एहसान जाफ़री मामले में महिलाओं पर बलात्कार किए गए

सच्चाई: सुश्री अरुंधति रॉय ने ‘आउटलुक’ के ६ मई २००२ के अंक में लिखा–

   “कल रात वडोदरा से मुझे एक सहेली का फोन आया, वह रो रही थी। क्या हुआ यह बताने के लिए उसे १५ मिनट लगे। मामला विशेष जटिल नहीं था, सिर्फ़ उसकी सहेली सईदा एक भीड़ के हाथ लग गई। सिर्फ़ उसका पेट फाड़ा गया और पेट में कपड़ों के जलते हुए चीथड़े भर दिए गए। सिर्फ़ उसकी मौत के बाद किसी ने उसके माथे पर ॐ लिख दिया था…

   …भूतपूर्व कांग्रेस संसद सदस्य इक़बाल एहसान जाफ़री के मकान को भीड़ ने घेर लिया था। उन्होंने पुलिस महानिदेशक (डीजीपी), पुलिस आयुक्त (पी.सी. पांडे), मुख्य सचिव, अतिरिक्त मुख्य सचिव (गृह) को फोन लगाया, लेकिन इन सभी कॉल्स को नज़रअंदाज़ कर दिया गया। उनके मकान के बाहर की मोबाइल पुलिस गाड़ियों ने हस्तक्षेप नहीं किया। भीड़ जाफ़री के मकान में घुसी। भीड़ ने जाफ़री की बेटियों को निर्वस्त्र करके ज़िंदा जला दिया। इसके बाद श्री जाफ़री का सिर धड़ से अलग कर दिया गया। बेशक राजकोट में फरवरी में विधानसभा उपचुनाव में श्री जाफ़री ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की कठोर शब्दों मे आलोचना की थी, यह महज एक संयोग है…” 

(संदर्भ: https://magazine.outlookindia.com/story/democracy/215477)

 

   भाजपा के वरिष्ठ नेता और तत्कालीन राज्यसभा सदस्य श्री बलबीर पुंज ने अरुंधति रॉय को दिया जवाब ‘आउटलुक’ ने प्रकाशित किया। इस जवाब जिसका शीर्षक था ‘गुजरात जलने के दौरान तथ्यों से खिलवाड़’ (‘Fiddling with facts while Gujarat burns’) ने कहा:

 

   “शुरूआत: मीडिया में रॉय जैसे लोग अर्द्धसत्य तथा उससे भी बुरे का इस्तेमाल कर भारत का नुकसान कर रहे हैं। ‘(यहाँ पर श्री पुंज ने रॉय के लेख के कुछ वाक्यों का हवाला दिया है)’… 

   ‘डेमोक्रेसी: हू इज़ शी व्हेन शी इज़ एट होम?’ ‘आउटलुक’ (६ मे २००२) के अपने इस लेख में सुश्री अरुंधति रॉय, जिन्हें ‘द गॉडेस ऑफ़ स्मॉल थिंग्स’ कहा जा सकता हैं, ने गुजरात की एक तस्वीर पेश की है। सुश्री रॉय ने संघ परिवार के विरुद्ध लगभग सभी आरोपों को एक ही लेख में सिलसिलेवार ढंग से प्रस्तुत किया है।…उनका यह सचित्र विवरण देखिए– ‘भीड़ मकान में घुसी, उन्होंने जाफ़री की बेटियों को निर्वस्त्र किया और ज़िंदा जला दिया…’

   यह हृदयस्पर्शी तो है लेकिन प्रामाणिक नहीं है। श्री जाफ़री दंगों में मारे गए, लेकिन उनकी बेटियों को न तो ‘निर्वस्त्र’ किया गया और न ही ‘ज़िंदा जलाया’ गया। श्री जाफ़री के बेटे टी.ए. जाफ़री एक अख़बार के प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित एक इंटरव्यू में कहते हैं जिसका शीर्षक है– ‘मेरे पिताजी का मकान निशाना था, यह कोई नहीं जानता था’ (एशियन एज, दिल्ली संस्करण, २ मई २००२), ‘मेरे भाई और बहनों में मैं अकेला ही भारत में रहता हूँ। परिवार में मैं सबसे बड़ा हूँ। मेरा भाई और बहन अमेरिका में रहते हैं। मैं चालीस वर्ष का हूँ और मेरा जन्म तथा पूरी ज़िंदगी अहमदाबाद में हुई है।’

   इससे स्पष्ट है कि रॉय झूठ बोल रही हैं, क्योंकि जाफ़री निश्चित रूप से झूठ नहीं बोल रहे हैं। परंतु आज तक पर्दाफ़ाश न हुए मीडिया के उन सैकड़ों झूठों का क्या? उनके सात पृष्ठों वाले लंबे-चौड़े लेख (लगभग ६ हज़ार शब्द) में भारत और संघ परिवार के बारे नफ़रत का ही वमन किया गया है। इस लेख का आधार केवल दो विशिष्ट कहानियाँ थीं, जिसमें से एक कहानी अब हम सब जानते हैं कि झूठी और काल्पनिक है… 

   …वे कहती हैं कि गुजरात संघ परिवार की “प्रयोगशाला” है। वास्तव में पंथनिरपेक्ष-मूलतत्त्ववादियों (secular fundamentalists) ने गोधरा का इस्तमाल घडिया (crucible) के रूप में किया। इस बात में कोई आश्चर्य नहीं कि उन्होंने रामसेवकों को ज़िंदा जलाने की घटना का निषेध करते समय दोष मृत पीड़ितों पर थोप दिया। (गोधरा के) क्रूरतम भीषण अपराध के समर्थन के लिए उनमें से अनेक ने टपरी वालों के साथ विवाद, महिलाओं से दुर्व्यवहार और उत्तेजना पूर्ण घोषणा आदि काल्पनिक घटनाओं को खोज निकाला… 

   …मुग़ल काल में १७१४ में होली के मौक़े पर हुए दंगों से बड़े १० दंगों को अकेले अहमदाबाद शहर में दर्ज किया गया है।

   वर्ष १७१४ में संघ परिवार नहीं था, तथा १९६९ और १९८५ के दंगों के दौरान वह हावी ताक़त नहीं था। तो फिर गुजरात जब ‘संघ परिवार की प्रयोगशाला’ नहीं था, तब इन दंगों का क्या कारण था?…

   …गोधरा हत्याकांड के बाद गुजरात के विभिन्न भागों में मुस्लिमों के विरुद्ध उत्स्फूर्त हिंसक विस्फोट हुआ। ये दंगाई मुख्यतः हिंदू होने के कारण पहले तीन दिनों में पुलिस गोलीबारी में मारे गए लोगों में करीब ७५ फीसदी हिंदू थे। वास्तव में, १८ अप्रैल तक पुलिस गोलीबारी में मारे गए लोगों में हिंदुओं की संख्या अधिक थी।

   परंतु पिछले करीब तीन हफ़्तों से हिंसा मुस्लिमों द्वारा हिंदुओं पर घातक हमलों से की जा रही है, जिससे पुलिस गोलीबारी में मारे जाने वालों में स्वाभाविक रूप से उनकी संख्या अधिक है। पुलिस ने कुल ३४ हज़ार लोगों के ख़िलाफ़ दंगों के मामले दर्ज किए हैं, इनमें से अधिकांश हिंदू हैं। आगजनी और लूटपाट में दोनों समुदायों की संपत्ति और व्यवसाय का भारी नुकसान हुआ है। दंगाई अपने दिमाग़ में सांप्रदायिकता की भावना रखकर अपना लक्ष्य तय करते हैं, लेकिन लूटपाट करने वाले ऐसा नहीं करते, वे कहीं भी अंधाधुंध लूटपाट करते हैं। एक लाख मुस्लिम दंगा-पीड़ित के रूप में शिविर में रह रहे हैं, लेकिन ४० हज़ार हिंदुओं ने भी इन शिविरों में शरण ली है। ये दंगे भीषण और बेहद दुःखद हैं, लेकिन इन्हें ‘नरसंहार’ क्यों कहा जाए? इसका लाभ किसे होता है? दंगा-पीड़ितों को तो नहीं होता, इसका लाभ होता है केवल सीमापार के हमारे दुश्मनों को।

   अपनी नफ़रत का विषवमन करने वाले लेख की शुरूआत रॉय (जो कि अनेक ‘पंथनिरपेक्षता’वादियों की रोल मॉडल हैं) एक सईदा नामक महिला की कहानी बताती हैं, ‘जिसका पेट फाड़ दिया गया और पेट में कपड़ों के जलते हुए चीथड़े भर दिए गए’। मैंने इसी तरह की कई भीषण कहानियाँ संसद में भी सुनीं; उसमें कई बार महिलाओं पर बलात्कार की कहानियाँ थीं, कुछ घटनाओं में सामुदायिक बलात्कार की कहानियाँ, महिलाओं का पेट फाड़कर भ्रूण निकालने और त्रिशूल की नोक पर नचाने की कहानियाँ थीं। परंतु सभी विस्तृत विवरणों के साथ एक भी विशेष मामला मुझे कोई भी नहीं दे सका। रॉय ने एक मामला दिया, लेकिन वह पूरी तरह मनगढ़ंत साबित हुआ।…

   …गुजरात दंगों की रिपोर्टिंग के लिए ‘एडिटर्स गिल्ड’ ने अंग्रेज़ी अख़बारों की जमकर तारीफ़ की और गुजराती मीडिया की कठोर आलोचना की। हालाँकि गुजराती मीडिया अतिशयोक्ति के लिए दोषी हो सकता है, लेकिन मुझे यकीन है कि उसने रॉय की तरह अंग्रेज़ी मीडिया में प्रकाशित मनगढ़ंत कहानियाँ नहीं बनाईं। लेकिन यह आश्चर्यजनक है कि भारत को बदनाम करने, महत्त्वपूर्ण क्षणों में सांप्रदायिक तनाव बढ़ाने, अर्द्धसत्य और संपूर्ण झूठों का उल्लेख करके कुछ नागरिकों का दानवीकरण करने वाले सुश्री रॉय जैसे लोगों और टी.वी. माध्यमों के बारे में ‘गिल्ड’ ने आलोचना का एक शब्द भी नहीं कहा। कुछ अपराधियों ने बलात्कार किए होंगे तो उन्हें उसकी कठोर सज़ा मिलनी चाहिए, लेकिन उन लोगों का क्या जिन्होंने पिछले दो माह से सच्चाई और देश के संग बलात्कार किया है?”

(संदर्भ: https://magazine.outlookindia.com/story/fiddling-with-facts-as-gujarat-burns/215655)

 

   इसके बाद अरुंधति रॉय ने ‘आउटलुक’ के २७ मई २००२ के अंक में माफ़ीनामा लिखा। ‘टु द जाफ़री फ़ैमिली, एन एपॉलजी’ (जाफ़री परिवार को एक माफ़ीनामा) इस शीर्षक वाला माफ़ीनामा इसप्रकार से है:

 

   “पुलिस अपराधों को दर्ज करने के लिए इच्छुक नहीं है, प्रशासन सच्चाई की जानकारी लेने वालों के खुले विरोध में है और हत्याएँ बिना किसी विरोध के हो रही हैं, कुछ इसी तरह के हालात फ़िलहाल गुजरात में हैं, ऐसी स्थिति में भय और अफ़वाहें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। (देखिए, रॉय सारा दोष दूसरों को दे रही हैं!) लापता लोगों को मृत समझा जाता है, जिन्हें जलाकर या विखंडित कर मार डाला गया है उनकी पहचान नहीं हो पाती और सुन्न और घबराए हुए लोगोंका कहना समझा नहीं जा सकता।

   इसलिए हालाँकि जब हमारे जैसे लोग जो लिखते हैं वह अत्यंत विश्वासार्ह स्रोतों से प्राप्त जानकारी के आधार पर लेखन कार्य करने की कोशिश करते हैं, फिर भी ग़लतियाँ हो सकती हैं। लेकिन वर्तमान के इस हिंसाचार, दुःख और अविश्वास भरे माहौल में बताई गई ग़लतियों को ठीक करना महत्त्वपूर्ण है।

   मेरे ६ मई के निबंध ‘डेमोक्रेसी: हु इज शी, व्हेन शी इज एट होम’ (Democracy: Who is she when she is at home?) में एक तथ्यात्मक ग़लती है। एहसान जाफ़री की क्रूर हत्या का वर्णन करते हुए मैंने लिखा था कि पिता के साथ-साथ उनकी बेटियाँ भी मारी गई हैं। लेकिन बाद में मुझे बताया गया है कि यह ग़लत है। चश्मदीद गवाहों के अनुसार एहसान जाफ़री के साथ उनके तीन भाई और दो भतीजे मारे गए थे। उस दिन चमनपुरा क्षेत्र में बलात्कार करके मारी गईं दस महिलाओं में उनकी बेटियाँ नहीं थीं।

   मैं जाफ़री परिवार के दुःख में बढ़त करने के लिए उनसे क्षमा माँगती हूँ। आय एम ट्रूली सॉरी!

   मेरी जानकारी (जो वास्तव में ग़लत जानकारी निकली) की जाँच दो स्रोतों के ज़रिये की गई थी– ‘टाइम’ पत्रिका के ११ मार्च के अंक में मीनाक्षी गांगुली और एंथनी स्पीथ का लेख, और एक स्वतंत्र सत्यशोधक समिति की रिपोर्ट ‘गुजरात कार्नेज २००२– ए रिपोर्ट टु द नेशन’। इस समिति में त्रिपुरा के भूतपूर्व आई.जी.पी. श्री के.एस. सुब्रमण्यम् और भूतपूर्व वित्त सचिव श्री एस.पी. शुक्ला थे। इस ग़लती के बारे में मैंने श्री सुब्रमण्यम् से बात की, उन्होंने कहा कि एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी द्वारा उन्हें यह जानकारी दी गई थी। (उस ‘वरिष्ठ पुलिस अधिकारी’ का नाम क्या था? यह न तो श्री सुब्रमण्यम्, और न अरुंधती रॉय बताते हैं!) 

   गुजरात हिंसाचार का विवरण देते समय यह, या इसप्रकार की अन्य प्रामाणिक ग़लतियों से मेरे जैसे लेखक, सत्यशोधन समितियाँ या पत्रकार जो कह रहे हैं, उसके सारांश में किसी प्रकार का भी बदलाव नहीं होता।”

 

   सालों बाद श्री बलबीर पुंज ने ‘ऑर्गनाइज़र’ के ९ जुलाई २००६ के अंक में लिखा: 

 

   “कुछ चार वर्ष पहले अरुंधति रॉय के साथ मेरा मुद्रित पत्रिका में वाद-विवाद हुआ था। अवसर था गुजरात दंगे…। लेकिन आज डोडा में हिंदू मारे जाते हैं तब ये ‘सेक्युलर’ लोग कहीं भी दिखाई नहीं देते, यहाँ तक कि दूरबीन से भी नहीं…

   रॉय ने अपने विषैली नफ़रत की शुरूआत करते हुए एक विवरण दिया था ‘कल रात को वडोदरा से मेरी एक सहेली का फोन आया था, वह रो रही थी, क्या हुआ यह बताने के लिए उसे १५ मिनट लगे। यह इतना जटिल नहीं था। सिर्फ़ उसकी सहेली सईदा भीड़ के हाथ लगी थी। सिर्फ़ उसका पेट फाड़ा गया और पेट में कपड़ों के जलते हुए चीथड़े भर दिए गए। सिर्फ़ उसकी मौत के बाद किसी ने उसके माथे पर ॐ लिख दिया था…’

   इस घृणित ‘घटना’ से सदमाग्रस्त होकर मैंने गुजरात सरकार से संपर्क किया। पुलिस जाँचों से पता चला कि सईदा नामक महिला के साथ इस तरह की वारदात होने की ऐसी कोई रिपोर्ट न वडोदरा शहर, न वडोदरा ग्रामीण क्षेत्र में की गई है। इसके बाद इस सईदा नामक महिला की खोज के लिए पुलिस ने अरुंधति रॉय से संपर्क किया और गवाहों तक पहुँचने के लिए उनकी सहायता माँगी, जिससे वो अपराधियों तक पहुँच सके। लेकिन पुलिस को उनसे किसी प्रकार का सहयोग नहीं मिला। इसके उलट, रॉय ने अपने वकील के ज़रिये पुलिस को जवाब दिया कि पुलिस को उनपर समन जारी करने का कोई अधिकार नहीं है। इस तरह वो तकनीकी बहाने की आड़ में छुप गई। ‘आउटलुक’ में रॉय के लेख का जवाब देते समय मैंने ‘डिसिमुलेशन इन वर्ड एंड इमेजेस’ लेख में इसका उल्लेख किया (द आउटलुक, ८ जुलाई २००२)।”

 

   यहाँ कुछ बातें बताना ज़रुरी हैं, जिनका श्री बलबीर पुंज ने भी उल्लेख नहीं किया। रॉय का माफ़ीनामा भी झूठा है, क्योंकि इसमें रॉय ने दावा किया कि ‘उस दिन चमनपुरा में १० महिलाओं पर बलात्कार करके उन्हें मार डाला गया’। मार्च २००२ के पहले हफ़्ते के अख़बारों को पढ़ने के बाद एक बात स्पष्ट होती है कि किसी भी अख़बार में बलात्कार का कोई उल्लेख भी नहीं है। ‘टाइम’ पत्रिका के ११ मार्च २००२ के अंक में मनगढ़ंत कहानियों की ख़बरों के बाद मार्च के मध्य से बलात्कार की कहानियों का उल्लेख शुरू हुआ। जाफ़री की बेटियों पर बलात्कार की कहानी भी रॉय ने ‘टाइम’ पत्रिका से उठाई, कॉपी की थी। न रॉय और न ‘टाइम’ के प्रतिनिधि इस गुलबर्ग सोसायटी में बलात्कार का एक भी साबित मामला दिखा नहीं सके। रॉय ने सिर्फ जाफ़री परिवार से माफ़ी माँगी। झूठे दावे कर भाजपा और नरेंद्र मोदी की बदनामी के लिए उन्होंने उनसे माफ़ी नहीं माँगी उन्होंने भाजपा और मोदी के साथ-साथ पूरे देश से माफ़ी माँगनी चाहिए थी। परंतु रॉय माफ़ी माँगते समय इस बात की सावधानी बरतती हैं कि वह माफ़ीनामा केवल ‘जाफ़री परिवार के लिए’ हो।

 

   दूसरी ग़लती– उन्होंने दावा किया किया कि जाफ़री के मकान पर हमला करने वाली भीड़ को रोकने का पुलिस ने कोई प्रयास नहीं किया। रॉय के अनुसार “उन्होंने (श्री जाफ़रीने) डी.जी.पी., पुलिस कमिश्नर, मुख्य सचिव, अतिरिक्त मुख्य सचिव (गृह) को किए कॉल्स को नज़रअंदाज़ किया गया। उनके मकान के बाहर की पुलिस की मोबाइल गाड़ियों ने हस्तक्षेप नहीं किया”। वास्तव में उनके मकान के बाहर पुलिस ने न केवल हस्तक्षेप किया बल्कि ५ दंगाइयों को मकान के बाहर मार गिराया, और पुलिस ने अपनी जान जोखिम में डालकर १८० मुस्लिमों को बचाया। एस.आई.टी. की रिपोर्ट के अनुसार (पृष्ठ १) श्री जाफ़री के मकान के बाहर पुलिस ने आँसू गैस के १३४ गोले छोड़े और १२४ राउंड गोलियाँ चलाईं। ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने भी अपनी ऑनलाइन ख़बर में उस दिन ही कहा था कि पुलिस दल और अग्निशमन दल ने अत्यंत उत्कृष्ट कोशिश की; पुलिस निष्क्रिय थी, इस तरह का आरोप ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने उस दिन की ख़बरों में कहीं भी नहीं लगाया। 

 

   रॉय दावा करती हैं कि २८ फरवरी को श्री एहसान जाफ़री ने मुख्य सचिव जी. सुब्बाराव और श्री पी.सी.पांडे को फोन किया था! तत्कालीन पुलिस कमिश्नर श्री पी.सी.पांडे को २८ फरवरी २००२ को ३०२ फोन कॉल आए थे या उन्होंने किए थे, लेकिन श्री जाफ़री द्वारा कोई भी कॉल उन्हें नहीं किया गया था, ऐसा एस. आई .टी. ने श्री पांडे के कॉल-रिकॉर्ड की जाँच करके कहा (एस.आई.टी. अंतिम रिपोर्ट, पृष्ठ सं. २०४)। और उस दिन मुख्य सचिव श्री जी. सुब्बाराव छुट्टी पर विदेश में थे! [एस.आई.टी. ने अपनी रिपोर्ट के पृष्ठ सं. ४४८ पर यह कहा है।] तो जाफरी उन्हें कैसे कॉल कर सकते थे?

 

   राष्ट्रीय महिला आयोग ने भी उस समय कहा था कि मीडिया सांप्रदायिक दंगों में पीड़ित अल्पसंख्यक महिलाओं की यातनाओं को अनावश्यक रूप से बढ़ा-चढ़ाकर बता रहा है। तहलका की वेबसाइट ने २२ अप्रैल २००२ को कहा, “राष्ट्रीय महिला आयोग की सदस्या श्रीमती नफ़ीसा हुसैन ने दर्ज हुए बयान में कहा, गुजरात के सांप्रदायिक दंगों में पीड़ित अल्पसंख्यक समुदाय की महिलाओं के साथ हुई हिंसा को मीडिया और कई संगठनों द्वारा अतिरंजित तौर पर अनावश्यक तरीक़े से बताया जा रहा है।” यह कहना महिला आयोग की एक मुस्लिम सदस्या का था।   

मनगढ़ंत कथा

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