्री प्रकाश करात की पत्नी
और माकपा ‘पोलितब्यूरो’ की सदस्या और पूर्व सांसद श्रीमती वृंदा करात दोनों सगी बहनें हैं। यही
नहीं, प्रणय रॉय और राधिका रॉय दोनों कट्टर कम्युनिस्ट हैं। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की
विचारधारा कट्टर भाजपा–विरोधी है। सी.पी.एम. खुलेआम कहती हैं कि भाजपा उसकी सबसे बड़ी शत्रु
है। श्री बी.पी. सिंहल ने ‘आर्गनाइज़र’ में उस लेख में लिखा था:
“दूसरी ओर, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इन दंगों के समय कई बार बड़ी शरारतें की। दंगों के कुछ भीषण दृश्यों
को वे बार-बार दिखा रहे थे। एक टी.वी. चैनल ने तो दंगे के एक भयावह दृश्य को २१ बार दिखाया। मीडिया ने
इन दृश्यों को बार-बार दिखा कर गुजरात में मुस्लिमों का हर रोज़ क़त्लेआम होने की छवि तैयार की।”
दंगों में हुई मौतें
वर्ष १९८४ के दंगों में मात्र दो लोगों की करतूत के लिए एक हफ़्ते के भीतर अधिकृत तौर पर
तीन हज़ार लोग मारे गए थे। वास्तव में यह संख्या इससे भी अधिक हो सकती है। रंगनाथ मिश्रा
आयोग के अनुसार इन दंगों में ३८७४ सिक्ख मारे गए थे, जिसमें से २३०७ अकेले दिल्ली में मारे
गए। रंगनाथ मिश्रा आयोग ने कहा: ‘सिक्खों पर हमला करने वाले समूह में कांग्रेस (इंदिरा) पार्टी के
कार्य से संबंधित और कांग्रेस से सहानुभूति रखने वाले लोग थे’।
दूसरी ओर गुजरात के २००२ के दंगों में दो हज़ार मुस्लिमों की भीषण करतूत के कारण ७९०
मुस्लिम और साथ में २५४ हिंदू भी मारे गए (यह संख्या यू.पी.ए. सरकार ने दी है)। गोधरा हत्याकांड
में भी ५९ हिंदू मारे गए। इस प्रकार २००२ के गुजरात हिंसा में मृतकों की अंतिम संख्या ७९०
मुस्लिम और ३१३ हिंदू है। वर्ष १९८४ के दंगों में कम-से-कम तीन हज़ार सिक्ख और एक कांग्रेस
सदस्या मारे गए। १९८४ में मूल दोषी हमलावर और दंगों में मारे जाने वाले पीड़ित सह-पंथियों का
अनुपात २:३००० था, जबकि २००२ के गुजरात दंगों में यह अनुपात २०००:७९० था। इसके अलावा
कम-से-कम २५४ हिंदू मारे गए थे।
१९८४ में कांग्रेस कार्यकर्ता या अन्य हमलावर न के बराबर संख्या में मारे गए थे। जबकि
आधिकारिक रिकॉर्ड के अनुसार मुसलमानों ने ३ मार्च २००२ के बाद १५७ दंगों की शुरूआत की।
अहमदाबाद के पास हिम्मतनगर में मुस्लिमों ने हिंदुओं पर हमला किया, और एक हिंदू युवक की
आँखें निकालकर उसकी हत्या कर दी गई। इसके विपरीत, १९८४ में सिक्खों ने कोई दंगों की शुरूआत
नहीं की थी। किसी भी कांग्रेस कार्यकर्ता की आँख निकालकर उसकी हत्या नहीं की गई। सिक्खों ने
कांग्रेस कार्यकर्ताओं पर हमले नहीं किए। १९८४ में सिक्ख केवल पीड़ित थे, लेकिन गुजरात में २००२
में मुस्लिम भी आक्रामक थे।
दंगों का भौगोलिक क्षेत्र
१९८४ में सिक्ख विरोधी दंगे केवल नई दिल्ली में ही नहीं, बल्कि अनेक स्थानों पर हुए। पश्चिम
बंगाल और त्रिपुरा जैसे सुदूरवर्ती क्षेत्रों में भी सिक्खों पर हमले हुए। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के
प्रख्यात नेता हरकिशनसिंह सुरजीत (१९१६–२००८) ने अगस्त २००५ में लिखे एक लेख में आरोप
लगाया था कि पश्चिम बंगाल में सिक्ख विरोधी हमलों में ममता बनर्जी भी शामिल थीं, जिस आरोप
से सी.पी.एम. ने अपने आपको अलग किया। https://indianexpress.com/article/news-archive/mamata-
sees-red-as-surjeet-draws-84-link/
इस आरोप पर हमें बलकुल ही विश्वास नहीं है। हमने यह जानकारी केवल यह साबित करने के
लिए दी कि पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा जैसे दूर-दराज इलाक़ों में भी ये दंगे हुए थे। २००२ में गुजरात
के बाहर, यहाँ तक कि मुंबई में भी दंगे नहीं हुए। ‘ऑर्गनायज़र’ में उस लेख में श्री बी.पी. सिंघल ने
लिखा– “हालाँकि गोधरा हत्याकांड के कारण हिंदुओं में देश भर में अत्यधिक क्रोध था, लेकिन हिंदू समुदाय ने
इस बात की खबरदारी ली कि ये दंगे गुजरात के बाहर न फैले”। यदि बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद
दंगे करवाने पर तुले होते, नीती के तौर पर, तो वे देश में कहीं भी उपद्रव करा सकते थे।
गुजरात में भी पहले तीन दिनों में भी सौराष्ट्र और कच्छ क्षेत्रों में अर्थात् एक तिहाई राज्य में दंगे
हुए ही नहीं। गुजरात के १८,६०० गाँवों में से केवल ५० गाँवों में और शहरों- क़स्बों समेत पूरे राज्य में
अधिकतम ९० स्थानों पर दंगे हुए।
दंगों में बेघर हुए लोग
हमने देखा कि अप्रैल २००२ में गुजरात के शरणार्थी-शिविर में ४० हज़ार हिंदुओ ने शरण ली थी।
१९८४ के सिक्ख विरोधी दंगों में कोई गैर-सिक्ख या कांग्रेसी बेघर नहीं हुआ। श्री बी.पी. सिंघल ने उस
लेख में कहा, “दंगों में बेघर हुए सिक्खों के लिए कहीं एक भी शरणार्थी-शिविर स्थापित करने का प्रयास नहीं
किया गया। वास्तव में, नानावटी आयोग की रिपोर्ट के अनुसार सिक्ख बस्तियों में यह कहकर कि ‘यहाँ रहने
वाले सिक्खों को पूरी तरह सुरक्षा प्रदान की जाएगी’, उनके हथियारों को ज़ब्त कर लिया गया था, और बाद में
इन्हीं बस्तियों पर हमला किया गया।”
सिक्खों ने हमला करने के कारण विस्थापित हुए ग़ैर-सिक्खों के लिए शरणार्थी-शिविर तो छोड़िए,
उल्टे बेघर हुए कई दंगा-पीड़ित सिक्खों को भी शरणार्थी शिविर नहीं दिए गए। इसके विपरीत २००२
में गुजरात में मुस्लिमों ने हमला करने के कारण बेघर हुए हिंदुओं के लिए भी शिविर स्थापित करने
पड़े। इन शिविरों की कमी के कारण कुछ हिंदुओं को मंदिरों में शरण लेनी पड़ी, या सड़कों पर सोना
पड़ा।
करवाए गए चुनाव
हालाँकि यह मुद्दा सीधे तौर पर दंगों से संबंधित नहीं है, यहाँ का एक अंतर भी उल्लेखनीय है।
वर्ष १९८४ में सिक्ख विरोधी दंगे १ नवंबर से ७ नवंबर के बीच होने के बाद, ४५ दिनों के अंदर
दिसंबर में लोकसभा के चुनाव हुए। इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति की लहर के कारण
कांग्रेस को इस चुनाव में लोकसभा की ५४३ में से ४०० से अधिक सीटों पर जीत हासिल हुई। इसके
बाद फरवरी १९८५ में गुजरात विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस को १८२ में से १४९ सीटों पर विजय
मिली। (कांग्रेस पार्टी ने गुजरात में जीता यह आख़िरी विधानसभा चुनाव था, इसके बाद वर्ष १९९०,
१९९५, १९९८, २००२, २००७, २०१२ और २०१७ इन सभी विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को हार का
सामना करना पड़ा।)
गुजरात में दिसंबर २००२ में गोधरा हत्याकांड के १० महीने, और दंगों के आठ महीने बाद
विधानसभा चुनाव हुए। फिर भी भाजपा ने १८२ में से १२७ सीटें जीतकर भारी बहुमत हासिल किया।
कांग्रेस (३९ प्रतिशत) और भाजपा (५० प्रतिशत) को मिले मतों में ११ प्रतिशत इतना भारी अंतर था।
यहाँ इस बात पर ध्यान दें कि जब भाजपा-विरोधी लोग ‘मोदी हटाओ’ अभियान में लगे हुए थे, तब
वे लोग गुजरात में चुनाव नहीं चाहते थे। यानी वे लोग चाहते थे कि आम जनता को यह तय करने
का मौका न मिले कि मुख्यमंत्री कौन होना चाहिए, जो बात केवल गुजरात के लोग तय कर सकते
थे। उन्होंने विधानसभा चुनाव को कई महीने तक विलम्बित करवाया, और उसके बावजूद बुरी तरह
हार गए।
जो लोग गुजरात दंगों का सच जानते हैं, वे इस संबंध में आम लोगों और अच्छे इरादों वाले
नेताओं को जागरुक करते हुए नज़र नहीं आते हैं, कुछ अपवादों को छोड़कर। वर्तमान स्थिती को
देखकर ऐसा लगता हैं कि गुजरात दंगों की दंतकथाओं की बखिया उधेड़कर सच्चाई बाहर आने के
लिए किसी चमत्कार की ज़रूरत पड़ेगी।
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