chapter-3

अध्याय ३ हिंसाचार नियंत्रित करने में सरकार की भूमिका

इसे विस्तृत रूप से जानने से पहले एक सर्वेक्षण देखते हैं जो गुजरात विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र ‘इंडिया टुडे’ साप्ताहिक और ‘आजतक’ टी.वी. चैनल के लिए ‘ओआरजी मार्ग’ संस्था ने किया था, जिसे ‘इंडिया टुडे’ के २५ नवंबर २००२ के अंक में प्रकाशित किया गया था। इस सर्वे ने भाजपा को गुजरात विधानसभा में १८२ में से १२०-१३० सीटें तथा कांग्रेस को ४५-५५ सीटें दी। इस सर्वेक्षण में यह प्रश्न पूछा गया था कि ‘मोदी सरकार ने दंगों को कैसे सँभाला’? इसके जवाब इसप्रकार थे:- 1) निष्पक्ष और परिणामकारक – ६१ प्रतिशत 2) पक्षपातपूर्ण तरीक़े से – २१ प्रतिशत 3) अक्षमतापूर्वक – १५ प्रतिशत इसी साप्ताहिक ने दिसंबर २००२ में एक और सर्वेक्षण किया। इस सर्वेक्षण में भाजपा को १०० से ११० सीटें तथा कांग्रेस को ७० से ८० सीटें दी गई थी। इस साप्ताहिक के १६ दिसंबर २००२ के अंक में यह सर्वेक्षण प्रकाशित हुआ था। इस सर्वेक्षण में यही प्रश्न पुनः पूछा गया था। इस बार जवाब थे:- 1) निष्पक्ष और परिणामकारक – ६२ प्रतिशत 2) पक्षपातपूर्ण तरीक़े से – २० प्रतिशत 3) अक्षमतापूर्वक – १५ प्रतिशत दोनों सर्वेक्षणों में यह प्रश्न पूछा गया था कि ‘मार्च के दंगे किस कारण हुए?’। नवंबर के सर्वेक्षण में जवाब प्राप्त थे— 1) गोधरा हत्याकांड – ५६ प्रतिशत 2) मुस्लिम धर्मांध – २० प्रतिशत 3) सरकार प्रायोजित – १० प्रतिशत 4) दोनों समाज के बदमाश – ९ प्रतिशत 5) हिंदू धर्मांध समूह – ३ प्रतिशत दिसंबर के सर्वेक्षण में प्राप्त जवाब थे- 1) गोधरा हत्याकांड – ६४ प्रतिशत 2) मुस्लिम धर्मांध – १८ प्रतिशत 3) सरकार प्रायोजित – ७ प्रतिशत 4) दोनों समाज के बदमाश – ७ प्रतिशत 5) हिंदू धर्मांध समूह – ३ प्रतिशत (संदर्भ: https://smedia2.intoday.in/indiatoday/images/stories/2002December/org- marg_l_022912074101.jpg or https://www.indiatoday.in/magazine/nation/story/20021216-opinion- poll-conclusive-victory-for-bjp-gujarat-chief-minister-narendra-modi-793890-2002-12-16) यह सर्वेक्षण गुजरात के लोगों का, और वास्तविक दंगों के समय के काफ़ी क़रीब किया गया था। दोनों सर्वेक्षणों में प्रश्नों के जवाब लगभग एक समान हैं। कांग्रेस के मतदाताओं में भी अनेक ने कहा कि मोदी सरकार ने दंगों को ‘निष्पक्ष रूप से और प्रभावी ढंग से’ संभाला। गुजरात की जनता की ये भावनाएँ नई दिल्ली में कुछ वृत्तपत्र संपादकोंने जो कहा उससे पूरी तरह अलग थीं। केवल १० प्रतिशत लोगों (इनमें से अनेक मुस्लिम थे) ने कहा कि दंगे सरकार प्रायोजित थे, केवल ३ प्रतिशत लोगों ने इन दंगों का दोष हिंदू मतांधों को दिया। अधिकांश लोगों की सहमति इस बात पर थी कि गोधरा हत्याकांड के कारण ही दंगे भड़के (इसमें अनेक मुस्लिम भी थे)। और लगभग २० प्रतिशत लोगों ने इन दंगों के लिए मुस्लिम धर्मांधों को ज़िम्मेदार माना। ‘इंडिया टुडे’ ने अगस्त २००२ में ‘मूड ऑफ़ द नेशन’ नामक सर्वेक्षण किया, जो २६ अगस्त २००२ के अंक में प्रकाशित हुआ था। इस सर्वेक्षण में यह प्रश्न पूछा गया था कि ‘गुजरात के दंगों के लिए ज़िम्मेदार कौन है’? इस प्रश्न के जवाब इसप्रकार थे – 1) मुस्लिम धर्मांध – २६ प्रतिशत 2) गोधरा के हमलावर – १९ प्रतिशत 3) राज्य सरकार – १४ प्रतिशत 4) स्थानीय गुंडे – १३ प्रतिशत 5) हिंदू धर्मांध – ५ प्रतिशत 6) पता नहीं/कह नहीं सकते- २३ प्रतिशत (संदर्भ: https://smedia2.intoday.in/indiatoday/images/stories/2002August/org- marg_l_041112093034.jpg) यह सर्वेक्षण देशव्यापी था और गुजरात विधानसभा चुनाव के नतीजों से पहले किया गया था, जिन नतीजों से दंगों के प्रति जनता के दृष्टिकोण में बड़े पैमाने पर परिवर्तन हुआ। इससे पहले भी सबसे ज़्यादा लोगों के मतानुसार गुजरात दंगों के लिए मुस्लिम धर्मांध और गोधरा हत्याकांड ही ज़िम्मेदार थे। सरकार को किन चुनौतियों का मुकाबला करना पड़ा गोधरा हत्याकांड के बाद हुए दंगों को नियंत्रित करने के लिए गुजरात सरकार को अत्यंत कठिन परिस्थिति का सामना करना पड़ा। क्योंकि सालों-साल गुजरात धार्मिक दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील (communally very sensitive) राज्य था, कई बार पतंगबाज़ी या क्रिकेट के मैच जैसी मामूली घटनाएँ भी दंगे भड़काने के लिए काफ़ी होती थीं। गुजरात में कम-से-कम वर्ष १७१४ से सांप्रदायिक दंगों का इतिहास रहा है और स्वतंत्रता से पहले १९४० के दशक में, तथा स्वतंत्रता के बाद भी गुजरात में भीषण दंगे हुए। १३ अप्रैल २००२ को ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने एक लेख प्रकाशित किया था जिसका शीर्षक था “मामूली घटनाओं से हुए पहले के दंगे”, और इस लेख के शुरूआत का वाक्य था: “अगर इक्कीसवीं सदी में गुजरात में बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक दंगे होने के लिए गोधरा जैसा भयानक हत्याकांड लगा, तो इतिहास दिखाता है कि बीसवीं सदी में अधिकांश दंगे मामूली कारणों से हुए थे…” फरवरी २००२ में गोधरा हत्याकांड के बाद की स्थिति अत्यंत गंभीर थी। परंतु इसके लिए केवल गोधरा हत्याकांड एकमेव कारण नहीं था। उस समय १३ दिसंबर २००१ को भारतीय संसद पर आतंकवादी हमले के कारण भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध के बादल थे। आतंकवाद और राष्ट्रद्रोही कृत्यों के ख़िलाफ़ गुजरात में जनता के मन में बहुत गुस्सा था। वी. शंकर अय्यर ने ‘इंडिया टुडे’ के १८ मार्च २००२ के अंक में लिखा— “दंगों का तात्कालिक कारण भले ही गोधरा हत्याकांड हो लेकिन जो जंगली बदला लिया गया उसकी भावना कई वर्षों के रोष से तैयार हो रही थी। हिंदू-मुस्लिम के बीच की दूरी में बढ़त अहमदाबाद के वर्ष १९६९ के दंगों से, वर्ष १९८९ में अयोध्या में राममन्दिर के लिए रथ-यात्रा से हो रही थी और कश्मीर संघर्ष ने उस आग में घी डालने का काम किया है। पिछले दो वर्षों से भारत और पाकिस्तान के बीच संबंधों में तल्ख़ी के कारण, और इस्लामिक आतंकवाद के कारण, जो कि कश्मीर में सीमा पार से होने वाले आतंकवादी हमलों से लेकर १३ दिसंबर (२००१) को संसद पर हुए हमले तक चल रहा है, हिंदू राष्ट्रवाद को प्रतिष्ठा और गति दोनों मिली है… (१९९९ का) कारगिल युद्ध और हाल ही में संसद पर हुए हमले के विषय में पाकिस्तान के विरुद्ध कार्यवाही न किए जाने के कारण पिछले कुछ महीनों से जनमानस अत्यंत आंदोलित हो रहा है। वास्तव में गुजरात के दंगों को रोकने की कोशिश करने आए हुए केंद्रीय रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नांडिस को न केवल जनता के गुस्से और पत्थरबाज़ी का सामना करना पड़ा बल्कि ‘भारत पाकिस्तान पर हमला क्यों नहीं कर रहा’ जैसे सवालों का सामना भी करना पड़ा। वैश्विक मजबूरियों की ओर उदासीनता, या शायद उनकी जानकारी न होने कारण संघर्ष बढ़ रहा है और पाकिस्तान की जिहादी नीतियों के लिए राज्य की मुसलमान आबादी को ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है। उत्तेजना का एक कारण यह भी है कि इस सीमावर्ती गुजरात राज्य में पिछले दो वर्षों में ‘देवबंद’ मदरसे मशरूम की तरह बढ़े हैं। इन मदरसों की बढ़ोतरी को रोकने के लिए केशुभाई पटेल और नरेंद्र मोदी सरकारों की उदासीनता के कारण दोनों समाज में और अधिक तनाव बढ़ा है। वास्तव में पुलिस अधिकारियों के अनुसार गुलबर्ग सोसायटी और भूतपूर्व संसद सदस्य एहसान जाफ़री के घर पर हुए हमले की निष्ठुरता के लिए वहाँ के भवन-समूह में ऐसे एक मदरसे का मौजूद होना यह कारण था। पिछले हफ़्ते हुए हत्याकांड में (गुजरात में २८ फरवरी, १ मार्च और २ मार्च २००२ को हुए दंगे) न केवल अभूतपूर्व तीव्रता थी बल्कि इसको सामाजिक मान्यता भी थी। दंगों में हुई लूटमार में ग़रीब लोगों का मध्यम वर्ग और उच्च-मध्यम वर्ग ने पूरा-पूरा साथ दिया, महिलाओं समेत। वो केवल लूटमार में शामिल ही नहीं थे बल्कि दंगों में हुए विध्वंस और मृतकों की बढ़ती संख्या को देखकर खुलेआम ख़ुशियाँ मना रहे थे। लोगों के समूह को आते देखकर उच्च वर्गीय बस्ती के लोग भी सड़कों पर आने के लिए किसी प्रकार का संकोच नहीं कर रहे थे। स्वयं मुख्यमंत्री के मान्य करने के अनुसार दंगों का पैटर्न गुजरात के १०० सबसे संवेदनशील स्थानों से बिलकुल ही मेल नहीं खाया। इस मज़हबी संघर्ष का विस्फोट अनेक नई बस्तियों में हुआ।” (संदर्भ: https://web.archive.org/web/20161116134057/http://archives.digitaltoday.in/indiatoday/200203 18/cover3.html) तो संक्षेप में, गुजरात में हिंसक सांप्रदायिक संघर्ष का बडा इतिहास था और दोनों समाज के बीच काफ़ी पहले से तीव्र तनाव था, वो राज्य सांप्रदायिक दृष्टि से बहुत ही संवेदनशील था, इस बीच मुस्लिम आतंकवादियों द्वारा संसद और अन्य ठिकानों पर हमलों के खिलाफ और गुजरात में बढ़ते हुए मदरसों के खिलाफ बहुत गुस्सा था। इसके अलावा न सिर्फ हुआ गोधरा हत्याकांड, बल्कि उसके बाद स्वघोषित पंथनिरपेक्षतावादी राजनैतिक नेताओं और मीडिया, ख़ासकर कि टी.वी. चैनलों के बेतुके बयानों ने लोगों के ज़ख़्मों पर नमक छिड़का (गोधरा में मारे गए रामसेवकों का अपमान करके)। कोलकाता से प्रकाशित होने वाले अंग्रेज़ी समाचार-पत्र ‘द टेलिग्राफ़’ ने अपने १ मार्च २००२ के अंक में लिखा– “(गुरुवार २८ फरवरी को) क़ानून और व्यवस्था की स्थिति बड़ी तेज़ी से नियंत्रण से बाहर होती जा रही है, इसकी चिंता वाजपेयी सरकार को हुई और केंद्र सरकार ने गुजरात में सेना भेजने के आदेश दिए। सेना ने हिंसाग्रस्त क्षेत्र में अपना संचलन शुरू कर दिया गया है, और ज़्यादा-से-ज़्यादा देरी में कल प्रातः तक (शुक्रवार, १ मार्च) सेना अपना कार्य प्रारंभ कर देगी (“latest by tomorrow morning”)। रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नांडिस भी कल ही गुजरात आ रहे हैं… कुल २६ नगरों में निषेधाज्ञा लागू की गई है।…दरियापुर की महिला मंगलाबेन ने कहा, ‘हमारे अंदर आग लगी है। ख़ून खौल रहा है। उन बेचारे मारे गए बच्चों का क्या क़ुसूर था? गुस्से का ज्वालामुखी फूट रहा है’…” अन्य शब्दों में कहा जाए तो गोधरा में मुसलमानोंने १५ बच्चों सहित ५९ कारसेवकों को भीषण तरीक़े से जलाकर मार डालने के कारण लोगों में गुस्से का ज्वालमुखी फूट पड़ा था और लोगों का ख़ून खौल रहा था। लोगों में इतना रोष था कि कोलकाता (उस समय मार्क्सवादी गढ़ बंगाल की राजधानी) से प्रकाशित होने वाले और संघ विचारधारा के कट्टर विरोधी समाचार-पत्र ‘टेलिग्राफ़’ को भी एक महिला का बयान ‘हमारा ख़ून खौल रहा है’ छापना पड़ा। गुजरात में यदि सचिन तेंदुलकर पाकिस्तान के विरुद्ध खेलते समय ९० रन पर आउट हो जाए तो दंगे भड़क सकते थे। इस बार तो स्वतंत्र भारत का सबसे भीषण हत्याकांड हुआ। ‘द इंडियन एक्स्प्रेस’ ने १ मार्च २००२ के अंक में लिखा- “कल प्रातः गोधरा हत्याकांड होने के बाद गुजरात इतना धार्मिक (मज़हबी) ध्रुवीकरण रहने वाले राज्य में इस तरह की प्रतिकार की लहर (जो दिनांक २८ फरवरी २००२ को हुई) तो अपेक्षित थी ही…” हमने पहले देखा कि ‘इंडिया टुडे’ तथा ‘आउटलुक’ ने अपने ११ मार्च २००२ के अंकों में २८ फरवरी को ही यह कहा था कि गुजरात में कई हफ़्तों या महीनों तक दंगे जारी रह सकते हैं। पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश डी.एस.तेवाटिया की अध्यक्षता वाली समिति ने अप्रैल २००२ में वहाँ जाकर फ़ील्ड स्टडी करने के बाद ‘गोधरा एंड आफ़्टर’ रिपोर्ट दी (‘काउंसिल फॉर इंटरनेशनल अफेयर्स एंड ह्यूमन राइट्स’ने इसे प्रकाशित किया), और इस रिपोर्ट में कहा गया कि अनेक प्रसंगों में दंगाईयों के पास पुलिस से अधिक प्रभावी शस्त्र थे। हिंसा पर नियंत्रण के लिए सरकार ने उठाए हुए क़दम गुजरात सरकार ने दंगों पर नियंत्रण के लिए कौन से क़दम उठाए यह देखने से पहले उस समय की राजनैतिक स्थिति पर एक नज़र डालना ज़रूरी होगा। उस समय भाजपा के पास लोकसभा में केवल १८२ सीटें थी, बहुमत के लिए आवश्यक २७२ से काफी कम। केंद्र में उस समय भाजपा के नेतृत्व में भाजपा से अलग विचारधारा के क़रीब २२ दलों की संयुक्त गठबंधन की सरकार सत्तासीन थी और यह सरकार एन.डी.ए. के एजेंडे के अनुसार चल रही थी (सरकार में शामिल ये पार्टियाँ अपने आपको ‘धर्मनिरपेक्ष’ कहती थीं)। एन.डी.ए. के सहयोगी दलों का अत्यंत महत्त्वपूर्ण समर्थन बहुमत से ऊपर रहने के लिए सरकार को आवश्यक था (ख़ास कर, तेलुगु दसम पार्टी जैसी पार्टियों का, जिसके पास लोकसभा से २८ सांसद थे, या डी.एम.के का), अन्यथा, यदि सहयोगी दल समर्थन वापिस लेते, तो केंद्र सरकार गिर जाती। एन.डी.ए. एजेंडा भाजपा के एजेंडा से बहुत अलग था, और उसमें हिंदुत्व एजेंडा के मुद्दे नहीं थे (ख़ासकर राम मंदिर, धारा ३७०, यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड इससे बाहर रखे गए थे)। भाजपा शासित राज्य सरकारे भी एन.डी.ए. एजेंडा पर चल रही थी-केंद्र की सरकार खतरे में न आने के लिए, या अन्य किसी कारण से। (वो सब भी सहयोगी दलों के समर्थन पर निर्भर एन.डी.ए. की ही सरकारें थी, गुजरात ये एकमेव राज्य था जहा पूर्ण बहुमत की भाजपा सरकार थी।) गोधरा हत्याकांड के क़रीब २० दिन पहले ‘इंडिया टुडे’ साप्ताहिक ने अपने १८ फरवरी २००२ के अंक में लिखा था: “यह आश्चर्य की बात है कि देश की एकमेव पूर्ण बहुमत वाली भाजपा सरकार, जो कि गुजरात में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में है, मदरसों को जिहादियों से मुक्त करने के लिए कुछ नहीं कर रही है। ख़ासकर तब, जब धर्मांध कट्टरवादियों का प्रभाव कच्छ-बनासकांठा इन सीमावर्ती ज़िलों के मदरसों में, और उत्तर व दक्षिण गुजरात के मदरसों में भी बढ़ता दिख रहा है। इस बात को विहिंप नेता प्रवीण तोगड़िया ने पिछले सप्ताह अधोरेखांकित किया। इसमें कोई अचरज नहीं कि मोदी को अपने नरम रवैये के कारण ‘जूनियर वाजपेयी’ यह विशेषण मिला।” https://www.indiatoday.in/magazine/indiascope/story/20020218-gujarat-cm-narendra-modi-does-little-to- cleanse-madarsas-of-jehadi-elements-795903-2002-02-18 ‘इंडिया टुडे’ ने अपने १८ मार्च २००२ के अंक में लिखा कि—“एक भाजपा कार्यकर्ता के अनुसार केंद्र के भाजपा नेतृत्व वाली एन.डी.ए. की सरकार का भविष्य अड़चन में आने के डर से मोदी १५ दिन पहले तक हिंदुत्व से संबंधित निर्णय लेने के लिए राज़ी नहीं थे। वो कार्यकर्ता कहता है, ‘राज्य में सत्तारूढ़ होने के बाद [वो ७ अक्तूबर २००१ को मुख्यमंत्री बने] मोदी वाजपेयी बनने पर तुले थे, परंतु जनता ने उन्हें सरदार पटेल की दिशा में धकेला है।’” (संदर्भ: https://web.archive.org/web/20090205135242/http://indiatoday.com/itoday/20020318/cover2.shtml ) और इसलिए हमें समझना चाहिए कि मोदी ने, जो कि एक भाजपा कार्यकर्ता के अनुसार वाजपेयी बनने के इच्छुक थे, दंगाइयों के ख़िलाफ़ कड़े क़दम क्यों उठाए और जितना शीघ्र हो सके दंगों को नियंत्रित किया। केंद्र सरकार, एन.डी.ए. सरकार के सहयोगी दल, दाँव पर लगे होने पर और मीडिया भी भाजपा के विरोध में होने के कारण गुजरात में दंगे न होने देना या दंगों को तत्काल नियंत्रित करना भाजपा सरकार के लिए आवश्यक था। २७ फरवरी को उठाए गए क़दम २७ फरवरी को प्रातः क़रीब आठ बजे गोधरा हत्याकांड घटित हुआ। मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी जो उस समय अहमदाबाद/गांधीनगर (वो अलग लेकिन जुड़वाँ शहर हैं) में थे, को सुबह ८:३० से ९:०० बजे के बीच इस हत्याकांड की जानकारी दी गई। फिर मोदी शाम को गोधरा पहुँचे। लेकिन मोदी ने अहमदाबाद/गांधीनगर से ही प्रातः ९:४५ बजे गोधरा में निषेधाज्ञा (कर्फ़्यू) लागू कर दी, और ‘देखते ही गोली मारने’ के आदेश दिए। भाजपा-विरोधी और वामपंथी विचार के अंग्रेज़ी समाचार-पत्र ‘द हिंदू’ ने अपने २८ फरवरी २००२ के अंक में लिखा: “(२७ फरवरी को) गोधरा में मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘देखते ही गोली मारने’ के आदेश दिए।” इसका मतलब गोधरा के बाद भी भाजपा के मुख्यमंत्री ने ‘देखते ही गोली मारने’ के आदेश दिए, जो मुख्य रूप से गोधरा का बदला लेने की संभावना के कारण बाहर निकलने वाले हिंदुओं के ख़िलाफ़ था। ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने २७ फरवरी को प्रकाशित एक ऑनलाइन लेख का शीर्षक दिया, ‘गोधरा में निषेधाज्ञा लागू, देखते ही गोली मारने के आदेश’ और इसमें कहा: “लोगों के एक समूह ने साबरमती एक्स्प्रेस को आग लगाकर ५७ लोगों को जलाकर मार डालने तथा अनेक लोगों को घायल करने के बाद गुजरात सरकारने गोधरा में अनिश्चितकाल के लिए निषेधाज्ञा और देखते ही गोली मारने के आदेश दिए। गोधरा स्टेशन पर हमलावरोंने उस ट्रेन की ४ बोगियाँ जला दी थीं…” (संदर्भ: http://timesofindia.indiatimes.com/articleshow/2256789.cms) यह समाचार दोपहर को १ बजकर ३७ मिनट पर पोस्ट किया गया। इससे दिखता है कि मोदी का प्रातः ९:४५ बजे निषेधाज्ञा लागू कराने का दावा पूरी तरह सच था। चंडीगढ़ से प्रकाशित होने वाले ‘द ट्रिब्यून’ ने २८ फरवरी के अंक में दिए समाचार में लिखा था– “घटना (गोधरा हत्याकांड) के तत्काल बाद गोधरा शहर में अनिश्चित काल के लिए निषेधाज्ञा लागू की गई और देखते ही गोली मारने के आदेश दिए गए…”। (‘तत्काल बाद’ शब्दों को देखिए) लिंक: https://www.tribuneindia.com/2002/20020228/main1.htm न केवल उपर्युक्त समाचार-पत्र, बल्कि देश के सभी अंग्रेज़ी दैनिकों ने और रेडिफ़ डॉट कॉम जैसी वेबसाइट्स ने, और कई विदेशी अख़बारों ने भी अगले दिन यही समाचार दिया। अमेरिका के ‘सेनफ्रांसिस्को क्रॉनिकल’ समाचार-पत्र ने २७ फरवरी को ऑनलाइन दिया हुआ ‘असोसीएटेड प्रेस’ का समाचार था- “इस (गोधरा) हत्याकांड के कारण सांप्रदायिक दंगे भड़कने के डर से भारतीय अधिकारियों ने मज़हबी रूप से विभाजित इस विशाल देश में तत्काल दूर-दूर तक सुरक्षा बढ़ा दी। प्रधानमंत्री ने हिंदुओं से ‘प्रतिकार न करने’ की अपील की… (गुजरात के गृहराज्यमंत्री) झडाफिया ने कहा कि, ‘हत्याकांड से बचे हुए लोगों के बयानों से यह स्पष्ट है कि यह हमला मुस्लिम समुदाय के स्थानीय लोगों द्वारा किया गया, और इसलिए, इस हमले कि हिंसक प्रतिक्रिया की संभावना को ध्यान में रखकर मुस्लिम आबादी को विशेष सुरक्षा देने के आदेश हमने पहले ही हमारे पुलिस अधिकारियों को दे दिए हैं’। जिन शहरों में हिंदू और मुस्लिम बस्तियाँ पास-पड़ोस में हैं वहाँ ज़्यादा पुलिस बल तैनात कर दिया गया है। भारत की राजधानी दिल्ली में पुरानी दिल्ली की इस प्राचीन तटबंदी क्षेत्र वाली जनसंख्या-बाहुल्य मुस्लिम बस्ती में सुरक्षा और अधिक कड़ी कर दी गई है।” (संदर्भ: https://www.sfgate.com/news/article/Train-firebombing-kills-58-Hindu-activists-2868703.php) ‘झिन्हुआ’ न्यूज़ एजेंसी ने भी २७ फरवरी २००२ को ऑनलाइन समाचार दिया कि तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने लोगों से शांति बनाए रखने की अपील की। रेडिफ़ डॉट कॉम ने उसी दिन ख़बर दी कि राज्य सरकार ने दंगे न हो इसलिए पूर्वोपाय किए और सुरक्षा कड़ी कर दी। रेडिफ़ डॉट कॉम के यह समाचार सातवें अध्याय, दंतकथा १४, “नरेंद्र मोदी ने तीन दिनों तक छूट दी” में दिए गए है। इसके बाद नरेंद्र मोदी उसी दिन रात को गोधरा से गांधीनगर वापिस लौटे। उनके अहमदाबाद/गांधीनगर लौटने पर उनके आदेशनुसार सुरक्षा के मद्देनज़र ८२७ लोगों को गिरफ़्तार किया गया। ‘इंडिया टुडे’ (१८ मार्च २००२) को दिए गए साक्षात्कार यानी इंटरव्यू में नरेंद्र मोदी ने यह जानकारी दी, और यह अधिकृत रिकोर्ड में दर्ज़ है। ‘इंडिया टुडे’ ने भी इस अंक में इस बात को मान्य किया कि प्रतिबंधात्मक गिरफ्तारियाँ (Preventive arrests) हुईं, परंतु गिरफ़्तार लोगों की संख्या का उल्लेख नहीं किया। सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित एस.आई.टी. ने भी कहा कि ८२७ प्रतिबंधात्मक गिरफ्तारियाँ २७ फरवरी को हुईं, जिसे ‘अहमदाबाद मिरर’ नामक अंग्रेज़ी समाचार पत्र ने १० फरवरी २०१२ को प्रकाशित समाचार में लिखा। https://web.archive.org/web/20130923053554/http://www.ahmedabadmirror.com/printarticle.aspx?page=com ments&action=add&sectid=3&contentid=2012021020120210022507339854bdfb0&subsite ‘द हिंदुस्तान टाइम्स’ ने २८ फरवरी २००२ के अंक में यह समाचार दिया कि २७ फरवरी को ही गुजरात सरकारने उसके पास उपलब्ध सभी ७० हज़ार पुलिसकर्मी तैनात कर दिए, दंगे होने की आशंका के कारण। ब्रिटेन से प्रकाशित होने वाले ‘द टेलिग्राफ़’ दैनिक ने भी लिखा कि २७ फरवरी को गुजरात में ७० हज़ार से अधिक सुरक्षाकर्मी तैनात किए गए। इन विदेशी समाचार पत्रों के कहा कि सुरक्षा व्यवस्था न केवल गुजरात में कड़ी की गई, बल्कि २७ फ़रवरी को ही भारतभर में अन्य जगहों पर बडी मुस्लिम जनसंख्या वाले इलाकों में भी सुरक्षा बढ़ा दी गई। (संदर्भ: http://www.telegraph.co.uk/news/worldnews/asia/india/138631/Hindus-massacred-on- blazing-train.html) उसी दिन, २७ फरवरी को ही गुजरात सरकारने अहमदाबाद तथा अन्य संवेदनशील भागों में शीघ्र कृति दल (Rapid Action Force) तैनात करा दी और केंद्र सरकार ने केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल (CRPF) की टुकड़ियाँ गुजरात में भेजी। ‘द इंडियन एक्स्प्रेस’ और ‘मिड डे’ दोनों दैनिकों ने अपने २८ फरवरी २००२ के अंकों में यह समाचार दिया। (संदर्भ: https://web.archive.org/web/20090721050239/http://www.mid-day.com/news/2002/feb/21232.htm) ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने २७ फरवरी को ऑनलाइन यह समाचार दिया कि गुजरात सरकार ने केंद्र सरकार को केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल (CRPF) की १० कंपनियाँ भेजने की विनती की। https://web.archive.org/web/20140630074904/http://articles.economictimes.indiatimes.com/200 2-02-28/news/27362130_1_sabarmati-exp-godhra-railway-station-police-officers गुजरात में बड़े पैमाने पर दंगे शुरू होने से पहले ही इन ये ख़बरें प्रकाशित हुई थीं। ‘द हिंदू’ दैनिक ने अपने २८ फरवरी के अंक में कहा, “(२७ फरवरी को) राज्य सरकार ने लोगों से शांति बनाए रखने की अपील की है।… गृहमंत्री ने बताया कि कल (२८ फरवरी को) आयोजित होने वाले बंद में किसी प्रकार की अशांत, अनुचित घटना न हो यह सुनिश्चित करने के लिए सभी आवश्यक क़दम सरकार उठा रही है…” (संदर्भ:https://web.archive.org/web/20150303163043/http://www.thehindu.com/thehindu/2002/02/28/stories/2 002022803070100.htm”) विश्व हिंदू परिषद ने भी शांति बनाए रखने की अपील की। ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने अपने २८ फरवरी के समाचार में कहा, जब प्रतिकारी दंगे नहीं हुए थे, कि: “विहिंप के अंतरराष्ट्रीय उपाध्यक्ष आचार्य गिरिराज किशोर ने (अहमदाबाद के) सोला सरकारी अस्पताल में, जहाँ मरे हुए ५८ में से ५४ लोगों के शव लाए गए, पत्रकारों से बातचीत करते हुए कहा कि ‘हिंदुओं को शांति और संयम बनाए रखना चाहिए। मुस्लिम बंधुओं से भी मेरी अपील है कि वे गोधरा हत्याकांड का निषेध करें और हिंदुओं के संयम की परीक्षा न लें। हिंदुओं द्वारा संयम रखा जा रहा है, लेकिन यदि इस तरह की घटनाएँ न रुकीं, तो उसकी तीव्र प्रतिक्रिया हो सकती है जो कि नियंत्रण से बाहर जा सकती है’।” (संदर्भ : https://timesofindia.indiatimes.com/india/VHP-appeals-to-Muslims-to-condemn- attack/articleshow/2347298.cms) ‘इंडियन एक्स्प्रेस’ ने २८ फरवरी २००२ के अंक में और ‘आउटलुक’ साप्ताहिक की वेबसाईट ने २७ फरवरी को ऑनलाइन लिखा कि केंद्र सरकार ने २७ फरवरी को ही शाम को देशभर में सतर्कता (nation-wide alert) के आदेश दे दिए थे। २७ फरवरी की शाम को गोधरा में टी.वी. पत्रकारों से बातचीत करते हुए नरेंद्र मोदी ने भी लोगों से शांति बनाए रखने की अपील की। मोदी ने एक और अपील की थी जिसमें उन्होंने लोगों को शांति बनाए और प्रतिकार न करने के लिए कहा, इस अपील को २८ फरवरी को राष्ट्रीय-टी.वी. दूरदर्शन पर दिखाया गया। उस अपील का सारांश था कि लोग कानून अपने हाथ में न ले, क्योंकि गोधरा हत्याकांड के अपराधियों को कड़ी से कड़ी सज़ा दी जाएगी, ताकि ऐसे भीषण कृत्य करने की दुबारा किसी की हिम्मत न हो। नरेंद्र मोदी के इस अपील वीडियो को २८ फरवरी से प्रतिदिन कई दिनों तक दूरदर्शन पर प्रसारित किया जाता रहा था। यह वीडियो आज भी यू ट्यूब पर उपलब्ध है। (संदर्भ: https://www.youtube.com/watch?v=BIRMR8zW0iI) तो संक्षेप में, २७ फरवरी (बुधवार) को उठाए गए क़दम इसप्रकार थे: 1) गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने गोधरा में ‘देखते ही गोली मारने’ के आदेश दिए, और वे शीघ्रतापूर्वक अहमदाबाद से गोधरा में घटनास्थल पर पहुँचे। 2) गुजरात में सम्पूर्ण पुलिस बल तैनात किया गया। 3) अहमदाबाद, गोधरा और अन्य संवेदनशील स्थानों पर शीघ्र कृति दल (RAF) की उपलब्ध सभी कंपनियाँ राज्य सरकार द्वारा तैनात की गईं। 4) केंद्र सरकार ने केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल (CRPF) की टुकड़ियाँ तत्काल गुजरात भेजीं। 5) राज्य सरकार ने गोधरा और अन्य संवेदनशील स्थानों पर निषेधाज्ञा (कर्फ़्यू) लागू की। 6) ८२७ लोगों को प्रतिबंधात्मक रूप से गिरफ़्तार किया गया। 7) प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और गुजरात सरकार ने हिंदुओं से शांति बनाए रखने तथा प्रतिकार न करने की अपील की। 8) रा.स्व.संघ और विहिंप ने भी हिंदुओं से शांति बनाए रखने और प्रतिकार न करने की अपील की। 9) केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (CISF) की टुकड़ियों को भी गुजरात में तैनात किया गया। 10) केंद्र सरकारने शाम को ही देश भर में राष्ट्रीय सतर्कता (nation-wide alert) घोषित की। गोधरा हत्याकांड में मारे गए कारसेवकों के शवों को अहमदाबाद में लाया गया। यह आवश्यक था, क्योंकि मारे गए अधिकांश कारसेवक अहमदाबाद व आसपास के निवासी थे। और मृत कारसेवकों के रिश्तेदारों को निषेधाज्ञा लागू रहने वाले गोधरा में जाना संभव नहीं था। इसके अलावा एस.आय.टी ने कहा हैं की गोधरा के अस्पताल में डी.एन.ए. और अन्य टेस्ट कराने की सुविधा नहीं थी (जो की अहमदाबाद के अस्पताल में थी ऐसा स्पष्टतः लगता हैं)। यदि कारसेवकों के शव गोधरा में ही रखे जाते तो, वहाँ परिस्थिति विस्फोटक बन सकती थी, और प्रतिकार हो सकता था, इसलिए शवों को शीघ्र से शीघ्र गोधरा से बाहर ले जाना आवश्यक था। ट्रेन वापिस अहमदाबाद पहुँच रहीं थी, और अधिकांश कारसेवक अहमदाबाद के थे, इसलिए शवों को अहमदाबाद न लाना यह कोई पर्याय ही नहीं था। बस्ती से दूर और नगण्य मुस्लिम जनसंख्या वाले पश्चिम अहमदाबाद क्षेत्र में स्थित सोला सिविल अस्पताल में इन शवों को लाया गया। ये शव पूर्व अहमदाबाद के मुख्य सरकारी अस्पताल में लाए जा सकते थे। अधिकांश मारे गए कारसेवक पूर्व अहमदाबाद के निवासी थे और यहाँ मुस्लिम जनसंख्या अधिक थी, यहाँ पर शवों को लाकर हिंदुओं को आसानी से मुस्लिमों के विरुद्ध भड़काया जा सकता था, अगर भड़काना होता तो। साबरमती नदी अहमदाबाद को पूर्व और पश्चिम भागों में विभाजित करती हैं। ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ के २८ फरवरी के ऑनलाइन अंक और ‘इंडिया टुडे’ के १८ मार्च २००२ के अंक के अनुसार (और एस.आई.टी. रिपोर्ट के अनुसार भी) इन शवों को २८ फरवरी को प्रातः ३:३० बजे अत्यंत उदासी भरे माहौल में लाया गया। मध्यरात्रि के बाद उस समय जब अधिकांश लोग नींद में थे तब इन शवों को लाया जाना लोगों को दंगों के लिए भड़काना बहुत मुश्किल, या लगभग असंभव था, और मृतकों के रिश्तेदारों के लिए भी असुविधाजनक था, और वह स्थान भी दूर था। सरकार को यदि दंगे भड़काने ही होते तो इन शवों को दिन में १२ बजे या दोपहर को २ बजे लाया जा सकता था, जो रिश्तेदारों के लिए सुविधाजनक होता और दंगे भड़काने के लिए आसान। इसीलिए सरकार ने चार बातें सही कीं: 1) कारसेवकों के शवों को गोधरा में न रखते हुए अहमदाबाद लाया, जिससे गोधरा में शांति बनाई रखी जा सकी और रिश्तेदारों को सुविधा हुई। 2) इन शवों को अहमदाबाद में दिन के समय न लाकर प्रातः ३:३० बजे लाया, जिसके कारण प्रतिक्रिया की संभावना एकदम कम या नगण्य हो गई। 3) शवों को लाते समय वातावरण शोकपूर्ण, उदास और खिन्न था। शवों को जुलूस के ज़रिये नहीं लाया गया। 4) पूर्व अहमदाबाद के बजाय नगण्य मुस्लिम जनसंख्या वाले पश्चिम अहमदाबाद के अस्पताल में इन शवों को लाया गया। गोधरा से अहमदाबाद तक शवों को बंद ट्रकों में लाया गया, जिस कारण शवों को कोई नहीं देख सकता था, और ये ५ ट्रक २७ फरवरी की रात ११:३०-१२:०० बजे गोधरा से निकलकर २८ फरवरी को प्रातः ३:३० बजे अहमदाबाद पहुँचे। पश्चिम अहमदाबाद के अस्पताल में ५४ शवों को लाने के बाद कुछ शवों (१९) का दहन वहीँ अस्पताल में किया गया, बाक़ी शवों को भी बंद वाहन में ही श्मशान भूमि में भेजा गया, जो किसी को दिखा नहीं, जबकि उन शवों को पैदल भी श्मशान भूमि में भेजा जा सकता था। इससे स्पष्ट है कि लोगों को शवों का दर्शन न हो सके इसके लिए सरकार ने गंभीरता पूर्वक प्रयास किया। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित विशेष जाँच दल (SIT) ने अपनी रिपोर्ट में पृष्ठ सं. ६३ पर उपर्युक्त सभी तथ्यों का उल्लेख किया है। सरकार ने शवों को प्रदर्शित करना तो दूर (“government ‘paraded’ the dead bodies”), विशेष सावधानी ली कि शवों का दर्शन न हो। इसके बावजूद कुछ लोगों ने यह झूठा दावा किया कि “सरकार ने शवों को प्रदर्शित किया”। एस.आई.टी. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि शवों कों अहमदाबाद लाने का फ़ैसला सामूहिक था– अनेक मंत्री, गोधरा की कलेक्टर श्रीमती जयंती रवी [पृष्ठ ६४ पर], अहमदाबाद के पुलिस कमिश्नर, गुजरात के डीजीपी इत्यादि से चर्चा करके उनकी सहमति से यह निर्णय लिया गया था। मीडिया ने उपर्युक्त बातों का वास्तविक सत्य सामने नहीं लाया। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अपने २४ जून २०२२ के निर्णय में कहा (निर्णय के पृ १४९-१५१ पर): “शवों का प्रदर्शन (‘parading’) किये जाने के बारे में के आरोप के बारे में, इस पर पूरी जांच की गई हैं और एस.आय.टी. की राय है कि ऐसा कोई प्रदर्शन किसी भी जगह नहीं हुआ…. एक कण भी साहित्य नहीं हैं यह संकेत देने वाला कि शवों को खुले वाहनों में लाया गया या, कहने के लिए, गोधरा से अहमदाबाद तक या कही और निजी लोगों के किसी गट ने शव-दहन (‘cremation’) के पहले शवों को प्रदर्शित (’paraded’) किया…यह भी तय हुआ था कि शवों को रात के समय पुलिस सुरक्षा में लाया जाएगा कोई अनुचित स्थिति टालने के लिए। यह साहित्य (‘material’) अभिलेखित (‘on record’) होने के कारण, शवों का प्रदर्शन करने का वितर्क, ख़ास कर सबसे ऊपर के स्तर पर किए गए षडयंत्र का हिस्सा होने के रूप में, निरर्थक, ऊटपटांग (‘preposterous’) हैं।” यह क़दम उठाए जाने के बाद भी २८ फरवरी को बड़े पैमाने पर दंगे भड़के, जो की गोधरा हत्याकांड, और इस पर तथाकथित पंथनिरपेक्षतावादियों द्वारा व्यक्त की गई प्रतिक्रिया तथा आतंकवाद व राष्ट्रद्रोही कृत्यों के विरोध में लोगों में तीव्र गुस्से के कारण था (तथा नरोड़ा पाटिया जैसे इलाकों में उकसावों के कारण भी)। २८ फरवरी (गुरुवार) को मर्यादित पुलिस बल होने के कारण लोगों के गुस्से को नियंत्रित करना मुश्किल था। १८ मार्च २००२ के ‘इंडिया टुडे’ के अंक में लिखा गया: “यह स्पष्ट है कि (२८ फरवरी को) पुलिस बल प्रभावहीन रहा। परंतु क्या यह जान-बूझकर किया गया? अहमदाबाद में पुलिसकर्मियों की कुल संख्या ६ हज़ार है, जिसमें से डेढ़ हज़ार पुलिसकर्मियों के पास शस्त्र उपलब्ध हैं। पूरे राज्य में शीघ्र कृति दल (RAF) की केवल चार कंपनियाँ हैं (५३० जवान), जिसमें से केवल एक कंपनी को ही अहमदाबाद में तैनात करना संभव था। इस बात को ध्यान में रखते हुए कि शहर में लगभग छह स्थानों पर एक ही समय पर २ से १० हज़ार लोगों के समूह जमा थे, एकत्रित हुए लोगों की तुलना में उपलब्ध पुलिस बल अत्यंत अपर्याप्त था। २८ फरवरी को एक समय ऐसा था जब केवल अहमदाबाद में ही कम-से-कम २५ हज़ार लोग मुस्लिम बस्तियों पर हमला कर रहे थे। इसके अलावा, पुलिस को अपेक्षा थी कि अहमदाबाद के तटबंदी शहर के क्षेत्र (Walled city) में गड़बड़ होगी, जहां पिछले बीस वर्षों में हुए हर दंगे में सांप्रदायिक हिंसा हुई है। परंतु इस बार दंगों की शुरूआत इस क्षेत्र से नहीं हुई। (‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ के २८ फरवरी के ऑनलाइन समाचार में भी इस बात का उल्लेख किया गया था कि पुलिस हिंसा की अपेक्षा तटबंदी शहर में कर रही थी, लेकिन हिंसा अन्य जगहों पर शुरू हुई। उसके बाद १ मार्च से तटबंदी शहर में भी हिंसा हुई।) सबसे बड़ा हत्याकांड हुए नरोड़ा पाटिया क्षेत्र में सुबह लोगों के समूह जमा होने से और हिंसा करने से रोकने के लिए पुलिस बल अत्यंत नाममात्र का था। वहाँ प्रत्येक ४-५ हज़ार लोगों के कम-से-कम तीन समूह मुस्लिमों पर हमला कर रह रहे थे। उनमें नरोड़ा के निकट एक बस्ती में रहने वाले चारा जाति के लोग भी शामिल थे। अब तक चारा जनजाति इससे पहले चोरी-डकैती और अवैध शराब के व्यापार के लिए प्रसिद्ध थी। पिछले गुरुवार (२८ फरवरी) को वह दंगा करने के लिए भी प्रसिद्ध हो गई। चमनपुरा क्षेत्र में, जहां कांग्रेस के भूतपूर्व संसद सदस्य एहसान जाफ़री और उनके परिवार सहित करीब ४० लोग मारे गए, जब लोग एकत्रित होने लगे तब केवल कुछ सशस्त्र पुलिसकर्मी थे। अतिरिक्त पुलिस बल (Reinforcements) वहाँ दाख़िल हुआ, परंतु तब तक वहाँ लोगों की संख्या दस हज़ार तक पहुँच गई थी, और हालाँकि यहाँ पुलिस की गोलीबारी में कम-से-कम ५ लोग मारे गए—अकेले अहमदाबाद शहर में ही पुलिस गोलीबारी में ४० लोग मारे गए—फिर भी वहाँ (चमनपुरा) हिंसा नहीं रुकी। उस समय स्थिति और भी ख़राब हो गई जाफ़री ने अपनी रिवॉल्वर से लोगों पर गोलीबारी की, जिसमें ७ लोग ज़ख़्मी हो गए। यह भी कहा गया कि सोसायटी के अन्य लोगों ने भी एसिड बल्ब फेकें। पिछले गुरुवार (२८ फरवरी) को अहमदाबाद पुलिस को सहायता के लिए प्रतिदिन औसतन २०० फोन की तुलना में कम-से-कम ३.५ हज़ार फोन आए, इनमें से अधिकांश मुस्लिमों के थे। अहमदाबाद के अग्निशमन दल, जिसकी १०० कॉल संभालने की क्षमता है, को २८ फरवरी को मदद के लिए ४०० कॉल आए। अहमदाबाद के पुलिस आयुक्त पी.सी. पांडे कहते हैं: ‘मेरे ३२ वर्ष के कार्यकाल में ऐसी स्थिति मैंने कभी नहीं देखी। यह एक अभूतपूर्व और न रोका जा सकने वाला विस्फोट था। एक स्थिति आई जब हज़ारों की संख्या में आने वाले लोगों के समूहों को थामना पुलिस को असंभव हो गया था’। बाक़ी के गुजरात राज्य में समस्या साधारणतः वैसी ही थी। राज्य के पुलिस बल में ४३ हज़ार जवान हैं, उनमें से केवल १२ हज़ार जवानों के पास शस्त्र है। राज्य रिज़र्व बल (SRP) के जवानों की संख्या १४ हज़ार है। ग्रामीण क्षेत्रों में मुस्लिमों पर हमला करने वालों समूहों की संख्या ५०० से लेकर १०,००० थी। सदरपुरा क्षेत्र, जहां २९ लोगों को जलाकर मार डाला गया, वहाँ समूह की संख्या ५०० लोगों से अधिक थी, जबकि पंडरवाड़ा, जहाँ ५० लोगों को उनके घरों में जलाकर मार डाला गया, में समूह की संख्या ५ हज़ार से अधिक थी, जिसमें क़रीब के गाँवों के लोग शामिल थे। गुजरात के गृहराज्यमंत्री गोरधान झडाफिया कहते हैं- ‘दंगाइयों को रोकने के लिए पुलिसने प्रभावी तरीक़े से गोली चलाने के पर्याप्त और ठोस सबूत हैं’। केंद्रीय क़ानून मंत्री अरुण जेटलीने राज्यसभा में जानकारी देते हुए बताया कि पुलिस ने २ हज़ार राउंड की फ़ायरिंग की जिसमें ९८ दंगाइयों की मौत हुई। इसके अलावा पिछले हफ़्ते में ४ हज़ार लोगों को दंगों के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया गया… …सेना की मदद बुलाने में हुई देरी के विषय पर भी काफ़ी आलोचना की जा रही है। मोदी के अनुसार २८ फरवरी को ही शाम ४ बजे तक उन्होंने सेना की माँग के लिए अधिकारिक तौर पर अनुरोध किया था। यह औपचारिक माँग दिल्ली में शाम को ६:३० बजे पहुँची। उसी रात को मोदी के अनुरोध पर केंद्रीय रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नांडिस मध्यरात्रि के बाद १ बजे (१ मार्च की सुबह) अहमदाबाद पहुँचे। अगले दिन प्रातः जॉर्ज फर्नांडिस हिंसाचार रोकने के लिए बहुत ही ज़्यादा वैयक्तिक जोखिम उठाते हुए बड़े साहस के साथ रास्ते पर उतरे। अहमदाबाद में सुबह ११:३० बजे सेना ने ध्वज-संचलन (Flag march) किया। अर्थपूर्णता से, मोदी ने कोशिश की, कि कारसेवकों के शवों का अंतिम-संस्कार (दहन) उस अस्पताल के निकट किया जाए जहां उन्हें गोधरा से २८ फरवरी को सुबह ३:३० बजे पोस्ट-मोर्टम के लिए लाया गया। सोला सिविल अस्पताल पश्चिम अहमदाबाद के एक सिरे पर है जहाँ मुस्लिम जनसंख्या नगण्य है। मोदी को लगा कि यदि इस क्षेत्र में शवों का दहन किया जाए तो लोगों के गुस्से पर नियंत्रण रखने में मदद होगी। शवों पर वहीं अंतिम संस्कार करने के लिए रिश्तेदारों को मनाने के अनुदेश अस्पताल में उपस्थित कुछ विहिंप नेताओं को दिए गए थे। परंतु यह प्रस्ताव आते ही मृतकों के रिश्तेदार भड़क उठे और आरोप लगाया कि ‘भाजपा कांग्रेस से भी बदतर व्यवहार कर रही है’। विहिंप के एक कार्यकर्ता विष्णु साठवारा चिल्लाकर कहने लगे ‘सत्ता पर आसीन होने के लिए सीढ़ियों की तरह हमारा उपयोग करने वाले भाजपा नेता अब हमें भेड़ियों की कृपादृष्टि पर छोड़ रहे हैं…’ …राजनैतिक विश्लेषक अरविंद बोसमिया कहते है ‘इतने बड़े विद्रोह का नेतृत्व करना संघ परिवार की ताक़त से बाहर था। यह विद्रोह गोधरा हत्याकांड की तात्क्षणिक (spontaneous) प्रतिक्रिया थी। इस विद्रोह ने मोदी ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण संघ परिवार को कठिन रास्ते पर लाकर छोड़ दिया। वास्तव में मोदी इस संघर्ष में बह गए’।” (संदर्भ:https://web.archive.org/web/20140630055508/http://www.indiatoday.com/itoday/20020318/cover.shtml) ‘इंडिया टुडे’ का यह लेख दिखाता है कि परिस्थिति से निपटना गुजरात पुलिस के लिए बहुत मुश्किल था। इस लेख के महत्त्वपूर्ण मुद्दे हमें देखने चाहिए- 1) अहमदाबाद के सम्पूर्ण पुलिस बल, जिसमें ६ हज़ार जवान थे और उनमें से सिर्फ़ १५०० जवान सशस्त्र थे, को शहर में तैनात किया गया था। २८ फरवरी को शहर में विभिन्न जगहों पर एकत्रित समूहों की संख्या अभूतपूर्व थी। उसके सामने पुलिस की ताक़त बहुत कम थी। 2) शीघ्र कृति दल (RAF) तैनात था, लेकिन वह भी हिंसाचर नहीं रोक सका। 3) अहमदाबाद पुलिस को २८ फरवरी को कम-से-कम ३५०० कॉल आए, औसतन २०० के बजाय। 4) अहमदाबाद अग्निशमन दल (फ़ायर ब्रिगेड), जिसकी क्षमता १०० कॉल से निपटने की थी, को उस दिन ४०० कॉल आए। 5) अहमदाबाद के तत्कालीन पुलिस आयुक्त पी.सी. पांडे के बयान से भी दिखता है कि परिस्थिति नियंत्रण से बाहर थी। 6) ‘द हिंदू’ ने दूसरे दिन यह समाचार दिया कि २८ फरवरी को लोगों के ‘गुस्से का विस्फोट पराकाष्ठा तक पहुँचा था’ और ‘परिस्थिति नियंत्रण से बाहर जाती’ दिखी। वास्तव में २८ फरवरी को एक समय में ५०,००० से अधिक लोग, न कि २५,००० हजार लोग अहमदाबाद में मुस्लिम इलाकों को निशाना बना रहे थे। चमनपुरा में एहसान जाफरी के घर पर २०,००० से अधिक की भीड़ थी [एहसान जाफरी कि पत्नी जाकिया जाफरी ने खुद कहा था, जो कि ‘इंडिया टुडे’ १८ मार्च २००२ ने अपनी रिपोर्ट में कहा, “मैंने इतनी बड़ी भीड़ कभी नहीं देखी हैं, उन्होंने मेरे पति को जिंदा जला दिया”], नरोडा पाटिया में १७ हजार की शक्ती वाली भीड़ थी [नरोडा के तत्कालीन पुलिस निरीक्षक के.के.मैसूरवाला के नानावटी आयोग को १९ अगस्त २००४ को दिए गए बयान के अनुसार, जिसे अगले दिन ‘द हिंदू’ ने रिपोर्ट किया, इसके अलावा ‘इंडिया टुडे’ ने अपने १८ मार्च २००२ के अंक में कहा की ‘नरोडा पटिया में प्रत्येकी ४ से ५ हजार की संख्या वाले कम से कम ३ समूह थे’ और एस.आई.टी. ने अपनी अंतिम क्लोजर रिपोर्ट की पृष्ठ सं. ४९१ में भी कहा हैं कि नरोडा पाटिया में मुस्लिमों पर हमला करने वाली भीड़ में १५,००० से १७,००० के बीच लोग थे], नरोडा गाँव (ग्राम) में भीड़ की संख्या ५ से ७ हजार के बीच थी [एस.आई.टी. की अंतिम रिपोर्ट के अनुसार, पृष्ठ सं. ४९१]। इन तीन स्थानों पर ही भीड़ की ताकत कम से कम ४२,००० लोगों की होती है और अहमदाबाद में इनके अलावा विभिन्न अन्य ठिकानों पर भी लोगों की भीड़ थी। इसकी तुलना में पुलिसवालों की संख्या केवल ६ हजार थी और इनमें से केवल १५०० पुलिस वाले सशस्त्र थे। ‘द हिंदू’ ने २८ फरवरी की घटनाओं का वार्तांकन करते हुए १ मार्च २००२ के अंक में कहा कि: “परिस्थिति नियंत्रण से बाहर जाते हुए लगी, मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने अत्यंत शीघ्रतापूर्वक (‘frantically’) सेना को बुलाया और सेना अहमदाबाद में पहुँचना शुरू हो गई है तथा शुक्रवार (१ मार्च) को शहर में सेना तैनात कर दी जाएगी।” (संदर्भ: https://web.archive.org/web/20220629204720/https://www.thehindu.com/todays-paper/140-killed-as- gujarat-bandh-turns-violent/article27833900.ece) ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने भी अपने २ मार्च के उस कुख्यात लेख में, जिसमें उसने नरेंद्र मोदी के झूठे बयान ‘प्रत्येक क्रिया की उतनी ही और उलटी प्रतिक्रिया होती है’ [जो मोदी ने कभी कहा ही नहीं] का उल्लेख किया, कहा: “…लोगों के समूह भयानक बड़ी संख्या तक पहुँच गए थे। तैनात पुलिस हिंसाचार के महासागर में एक बूँद की तरह लग रही थी”। सम्पूर्ण पुलिस बल, राज्य रिज़र्व पुलिस बल, शीघ्र कृति दल और केंद्रीय रिज़र्व बल की तैनाती के बावजूद यह परिस्थिति थी। ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने १ मार्च २००२ की रिपोर्ट में कहा कि राजकोट में भी स्थिति नियंत्रण से बाहर थी, फ़ायर ब्रिगेड को १७५ फोन कॉल आए और उनका पानी भी समाप्त हो चुका था। इस रिपोर्ट के अनुसार पुलिसने दो राउंड गोलीबारी की और आधे शहर (राजकोट) में निषेधाज्ञा (कर्फ़्यू) लगा दी गई। राजकोट शहर अहमदाबाद से काफी छोटा है। २००१ की जनगणना के अनुसार अहमदाबाद की जनसंख्या कोई ४५ लाख थी जबकि राजकोट की जनसंख्या लगभग १०.१४ लाख थी। तो वास्तव में राजकोट फायर ब्रिगेड को १७५ कॉल आना यह अहमदाबाद फायर ब्रिगेड को ४०० कॉल आने से ज्यादा गंभीर था। अब हम अहमदाबाद में ३ लगतार दिन हुई हिंसा की तुलना करते हैं- २८ फरवरी (गुरुवार), १ मार्च (शुक्रवार) और २ मार्च २००२ (शनिवार)। एस.आई.टी. की अंतिम क्लोजर रिपोर्ट (पृष्ठ सं. २१०) के अनुसार २८ फरवरी २००२ को अहमदाबाद शहर में १८२ मौतें हुई थी जिसमें १५१ मुस्लिम और ३१ हिंदू थे। ऐसा लगता हैं कि ये आकडे बाद में मृत घोषित किए गए लापता लोगों को शामिल नहीं करते हैं (क्योंकि ऐसा करने के बाद गुलबर्ग सोसाइटी और नरोडा पाटिया में ही मरने वालों की संख्या ६९ + ९५ = १६४ मुस्लिम होगी), और गुलबर्ग सोसाइटी में ३० लापता लोगों को, नरोडा पाटिया में ११ लोगों को, तथा नरोडा ग्राम में २ लोगों को मृत घोषित किया गया, तो उन्हें जोड़ने पर मौते १९४ मुस्लिम तथा ३१ हिंदू होती हैं, इस प्रकार २८ फरवरी को मौतों की कुल संख्या २२५ होती हैं। ‘द हिंदू’ ने २३ अप्रैल २००२ को लिखा: “२८ फरवरी को गुजरात बंद के दिन के बाद, जो की गोधरा के बाद की हिंसा का पहला दिन था, शहर में (अहमदाबाद में) एक दिन में सबसे ज्यादा मौतें रविवार (२१ अप्रैल २००२) को रामनवमी के दिन हुईं: नौ घायल लोगों ने देर रात अस्पताल में दम तोड़ दिया, इसके अलावा नौ लोग दिन में पहले ही मारे जा चुके थे। मौतों की संख्या बढ़ सकती है क्योंकि कम-से-कम १८ घायलों की स्थिति अभी भी गंभीर थी। (तुरंत एक दिन के भीतर कम-से-कम ३ और लोग मारे गए क्योंकि रेडिफ़.कॉम की २२ अप्रैल २००२ की रिपोर्ट ने कहा ‘इस दिन २१ लोगों की मौत हुई’)।” https://www.thehindu.com/todays- paper/tp-national/toll-could-rise-in-ahmedabad/article27843381.ece इससे पता चलता है कि दूसरे दिन यानी १ मार्च २००२ (शुक्रवार) को हिंसा में मारे गए लोगों की संख्या १८ से कम थी [हालांकि पुलिस फायरिंग में १२ अधिक लोग मारे जा सके होंगे], क्योंकि ‘द हिन्दू’ ने कहा कि २८ फरवरी के बाद एक ही दिन में सबसे ज्यादा मौतें अहमदाबाद में २१ अप्रैल २००२ (रविवार) को हुई थी और उस दिन उस समय तक केवल १८ मौतें हुई थी। २८ फरवरी को ‘द हिंदू’, ‘द टेलीग्राफ’, ‘द ट्रिब्यून’, ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ जैसे सभी अखबारों ने कहा कि स्थिति नियंत्रण से बाहर थी। अहमदाबाद शहर में मौतें कम से कम १८२ और सबसे अधिक संभावना में २२५ थीं। अगले दिन १ मार्च को हिंसा की तीव्रता तुलना में बहुत कम थी और जैसा कि ‘द हिंदू’ की रिपोर्ट से पता चलता है इस दिन दंगों में मृतकों की संख्या १८ से कम थी और पुलिस फायरिंग में मारे गए लोगों सहित ३० से कम थी। इस प्रकार हमने निर्णायक तरीके से देखा है कि २८ फरवरी की तुलना में १ मार्च को हिंसा की तीव्रता काफी कम थी। और २ मार्च को हिंसा और भी कम थी और शहर फिर से लगभग सामान्य हो गया था। ‘द ट्रिब्यून’ ने ३ मार्च २००२ के अंक में यु.एन.आई. और पी.टी.आई. का हवाला देकर लिखा- “(२ मार्च को) गोधरा हत्याकांड के बाद भड़के सांप्रदायिक दंगों में सबसे बुरा प्रभावित हुआ अहमदाबाद शहर लगभग फिर से सामान्य बन गया था…”। ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने २ मार्च २००२ के अंक में १ मार्च २००२ (शुक्रवार) की घटनाओं पर लिखा: “न तैनात की गई सेना, और न ही गुजरात पुलिस को दिए गए ‘देखते ही गोली मारने’ के आदेश अहमदाबाद में जनता के गुस्से को क़ाबू कर पाए, और लगातार दूसरे दिन शहर की क़ानून व्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई थी और बड़ी मात्रा में इंसानों की जानें गईं…” और यह स्थिति थी १ मार्च की, जब २८ फरवरी की तुलना में हिंसाचार बहुत कम था। अगर १ मार्च का हिंसाचार पिछले दिन की तुलना में काफ़ी कम होते हुए भी यदि न भारतीय सेना और न ‘देखते ही गोली मारने’ के आदेश उसे रोक सके, तो २८ फरवरी को कैसी परिस्थिति रही होगी जब सेना दिन में उपस्थित नहीं थी, और हिंसाचार अपने चरम सीमा पर था? ‘इंडिया टुडे’ के उस रिपोर्ट में पुलिस बल की ताक़त के आँकड़े दिए हैं। राज्य पुलिस ४३ हज़ार की थी, और राज्य रिज़र्व पुलिस (SRP) बल १४ हज़ार था, कुल ५७ हज़ार होते हैं, और अहमदाबाद के ६ हज़ार पुलिस [इन ६,००० में राज्य रिज़र्व पुलिस (SRP) थी या नहीं यह स्पष्ट नहीं हैं] मिलाकर यह संख्या ६३ हज़ार होती है। इसमें केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल (CRPF), केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (CISF), शीघ्र कृति दल (RAF) आदि सारे संभव परिग्रहीतियों को जोड़कर कुल जवानों की संख्या ७० हज़ार हुई थी। ‘द टेलिग्राफ़’ (ब्रिटेन) और ‘द हिंदुस्तान टाइम्स’ ने अपनी रिपोर्ट में ७० हज़ार जवानों की तैनाती का समाचार दिया था। अतः स्पष्ट है कि यह ७० हज़ार सुरक्षा कर्मी, ये सचमुच संपूर्ण उपलब्ध ताक़त और सभी संभव अतिरिक्त बल जैसे RAF, CRPF, CISF इत्यादि थे। ‘द टेलिग्राफ़’ के १ मार्च २००२ का समाचार हमने देखा जिसके अनुसार “क़ानून और व्यवस्था की स्थिति और प्रदर्शनकारी नियंत्रण से बाहर होने के कारण” (मोदी के अनुरोध पर) वाजपेयी सरकार ने सेना की तैनाती के आदेश दिए। इससे स्पष्ट है कि अहमदाबाद में स्थिति नियंत्रण से बाहर थी और कोई भी प्रशासन, चाहे वो नरेंद्र मोदी का हो या सोनिया गांधी का, इस पर नियंत्रण नहीं रख सकता था। ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने २८ फरवरी को प्रकाशित किए अनुसार आचार्य गिरिराज किशोर ने जो चेतावनी दी थी, कि हिंदुओं का गुस्सा अनियंत्रित हो सकता है, वह सच निकली। परंतु राज्य सरकार ने स्थिति को दृढ़ता से, कठोरतापूर्वक और परिणामकारक रूप से सँभाला। ‘इंडिया टुडे’ ने ११ मार्च २००२ के अंक (इसमें २८ फरवरी तक की घटनाओं का उल्लेख था) में कहा: “संघ प्रचारक से भाजपा राजनेता बने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि ‘चाहे कुछ भी हो इस हत्याकांड (गोधरा) के अपराधियों को दंड दिया जाएगा’। वे एक कठिन परिस्थिति में फँस गए हैं। यद्यपि मोदी ने अहमदाबाद में सेना बुलाई, उन्होंने कहा—‘पाँच करोड़ गुजराती लोगों का गुस्सा अपने सीमित पुलिस बल से रोकना असंभव हैं। हिंसाचार फैलने से रोकने के लिए हमसे जो बन पड़ा हमने पराकाष्ठा तक किया’।” (संदर्भ: https://www.indiatoday.in/magazine/cover-story/story/20020311-godhra-carnage-leads-to- worst-rioting-in-gujarat-since-babri-masjid-demolition-795770-2002-03-11) ‘इंडिया टुडे’ ने २८ फरवरी को ही कहा कि गुजरात में सेना बुलाई गई और मुख्यमंत्री कठिन परिस्थिति में फँस गए। अहमदाबाद में २८ फरवरी २००२ को सुबह ११ बजे के आसपास दंगों की शुरूआत हुई। दोपहर १२ बजे मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने केंद्र सरकार से संपर्क करके सेना भेजने के संबंध में अनौपचारिक अनुरोध किया। ‘इंडिया टुडे’ के १८ मार्च २००२ के अंक में प्रकाशित “क्रोनोलॉजी ऑफ़ अ क्राइसिस” लेख में यह बताया गया। इस समय भारत-पाकिस्तान के बीच युद्धजन्य परिस्थिति को देखते हुए लगभग पूरी सेना सीमा पर तैनात थी, उनमें से कुछ टुकड़ियों को तत्काल अहमदाबाद के लिए रवाना कर दिया गया। कुछ टुकड़ियाँ अहमदाबाद में १ मार्च को ही सुबह (२८ फरवरी की देर रात के बाद) १.३० बजे से पहले पहुँच गई थीं। यह एक रिकॉर्ड समय था। इससे पहले गुजरात में (उदा. १९६९ के दंगों में) सेना को दंगों को रोकने के लिए पहुँचने में ३ से ५ दिन का समय लगा था, जब लगभग पूरी सेना सीमा पर भी नहीं थी। जैसा कि हमने देखा ‘द हिंदू’ ने १ मार्च को यह समाचार दिया कि २८ फरवरी को नरेंद्र मोदी ने अत्यंत शीघ्रतापूर्वक (‘frantically’) अहमदाबाद में सेना को बुलाया। इसके बावजूद कुछ लोगों ने दावा किया कि “मोदी ने तीन दिन तक सेना को नहीं बुलाया”। जनसमूह की तुलना में गुजरात पुलिस की संख्या अत्यंत कम होते हुए भी पुलिस ने उस दिन १४९६ राउंड गोलीबारी की, उसमें ११ हिंदू मारे गए और १६ ज़ख़्मी हुए। यह अधिकृत आँकड़ें हैं, और इन आँकड़ों को ‘द हिंदू’ के १ मार्च २००२ (शुक्रवार) के अंक से भी देखा जा सकता है, जिसमें ‘द हिंदू’ ने लिखा: “(गुरुवार, २८ फरवरी को) पुलिस गोलीबारी, छुरा घोंपने और अन्य घटनाओं में शहर के विभिन्न हिस्सों में कम-से-कम अन्य ३० लोग मारे गए, जबकि राज्य के अन्य शहरों और क़स्बों में मृत्यु संख्या ५० के ऊपर बताई गई… शाम तक पुलिस ने अहमदाबाद में ४६ राउंड गोलीबारी की जिसमें समझा जाता है कि कम-से-कम १० लोग मारे गए।” पहले वाक्य में पुलिस गोलीबारी में मारे गए लोगों की सटीक संख्या दिए बगैर कहा गया कि अहमदाबाद में पुलिस गोलीबारी, छुरा घोंपने और अन्य घटनाओं में ३० लोग मारे गए। आगे कहा गया कि यह समझा जाता है कि अकेले अहमदाबाद में ही पुलिस गोलीबारी में शाम तक कम-से-कम १० लोग मारे गए। अधिकृत आकडे दिखाते हैं कि २८ फरवरी को हुई पुलिस गोलीबारी में १७ लोग मारे गए। ‘द पोर्ट्समाउथ हेराल्ड’ इस विदेशी दैनिक ने अपने दिनांक २८ फरवरी २००२ के ऑनलाइन समाचार में कहा कि: “राज्य के व्यापारी केंद्र अहमदाबाद में मुस्लिम बस्तियों पर धावा बोलने वाले हिंदुओं के समूह पर अधिकारियों ने आँसू गैस छोड़ी। परंतु लोगों का समूह न रुकने के कारण पुलिस को गोलीबारी करनी पड़ी। सिविल अस्पताल के अधिकारियों ने असोसिएटेड प्रेस को बताया कि इस गोलीबारी में ६ लोग ज़ख़्मी हुए तथा उनमें से ३ लोग गंभीर रूप से ज़ख़्मी हैं”। यह ‘असोसिएटेड प्रेस’ की खबर थी। बीबीसी ने अपने दिनांक २८ फरवरी के ऑनलाइन समाचार में कहा, जब पूरे राज्य में कुल मृतकों की संख्या उसने केवल ४० दी थी, यानी जिस समय हिंसाचार शुरू था: “हिंदू युवकों को रोकने के लिए वहाँ (अहमदाबाद) पर सेना तैनात की गई है… पुलिस ने गोलीबारी में छह लोगों को मार गिराया, जब पुलिस ने फिर से शांति लाने की कोशिश की”। (उस दिन शायद पूरे राज्य में पुलिस फ़ायरिंग में मृतकों की अंतिम संख्या १७ थी।) (संदर्भ: http://news.bbc.co.uk/2/hi/south_asia/1845996.stm) “पुलिस निष्क्रिय थी” या “पुलिस दंगाइयों का साथ दे रही थी” इस तरह के कोई आरोप नहीं थे। बल्कि कहा गया कि ‘पुलिस फिर से शांति लाने का प्रयास कर रही थी’। ‘द टेलिग्राफ़’ (कोलकाता) ने १ मार्च २००२ को लिखा- “प्रशासन ने बताया कि (२८ फरवरी को) विश्व हिंदू परिषद द्वारा घोषित बंद के दौरान आंदोलकों के नियंत्रण से बाहर होने के कारण कई स्थानों पर पुलिस को आँसू गैस छोड़नी पड़ी और फ़ायरिंग करनी पड़ी। नडियाद और गोधरा में पुलिस फ़ायरिंग में दो लोगों की मृत्यु हुई”। ‘द हिंदू’ ने १ मार्च २००२ की रिपोर्ट में कहा- “सेना की टुकड़ियों का अहमदाबाद में आना प्रारम्भ हो चुका है और इन्हें शुक्रवार को (१ मार्च) तैनात किया जाएगा”। इससे दिखता है कि सेना की टुकड़ियाँ इतनी शीघ्रता से २८ फरवरी को मध्यरात्रि के बाद अहमदाबाद में पहुँचीं, कि उनके पहुँचने का समाचार दूसरे दिन के अंक में प्रकाशित करने के लिए ‘द हिंदू’ को पर्याप्त समय मिला! उसी दिन ‘द इंडियन एक्स्प्रेस’ ने लिखा: “इससे रात को १:३० बजे (२८ फरवरी को मध्यरात्रि के बाद, यानी १ मार्च की सुबह को) तक मृतकों की कुल संख्या कम-से-कम ७० हो गई जिसमें से ६० लोग अकेले अहमदाबाद से थे। इस समय तक रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नांडिस अहमदाबाद में दाख़िल हुए और मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से मिल रहे थे, और सेना के गांधीनगर कैंप से ११वीं डिविजन की सेना पेट्रोलिंग के लिए भेजने की शुरूआत हो चुकी थी। शहर में सेना के दाख़िल होने की ख़बर लोगों को आशा की किरण लगी…”। इस प्रकार ‘द इंडियन एक्स्प्रेस’ को भी सेना और रक्षामंत्री फर्नांडिस के पहुँचने का वार्तांकन करने और उसे १ मार्च के अंक में प्रकाशित करने के लिए पर्याप्त समय मिला। ‘द टेलिग्राफ़’ (कोलकाता आवृति) को भी इसका समय मिला और उसने लिखा: “सेना ने प्रत्यक्ष रूप से तैनात होने की तैयारियाँ शुरू कर दी हैं और ज्यादा से ज्यादा देरी में कल प्रातः (शुक्रवार, १ मार्च) तक शहर में सेना बाहर निकल जाएगी”। ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ के २८ फरवरी का ऑनलाइन समाचार था: “१ हज़ार अर्द्ध-सैनिक बलों (paramilitary) के जवान गुजरात के लिए रवाना प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया ऑनलाइन समाचार: गुरुवार, २८ फरवरी २००२, १६:२९ पी.एम. नई दिल्ली, २८ फरवरी: मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के अनुरोध पर केंद्रीय गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने गुरुवार को (२८ फरवरी) दंगाग्रस्त गुजरात में १ हज़ार अर्द्ध-सैनिक जवान भेजने के आदेश दिए हैं। केंद्रीय गृह मंत्रालय के एक अधिकारी के कहा ‘अर्द्ध-सैनिक बलों की ११ कंपनियाँ गुजरात के लिए रवाना कर दी गई हैं और ये कंपनियाँ आज रात तक वहाँ पहुँचेंगी’। बुधवार को साबरमती एक्स्प्रेस पर हमले के बाद मोदी ने गुजरात की स्थिति की जानकारी देने के लिए आडवाणी को फोन किया और क़ानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए अतिरिक्त बल भेजने का अनुरोध किया।” (संदर्भ:https://web.archive.org/web/20120807035643/http://www.expressindia.com/news/fullstory.php ?newsid=7922) इस समाचार को ऑनलाइन छापने का समय दोपहर का ४:२९ बजे था। समाचार तैयार करने, संपादित करने, प्रूफ-रीडिंग करने और प्रकाशित करने के समय को देखते हुए स्पष्ट है कि प्रत्यक्ष निर्णय इसके काफ़ी पहले हो चुका था। यह निर्णय इतनी तेज़ गति से लिया गया कि यह समाचार २८ फरवरी को दोपहर ४:३० बजे ही ऑनलाइन छापा गया। एक और महत्त्वपूर्ण क़दम जो उठाया गया वह यह था कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने तत्कालीन केंद्रीय रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नांडिस से शीघ्रतापूर्वक अहमदाबाद आने का अनुरोध किया। वे तुरंत १ मार्च को (२८ फरवरी की रात) सुबह १ बजे तक अहमदाबाद में दाख़िल हो गए थे। ‘द ट्रिब्यून’ (इस समाचार-पत्र ने जनवरी २००५ में लालू यादव द्वारा गठित बैनर्जी समिति के इस दावे का कि ‘गोधरा हत्याकांड एक हादसा था’ अपने संपादकीय में पूरा समर्थन किया था और मुसलमान हमलावरों का भीषण पापक्षालन किया) ने अपने १ मार्च २००२ के अंक में लिखा कि- “(२८ फरवरी को) पुलिस ने शिकायत की कि संतप्त लोगों के समूहों की संख्या पुलिस की संख्या से कहीं अधिक थी, और उन्मादी समूहों ने सड़कों पर कई जगह पर अवरोध खड़ा करने के कारण पुलिस को गमनागमन करने में कठिनाइयाँ आ रही थीं। यहाँ खचा-खच भरी पत्रकार परिषद को मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने बताया कि सम्पूर्ण राज्य में कुल ७०० लोगों को गिरफ़्तार कर लिया गया है (बीबीसी रिपोर्ट जो हमने पहले देखी में भी ७०० लोगों की गिरफ़्तारी का समाचार क़बूल किया गया था), जिनमें से ८० लोग गोधरा में गिरफ़्तार हुए, जहाँ ट्रेन को जलाकर अग्निकांड में ५८ लोगों को मार डाला गया था… साबरमती एक्स्प्रेस पर कल हुए हमले की घटना के बाद गुजरात की स्थिति की जानकारी मोदी ने फोन पर आडवाणी को दी तथा क़ानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए तत्काल अतिरिक्त अर्द्ध-सैनिक बल भेजने का अनुरोध किया। केंद्र सरकार ने आज नया आदेश जारी करके सभी राज्य सरकारों तथा केंद्र शासित प्रदेशों को सूचित किया कि वे संवेदनशील स्थानों पर सुरक्षाकर्मियों को तैनात करें तथा अचानक आने वाली स्थिति के लिए यातायत की व्यवस्था करें… कलोल शहर में अनियंत्रित समूहों को तितर-बितर करने के लिए पुलिस ने गोलीबारी की…” (संदर्भ: http://www.tribuneindia.com/2002/200220301/main7.htm) ‘द हिंदू’ ने भी अगले दिन अपनी रिपोर्ट में कहा कि—“२८ फरवरी को पुलिस की तुलना में लोगों के समूह की संख्या बहुत अधिक थी (‘police were outnumbered’) और टायर जलाकर सड़क पर अवरोध खड़े किए गए थे”। कहीं भी यह आरोप नहीं लगाया कि पुलिस जान-बूझकर दंगाइयों को अनदेखा कर रही थी। ‘हिंसाचर में पुलिस सहभागी है’ या ‘उन्होंने दंगाइयों को छूट दे रखी थी’, इस तरह का कोई आरोप नहीं था। सेना को बुलाने में कोई विलंब होने का कोई आरोप नहीं था। ‘पुलिस ने अनदेखी की’, ‘दंगाइयों को ३ दिन तक छूट दी गई’, ‘तीन दिनों तक सेना नहीं बुलाई गई’ इत्यादि सब आरोप दंगे समाप्त होने के बाद लगाए गए। यदि ये आरोप सही होते तो ये अख़बार अगले ही दिन ऐसे आरोप लगाते। परंतु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। और दंगे गुजरात सरकार द्वारा “प्रायोजित” थे इस तरह का कोई भी आरोप नहीं लगाया गया। ‘द हिंदू’ ने १ मार्च के अंक में कहा कि २८ फरवरी को “राज्य में अहमदाबाद, सूरत, वडोदरा, राजकोट, नडियाद, आणंद, और कैरा शहरों के कुछ क्षेत्रों सहित २६ शहरों और क़स्बों में अनिश्चितकाल के लिए निषेधाज्ञा लागू कर दी गई है। इसके अलावा २७ फरवरी (बुधवार) को गोधरा हत्याकांड के बाद उसी दिन से गोधरा में अनिश्चितकालीन निषेधाज्ञा लागू ही है”। केवल ‘द हिंदू’ ही नहीं बल्कि लगभग सभी अख़बारों ने दूसरे दिन यह समाचार दिया कि २६ स्थानों पर निषेधाज्ञा लागू है, ‘इंडिया टुडे’ और ‘आउटलुक’ सप्ताहिकों ने भी अपने ११ मार्च २००२ के अंकों में (जिनमें २८ फरवरी तक के समाचार दिए गए) यही जानकारी दी। शायद ‘द इंडियन एक्स्प्रेस’ एकमात्र समाचार-पत्र था जिसने १ मार्च के अंक में यह आरोप लगाया था कि ‘२८ फरवरी को पुलिस ने जानबूझकर दंगाइयों को अनदेखा किया’। उसके बाद हुए दंगों के वास्तविक समय पर ‘इंडियन एक्स्प्रेस’ ने भी कोई आरोप नहीं लगाया। ‘इंडियन एक्स्प्रेस’ के २८ फरवरी के आरोप भी वैचारिक पूर्वाग्रह के कारण किए गए थे। अब इस बात को कोई नकार नहीं सकता कि इन सब घटनाक्रमों में एकाधा पुलिसकर्मी अपने कार्य में आलसी होने या दंगाइयों से सहानुभूति दर्शाने का मामला हो सकता है परंतु इसका मतलब यह नहीं होता कि सरकार ने पुलिस को आदेश दिए कि ‘दंगाइयों को अनदेखा करो’। संतप्त समूह की बहुत बड़ी संख्या के सामने बहुत कम पड़ रही पुलिसकर्मी यदि दंगे रोकने के लिए हस्तक्षेप करेंगे तो क्या वे अपनी जान नहीं गवाएँगे, और वो भी बग़ैर कोई लाभ हुए? इसके बावजूद गुजरात में कई घटनाओं में पुलिसकर्मियों ने अपनी जान जोखिम में डालकर मुसलमानों को (और कुछ जगह हिंदुओं को भी) बचाया, जैसे वीरमगाम, बोडेली आदि स्थानों पर। ‘द इंडियन एक्स्प्रेस’ का पूर्वाग्रह इस बात से देखा जा सकता है कि इस दैनिक ने अपने अगले दिन के समाचार में २८ फरवरी को अकेले अहमदाबाद में पुलिस गोलीबारी में शाम तक कम-से-कम १० लोगों के मारे जाने की ख़बर नहीं दी, जो ‘द हिंदू’ ने अपने समाचार में दी, इसके अलावा यह भी नहीं बताया कि नरेंद्र मोदी ने तत्काल अहमदाबाद में सेना और जॉर्ज फर्नांडिस को बुलाया, हालाँकि उसने सेना और जॉर्ज फर्नांडिस के आगमन की बात बताई। पुलिस ने उस दिन पूरे राज्य में १४९६ राउंड गोलीबारी की और इसमें से ६०० से अधिक राउंड गोलीबारी अकेले अहमदाबाद में की गई, और आँसू-गोले के ४२९७ राउंड पूरे राज्य में फोड़े, यह बात भी ‘इंडियन एक्स्प्रेस’ ने नहीं बताई। ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने १ मार्च को प्रकाशित किए एक समाचार का शीर्षक था, ‘गोधरा के निकट छह लोगों को ज़िंदा जलाया गया’, और उसमें कहा गया: “…कलोल शहर सर्वाधिक प्रभावित हुआ है, जब इस शहर में समाज-विरोधी तत्त्वों द्वारा हमला किए जाने की अफ़वाह फैलने के बाद यहाँ ५ हज़ार से अधिक लोग इकठ्ठा हो कर इस पर चल पड़े।… गाँव-वाले (दंगाई) महामार्ग पर जाने वाली गाडियों पर हमला कर रहे थे और लोगों के विशाल समूहों की तुलना में पुलिस की संख्या अत्यधिक कम थी (‘police grossly outnumbered’)। …अरद रोड सबसे अधिक प्रभावितों में से एक थी, क्योंकि यहाँ किसी भी समय पर हर पल कम-से-कम २०० लोगों का समूह था। अनेक ने लठियाँ, छुरे इनसे ख़ुद को सशस्त्र किया हुआ था। इन दो शहरों से शुरू हुआ हिंसाचार महामार्ग पर फैल गया है और ग्रामीणों को खुली छूट मिल गई है। उन्होंने महामार्ग पर बड़े-बड़े पत्थर, जलते हुए टायर, बड़े ड्रेनेज पाइप, अधूरे इंजीनियरिंग प्रोजेक्टों की यंत्र-सामग्री लाकर सड़कों पर अवरोध खड़े किए हैं। हर थोड़ी देर बाद पुलिस की एक गाड़ी आकर महामार्ग पर लोगों के समूहों को हटा देती है, परंतु पुलिस की गाड़ी जाने के तुरंत बाद लोगों का समूह फिर वहीं इकठ्ठा हो जाता है। जैसा कि एक पुलिसकर्मी ने बताया, ‘यदि मैंने उन्हें रोकने का प्रयास किया तो वो लोग मुझे ही मार डालेंगे। अतः मेरा उनकी ओर ध्यान न देना ही उचित होगा’। (‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ इसका समर्थन करता है)” (संदर्भ: https://timesofindia.indiatimes.com/india/Six-burnt-alive-near-Godhra/articleshow/2472761.cms) ‘द इंडियन एक्स्प्रेस’ ने २ मार्च २००२ के अंक में लिखा: “(१ मार्च को) वडोदरा में ३ लोगों को ज़िंदा जलाया गया, और १ व्यक्ति की मृत्यु पुलिस की गोलियों से हुई, जब मांजलपुर क्षेत्र में एक पुलिस निरीक्षक (इंस्पेक्टर) और एक उप-अधीक्षक (डी.एस.पी.) को हिंसक समूह ने घेर लेने के कारण उसे बिखेरने के लिए पुलिस को गोली चलानी पड़ी। पुलिस आयुक्त डी.डी.टुटेजा ने बताया कि पुलिस अधिकारियों को बचाने के लिए अतिरिक्त पुलिस बल को तुरंत भेजना पड़ा”। ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ के १ मार्च २००२ के ऑनलाइन संस्करण के अनुसार जनसमूह को बिखेरने में सफलता पाने के बाद पुलिस ने अहमदाबाद के नरोड़ा पाटिया क्षेत्र के ४०० मुस्लिमों को सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया। इनमें से कुछ को पास ही के राज्य रिज़र्व पुलिस बल के मुख्यालय में भेजा गया। संदर्भ : https://timesofindia.indiatimes.com/india/Mob-burns-to-death-65-at-Naroda- Patia/articleshow/2473565.cms किसी भी प्रकार के बड़े दंगों की शुरूआत होने से पहले ही ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने २८ फरवरी की अपनी रिपोर्ट में कहा—“वडोदरा: वडोदरा में किसी भी प्रकार की अनुचित घटना को रोकने के लिए अर्द्ध- सैनिक बलों की ५ कंपनियों को तैनात किया जाएगा। शीघ्र कृति दल (RAF) की एक कंपनी भी पहुँच रही है। ये कंपनिया शहर में पहले से ही मौजूद राज्य रिज़र्व पुलिस (SRP) की ५ कंपनियों के अतिरिक्त हैं। पुलिस प्रशिक्षण केंद्र के जवानों की एक कंपनी भी शहर में तैनात होने वाली है। प्रत्येक पुलिस थाने को अत्याधुनिक संवाद व्यवस्था से सुसज्जित ५ मोबाइल की भी आपूर्ति की जाएगी।” (संदर्भ: https://timesofindia.indiatimes.com/city/ahmedabad/Security-beefed-in- Vadodara/articleshow/2308509.cms) अहमदाबाद की गुलबर्ग सोसायटी में (चमनपुरा क्षेत्र) २८ फरवरी को कांग्रेस के भूतपूर्व अहमदाबाद लोकसभा सांसद एहसान जाफ़री की एक हिंदू समूह द्वारा हत्या कर दी गई, जिसकी संख्या अंत में २०,००० से अधिक होने का बताया जाता है। एहसान जाफ़री ने अपने रिवॉल्वर से हिंदुओं के समूह पर गोली चलाई, उसमें एक व्यक्ति की मृत्यु हुई और १५ लोग ज़ख़्मी हो गए, एस.आई.टी. ने अपनी रिपोर्ट में पृष्ठ क्रमांक एक पर कहे अनुसार। (एस.आई.टी. याने विशेष जाँच टीम जिसका गठन सर्वोच्च न्यायालय ने किया था।) जाफ़री ने की गोलीबारी का उल्लेख कम-से-कम ‘इंडिया टुडे’ (१८ मार्च २००२ का अंक), ‘आउटलुक’ और ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने भी किया। ‘इंडिया टुडे’ ने कहा कि शहर में पुलिस की संख्या अपर्याप्त होने के बाद भी जाफ़री के घर के बाहर अतिरिक्त पुलिस बल पहुँचा, परंतु तब तक संतप्त समूह में लोगों की संख्या १० हज़ार तक पहुँच गई थी। ‘इंडिया टुडे’ ने स्पष्ट रूप से कहा कि जाफ़री के घर के बाहर पुलिस ने गोलीबारी में ५ लोगों को मारा। वहाँ २५० लोग थे, उनमें से ६९ लोग मारे गए (सभी लापता लोगों को मृत घोषित करने के बाद)। जब जाफ़री ने हिंदुओं पर गोलीबारी की, तब स्थिति और ज़्यादा बिगड़ी, लोग पागल हो गए और उन्होंने सोसायटी के प्रत्येक व्यक्ति को मारने का निश्चय किया, लेकिन फिर भी पुलिस ने १८० लोगों को बचाया। ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने अपने २८ फरवरी के ऑनलाइन संस्करण में लिखा कि: “…इस बीच अहमदाबाद अग्निशमन दल (फ़ायर ब्रिगेड) के टैंकर जो घटनास्थल पर (चमनपुरा) तत्काल दौड़ते पहुँचे, को संतप्त लोगों के समूह ने पीछे भेजा—अहमदाबाद फ़ायर ब्रिगेड और ज़िला पुलिस को संतप्त समूह ने रोक लिया तथा सहायता के लिए अंदर जाने नहीं दिया… कांग्रेस पार्टी के सूत्रों के अनुसार भूतपूर्व सांसद (एहसान जाफ़री) ने अधिकृत सहायता के लिए १२:३० बजे तक राह देखी और सहायता न मिलने पर स्वसंरक्षण के लिए लोगों पर गोली चलाई जिसमें ४ लोग ज़ख़्मी हुए (एस.आई.टी. की रिपोर्ट के अनुसार अंत में इस गोलीबारी में १ व्यक्ति की मृत्यु हुई और १५ लोग ज़ख़्मी हुए)। इसके बाद वहाँ पूरी तरह तबाही का आलम था… महापौर हिम्मतसिंह पटेल ने लोगों से शांति बनाए रखने की अपील की… परिस्थिति सुलगती रही और कम-से-कम रात को ८ बजे तक भयानक स्थिति यूँ ही बनी रही—इस समय तक संतप्त समूह ने पुलिस को कॉलोनी में घुसने नहीं दिया था”। (संदर्भ : https://timesofindia.indiatimes.com/india/Over-25-burnt- alive-in-ahmedabad/articleshow/2390347.cms?referral=PM) ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ का २८ फरवरी २००२ को दोपहर २:३४ बजे अपने ऑनलाइन संस्करण में प्रकाशित समाचार इसप्रकार था– “अहमदाबाद: मेघनीनगर परिसर में (चमनपुरा, एहसान जाफ़री मामला) गुरुवार (२८ फरवरी) को दोपहर में संतप्त समूह को तितर-बितर करने के लिए पुलिस द्वारा की गई गोलीबारी में कम-से-कम छह लोग घायल हो गए। घायलों को सिविल अस्पताल में दाख़िल किया गया है, इनमें से कम- से-कम तीन व्यक्तियों की हालत गंभीर है… यह घटना मेघनीनगर पुलिस स्टेशन के अंदर के चमनपुरा क्षेत्र में हुई। इस दौरान कालूपुर क्षेत्र में छुरा घोंपने से एक व्यक्ति की मृत्यु हो गई, जो क्षेत्र निषेधाज्ञा (कर्फ़्यू) में है। छुरा घोंपने की घटना घड़ियाली-ना-खंचो क्षेत्र में हुई। इस घटना के साथ ही गोधरा के बाद में हुई घटनाओं में मृतकों की संख्या पूरे राज्य में ८ हो गई। इसमें से अहमदाबाद में छुरा घोंपने से ४ लोगों की मृत्यु हुई। और अधिक हिंसाचार की ख़बरें आने के कारण मृतकों की संख्या में बढ़ोतरी होने की आशंका है।” (संदर्भ: https://timesofindia.indiatimes.com/india/Police-open-fire-in-Ahmedabad-6- hurt/articleshow/2360713.cms) इसका मतलब दोपहर २:३४ से बहुत पहले पुलिस ने जाफ़री के घर के बाहर एकत्रित समूह पर गोलियाँ चलाईं, जिसमें कम-से-कम छह लोग घायल हुए, और वास्तव में ५ लोगों की मृत्यु हो गई (समाचार मिलाना, रिपोर्ट को तैयार करना, उसे सम्पादित करना, प्रूफ रीडिंग, पोस्ट करना इत्यादि को लगने वाले समय को देखते हुए यह कार्य २:३४ बजे से काफ़ी पहले ही हुआ होगा)। ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ के इसी समाचार के अनुसार स्थिति इतनी गंभीर, आशाहीन थी कि, संतप्त लोगों के समूह ने फ़ायर ब्रिगेड और पुलिस को सोसायटी में घुसने नहीं दिया, इसके बावजूद यह हुआ। यद्यपि सोसायटी में संतप्त लोगों के समूह पर नियंत्रण पाने के लिए पुलिस को रात ८ बजे के बाद ही सफलता मिली, परंतु पुलिस ने दोपहर २ बजे के पहले ही फ़ायरिंग की थी, और इस घटना में १८० मुस्लिमों को बचाया। अहमदाबाद के कालूपुर क्षेत्र में दोपहर २:३४ से पहले ही निषेधाज्ञा लागू हो गई थी। ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ के उस दिन के ऑनलाइन समाचारों को पढ़कर यह पता चलता है कि जहाँ भी हिंसा हुई, वो सब क्षेत्र कर्फ़्यू में थे, जो कि वहाँ पर हिंसाचार होने पर तत्काल लागू किया गया होगा और अनेक क्षेत्रो में यह पहले से ही लागू था। ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ के २८ फरवरी सुबह ११:३१ को ऑनलाइन प्रकाशित एक समाचार का शीर्षक था—‘विहिंप के बंद में हिंसक मोड़, ८ व्यक्ति मारे गए’, और इस समाचार में अनेक स्थानों पर निषेधाज्ञा लागू होने की जानकारी भी दी गई थी। और २८ फरवरी को प्रकाशित ‘अहमदाबाद-वडोदरा में अनिश्चितकाल के लिए निषेधाज्ञा लागू’ इस शीर्षक के समाचार में उसने कहा: “गांधीनगर: शहर में अभूतपूर्व हिंसाचार तथा आगजनी की घटनाओं के कारण पुराने अहमदाबाद के अनेक क्षेत्रों में गुरुवार (२८ फरवरी) को दोपहर में निषेधाज्ञा लागू कर दी गई। अहमदाबाद के ग्रामीण भागों में हिंसाचार और लूटमार की घटनाओं की संभावनाओं को देखते हुए अहमदाबाद के ज़िलाधिकारी (डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर) ने अतिरिक्त पुलिस बल के लिए अनुरोध किया है। अहमदाबाद शहर में ८० से अधिक स्थानों पर आगजनी की घटनाओं का समाचार है। सरकारी सूत्रों के अनुसार निषेधाज्ञा लागू करने के लिए पुलिस बल अपर्याप्त होने कारण अहमदाबाद के ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति और अधिक ख़राब हो सकती है। (अहमदाबाद के) पुलिस आयुक्त पी.सी. पांडे ने दोपहर १२:३० बजे बताया कि शाहपुर, दरियापुर, करंज, कालूपुर, बापूनगर, गोमतीपुर और रखियाल पुलिस थाना परिसर तथा सारसपुर और इसानपुर पुलिस चौकी परिसर में निषेधाज्ञा लगा दी गई है। सी.जी. रोड पर विशिष्ट समुदाय की दुकानों को जलाने वाले संतप्त लोगों के समूह को तितर- बितर करने के लिए पुलिस ने आँसू गैस छोड़ी। गुरुवार (२८ फरवरी) को सुबह हुई आगजनी की घटनाओं के कारण भरूच और अंकलेश्वर नगरों में भी निषेधाज्ञा लागू कर दी गई है। वडोदरा शहर में छुरा घोंपने से २ व्यक्तियों की मृत्यु होने के कारण पहले ही निषेधाज्ञा लगा दी गई है। वडोदरा में निषेधाज्ञा: एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के बताया कि बुधवार रात को (२७ फरवरी) महामार्ग पर और सलतवाड़ा क्षेत्र में छुरा घोंप कर मारने की २ घटनाएँ होने के बाद वडोदरा शहर में गुरुवार (२८ फरवरी) को प्रातः ८ बजे से अनिश्चितकाल के लिए निषेधाज्ञा लागू कर दी गई है। पुलिस आयुक्त दीनदयाल टूटेजा ने बताया, कि तटबंदी क्षेत्र (walled city) में सभी छह पुलिस थाना-क्षेत्र में निषेधाज्ञा लागू करने के साथ-साथ संवेदनशील क्षेत्र में शीघ्र कृति दल यानी आर.ए.एफ़. (Rapid Action Force) और केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (CISF) की कंपनियाँ तैनात की गई हैं। पंचमहल ज़िले के लुनावड़ा शहर में आगजनी और लूटमाट की घटनाओं के बाद वहाँ पर भी बुधवार २७ फरवरी की रात्रि (यानी २८ फरवरी की सुबह) २ बजे से अनिश्चितकाल के लिए निषेधाज्ञा लागू कर दी गई है।” (संदर्भ: https://timesofindia.indiatimes.com//india/Indefinite-curfew-in-Ahmedabad- Vadodara/articleshow/2340805.cms) निष्क्रियता का कोई आरोप नहीं था। ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ के १ मार्च के ऑनलाइन संस्करण में एक ख़बर का शीर्षक था– ‘गुजरात हिंसाचार से उद्योगों को झटका’, जिसमें कहा गया कि हलोल शहर में लोगों के समूह पुलिस बल की तुलना में बहुत अधिक होने के कारण (‘police were totally outnumbered’) पुलिस समूहों पर नियंत्रण रखने में कामयाब नहीं हो सकी। इस रिपोर्ट ने कहा कि यही स्थिति शापार, वेरावल और लाटीप्लॉट जैसे अन्य औद्योगिक शहरों में भी थी। (संदर्भ: https://timesofindia.indiatimes.com/india/Gujarat-violence-hits- industries/articleshow/2483562.cms) ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने १ मार्च के ऑनलाइन संस्करण में लिखा कि कार में घूमने वाले धनवान लोग भी लुटेरे बन गए थे, जैसे ‘इंडिया टुडे’ ने (१८ मार्च २००२ के अंक में) भी कहा था। www.indianembassy.org (यह उस समय अमेरिका स्थित भारतीय दूतावास की अधिकृत वेबसाइट थी) इस वेबसाइट पर दी गई जानकारी के अनुसार (और अगले दिन के कुछ अंग्रेज़ी अखबारों के अनुसार भी) गुजरात सरकार ने २८ फरवरी को ही मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान (इन सभी राज्यों में कांग्रेस के मुख्यमंत्री थे) इन पड़ोसी राज्यों से अतिरिक्त पुलिस बल भेजने का अनुरोध किया था। महाराष्ट्र राज्य रिज़र्व पुलिस बल की २ कंपनियाँ आईं (५०० से कम कर्मी), जिन्हें सूरत में तैनात किया गया। मध्य प्रदेश और राजस्थान ने कोई पुलिस बल नहीं भेजा। एस.आई.टी. ने भी अपनी रिपोर्ट में पृष्ठ ४४८ पर यही कहा। बाद में गुजरात ने कांग्रेस-शासित पंजाब से भी अतिरिक्त पुलिस बल की मांग की, जिसे पंजाब ने मना कर दिया, १० मई २००२ को ‘द ट्रिब्यून’ की रिपोर्ट के अनुसार। https://www.tribuneindia.com/2002/20020510/main3.htm एस.आई.टी. ने अपनी अंतिम रिपोर्ट के पृष्ठ २१० पर कहा है कि जाँच से यह पता चलता है कि अहमदाबाद में २८ फरवरी को १५१ मुस्लिम और ३१ हिंदू मारे गए (इसमें लापता लोगों को शामिल नहीं किया लगता है)। पुलिस की गोलीबारी में १७ लोग मारे गए। (यह आँकड़ा केवल अहमदाबाद का है या पूरे राज्य का, इसका स्पष्टीकरण नहीं है, लेकिन इस संबंध में तत्कालीन अहमदाबाद पुलिस कमिश्नर पी.सी.पांडे का बयान कि यह आंकड़ा केवल अहमदाबाद के लिए था, पृष्ठ २१७ पर उद्धृत किया गया है)। इनमें से ११ हिंदू और ६ मुस्लिम थे। २८ फरवरी को ३१ हिंदू मारे गए (अगर ११ पुलिस गोलीबारी में समझा गया, तो २० दंगों में)। इससे स्पष्ट है कि कुछ हिंदुओं पर भी हमले हुए। जैसे हम ‘हिंदुओं पर हमले’ इस अध्याय देखेंगे, २८ फरवरी को अहमदाबाद के कम-से-कम बापूनगर और जमालपुर क्षेत्र में हिंदुओं पर हमले हुए। इसीलिए पुलिस गोलीबारी में ६ मुस्लिम भी मारे गए। इसके अलावा पुलिस जब गोली चलाती है तब उन्हें कई बार दंगाइयों के मज़हब का पता नहीं रहता। तो, इसप्रकार, २८ फरवरी को लिए गए क़दम संक्षेप में थे: 1) अहमदाबाद में दंगों की शुरूआत सुबह ११ बजे हुई। मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने दोपहर १२ बजे अर्थात् मात्र एक घंटे के अंदर केंद्र सरकार से संपर्क करके सेना भेजने का अनौपचारिक अनुरोध किया। अहमदाबाद के सभी भागों में दोपहर १२ बजकर २० मिनट तक निषेधाज्ञा लागू कर दी गई। कई स्थानों पर इससे पहले ही इसे लागू कर दिया गया। 2) ‘द हिंदू’ के समाचार के अनुसार नरेंद्र मोदी ने तत्काल (“frantically”) सेना को बुलाया। 3) नरेंद्र मोदी ने केंद्रीय रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नांडिस से गुजरात आने का अनुरोध किया। 4) गुजरात के २६ शहरों व क़स्बों में निषेधाज्ञा लागू कर दी गई। 5) एहसान जाफ़री के निवास-स्थान (सोसायटी) से १८० मुस्लिमों को बचाने में पुलिस सफल रही, और ५ दंगाईयों को मारा। एस.आई.टी. के अनुसार पुलिस ने जाफ़री के घर के बाहर १२४ राउंड फ़ायरिंग की जिसमें ४ दंगाई मारे गए और इस फ़ायरिंग में ११ दंगाई घायल हुए, और पुलिस ने यहाँ पर १३४ आँसू गैस के गोले छोड़े और लोगों के समूह पर लाठी चार्ज किया। 6) सम्पूर्ण राज्य में पुलिस ने उस दिन १४९६ राउंड गोलीबारी की जिसमें से कम-से-कम ६०० राउंड गोलीबारी केवल अहमदाबाद में ही की गई। 7) पुलिस ने गोलीबारी में ११ हिंदुओं को मारा और १६ घायल हुए। कम-से-कम २ व्यक्ति अहमदाबाद से बाहर नडियाद तथा गोधरा में मारे गए। पुलिस गोलीबारी में कम-से-कम १७ लोग मारे गए। 8) दोपहर को ४ बजे एक पत्रकार परिषद में सेना को बुलाने के निर्णय की घोषणा की गई। सेना को तैनात करने के लिए आवश्यक प्रक्रिया तत्काल पूरी की गई। शाम को ६:४५ बजे केंद्र सरकार की सुरक्षा विषयक समिति (Cabinet Committee on Security) की बैठक प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की अध्यक्षता में हुई, जिसमें सेना को तत्काल भेजने का निर्णय लिया गया। 9) सेना की कंपनियाँ अहमदाबाद में २८ फरवरी की रात इतनी शीघ्रता से पहुँचीं कि ‘द हिंदू’, ‘द इंडियन एक्स्प्रेस’ जैसे दैनिकों को गुरुवार, २८ फरवरी को यह रिपोर्ट करने का समय मिला और यह समाचार शुक्रवार, १ मार्च २००२ के उनके अंकों में प्रकाशित हुआ! 10) रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नांडिस इतनी शीघ्रता से देर रात को अहमदाबाद आए कि ‘द इंडियन एक्स्प्रेस’ जैसे दैनिकों ने अगले दिन उनके आने का यह समाचार दिया! 11) नरोड़ा पाटिया में लोगों के समूहों को तितर-बितर करने के बाद पुलिस ने ४०० मुस्लिमों को सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया। ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ के समाचार के अनुसार समूहों ने हमला किए नरोड़ा पाटिया क्षेत्र में १ हज़ार मुस्लिमों की बस्ती थी, उसमें से ९५ लोग हिंसाचार में मारे गए। इसका मतलब शेष ९०० मुस्लिमों को बचा लिया गया। 12) गुजरात सरकार ने पड़ोसी राज्य महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्यप्रदेश से सहायता के लिए अधिक पुलिस बल भेजने का अनुरोध किया। 13) हिंसाचार की स्थिति नियंत्रण से बाहर होने के बावजूद पुलिस ने पहले ही दिन पूरे राज्य से ७०० लोगों को गिरफ़्तार किया, इनमें से ८० लोग गोधरा से थे। अधिकृत आँकड़ों के अनुसार पुलिस ने २८ फरवरी को पूरे राज्य में ४२९७ आँसू गैस के गोले फोड़े (tear gas shells burst)। १ मार्च (शुक्रवार) को अगले दिन अर्थात १ मार्च २००२ को प्रातः ११.३० बजे अहमदाबाद में सेना ने ध्वज-संचलन (Flag march) किया। ‘द हिंदू’ ने २ मार्च के अंक में लिखा— “(१ मार्च को) सेना ने अहमदाबाद, वडोदरा, राजकोट, गोधरा शहरों के सर्वाधिक दंगाग्रस्त क्षेत्र में ध्वज- संचलन प्रारम्भ कर दिया और ‘देखते ही गोली मारने’ के आदेश गुजरात में निषेधाज्ञा लागू किए गए सभी ३४ शहरों तथा क़स्बों में जारी कर दिए गए हैं”। इस समाचार का शीर्षक ही था ‘गुजरात के अनेक शहरों में गोली मारने के आदेश, मृतकों की संख्या २०० से अधिक’। ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ के अनुसार इस दिन (१ मार्च को) सेना भी दंगे नहीं रोक सकी, न ही गुजरात पुलिस को ‘देखते ही गोली मारने’ के आदेश। ‘द टेलिग्राफ़’ (कोलकाता) ने भी कहा कि सेना भी दंगे नहीं रोक सकी। २ मार्च २००२ के ‘द टेलिग्राफ़’ ने अपनी रिपोर्ट में कहा: “(१ मार्च को) राज्य में सेना के होते हुए भी—अहमदाबाद, सूरत, वडोदरा, राजकोट शहरों में कोई ३५०० सैनिक पहुँच चुके हैं—दंगे रुके नहीं हैं”। इस दिन के बाद किसी भी समाचार-पत्र ने ‘पुलिस दंगों को अनदेखा कर रहीं हैं’ ऐसा आरोप नहीं लगाया। ‘इंडियन एक्स्प्रेस’ ने २ मार्च के अंक में कहा कि “(१ मार्च को) अपनी विश्वसनीयता सबसे कम स्तर पर पहुँचने के बाद पुनः प्रतिष्ठा प्राप्त करने का प्रयास पुलिस ने किया, कुछ स्थानों पर हो रहे कुछ संघर्षों में हस्तक्षेप करके गोली चलाकर। पुलिस गोलीबारी में राज्य में कुल २० लोग मारे गए, १२ लोग अहमदाबाद में”। इस बहुत महत्त्वपूर्ण वाक्य से दो बातें समझती हैं। पहली, पुलिस हिंसाचार रोकने का पुरज़ोर प्रयास कर रही थी और दंगे के दूसरे दिन से ‘इंडियन एक्स्प्रेस’ समेत कोई भी पुलिस पर अनदेखी का आरोप नहीं लगा सका। और दूसरी, कि हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच ‘संघर्ष’ चल रहे थे, मुस्लिमों का ‘इकतरफ़ा नरसंहार’ नहीं हो रहा था। दंगों में मुस्लिम भी आक्रमक थे, इसका सीधा सबूत संघ-भाजपा के कट्टर विरोधी समाचार-पत्र ‘द हिंदू’ के २ मार्च २००२ के अंक कि रिपोर्ट से मिलता है। यह कहता है: “गुरुवार (२८ फरवरी) को एक समाज पूरी तरह हमला झेल रहा था, परंतु आज (शुक्रवार, १ मार्च) इसके विपरीत, अल्पसंख्यक समुदाय ने प्रतिकार करने के कारण परिस्थिति और ज़्यादा बिगड़ गई है। बापूनगर, गोमतीपुर, दरियापुर, शाहपुर, नरोड़ा (अधिक मुस्लिम जनसंख्या वाले क्षेत्र) भागों में एक-दूसरे पर पत्थरबाज़ी करने वाले दोनों समाज पर पुलिस की मौजूदगी का कोई प्रभाव नहीं हुआ।… दोनों समाजों के बीच संघर्ष देर शाम तक चलता रहा। अधिकृत सूत्रों ने बताया कि पुलिस समय पर पहुँचने के कारण तटबंदी क्षेत्र के जमालपुर के एक प्रसिद्ध मंदिर पर प्रतिशोधात्मक हमले के प्रयत्न को रोका जा सका।” (संदर्भ: https://www.thehindu.com/todays-paper/shoot-orders-in-many-gujarat-towns-toll-over- 200/article26834088.ece ) ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ ने भी २ मार्च २००२ के अंक में कहा: “(१ मार्च को) शुक्रवार की प्रार्थना से तुरंत पहले अहमदाबाद के तटबंदी क्षेत्र (Walled city) में तनाव बढ़ा। जमालपुर, बापूनगर, रखियाल (अहमदाबाद के अधिक मुस्लिम जनसंख्या वाले क्षेत्र) भागों में दो गुटों में हिंसक संघर्ष हुए”। स्पष्ट है कि मुस्लिम आक्रामक थे। ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने उसी दिन दिए गए समाचार में कहा—“(१ मार्च को) जुहापुरा, कालुपूर, दरियापुर, शाहपुर (अधिक मुस्लिम जनसंख्या वाले क्षेत्र) जैसे भागों में प्रतिरोध के चिन्ह दिखे”। इससे सारी संभव शंकाएँ दूर हो जाएँगी। ‘द इंडियन एक्स्प्रेस’ ने यह समाचार दिया कि जॉर्ज फर्नांडिस ने अहमदाबाद में नागरिकों से शांति की अपील की और वे बाद में वडोदरा के लिए रवाना हो गए, परंतु यह नहीं कहा कि फर्नांडिस स्वयं की जान जोखिम में डालकर दंगों को रोकने के लिए वीरता से सड़क पर उतरे थे (कम-से-कम उस रिपोर्ट में तो नहीं)! ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने २ मार्च २००२ के ऑनलाइन संस्करण में इसका उल्लेख किया और फर्नांडिस की तारीफ़ भी की, और ‘इंडिया टुडे’ (१८ मार्च २००२) ने भी इसका उल्लेख किया। ‘द हिंदू’ ने २ मार्च २००२ के समाचार में लिखा कि दंगों के पहले दो दिनों में अकेले अहमदाबाद में पुलिस गोलीबारी में कम-से-कम १७ लोग मारे गए। दूसरे दिन अर्थात् १ मार्च को २४ अतिरिक्त हिंदू पुलिस गोलीबारी में मारे गए और ४० घायल हुए। यह अधिकृत आँकड़ें हैं। ‘इंडियन एक्स्प्रेस’ की रिपोर्ट के अनुसार १ मार्च को पुलिस गोलीबारी में २० लोग मारे गए। ‘इंडियन एक्स्प्रेस’ ने यह समाचार छापने के बाद घायलों में से कुछ लोगों की मृत्यु होने के कारण अंत में मृतकों की संख्या २० से अधिक हुई होगी, ऐसी संभावना है। कुछ लोग कहते हैं कि पूर्वाग्रह होने के कारण ‘इंडियन एक्स्प्रेस’ ने मृतकों की संख्या का उल्लेख जान-बूझकर कम किया हो, परंतु इस लेखक को इस मामले में यह संभावना कम लगती है। पूरे राज्य में हुई पुलिस गोलीबारी में उस दिन २७ मुस्लिम भी मारे गए। चूँकि इस दिन मुस्लिमों का प्रतिकार हुआ (‘द हिंदू’ के बताए अनुसार), और देखते ही गोली मारने के आदेश लागू थे, स्वाभाविक है कि पुलिस गोलीबारी में मुस्लिम भी मारे गए हों। एस.आई.टी. ने अपनी अंतिम रिपोर्ट में (पृष्ठ २१७ पर) अहमदाबाद के पुलिस आयुक्त पी.सी. पांडे के बयान का उल्लेख किया है, जिसमें उन्होंने कहा कि दंगाइयों पर गोली चलाते समय पुलिस को उनके मज़हब का पता नहीं हो सकता। १ मार्च को उत्तर गुजरात के संजेली नगर में ८ हज़ार सशस्त्र आदिवासी हमलावरों से पुलिस ने २५०० मुस्लिमों को मौत से बचाया। इस घटना का उल्लेख ‘इंडिया टुडे’ (२२ अप्रैल २००२) ने किया। www.indianembassy.org वेबसाइट के अनुसार: “सेना की अगली टुकड़ी १ मार्च २००२ को ही राजकोट और वडोदरा में तैनात कर दी गई थी। गोधरा के लिए रवाना की गई सेना की ३ कंपनियाँ भी २ मार्च को प्रातः गोधरा, लुनावड़ा और हलोल में पहुँच गई थी। उसके बाद भावनगर और सूरत में आवश्यकता के अनुसार सेना भेजी गई”। (संदर्भ: https://web.archive.org/web/20100306135245/http://www.indianembassy.org/new/Gujarat_02/i ndex.htm ) १ मार्च २००२ (शुक्रवार) को उठाए गए क़दम संक्षेप में थे— 1) अपनी जान जोखिम में डालकर जॉर्ज फर्नांडिस १ मार्च की सुबह दंगे रोकने के लिए अहमदाबाद में सड़कों पर उतरे। उन पर पत्थर फैकें गए। बाद में वे वडोदरा के लिए रवाना हुए। 2) अधिकृत आँकड़ों के अनुसार पुलिस गोलीबारी में २४ हिंदू मारे गए और ४० घायल हुए, और पुलिस गोलीबारी में २७ मुस्लिम भी मारे गए। 3) अहमदाबाद, वडोदरा, गोधरा और राजकोट के सर्वाधिक दंगाग्रस्त क्षेत्रों में सेना ने ध्वज- संचलन किया। 4) राज्य में निषेधाज्ञा लागू किए गए सभी ३४ शहरों और क़स्बों में ‘देखते ही गोली मारने’ के आदेश जारी किए गए। 5) संजेली नगर में पुलिस ने २५०० मुस्लिमों को बचाया। 6) अधिकृत आँकड़ों के अनुसार इस दिन आँसू गैस के १९६९ गोले छोड़े गए, साथ ही २१६७ राउंड गोलियों की फ़ायरिंग की गई। 7) ५६८ अधिक व्यक्तियों की प्रतिबंधात्मक गिरफ़्तारियां हुई (४४३ हिंदू और १२५ मुस्लिम), और विभिन्न अपराधों के लिए ६९५ लोगों को गिरफ़्तार किया गया। (अधिकृत आँकडें) २ मार्च (शनिवार) को शनिवार, २ मार्च २००२ को भी मुस्लिम आक्रामक थे। इस दिन गुजरात के अन्य क्षेत्रों में हिंसाचार हुआ, जबकि अहमदाबाद लगभग पूरी तरह शांत था। जैसे हमने पहले देखा, ‘द ट्रिब्यून’ ने ३ मार्च २००२ के अंक में लिखा- “(२ मार्च को) गोधरा हत्याकांड के बाद भड़के सांप्रदायिक दंगों में सबसे बुरा प्रभावित हुआ अहमदाबाद शहर लगभग फिर से सामान्य बन गया था…”। इससे स्पष्ट है कि मज़हबी (धार्मिक) तनाव और संघर्ष की दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील राज्य में गुजरात सरकार ने गोधरा के बाद भड़के दंगों पर केवल तीन दिनों में ही नियंत्रण पा लिया, जबकि अहमदाबाद जैसे सांप्रदायिक दृष्टि से अतिसंवेदनशील शहर में दंगों को केवल दो दिनों में ही नियंत्रण में कर लिया! ‘द हिंदू’ और ‘द टेलिग्राफ़’ के दिनांक ३ मार्च २००२ के समाचारों से भी स्पष्ट होता है कि अहमदाबाद शहर २ मार्च को ही फिर से लगभग सामान्य स्थिति में आ गया था। ‘द हिंदू’ ने लिखा—“(२ मार्च को) आगजनी की कोई भी बड़ी घटना नहीं हुई, अहमदाबाद की स्थिति में सुधार हुआ” और ‘द टेलिग्राफ़’ ने कहा- “दंगे अहमदाबाद शहर से बाहर चले गए”। ‘द हिंदू’ की ३ मार्च २००२ की रिपोर्ट के अनुसार दंगों के दूसरे दिन की रात से से लेकर तीसरे दिन अर्थात २ मार्च तक पुलिस गोलीबारी में पूरे राज्य में ४७ लोगों की मृत्यु हुई, जिसमें से १९ अहमदाबाद शहर में थे। इस रिपोर्ट में ‘हिंदू’ ने कहा: “परिस्थिति सुधरने का दावा करते हुए भी मोदी ने कहा कि कल (शुक्रवार, १ मार्च) रात से पुलिस ने राज्य में कम-से-कम १०३१ राउंड फ़ायरिंग की, और हिंसक समूहों को तितर-बितर करने के लिए १६१४ आँसू गैस के गोले छोड़े। इस दौरान पुलिस गोलीबारी में अहमदाबाद में १९ लोग और गोधरा में ८ लोग, वडोदरा में ६, आणंद में ५, मेहसाणा और गांधीनगर में प्रत्येक ३, कैरा में २, और भावनगर में १ व्यक्ति की मृत्यु हुई।” लिंक: https://www.thehindu.com/todays-paper/86-killed-in- fresh-incidents-in-gujarat/article27834261.ece उसी दिन, अर्थात् ३ मार्च २००२ को ‘द इंडियन एक्स्प्रेस’ ने लिखा—“(२ मार्च तक) पुलिस को और अतिरिक्त शव मिलने के कारण दंगों में मृतकों की संख्या ४५० से अधिक हो गई और ७७ अधिक व्यक्ति पुलिस या सेना की गोलीबारी में मारे गए।” इस प्रकार २ मार्च २००२ को उठाए गए क़दम संक्षेप में थे: 1) पुलिस ने आँसू गैस के १६१४ से अधिक गोले छोड़े और १०३१ से अधिक राउंड गोलीबारी की। इनसे अधिक, क्योंकि यह आँकड़े मोदी के शाम की पत्रकार परिषद में दिए गए थे जिसके बाद और फ़ायरिंग हुई। 2) गुजरात में पुलिस गोलीबारी में १ मार्च की रात से ४७ लोग मारे गए, जिनमें से अहमदाबाद में १९, गोधरा में ८, वडोदरा में ६, आणंद में ५, मेहसाना व गांधीनगर में प्रत्येक ३, कैरा में २, और भावनगर में १ थे [इनमें से कुछ १ मार्च की रात को मारे जा सके होंगे]। 3) गुजरात में ४० स्थानों पर निषेधाज्ञा लागू थी। 4) सूरत में सीमा सुरक्षा बल (BSF) की टुकड़ियाँ रवाना की गईं। 5) दाहोड में पुलिस ने दो हज़ार मुस्लिमों को बचाया। 6) ५७३ प्रतिबंधात्मक गिरफ़्तारियां की गई (४७७ हिंदू, ९६ मुस्लिम) और विविध अपराध में ७११ लोगों को गिरफ़्तार किया गया (४८२ हिंदू, २२९ मुस्लिम)। (अधिकृत आँकड़े) ‘इंडिया टुडे’ के १८ मार्च २००२ के अंक में ‘क्रोनोलॉजी ऑफ़ ए क्राइसिस’ नाम के लेख से मोदी ने हिंसाचार नियंत्रण के लिए किए प्रयास स्पष्ट दिखाई देते हैं। वह लेख इस प्रकार है: “२७ फरवरी २००२ प्रातः ८:०३- गोधरा की घटना में ५७ रामसेवकों की मृत्यु। प्रातः ८:३०- मोदी को हत्याकांड की जानकारी दी गई। (यह समय प्रातः ९ बजे भी हो सकता है।) दोपहर ४:३०- गुजरात विधानसभा स्थगित। मोदी गोधरा दौरे पर, जहाँ उन्होंने अधिकारियों के साथ बैठक की, और पुलिस को देखते ही गोली मारने के आदेश दिए। रात १०:३०- गांधीनगर में मुख्यमंत्री की वरिष्ठ अधिकारियों के साथ बैठक। (इस बैठक में केवल क़ानून-व्यवस्था पर विचार विमर्श किया गया।) मुख्यमंत्री ने संवेदनशील स्थानों पर निषेधाज्ञा और प्रतिबंधात्मक गिरफ़्तारियों के आदेश दिए। (इन आदेशों का उक्त बैठक से किसी प्रकार का संबंध नहीं था।) २८ फरवरी २००२ प्रातः ८:००– विहिंप के बंद के दौरान स्थिति पर नज़र रखने के लिए मुख्यमंत्री के निवास- स्थान में विशेष नियंत्रण-कक्ष (कंट्रोल रूम) की स्थापना। दोपहर १२:००– मोदी ने अनौपचारिक रूप से केंद्र सरकार से संपर्क करके सेना भेजने का अनुरोध किया। कैबिनेट सेक्रेटरी टी.आर. प्रसाद ने संरक्षण सेक्रेटरी वाई. नारायण को बताया कि सेना को तैयार रखना है, गुजरात भेजने के लिए। दोपहर १२:३०– सेना स्टाफ़ के उपप्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल एन.सी. विज ने नारायण को सूचित किया कि लगभग पूरी सेना सीमा पर तैनात होने के कारण केवल दो टुकड़ियाँ उपलब्ध हैं। दोपहर १२:३५– प्रसाद ने नारायण को सूचित किया कि सेना स्टाफ़ के प्रमुख जनरल पद्मनाभन को नारायण सलाह दें कि अहमदाबाद की बहुत जल्दी बिगड़ती स्थिति को देखते हुए तत्काल सेना भेजने के लिए पद्मनाभन सैनिकों को तैयार रखें। दोपहर १२:४५– नारायण ने सेना के उपप्रमुख जनरल एन.सी. विज को गुजरात में तत्काल सेना भेजने के लिए कहा। दोपहर ४:००- आडवाणी (तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री) के साथ चर्चा के उपरांत सेना भेजने के लिए मोदी द्वारा औपचारिक अनुरोध। शाम ६:४५- प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में सुरक्षा विषयक कैबिनेट समिति की बैठक (Cabinet Committee on Security)। अहमदाबाद सहित गुजरात के विभिन्न हिस्सों में तत्काल सेना भेजने के लिए स्वीकृति। वाजपेयी (तत्कालीन प्रधानमंत्री) ने जॉर्ज फर्नांडिस (तत्कालीन संरक्षण मंत्री) पर गुजरात में सेना तैनात करने के कार्य पर निगरानी रखने की ज़िम्मेदारी सौंपी। शाम ७:००- सेना भेजने के लिए गुजरात सरकार का औपचारिक अनुरोध दिल्ली पहुँचा। रात ११:३०- हवाई जहाज़ से सेना के सैनिक भेजने की शुरूआत। १ मार्च २००२ प्रातः २:३०– अहमदाबाद में सेना की ब्रिगेड का आगमन। सेना की ५४वीं डिविजन के प्रमुख (जनरल ऑफ़िसर कमांडिंग) का गुजरात के कार्यकारी मुख्य सचिव से संपर्क। प्रातः ९:००- राज्य के प्रतिनिधियों और सेना के प्रतिनिधियों के बीच चर्चा, इसके बाद अहमदाबाद में सेना का ध्वज-संचलन।” (संदर्भ: https://www.indiatoday.in/magazine/cover-story/story/20020318-gujarat-riots-is- narendra-modi-the-villain-who-allowed-mobs-to-seek-revenge-for-godhra-795729-1999-11-30) यहाँ दो बातों का स्पष्टीकरण ज़रूरी है। गोधरा में निषेधाज्ञा २७ फरवरी को नरेंद्र मोदी के दौरे के बाद दोपहर ४:३० बजे नहीं, बल्कि प्रातः ९:४५ बजे ही लागू कर दी गई थी। दूसरी बात, ‘इंडियन एक्स्प्रेस’ ने अगले दिन दिए समाचार से समझता है कि सेना की टुकड़ियाँ अहमदाबाद में देर रात १:३० बजे के पहले ही पहुँच गई थीं, न कि प्रातः २:३० बजे। ‘द हिंदू’ के दिनांक ४ मार्च के अंक में (नीचे दी हुई) प्रकाशित ख़बर से स्पष्ट होता है कि असली दंगे वास्तव में तीन दिनों में ही रुक गए थे: “अहमदाबाद, ३ मार्च– लगता है कि गुजरात में हिंसा का तांडव ख़त्म हो गया है। आज दिनभर में केवल दो लोगों की मृत्यु का समाचार था, जिसमें से एक गोधरा से थी। राज्य में मृतकों का अधिकृत आँकड़ा ४३१ है, इसमें आधे से अधिक मृतक अहमदाबाद से हैं। मुस्लिम स्वामित्व वाले पेट्रोल पंप और गोदाम पर आगजनी के हमले की दो वारदातों को छोड़कर अहमदाबाद में आज शांति थी। हिंसा की घटना वाले सभी ४० शहरों तथा ग्रामीण भागों के अधिकांश हिस्सों से निषेधाज्ञा हटा दी गई है, जिनमें अहमदाबाद के नरोड़ा और मेघनीनगर (गुलबर्ग सोसायटी, एहसान जाफ़री का मामला) का समावेश है, जहाँ सैकड़ों लोग मारे गए थे। राज्य प्रशासन के अनुसार कल और भागों से निषेधाज्ञा हटा ली जाएगी। आज ‘राज्य में स्थिति सामान्य होने की भावना’ थी। परंतु हिंसाचार शुरू होने के ५ दिन के बाद जली हुई इमारतों के शेष, रबर के जलने की तीव्र गंध देखकर यह याद होता है कि अहमदाबाद को ‘सामान्य’ होने में अभी काफ़ी समय लगेगा।…” (संदर्भ: https://www.thehindu.com/todays-paper/ahmedabad-quiet-toll-431/article27834421.ece) यह समाचार स्पष्ट सिद्ध करता है कि दंगों पर ७२ घंटों में ही नियंत्रण पा लिया गया था। ‘द हिंदू’ की दिनांक ६ मार्च २००२ की ख़बर थी: “गुजरात में शांति-यात्रा और प्रार्थना-सभा हमारे विशेष संवाददाता द्वारा अहमदाबाद, ५ मार्च– राज्य की परिस्थिति अब सामान्य हो रही है। राज्य सरकार, स्वयंसेवी संस्थाओं और प्रतिष्ठित नागरिकों ने आज यहाँ शांति-यात्रा का आयोजन किया। इस शांति-यात्रा का आयोजन कोचरब आश्रम से साबरमती आश्रम तक किया गया, जिन दोनों को महात्मा गांधी ने स्थापित किया था। इस यात्रा में सर्वोदय नेताओं सहित गणमान्य नागरिक और अन्य लोग भी शामिल थे; कुल सैकड़ों लोग थे।…महात्मा गांधी के जन्म स्थान पोरबंदर में और सूरत सहित अन्य शहरों, क़स्बों में शांति-यात्राएँ निकाली गईं तथा प्रार्थना-सभाएँ भी हुईं। राज्य सरकार की बस सेवा आंशिक रूप से शुरू हो गई है। अहमदाबाद महापालिका कि बस सेवा शहर के कम-से-कम कुछ भागों में कल से प्रारम्भ होना अपेक्षित है।… राज्य के कई भागों में आज से स्कूल पुनः शुरू हो गए हैं। शिक्षामंत्री आनंदीबेन पटेल ने बताया कि बाक़ी स्कूल भी कल से प्रारंभ हो जाएँगे। राज्य के शिक्षा बोर्ड की १०वीं और १२वीं की परीक्षाएँ एक हफ़्ते के लिए आगे बढ़ा दी गई हैं और ये परीक्षाएँ १८ मार्च से प्रारंभ होंगी।…” (संदर्भ: https://www.thehindu.com/todays-paper/tp-national/peace-marches-prayer-meetings-held-in- gujarat/article27834665.ece) ‘द हिंदू’ की दिनांक ७ मार्च २००२ की रिपोर्ट से सारी बातें स्पष्ट हो जाती हैं: “गुजरात में स्थिति पूर्ववत हो रही है। विशेष प्रतिनिधि द्वारा अहमदाबाद, ६ मार्च: आज लगातार दूसरे दिन गुजरात के किसी भी हिस्से से किसी भी प्रकार की अनुचित वारदात का समाचार नहीं है। गृहसचिव के. नित्यानंदन् ने बताया कि अधिकांश स्थानों से निषेधाज्ञा वापस ले ली गई है। २७ फरवरी को साबरमती एक्स्प्रेस के अग्निकांड के बाद आज गोधरा में पहली बार ६ घंटों के लिए कर्फ़्यू में ढील दी गई। स्थिति तनाव पूर्ण होने के बाद भी, किसी भी प्रकार की अनुचित घटना नहीं हुई। नरेंद्र मोदी ने गोधरा के बाद हुए दंगों की न्यायालयीन जाँच की घोषणा की।…. ….अल्पसंख्यकों के शरणार्थी-शिविरों का आज मोदी ने दौरा किया और दंगाग्रस्त लोगों के लिए आवश्यक सुविधाएँ प्रदान करने के लिए संबंधित अधिकारियों को निर्देश दिए। हिंसाचार प्रारंभ होने के बाद डॉक्टर पहली बार घायलों की चिकित्सा के लिए इस शिविर में आए। कुल १८ राहत शिविरों में कोई ३० हज़ार लोगों को आश्रय दिया जा रहा है।…” (संदर्भ: https://www.thehindu.com/todays-paper/tp-national/gujarat-limping-back-to- normality/article27834915.ece ) ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने भी १० मार्च २००२ को कुछ इसी प्रकार का समाचार प्रकाशित किया है, जिससे यह सिद्ध होता है कि राज्य में ७२ घंटों के भीतर दंगे रुक गए थे। इसके बाद मुस्लिमों ने प्रतिक्रियात्मक दंगे शुरू किए और दंगों की छोटी-छोटी घटनाएँ (stray riots) होती रहीं। गुजरात पुलिस ने संजेली में एक ही दिन, एक ही जगह पर २५०० मुस्लिमों की जान बचाई, जो कि लगभग दो-ढाई महीने के दंगों में मारे गए कुल मुस्लिमों की संख्या से तिगुनी से अधिक है। यदि एक ही दिन, एक ही स्थान पर पुलिस ने २५०० मुस्लिमों को बचाया, तो उसी दिन अन्य जगहों पर अनेक और, और पहले तीन दिनों में कुल मिलाकर बचाए गए मुस्लिमों की संख्या अनेक हज़ारों में होगी। लेकिन मुस्लिमों को बचाने वाली संजेली की एकमात्र घटना अभिलेखित (रिकॉर्ड पर) नहीं है। संजेली की तरह वडोदरा ज़िले में बोडेली गाँव में पुलिस ने ५ हज़ार मुस्लिमों को बचाया, उनपर सात हज़ार लोगों के संतप्त समूह (जो आदिवासी थे) ने हमला किया था। ‘इंडिया टुडे’ के ८ अप्रैल २००२ के अंक में समाचार है—“(अहमदाबाद के निकट वीरमगाम में) हिंदू मतांधों ने एक मुस्लिम महिला को ज़िंदा जलाने के बाद ७० हज़ार जनसंख्या वाले वीरमगाम के अल्पसंख्यकों ने भीषण हिंसाचार शुरू कर दिया, और ये अल्पसंख्यक वीरमगाम के क़रीब ३० प्रतिशत हैं। इसके बाद आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों से १५ हज़ार से अधिक हिंदुओं ने वीरमगाम को चारों ओर से घेर लिया और मुस्लिम बस्तियों को निशाना बनाया। उस दिन मुस्लिम बस्तियों को बचाने के लिए पुलिस और सेना को बड़ी कठोरतापूर्वक स्थिति को सँभालना पड़ा। पुलिस और सेना के उत्तम कार्य से ही उनको बचाया जा सका।” लिंक: https://www.indiatoday.in/magazine/states/story/20020408-despite-gujarat-riot-taint-cm-narendra-modi- likely-to-lead-bjp-in-next-assembly-polls-795461-2002-04-08 ‘इंडिया टुडे’ ने अपने २२ अप्रैल २००२ के अंक के समाचार में बताया: “…संजेली का उदाहरण लेते हैं, काफ़ी बड़ी जनजातीय जनसंख्या वाले दाहोड ज़िले के इस ८ हज़ार जनसंख्या वाले गाँव में ८ हज़ार सशस्त्र जनजाति-समूह ने हमला बोल दिया। २७ फरवरी के हत्याकांड के तुरंत बाद यह घटना हुई (१ मार्च २००२ को)। जनजाति-समूह के पास तीर-कमान, पत्थर, और बंदूक हथियार थे; वहाँ से भागने वाले मुस्लिमों पर उन शस्त्रों से हमला किया गया। इस हमले में १५ मुस्लिम मारे गए। पुलिस के हस्तक्षेप के कारण अन्य २५०० मुस्लिमों को बचाया जा सका।… …इसी तरह की पागलपन की घटना वडोदरा ज़िले के जनजातीय (आदिवासी) क्षेत्र छोटा उदेपुर के बोड़ेली नगर में हुई। मुस्लिमों की हत्या करने पर तुला लगभग ७ हज़ार सशस्त्र जनजाति (आदिवासी)-समूह बोड़ेली में दाख़िल हुआ। पड़ोसी गाँवों से भगा दिए जाने के कारण इन मुस्लिमों ने इस नगर में शरण ली थी। यहाँ सैकड़ों लोगों को पुलिस ने बचाया, वडोदरा के ज़िलाधिकारी (कलेक्टर) भाग्येश झा और अन्य वरिष्ठ अधिकारियों को जनजातीय-समूहों की गोलीबारी का सामना करना पड़ा, जब उन्होंने फँसे मुस्लिमों को बचाने की कोशिश की। (हमारी टिप्पणी- इस घटना में ५ हज़ार मुस्लिमों को बचाया गया।) अहमदाबाद के पास वीरमगाम में भी इसी तरह की शोकांतिका टालने में पुलिस और सेना को सफलता मिली। यहाँ १५ हज़ार से अधिक सशस्त्र हिंदूओंने (जिनमें से अधिकांश सशस्त्र ओ.बी.सी. ठाकुर थे) मुस्लिमों के २५० घरों को जला दिया।…” (संदर्भ: https://www.indiatoday.in/magazine/states/story/20020422-tribal-inspired-communal- violence-results-in-death-of-150-people-in-gujarat-695575-2002-04-22) इसका मतलब यह है कि वीरमगाम में पुलिस और सेना ने मिलकर हज़ारों मुस्लिमों के प्राणों को बचाया। वीरमगाम में मुस्लिमों की संख्या २१ हज़ार थी (७० हज़ार का ३० प्रतिशत), वहाँ पर यदि पुलिस और सेना समय पर दाख़िल नहीं होती तो कम-से-कम १० हज़ार मुस्लिम मारे गए होते। इस लेखक के पास उपलब्ध रिकॉर्ड्स के अनुसार हम निर्णायक तरीके से कह सकते हैं कि गुजरात पुलिस ने कम-से-कम १७,५०० मुस्लिमों की जान केवल ३ प्रसंगों में बचाई- संजेली (२५००), बोड़ेली (५०००), वीरमगाम (१००००)। अन्य अनेक सूत्रों ने इस लेखक को दी जानकारी के अनुसार पहले तीन दिनों में ही पुलिस ने कम-से-कम २४ हज़ार मुस्लिमों की जान बचाई। गुजरात सरकार ने ‘इंडिया टुडे’ के ६ मई २००२ अंक में दिए एक विज्ञापन में कहा: “१ मार्च को आदिवासी बहुल दाहोड जिले के ८ हजार आबादी वाले गांव संजेली में २ हजार से अधिक लोगों पर हिंसक भीड़ ने हमला कर दिया। लेकिन इस उग्र हमले के बीच पुलिस ने लोगों को संजेली गांव से बाहर निकालने में कामयाबी हासिल की। जिला पुलिस अधीक्षक ए.के. जडेजा को खुदको गंभीर चोंटे आईं लेकिन प्रभावित लोगों को दाहोड शहर की सुरक्षा में ले जाने से पहले उन्होंने अपने रिवॉल्वर का प्रभावी इस्तेमाल किया। इताने ही बहादुर बचाव प्रयास में वडोदरा पुलिस ने बोडेली में करीब ७००० इतनी बड़ी भीड़ को बोडेली पर चल आने से रोककर ५ हजार लोगों की जान बचाई। संजेली के अब्दुल मजीद जो उन २२००-वगैरे लोगों में से था जिनकी पुलिस ने जान बचाई, स्वीकार करता हैं: ‘यदि पुलिस समय पर और साहसिक हस्तक्षेप न करती तो हम सभी उस दुर्भाग्यपूर्ण दिन को समाप्त हो जाते’। ये घटनाएं, जो पहले दिन से ही दंगों से निपटने में गुजरात सरकार की गंभीरता साबित करती हैं, उन कई मामलों में मात्र दो ऐसी घटनाएं है जिसमें पुलिस ने हजारों लोगों को बचाया। फिर भी कुछ विभाजनकारी तत्वों द्वारा गुजरात सरकार के विरुद्ध कलंक अभियान चलाया जा रहा है। यह इस तथ्य से बेहतर साबित होता है कि दंगों के शुरुवाती चरण में गुजरात पुलिस के साहसी बचाव प्रयासों को कहीं ज्यादा उल्लेख नहीं मिला। क्योंकि अगर गुजरात की स्थिति के स्वयंभू न्यायधीशों द्वारा उन्हें ध्यान में लिया गया होता, तो ‘नरेंद्र मोदी हटाओ’ अभियान में गड्ढा पड जाता…”। लिंक: http://www.hvk.org/2002/0502/41.html हालांकि बोडेली में बचाए गए लोगों की संख्या ५००० यह गुजरात सरकार ने ही दी थी, इस घटना की रिपोर्टिंग स्वतंत्र रूप से पहले भी ‘इंडिया टुडे’ द्वारा की गई थी (५००० की संख्या दिए बिना ‘सैकड़ों बचाए गए’ बताते हुए) और एस.आई.टी. ने भी इस घटना का पृष्ठ ३५२ पर उल्लेख किया है। इसीलिए यह बिलकुल सही है की बोडेली में ५००० लोगों की जान बचाई गई, जैसे संजेली में २५०० की। अमेरिका में भारतीय दूतावास की अधिकृत वेबसाइट www.indianembassy.org ने कहा: “पंचमहल ज़िले के मोरा गाँव में संतप्त समूह के एकत्रित होने की सूचना मिलने पर एसडीएम मामलतदार और पुलिस तत्काल वहाँ दाख़िल हुए और उन्होंने लोगों के समूह को तितर-बितर करके इस हमले से ४०० लोगों के प्राण बचाकर उन्हें सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया। वडोदरा ज़िले के वागोड़िया क्षेत्र में असोज गाँव में ३ मार्च २००२ को मदरसे पर हमला किए जाने की संभावना होने की ख़बर मिलने पर पुलिस ने तत्काल कार्यवाही करके मदरसे से २२ बच्चों सहित ४० लोगों को सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया। २-३ मार्च की रात को दाहोड में आसपास के २८ गाँवों से आए हुए संतप्त समूह ने हमले के लिए टूट पड़ने से पहले ही पुलिस ने अल्पसंख्यक समुदाय के दो हज़ार लोगों को सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया। सूरत शहर में नाना वारचा क्षेत्र में एक मस्जिद और ६० लोगों को सुरक्षा प्रदान की गई। एक मस्जिद में कुछ महिलाओं और बच्चों के फँसने की ख़बर मिलने पर सूरत पुलिस ने उन्हें मुक्त कराकर सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया। यतीमख़ाना जैन मंदिर के सामने की रीटा सोसायटी के पास १०० लोगों के फँसने की ख़बर मिलने पर पुलिस वहाँ तत्काल पहुँची और संतप्त समूह को हटाया। परंतु पुलिस को सोसायटी में कोई भी व्यक्ति फँसा हुआ नहीं मिला। खोजा मस्जिद के पास के १२-१५ मुस्लिम घरों को मुस्लिमों के अनुरोध पर पुलिस ने तुरंत सुरक्षा प्रदान की।” (संदर्भ:https://web.archive.org/web/20100306135245/http://www.indianembassy.org/new/Gujarat_02/index.htm ) अन्य अनेक घटनाएँ भी हैं। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं: 1) अहमदाबाद पुलिस ने नूरानी मस्जिद क्षेत्र से ५ हज़ार मुस्लिमों को बचाया। 2) मेहसाना ज़िले के सदरपुरा क्षेत्र में २४० लोगों की रक्षा करके उन्हें सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया गया। 3) गांधीनगर ज़िले में पोरे और नरदीपुर गाँवों में ४५० लोगों को बचाकर अधिक सुरक्षित स्थानों पर पहुँचाया गया। 4) भावनगर के एक मदरसे में ४०० लोगों की जान बचाई गई। [एस.आय.टी. रिपोर्ट, पृ ३०१] 5) वडोदरा ज़िले के फतेहपुरा गाँव में १५०० लोगों को बचाया गया। [एस.आय.टी. रिपोर्ट, पृ ३५२] 6) वडोदरा ज़िले के क्वांत गाँव में ३ हज़ार की लोगों को बचाकर उन्हें सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया गया। अधिकृत रिकॉर्ड व केंद्रीय गृहमंत्रालय ने दिए आँकड़ों के अनुसार, और ‘इंडिया टुडे’ (१८ मार्च २००२) तथा ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ के ७ मार्च २००२ के अंक में प्रकाशित आँकड़ों से यह पता चलता है कि पहले तीन दिनों में पुलिस गोलीबारी में ९८ लोग मारे गए। ‘द इंडियन एक्स्प्रेस’ और ‘द हिंदू’ दैनिकों ने दंगों के उन दिनों को दिए समाचारों को हम पहले देख चुके हैं, जिनसे पता चलता है कि पहले तीन दिनों में पुलिस गोलीबारी में मृतकों का आँकड़ा ९८ होना सच है। भारत के सांप्रदायिक दंगों के इतिहास में इतनी कम अवधि में पुलिस गोलीबारी में मृतकों की संख्या इतनी अधिक कभी नहीं थी, गुजरात में १९६९ और १९८५ के दंगों में भी नहीं। पुलिस गोलीबारी में मारे गए ९८ लोगों में से सबसे अधिक ६० व्यक्ति हिंदू थे। इन ९८ मृतकों में अकेले अहमदाबाद में ४० लोग थे- १७ हिंदू और २३ मुस्लिम। पुलिस गोलीबारी में मुस्लिम भी मारे जाने का कारण यह था कि १ और २ मार्च २००२ को मुस्लिम भी आक्रामक थे। मुस्लिमों ने १ मार्च को प्रतिकार शुरू किया, और देखते-ही-गोली मारने के आदेश शुरू थे, तो स्वाभाविक हैं कि वो भी पुलिस गोलीबारी में मारे जाएंगे। (‘इंडियन एक्स्प्रेस’ जैसे कट्टर आलोचक सहित किसी ने भी यह नहीं कहा कि ‘पुलिस ने मुस्लिमों को बेरहम गोलीबारी में मारा’!) ‘द इंडियन एक्स्प्रेस’ और ‘द हिंदू’ के समाचारों के अनुसार दोनों समुदायों के बीच हो रहे संघर्ष में हस्तक्षेप करके पुलिस ने अपनी सर्वोत्तम कोशिश की, और गोलीबारी की। हिंदू और मुस्लिम समुदाय के बीच ‘संघर्ष’ शुरू होने के कारण पुलिस गोलीबारी में मुस्लिम भी मारे गए। अहमदाबाद शहर के बाहर पुलिस गोलीबारी में मारे ५८ लोगों में ४३ हिंदू थे। ‘अहमदाबाद के बाहर’ क्षेत्र में वडोदरा भी आता है, जहां मुस्लिम लगभग अहमदाबाद जितने ही आक्रामक थे, और फिर भी पुलिस गोलीबारी में मारे गए लोगों में हिंदुओं की मात्रा बहुत अधिक है—५८ में से ४३। वडोदरा के भूतपूर्व (तत्कालीन) पुलिस आयुक्त डी.डी. टुटेजा ने दी जानकारी एस.आई.टी. ने अपनी अंतिम रिपोर्ट में पृष्ठ संख्या ३६४ पर दी है-कि वडोदरा में पुलिस गोलीबारी में ४ हिंदू और ७ मुस्लिम मारे गए—परंतु वडोदरा के ये आँकड़े पूरे ढाई महीने के हैं, केवल पहले तीन दिनों के नहीं। अगर वे पहले ३ दिनों के होते, तो हमें अहमदाबाद और वड़ोदरा के बाहर पहले ३ दिनों में पुलिस गोलीबारी में मारे गए लोगों का आंकड़ा ४७ जिसमें से ३९ हिंदू ऐसा मिलता। दंगे सीमित क्षेत्रों में हुए, पूरे राज्य में नहीं पूरा गुजरात जल रहा था, यह मीडिया के एक गट ने दंगो का रंगाया गलत चित्र है। सीमावर्ती क्षेत्र सौराष्ट्र और कच्छ में दंगे फैले ही नहीं थे। गुजरात विधानसभा में उस समय १८२ मतदान क्षेत्रों में सौराष्ट्र (५२) और कच्छ (६) के मिलाकर ५८ मतदान क्षेत्र थे। अर्थात् यह हिस्सा गुजरात का क़रीब एक तिहाई भाग है। इससे स्पष्ट है कि न तो दंगे भड़काने में सरकार का हाथ था और न ही दंगों को फैलाने में सरकार की कोई रुचि थी। यदि राज्य सरकार को दंगे करवाने होते तो इन दोनों भागों में भी आसानी से दंगे भड़काए जा सकते थे। केशुभाई पटेल के स्थान पर मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी को लाने के कारण पटेल समाज का एक गुट असंतुष्ट और मोदी पर नाराज़ होने की ख़बरें थीं। सौराष्ट्र केशुभाई पटेल की कर्मभूमि (मूल जगह) होने और इस क्षेत्र में पटेल समाज की अधिक संख्या होने के कारण यहाँ दंगे भड़काने से हिंदुओं का ध्रुवीकरण होता और यह भाजपा तथा खासकर मोदी के लिए फ़ायदेमंद होता। परंतु यहाँ शांति रही। हिंदुओं ने एक-तिहाई राज्य में पहले ३ दिनों में भी प्रतिकार नहीं किया। उत्तर और दक्षिण गुजरात में २ मार्च २००२ के बाद शांति स्थापित हुई और केवल मध्य गुजरात के कुछ भागों में दंगे हुए। मूल रूप से २ मार्च २००२ के बाद के दंगे कुल मिलाकर (by and large) अहमदाबाद, वडोदरा और पंचमहल ज़िले में गोधरा के आसपास कुछ जगहों तक ही सीमित थे। गुजरात में ढाई महीनों के दंगों के दौरान सौराष्ट्र और कच्छ पूरी तरह शांत थे, इस बात को सभी टी.वी. चैनलों व लगभग सभी अख़बारों ने कभी-न-कभी माना। परंतु यह स्वीकृति दंगों के दौरान प्रमुखता से नहीं दी बल्कि कई महीने बाद दिसंबर २००२ के गुजरात विधानसभा चुनाव के वार्तांकन के समय अधिक प्रमुखता से दी। ‘स्टार न्यूज़/एन.डी.टी.वी.’ के ‘हॉटलाइन’ कार्यक्रम में ६ दिसंबर २००२ के आसपास नरेंद्र मोदी को आमंत्रित किया गया था। इस कार्यक्रम के सूत्र-संचालक पंकज पचौरी ने मोदी से यह पूछा कि, “आपकी पार्टी को दंगों के कारण हमेशा फ़ायदा होता है, परंतु सौराष्ट्र और कच्छ में दंगे न होने के कारण वहाँ चुनाव में आपकी पराजय होना तय लग रहा है। इस पर आप क्या कहेंगे?” इस पर नरेंद्र मोदी ने कहा: “जब केवल २ प्रतिशत गुजरात जल रहा था, तब आप कह रहे थे कि पूरा गुजरात जल रहा है। अब आप कह रहें हैं कि सौराष्ट्र और कच्छ में दंगे हुए ही नहीं। इसलिए पहले आप माफ़ी माँगो यह झूठ कहने के लिए कि ‘सारा राज्य जल रहा हैं’, जब दो प्रतिशत राज्य जल रहा था।” उस समय गुजरात राज्य में १८,६०० गाँव, २४० नगरपालिका, २५ ज़िला-मुख्यालय थे। इनमें से ज़्यादा से ज़्यादा केवल ९० स्थानों पर दंगे हुए। यदि हम इसमें अहमदाबाद और वडोदरा इन दो बड़े शहरों को शामिल कर लें, तो भी कल्पनाशक्ति सबसे अधिक करने के बाद भी दंगाग्रस्त क्षेत्र २ प्रतिशत से अधिक नहीं होता। इस संबंध में कुछ लोग एक पुलिस अधिकारी आर. श्रीकुमार की अगस्त २००२ की रिपोर्ट का संदर्भ देते हैं और दावा करतें हैं कि १५४ विधानसभा सीटें, १५१ शहर और ९९३ गाँव दंगों से प्रभावित थे। इसका मतलब यह नहीं है कि इन सब स्थानों पर दंगे हुए। अशोक नारायण, उस समय के उप कैबिनेट सचिव (गृह), ने एस.आई.टी. की अंतिम रिपोर्ट में पृष्ठ १५३ पर दी जानकारी के अनुसार बताया कि श्रीकुमार ने यह आंकड़ा लाया दंगाग्रस्त क्षेत्रों के साथ-साथ उन स्थानों को भी गिनकर जहाँ शरणार्थी-शिविर खोले गए थे या दंगाग्रस्तों को अनाज और अन्य सरकारी सहायता भी मुहैया कराई गई थी। अशोक नारायण ने बताया कि वास्तविक हिंसा ग्रस्त क्षेत्र इससे काफ़ी कम थे। स्वाभाविक रूप से प्रत्यक्ष दंगे हुए क्षेत्र और दंगाग्रस्त व्यक्तियों को अनाज-वितरण व अन्य मदद वाले स्थान, इन दोनों के आँकड़ों में काफ़ी अंतर है। इसके अलावा, श्रीकुमार के साथ अनेक मामले हैं, वह एक कट्टर मोदी-विरोधी आदमी हैं, और उनके दावों को एस.आय.टी. ने ‘अविश्वसनीय’ और ‘विशेष उद्देश से प्रेरित’ बताया हैं, अनेक मुद्दों के कारण। संघ परिवार विरोधी और कम्युनिस्ट विचारधारा वाले पाक्षिक ‘फ्रंटलाइन’ ने दिसंबर २००२ के गुजरात विधानसभा चुनाव के बाद अपनी रिपोर्टिंग में कहा कि: “दंगाग्रस्त क्षेत्रों में भाजपा को सबसे अधिक फ़ायदा हुआ। दंगा प्रभावित क्षेत्रों में भाजपा ने ६५ में से ५० सीटों पर विजय हासिल की… जिन स्थानों पर दंगे नहीं हुए वहाँ भाजपा को झटका लगा है। कच्छ क्षेत्र में भाजपा ६ सीटों में से केवल दो सीटों पर ही विजय पा सकी। पिछले चुनाव में भाजपा ने ४ सीटों पर जीत दर्ज की थी। …भीषण जल संकट वाले सौराष्ट्र में, भाजपा की सीटें कम होकर ४८ से ३७ रह गई।” (संदर्भ: https://frontline.thehindu.com/cover-story/article30214974.ece) यदि कट्टर भाजपा-संघ विरोधी पाक्षिक ‘फ्रंटलाइन’ ने ही कुल १८२ सीटों में से दंगाग्रस्त सीटों का आँकड़ा ६५ दिया (इसमें अहमदाबाद और वडोदरा ज़िलों का समावेश है, जहाँ उस समय क्रमशः १९ और १३ विधानसभा सीटें थीं, और इसके सिवाय राजकोट और सूरत इन दो बड़े शहरों का भी इसमें समावेश था) तो ९९३ गाँवों और १५४ विधानसभा सीटों में हिंसाचार होने की किसी भी प्रकार की संभावना ही नहीं है, और वास्तविक हिंसाग्रस्त जगहों का आँकड़ा ९० के ही क़रीब है, क्योंकि अहमदाबाद और वडोदरा इन दोनों ज़िलों में ही विधानसभा सीटों की संख्या ३२ थी। इसी समाचार में ‘फ्रंटलाइन’ ने माना कि सौराष्ट्र और कच्छ दंगों से पूरी तरह अलिप्त रहे। सभी मुख्य अख़बारों ने अगले दिन दिए समाचार के अनुसार दंगों के पहले दिन २६ स्थानों पर कर्फ़्यू लगाने की आवश्यकता पड़ी। दंगों के दूसरे दिन ३४ स्थानों पर कर्फ़्यू लागू किया गया (इसमें पहले से ही कर्फ़्यू लगाए गए २६ स्थानों का समावेश था)। तीसरे दिन कर्फ़्यू लागू किए जाने वाले स्थानों की संख्या बढ़कर ४० हो गई। ‘द हिंदू’ ने ४ मार्च २००२ के अंक में लिखा: “(पहले तीन दिनों में) ४० शहरों और गाँवों में हिंसाचार की घटनाएँ हुईं हैं।” इससे पता चलता है कि पहले केवल तीन दिनों में केवल ४० कस्बों और शहरों में हिंसा हुई। चूंकि पहले तीन दिनों के बाद के दंगे मुख्य रूप से अहमदाबाद, वडोदरा और अन्य कुछ स्थानों तक सीमित थे, यह भी मानते हुए कि पहले तीन दिनों की तुलना में १० स्थान अधिक थे जहां तीन दिनों के बाद हिंसा देखी गई, हिंसा होने वाले स्थानों की कुल संख्या ४० + ५० = ९० होती है। इससे स्पष्ट है कि ९९३ गाँवों में दंगे होने की कोई भी संभावना नहीं है, दंगाग्रस्त गाँवों का आँकड़ा अधिकतम ५० और दंगाग्रस्त विभिन्न स्थानों का अधिकतम आँकड़ा ९० तक ही सीमित रहा, यह बिलकुल सच है। ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने ७ मार्च २००२ के अंक में कहा: “अधिकृत आँकड़ों के अनुसार पुलिस गोलीबारी में ९९ लोग मारे गए। सुरक्षा बलों ने समूहों पर आँसू गैस के ७२७६ गोले छोड़े और ५१७६ राउंड फ़ायरिंग की।” (संदर्भ: https://timesofindia.indiatimes.com/city/ahmedabad/Toll-now-677-due-to-recovery-of-more- bodies/articleshow/3055362.cms) क्योंकि असली दंगे २ मार्च के बाद थम गए थे, अतः ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ के इस समाचार से यह सिद्ध होता है कि पुलिस ने पहले तीन दिनों में ३९०० से अधिक राउंड फ़ायरिंग की और आँसू गैस के ६५०० गोले छोड़े। कम-से-कम २८ फरवरी के बाद के दंगों में दोनों समाज के लोगों का सहभाग था। पहले तीन दिनों के बाद की हिंसा के लिए देखते हैं ‘इंडिया टुडे’ २० मई २००२ के अंक में दी जानकारी: “पहला सप्ताह मार्च ३–९ १७ मृत दूसरा सप्ताह मार्च १०–१६ ३२ मृत तीसरा सप्ताह मार्च १७–२३ ४३ मृत चौथा सप्ताह मार्च २४–३० ५४ मृत पाँचवाँ सप्ताह मार्च ३१ से अप्रैल ६ १४९ मृत छठा सप्ताह अप्रैल ६–१२ ५१ मृत सातवाँ सप्ताह अप्रैल १३–२० ६ मृत आठवाँ सप्ताह अप्रैल २०–२६ १७ मृत नौवाँ सप्ताह अप्रैल २७ से मई ३ ३५ मृत दसवाँ सप्ताह मई ४–१० ३० मृत कुल मृतकों की संख्या (पहले ३ दिन के गिनकर): ९७२” इस आलेख से स्पष्ट है कि बड़े पैमाने पर हुए दंगों के पहले तीन दिनों में ५५० लोग मारे गए। सभी गायब लोग मृत समझ कर कुल मृतक ११६९ हैं, जो की ९७२ से करीब २०० अधिक हैं। यह समझकर कि वो २०० अधिक मौतें पहले ३ दिनों में हुई, पहले ३ दिनों में ७५० मौतें होती हैं, जो देती हैं औसत २५० मौतें प्रतिदिन का। बाद के ७० दिनों में ४०० लोग मारे गए, अर्थात् प्रतिदिन औसतन ६ लोग मारे गए। अतः स्पष्ट है कि कम-से-कम पहले ३ दिनों के बाद दंगे इकतरफ़ा नहीं थे बल्कि हिंदू-मुस्लिमों के बीच व्यापक संघर्ष था। पुलिस रिकॉर्ड्स के अनुसार ३ मार्च २००२ के बाद मुस्लिमों ने १५७ दंगों की शुरूआत की। ११ मई २००२ से २० मई २००२ के दौरान गुजरात में हिंसाचार की घटनाएँ नहीं हुईं, और २१ मई २००२ को अहमदाबाद से सेना की वापसी होने लगी। https://www.rediff.com/news/2002/may/21guj.htm ‘इंडिया टुडे’ के १८ मार्च २००२ अंक में नरेंद्र मोदी का इंटरव्यू प्रकाशित हुआ- “वरिष्ठ संपादक वी. शंकर अय्यर और विशेष प्रतिनिधि उदय माहुरकर के साथ अत्यंत संयमपूर्वक मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने की बातचीत के कुछ अंश- प्रश्न- गुजरात के दंगों में लगभग ६०० लोग मारे गए हैं। क्या सारा प्रशासन-तंत्र ध्वस्त हो गया था? इसके लिए क्या आप ज़िम्मेदार हैं? उत्तर- यह आरोप झूठा और बेबुनियाद है। अधिकृत रिकॉर्ड के अनुसार चलिए। मैं २७ मार्च की शाम को (यह ग़लती है, यह तारीख़ २७ फरवरी होनी चाहिए) गोधरा में था और अहमदाबाद वापिस आने के बाद उसी रात मेरे आदेश पर ८२७ लोगों की प्रतिबंधात्मक गिरफ़्तारी हुई। गोधरा में तत्काल ‘देखते ही गोली मारने’ के आदेश मैंने दिए। २८ फरवरी को प्रातः ११ बजे दंगों की शुरूआत हुई और मैंने दोपहर ४ बजे तक सेना भेजने का अनुरोध किया (औपचारिक रूप से)। मेरे ही अनुरोध पर रक्षामंत्री श्री जॉर्ज फर्नांडिस १ मार्च को सुबह २ बजे से पहले ही अहमदाबाद आ चुके थे। प्रश्न- परंतु सारे उपाय प्रभावहीन साबित हुए। उत्तर- केवल उनके मन में जिन्हें राज्य के दंगों का इतिहास पता नहीं है। वर्ष १९८० के शुरूआत में गोधरा के कुछ भागों में पूरे साल भर कर्फ़्यू लगाया गया था। वर्ष १९८५ में अहमदाबाद के कालूपुर-दरियापुर क्षेत्र में छह महीने तक कर्फ़्यू लागू था। पहले की सरकारों की तुलना में मैंने अत्यंत कम समय में दंगों को नियंत्रित किया। प्रश्न- मुस्लिमों का आरोप है कि २८ फरवरी को—और बाद के दिनों में भी—पुलिस न केवल निष्क्रिय थी बल्कि वह हत्या, आगजनी और लूटमार में शामिल भी थी। उत्तर- मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ। दंगों के पहले ही दिन (२८ फरवरी) को पुलिस ने एक हज़ार राउंड फ़ायरिंग की [सही आँकड़ा है १४९६ राउंड्स, जिनमें से ६००+ केवल अहमदाबाद में थे]। पर आपको एक बात नहीं भूलनी चाहिए की जो कुछ हुआ वह (गोधरा के) क्रूर हत्याओं की प्रतिक्रिया थी। गुरुवार (२८ फरवरी) को एकत्रित संतप्त समूहों की संख्या अभूतपूर्व थी। इस कारण कुछ स्थानों पर संभव है कि पुलिस दबाव में आ गई हो, इसके बावजूद पुलिस ने दंगों को रोकने के लिए अपनी ओर से सर्वोत्तम प्रयास किए। एहसान जाफ़री की हत्या वाले स्थान पर पुलिस गोलीबारी में ५ लोग मारे गए और पुलिस ने यहाँ पर २०० मुस्लिमों की जान बचाई। प्रश्न- दंगों का स्वरूप अत्यंत क्रूरतम होने के पीछे का कारण आपको क्या लगता है? उत्तर- ये केवल सांप्रदायिक दंगे नहीं थे बल्कि यह कुछ एक जन-आंदोलन जैसा था। आतंकवाद, देश-विरोधी कृत्यों के कारण सामान्य लोगों में पहले से ही भयानक गुस्सा था। गोधरा कांड उसका एक प्रतीक था (आतंकवाद और राष्ट्रविरोधी गतिविधियों का)। प्रश्न– क्या आप इस हिंसा की प्रतिक्रिया (मुस्लिम प्रतिक्रिया) की छाया से चिंतित हैं? उत्तर- मुझे लगता है कि वे कुछ करने का प्रयास करेंगे। अतः आने वाले महीनों में गुजरात को अत्यंत सतर्क रहना होगा।…” (संदर्भ: https://www.indiatoday.in/magazine/interview/story/20020318-i-have-controlled-the-riots- faster-than-any-of-my-predecessors-narendra-modi-795709-2002-03-18) ‘आउटलुक’ (१८ मार्च २००२) के अंक में नरेंद्र मोदी का इंटरव्यू प्रकाशित हुआ था, उसके कुछ अंश नीचे दिए गए हैं: “प्रश्न- क्या आप फीडल (वाद्य) बजा रहे थे जब गुजरात जल रहा था? उत्तर- नहीं, अब जो कुछ दिखाने की कोशिश की जा रही है, बिलकुल उसके विपरीत मैंने केवल ७२ घंटों में ही हिंसाचार को नियंत्रित किया और अकलमंदी स्थापित की। पूर्व कांग्रेस सरकारों के कार्यकाल में दंगों को नियंत्रित करने और राज्य में पूर्वस्थिति बहाल होने में महीनों लग जाते थे। यह पहली बार हुआ है कि सांप्रदायिक दंगों को इतने कम समय में नियंत्रित किया जा सका। प्रश्न- आरोप है कि विहिंप और बजरंग दल को आपकी सरकार मदद कर रही थी। इन संगठनों के कार्यकर्ता लगातार ४८ घंटे राज्य में तांडव कर रहे थे और पुलिस केवल दर्शक की भूमिका निभा रही थी और कुछ स्थानों पर तो वे हिंसाचार में शामिल भी हो रहे थे। उत्तर- ऐसा कैसे हो सकता है? आपको इस बात पर ध्यान देना होगा कि इतने बड़े पैमाने पर हिंसाचार के भड़कने पर पुलिस का तनाव बढ़ जाता है। संसाधन भी सीमित होते हैं। पुलिस गोलीबारी में ७० से अधिक लोग मारे गए [वास्तव में ९८ मारे गए], तो राज्य प्रशासन ने किसी समुदाय विशेष का पक्ष लेने का सवाल ही कहाँ उठता है? प्रश्न- क्या आपने सेना को बुलाने में जान-बूझकर विलंब किया ताकि पुलिस अपनी निष्क्रिय भूमिका निभाती रहे? उत्तर- गोधरा हत्याकांड २७ फरवरी को हुआ। अगले ही दिन मैंने घोषित किया कि सेना की मदद ली जा रही है। सेना भेजने के लिए प्रधानमंत्री जी ने २८ फरवरी को ही सुरक्षा विषयक कैबिनेट समिति की बैठक आयोजित की। परंतु यह इतना आसान नहीं था। सीमा पर सेना तैनात होने के कारण अहमदाबाद में सेना नहीं थी। दूसरे ही दिन १ मार्च को ‘देखते ही गोली मारने’ के आदेश जारी किए गए। मैंने श्री जॉर्ज फर्नांडिस से बात की और (दंगे शुरू होने के) मात्र १६ घंटों के अंदर [वास्तव में सिर्फ़ १४ घंटों में] सेना अहमदाबाद में दाख़िल हुई। तो सेना को विलंब से बुलाने का प्रश्न कहाँ उठता है? प्रश्न- आपकी सरकार के साथ विहिंप और बजरंग दल के क्या निश्चित संबंध हैं? उत्तर- राज्य में भाजपा को बढ़ाने के लिए मैंने कठोर मेहनत की है। तो क्या पार्टी के विजय की संभावनाएँ बढ़ाने के आरोप मुझ पर लगाए जा सकते हैं?… …प्रश्न- पिछले कुछ दिनों में इसका सबूत नहीं मिला की आप वास्तविक रूप से निष्पक्ष हैं? उत्तर- लोकतंत्र में कोई भी कुछ भी कह सकता है। इस बात को ध्यान में रखा जाए कि गुजरात में सांप्रदायिक तनाव हमेशा एक अलग ऊँचाई पर रहता है। पाकिस्तान के विरुद्ध यदि सचिन तेंदुलकर ९० रनों पर आउट हो जाए तो भी यहाँ दंगे भड़क उठते हैं। छोटी सी चिंगारी भी यहाँ हिंसाचार का कारण बन सकती है और गोधरा की घटना तो बहुत बड़ी थी। वर्ष १९६९ में कांग्रेस के शासन में लगातार ६५ दिनों तक कर्फ़्यू लगाया गया था। प्रश्न- आप पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार के बारे में बात कर रहे हैं। परंतु (कांग्रेस की तुलना में) आपकी पार्टी के बेहतर शासन के दावे के बारे में आप क्या कहेंगे? उत्तर- हम बेहतर शासन दे रहे हैं। परंतु सच्चाई को नज़रअंदाज़ कैसे किया जा सकता है? (गोधरा हत्याकांड के लिए) अब तक गिरफ़्तार किए गए करीब ८० लोगों में से ६५ लोग कांग्रेस पृष्ठभूमि के हैं। कांग्रेस भावनाओं का अनुचित लाभ ले रही है। यह आरोप लगाया जा रहा है कि गोधरा मामले में सहभागी रहे स्वतंत्र नगरसेवकों को भाजपा ने समर्थन दिया था। अब तक मीडिया कह रहा था कि एक भी मुस्लिम भाजपा के साथ नहीं है। परंतु गोधरा घटना के बाद आरोप लगाया जा रहा है कि मुस्लिम नगरसेवकों को भाजपा ने समर्थन दिया। दोमुँहेपन की भी हद होती है। वैसे भी स्वतंत्र नगरसेवक किसी भी पार्टी के सदस्य नहीं होते। प्रश्न- कुछ माध्यमों (मीडिया) पर आपने प्रतिबंध लगाया। लोगों को लगता है कि आपका यह रवैया तानाशाही पूर्ण है, विरोधी प्रेस को चुप कराने के लिए। उत्तर- मीडिया पर किसी प्रकार का प्रतिबंध नहीं था। केवल एक चैनलने अत्यंत उत्तेजनापूर्ण तरीक़े से वार्तांकन करने के कारण उसका प्रसारण रोका गया था। अधिकांश अख़बार परंपरानुसार स्वयं पर नियंत्रण रखते हैं और दंगों की रिपोर्टिंग करते समय वे कभी भी मज़हब का उल्लेख नहीं करते। यदि हर आधे घंटे में बिना किसी आधार के लगातार मज़हब का उल्लेख किया जाए तो स्थिति शांत होने के बजाय भड़कती है और इन सबका परिणाम क्या होगा यह समझना कठिन नहीं है। मैं एक बात और बताना चाहूँगा कि (प्रसारण पर प्रतिबंध लगाने के बाद) तबसे उस चैनल ने माफ़ी माँगी और अपने वार्तांकन में सुधार किया”। (संदर्भ: https://web.archive.org/web/20100209043917/http://outlookindia.com/article.aspx?21491 6) ‘आउटलुक’ ने ‘पुलिस की निष्क्रियता’ के समय को आसानी से ४८ घंटे तक बढ़ा दिया, परंतु ‘इंडियन एक्स्प्रेस’ इस सबसे कट्टर विरोधी अख़बार ने भी कहा कि ‘दंगों के दूसरे दिन से पुलिस ने सर्वोत्तम प्रयास किया’, अर्थात् २४ घंटों के अंदर! और ध्यान दें कि पहले २४ घंटों में भी पुलिस निष्क्रिय नहीं थी और उन्होंने दंगाइयों को खुली छूट नहीं दी, पहले २४ घंटों में पुलिस ने १४९६ राउंड फ़ायरिंग की और ४२९७ आँसू गैस के गोले छोड़े, और नरोड़ा-पाटिया, चमनपुरा इत्यादि क्षेत्रों में सैंकड़ोंलोगों की जान बचाई। नरेंद्र मोदी के इस वाक्य पर ध्यान दें, “नहीं, अब जो दिखाया जा रहा है, ठीक उसके विपरीत मैंने ७२ घंटों में हिंसाचार को नियंत्रित किया।” अन्य शब्दों में कहा जाए तो सारा परिदृश्य मोदी के विरोध में दंगे समाप्त होने के बाद ही दिखाया जाने लगा। ‘द हिंदू’, ‘द टेलिग्राफ़’ सरीखे कट्टर भाजपा-विरोधी अख़बारों ने किया वार्तांकन हमने इससे पहले ही देखा है, दंगों के वास्तविक दिनों के दौरान इन वार्तांकनों में नरेंद्र मोदी या गुजरात सरकार पर किसी प्रकार का आरोप नहीं लगाया गया था। आरोप लगाने की शुरूआत काफ़ी बाद में हुई। दूरदर्शन ने अपने ३ मार्च २००२ (रविवार) को रात के समाचार में अंग्रेज़ी बुलेटिन में कहा कि: “अहमदाबाद के हिंसाचार को रिकॉर्ड समय में रोक दिया गया है… केवल तीन दिनों में… इससे पहले दंगे रोकने के लिए हफ़्तों लग जाते थे… आज (रविवार को) कर्फ़्यू में ढील दी गई… लोगों ने बाज़ार में जाकर सामान खरीदा”। राज्य सरकार के विरुध्द किसी प्रकार का आरोप नहीं, बल्कि केवल तीन दिनों में दंगों को रोकने में सफलता के लिए सरकार की प्रशंसा! नरेंद्र मोदी के इस्तीफ़े की या उन्हें बरख़ास्त करने की अधिकांश माँगे दंगों के बाद ही की गई। क्योंकि मीडिया चाहता था कि किसी न किसी को दंगों के लिए बलि का बकरा बनाया जाए। वो चाहते थे कि मोदी कुछ पुलिस अधिकारियों को निलंबित करें, एक दो मंत्रियों को बरखास्त करें। परंतु मोदी ने ऐसा कुछ भी नहीं किया। उन्होंने न तो किसी को दोष दिया और न ही किसी को बलि का बकरा बनाया। इसलिए इसके बाद मोदी खुद मीडिया का निशाना बने। मार्च/अप्रैल २००४ में प्रसारित ‘एन.डी.टी.वी.’ के ‘वॉक द टॉक’ कार्यक्रम में नरेंद्र मोदी ने शेखर गुप्ता (तत्कालीन संपादक, इंडियन एक्स्प्रेस) के साथ एक इंटरव्यू में कहा: “आप सब चाहते थे कि मैं किसी को बलि का बकरा बनाऊँ। परंतु मैंने ऐसा नहीं किया। सारे मटके मेरे ही सिर पर फोड़ने दिए। आप सब लोगों ने यह तय कर लिया है कि ‘नरेंद्र मोदी के राज में दंगे हुए। इस व्यक्ति को मुख्यमंत्री के पद से हटाने तक हम चैन से नहीं बैठेंगे’। आपके इस मिशन में आपको मेरी शुभकामनाएँ।” न तो नरेंद्र मोदी ने इस्तीफ़ा दिया और न ही भाजपा ने उन्हें बरख़ास्त किया, इसलिए मीडिया के ये लोग गुस्साए। नरेंद्र मोदी ने ‘द हिन्दुस्तान टाइम्स’ को दिया इंटरव्यू १० मार्च २००२ के अंक में प्रकाशित हुआ, उसके कुछ अंश हैं- “…प्रश्न- प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि विहिंप द्वारा आयोजित बंद के दौरान २८ फरवरी के बाद भड़के भीषण दंगों में आपकी सरकार ४८ से ७२ घंटों तक केवल मूकदर्शक बनी रही, और आप तत्काल कार्यवाही करने का दावा कर रहे हैं, इन दोनों दावों के बीच काफ़ी अंतर है। अपने बचाव में आप क्या कहना चाहेंगे? उत्तर- केवल ७२ घंटों में ही स्थिति को नियंत्रण में लाया गया। हमने सेना को बुलाने में विलंब किया, इस आरोप में भी कोई सत्य नहीं है। गोधरा की घटना ८ बजे हुई। मैंने प्रातः ९:४५ बजे वहाँ कर्फ़्यू लागू कर दिया। मेरी सरकार ने रेलवे स्टेशन पर गोली चलाई। यदि हमारा उद्देश्य किसी एक समुदाय विशेष को निशाना बनाना होता तो गोधरा में हमारे लिए अवसर था। परंतु हमने ऐसा नहीं किया। बचे हुए यात्रियों की सुरक्षा हमारे समक्ष पहली चुनौती थी। हिंसाचार को और अधिक फैलने से रोकने के लिए गोधरा छोड़ने से पहले ही मैंने वहाँ पर ‘देखते ही गोली मारने’ के आदेश दे दिए थे। २७ फरवरी की रात को ही प्रतिबंधात्मक उपाय के रूप में पूरे राज्य से ८०० लोगों को (वास्तविक संख्या ८२७ है) गिरफ़्तार कर लिया गया। २८ फरवरी का बंद उत्स्फूर्त था। बंद के लिए किसी प्रकार ज़ोर-ज़बरदस्ती किए जाने की कोई ख़बर नहीं थी। सुबह ११ बजे तनाव बढ़ने लगा, और अहमदाबाद में दोपहर १२:२० बजे तक कर्फ़्यू लगा दिया गया। प्रश्न- इसका मतलब आप कह रहें हैं कि विहिंप के बंद के दौरान ही आपने कर्फ़्यू लागू कर दिया। उत्तर- हाँ, पहले ही दिन। दंगे फैलने से रोकने के लिए पुलिस ने अपने पूर्व अनुभव के आधार पर रणनीति तैयार की थी और इसीलिए हमने अतिसंवेदनशील क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित किया था। परंतु इस बार यह हिस्सा पूरी तरह शांत रहा और साबरमती नदी के पश्चिमी किनारे के हिस्से में नए क्षेत्रों में हिंसाचार भड़क उठा। (यहीं बात ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने भी कही, साप्ताहिक ‘इंडिया टुडे’ की तरह।) २८ फरवरी को ही अहमदाबाद में पुलिस ने ६०० राउंड फ़ायरिंग की, उसमें ५ लोग मारे गए। (वास्तव में कम-से-कम १० लोग मारे गए, जाफ़री के घर के पास ५ लोग।) दोपहर को दो बजे मैंने प्रधानमंत्री जी से बात की और मैंने उन्हें बताया कि मध्यम वर्गीय और उच्च-मध्यम वर्गीय क्षेत्रों के लोग सड़क पर उतर आए हैं और उन्हें रोकने के लिए मुझे सेना और अर्द्ध-सैनिक बलों की तत्काल आवश्यकता है। उसी दिन दोपहर ४:३० बजे मीडिया को बताया कि मैंने सेना की मदद माँगी है। सीमा पर तैनात सैनिकों को वहाँ से निकाल कर १६ घंटों के अंदर (वास्तव में १४ घंटों में) गुजरात में तैनात किया गया। इससे पहले ऐसे ही अवसरों पर सेना को पहुँचने में ३ से ५ दिन लगे थे। (कांग्रेस के कार्यकाल में) प्रश्न- परंतु अब तक (५ मार्च की सुबह) आपके या आपके किसी भी मंत्री ने दंगों में उद्ध्वस्त भागों का दौरा करने का कष्ट नहीं किया है। केवल रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नांडिस कुछ मुश्किल स्थानों पर गए, जहाँ अडवाणी ने भी अपने ३ मार्च के अहमदाबाद दौरे के समय जाना टाल दिया था। उत्तर- यह सच नहीं है। (उस समय के केंद्रीय गृहमंत्री) अडवाणीजी ने शहर में सभी संवेदनशील स्थानों का दौरा किया (३ मार्च को)। मैं उनके साथ गया। यहाँ की विधानसभा में विरोधी दल के नेता (कांग्रेस के श्री नरेश रावल) उनके सरदारपुर चुनाव क्षेत्र में ७२ घंटों के बाद कल वहाँ पहुँचे, परंतु मेरे एक कैबिनेट मंत्री ६ घंटों के अंदर वहाँ पहुँच गए थे। अब सरकारी मशीनरी दंगा-पीड़ितों की सहायता करने पर अपना ध्यान केंद्रित कर रही है। पहले दंगा-पीड़ितों को दिन के ५ रुपये दिए जाते थे, पहली बार मेरे प्रशासन ने इसे बढ़ाकर रोज़ १५ रुपये किया है… प्रश्न- मुस्लिमों को अनाज और अन्य वस्तुओं की मदद से ज़्यादा सुरक्षा की गारंटी की आवश्यकता है। क्या आप यह करने में सक्षम हैं? उत्तर- यह कार्य सरकार और जनता दोनों को एकसाथ मिलकर करना होगा। दोनों समुदायों में विश्वास निर्माण करने के लिए सामाजिक, राजनैतिक और मज़हबी नेतृत्व को एकसाथ मिलकर प्रयास करने होंगे। प्रश्न- यह कहा जाता है कि आपने १ मार्च को गोधरा हत्याकांड के बाद भड़के दंगों को योग्य ठहराने वाला जो बयान दिया उसकी वजह से विहिंप और बजरंग दल के कार्यकर्ताओं को अहमदाबाद तथा अन्य स्थानों पर हिंसाचार करने के लिए प्रोत्साहन मिला। इस बारे में आपका क्या कहना है? उत्तर- मैंने इस तरह का कोई बयान नहीं दिया। एक बड़े अख़बार (टाइम्स ऑफ़ इंडिया) ने छापा कि मैंने कहा कि न्यूटन के सिद्धांत के अनुसार ‘हर क्रिया की बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया होती है’। स्कूल छोड़ने के बाद मैंने कभी न्यूटन का नाम नहीं लिया। कुछ लोग यदि अपने पूर्वानुराग और कल्पनाओं से ख़ुद को बहकने देंगे तो मैं इसमें कुछ नहीं कर सकता। मैं नुकसान सहन करने के लिए तैयार हूँ यदि उससे समाज का भला होता है तो। मेरे विरोधियों से मेरा अनुरोध है कि गुजरात में यथास्थिति होने तक कृपया इंतज़ार करें। प्रश्न- आप व्यक्तिगत तौर पर मुस्लिम समुदाय को क्या आश्वासन देते हैं? उत्तर- सुरक्षा और सामाजिक समरसता, यह मेरा उनके लिए आश्वासन है। यह सरकार उनकी भी उतनी ही है जितनी अन्य किसी की है… प्रश्न- विरोधी पार्टियों का आप पर विश्वास नहीं है, और वे आपके सरकार की बरख़ास्तगी की माँग कर रहें हैं। उत्तर- …वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के बाद अमेरिका के राष्ट्राध्यक्ष बुश का इस्तीफ़ा किसी ने नहीं माँगा। परंतु भारत में किसी भी आपदा, चाहे वह भूकंप हो या संसद पर हमला हो, के बाद इस्तीफ़े की माँग उठती है। …गुजरात एक सीमावर्ती राज्य है; राज्य की भीतरी सुरक्षा के प्रश्न बाहरी सुरक्षा की समस्याओं का रूप ले सकते हैं। राज्य के मदरसे हमारे लिए सबसे बड़ी चिंता का विषय हैं। गोधरा में काफ़ी बड़े पैमाने पर ऐसे मदरसे कार्यरत हैं। भावनगर का मदरसा एक बड़े तनाव का कारण बन गया, जब एक चैनल ने यह ख़बर दी कि आफ़ताब अंसारी [खूंखार आतंकवादी, जो कि कोलकाता के अमेरिकन सेंटर पर २२ जनवरी २००२ के हमले में भी शामिल था] का सहयोगी इस मदरसे का विद्यार्थी था। इस स्थिति से निपटने के लिए मदरसे के ४०० विद्यार्थियों तथा कुछ मौलवियों को हमें सुरक्षित स्थान पर स्थलांतरित करना पड़ा।” अब, इस बात पर ध्यान दें कि ‘सरकार दंगों की मूक दर्शक बनी रही’ के आरोप में समय अचानक से बढ़ाकर ‘४८ से ७२ घंटे’ कर दिया गया! क्या वास्तविक दंगों के दौरान किसी भी अख़बार ने इस तरह का वार्तांकन किया? नहीं। इसके अलावा यह दावा किया गया है की मोदी के न्यूटन के तीसरे नियम के कथित बयान के बाद विंहिप और बजरंग दल ने हड़कंप मचाया, जबकि वास्तव में उस बयान की गलत रिपोर्टिंग ३ मार्च २००२ को पहली बार ‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में रिपोर्ट की गई थी, जिसके बाद दंगे बंद हो गए थे। २५ अप्रैल २००२ तक पुलिस गोलीबारी में ७७ से ८० हिंदू मारे गए और २०७ घायल हुए। राज्यसभा के भूतपूर्व सांसद और भूतपूर्व पुलिस महानिदेशक बी.पी.सिंघल (१९३१-२०१२) ने अंग्रेज़ी साप्ताहिक ‘ऑर्गनाइज़र’ के ९ अक्तूबर २००५ के अंक में लिखा कि: “…गुजरात दंगों में पुलिस ने आँसू गैस के १५ हज़ार से अधिक गोले छोड़े… और १०,५०० से अधिक राउंड फ़ायरिंग की… मीडिया में १९८४ के दंगों की रिपोर्ट की कोई ख़ास चमक नहीं थी, क्योंकि टी.वी. माध्यम उस समय बाल्यावस्था में था। इसके विपरीत इस बार (२००२ में) इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों ने अनेक प्रकार के संभ्रम निर्माण किए, जब टी.वी. चैनलों ने दंगों की कुछ घटनाओं को बार-बार दिखाया। एक चैनल ने तो एक ही घटना को २१ बार दिखाया। इससे यह भ्रम पैदा हुआ कि गुजरात में मुस्लिमों का क़त्लेआम दिन प्रति-दिन जारी है। सच तो यह है कि सम्पूर्ण गुजरात से दंगों से संबंधित २५,४८६ लोगों पर आरोप लगाए गए, उनमें से १७,४८९ लोग हिंदू और ७,९९७ मुस्लिम थे। इनमें से २५,२०४ आरोपियों को गिरफ़्तार किया गया—१७,३४८ हिंदू और ७,८५६ मुस्लिम। पुलिस ने जिस प्रकार इतनी बड़ी संख्या में आरोपियों को गिरफ़्तार किया वह उनकी कार्यक्षमता का परिचायक है। इससे स्पष्ट है कि गुजरात पुलिस कभी भी नींद के आग़ोश में नहीं थी। दंगा-पीड़ितों के लिए दंगों के दौरान खोले गए राहत शिविरों की सर्वाधिक संख्या १५९ थी। आवश्यकता के अनुसार नए शिविर खोले जा रहे थे और कुछ पुराने बंद किया जा रहे थे, इस कारण किसी विशेष दिन को चालू शिविरों का आँकड़ा अलग-अलग था। ५ मार्च २००२ को कार्यरत ९८ शिविरों में से ८५ शिविर मुस्लिमों के लिए तथा १३ हिंदुओं के लिए थे… दंगों के बारे में राष्ट्रीय अंग्रेज़ी मीडिया और स्थानीय गुजराती अख़बारों द्वारा दिए जाने वाले समाचारों में दिन और रात का अंतर था।…” इससे स्पष्ट है कि ५ मार्च २००२ को ही खोले गए ९८ में से १३ शिविर हिंदुओं के लिए थे [यह अधिकृत आकडे हैं, स्वतंत्र जांच से मैंने पाया]। यह शिविर पहले तीन दिनों में हुए दंगों में पीड़ित लोगों के लिए थे, ऐसा समझा जा सकता है। ज़ाहिर है कि पहले तीन दिनों में ही कम-से-कम १३ प्रतिशत घटनाओं में हिंदुओं ने उतनी ही मार खाई जितनी राज्य में अन्य स्थानों पर मुस्लिमों ने खाई, क्योंकि १३ प्रतिशत से अधिक शिविर हिंदुओं के लिए थे। इस ख़बर से शायद संकेत मिल सकता है कि एहसान जाफ़री मामले में क्या हुआ होगा। लेकिन इसमें से कुछ दावे अतिशयोक्तिपूर्ण लगते हैं। नरोड़ा-पाटिया मामला नरोड़ा पाटिया की घटना असली मुस्लिम-विरोधी हिंसा की थी। २८ फरवरी २००२ को, दंगों के पहले दिन, हिंदुओं के समूह ने ९५ मुस्लिमों को मार दिया। सात वर्षों के बाद सभी गायब लोगों को जब मृत घोषित किया गया, तब यह संख्या ८४ से बढ़कर ९५ हो गई। इस घटना में हमलावरों में चारा जनजातीय समुदाय के लोग शामिल थे और पुलिसकर्मियों की संख्या ‘इंडिया टुडे’ की ख़बर के अनुसार नहीं के बराबर थी। उस दिन अहमदाबाद में पुलिसकर्मियों की संख्या अत्यंत अपर्याप्त थी, क्योंकि अभूतपूर्व संख्या में लोगों के समूह सड़क पर उतरे थे। ‘द हिंदू’ ने दो वर्षों के बाद २० अगस्त २००४ को दी ख़बर थी: “अहमदाबाद, १९ अगस्त: …(नरोड़ा के भूतपूर्व, तत्कालीन पुलिस निरीक्षक) श्री मैसोरवाला ने नरोड़ा-पाटिया के भीषण हत्याकांड के लिए दो घटनाओं को ज़िम्मेदार बताया। पहली घटना में एक मस्जिद के पीछे एक युवक रणजीत वंजारा की ‘भीषण हत्या’ की गई, और दूसरी घटना में एक मुस्लिम ट्रक ड्रायवर ने लापरवाही से ट्रक चलाया जिसमें एक हिंदू मारा गया और दो लोग घायल हुए। (कोलकाता के ‘द टेलिग्राफ़’ ने भी २ मार्च २००२ को इसी बात को बोले जाने का हवाला दिया।) इन दोनों घटनाओं के बारे में फैली अफ़वाहों ने मज़हबी तनाव में आग में घी डालने जैसा काम किया, और हिंदुओं ने पास की मस्जिद तथा बाद में मुस्लिम बस्तियों पर हमला बोल दिया। अपर्याप्त पुलिस बल श्री मैसोरवाला के अनुसार नरोड़ा पुलिस थाने में ८० पुलिसकर्मी थे और ये सामान्य परिस्थिति में पर्याप्त थे, परंतु २८ फरवरी की स्थिति अभूतपूर्व थी और बड़ी तेज़ी से नियंत्रण से बाहर हो रही थी। उन्होंने कहा कि उन्होंने अतिरिक्त पुलिस बल मँगवाया और राज्य रिज़र्व दल [SRP] की २४ जवानों की टुकड़ी मदद के लिए भेजी गई। परंतु करीब १७ हज़ार के आक्रमक-समूह के सामने यह मदद भी अपर्याप्त रही।” (संदर्भ: https://www.thehindu.com/todays-paper/tp-national/names-of-vhp-leaders-figured-in- fir/article27656791.ece) रंजीत वंझारा की हत्या और एक मुस्लिम ट्रक ड्राइवर द्वारा एक हिंदू व्यक्ति की मौत तथा दो लोगों को घायल करने वाली यह दोनों घटनाएं २८ फरवरी २००२ को सुबह में हुई और पुलिस रिकार्ड में दर्ज है। इस प्रकार नरोडा-पाटिया हत्याकांड के लिए गोधरा के अलावा भी एक ‘उकसाव’ जिम्मेदार था। कई वर्ष बाद ‘इंडिया टुडे’ ने २५ मई २०१३ को माया कोड़नानी (२००२ में वो बीजेपी विधायक थीं) जो इस मामले में एक आरोपी थीं, की जमानत याचिका पर एक रिपोर्ट में लिखा: “२८ फरवरी को सुबह १०.३० बजे तक नरोडा क्षेत्र में स्थिति हिंदू और मुसलमानों की भीड़ के बीच केवल पथराव होने की घटनाएं तक सीमित नजर आ रही थीं, जब मुसलमानों द्वारा दो अलग अलग घटनाओं में दो हिंदुओं को मार दिया गया और उनमें से एक हत्या भयानक क्रूरता के साथ की गई। वकील मितेश अमीन ने कहा ‘इन दो घटनाओं ने हिंदुओं को प्रतिक्रियाशील उन्माद में बदल दिया और नरोडा पाटिया और नरोडा ग्राम इन एक दूसरे की करीबी बस्तियों में नरसंहार हुआ’। पहली घटना में रिक्शा चालक रंजीत वंझारा को मुस्लिम भीड़ ने गली में खींच कर मार डाला। यहां तक की उसकी आंखे भी निकाल ली गई थी। दूसरे मामले में एक भयभीत मुस्लिम ट्रक ड्राइवर ने हिंदु भीड़ के बीच ट्रक चलाई जिसमें एक हिंदु की मौत हुई। ये दोनों घटनाएं उस दिन सुबह १०.३० बजे से ११.३० बजे के बीच हुईं थी और दोनों घटनाएं पुलिस रिकार्ड में दर्ज हैं…”। https://www.indiatoday.in/india/west/story/naroda-patiya-case-mayaben-kodnani-judgement-narendra- modi-gujarat-riots-164380-2013-05-25 कोई भी उकसावा निर्दोष लोगों की हत्या को सही नहीं ठहरा सकता। यह यहां ९५ मुसलमानों की हत्या को सही नहीं ठहरा सकता। लेकिन हमने देखा है कि गोधरा जैसे सुनियोजित नरसंहार को ‘उकसावे’ का कारण देकर जबरन ‘सहज’ कहने की कैसे कोशिश की गई, जबकि किसी प्रकार का उकसावा नहीं था। और नरोडा पाटिया में गोधरा के बाद भी २८ फरवरी २००२ को पहले दो हिंदुओं की हत्या के वास्तविक उकसावे को पूरी तरह छुपाकर रखा गया। लोगों के समूह और पुलिस बल का अनुपात १७,०००:१०० होते हुए भी नरोड़ा पाटिया मामले में पुलिस ने १००० में से ९०० से अधिक मुस्लिमों की जान बचाई। मैसूरवाला के मुताबिक यहां पुलिस फाइरिंग में दो दंगाई मारे गए। अहमदाबाद में सेना तैनात होने के बाद भी मज़हबी तनाव में कमी नहीं आई और हत्याएँ चलती रहीं। वास्तव में पहले तीन दिनों के बाद मुख्यतः जहाँ सेना तैनात की गई थी उन्हीं भागों में, अर्थात् अहमदाबाद और वडोदरा में दंगे होते रहे। हत्या करने (हिंदुओं की?) की खुली छूट देने का आरोप भाजपा और गुजरात सरकार पर लगाने का मतलब उसमें ‘सेना की सहभागिता भी थी’ यह कहना होता है। कुछ लोग इस बात को न जानने और न मानने के लिए तैयार हैं। ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने २८ अप्रैल २००२ के अंक में कहा: “दंगों के सिलसिले में गिरफ़्तार लोगों में हिंदुओं की संख्या ९,९५४ है और मुस्लिमों की ४,०३५ है। परंतु प्रतिबंधात्मक उपाय के रूप में गिरफ़्तार लोगों में हिंदुओं की संख्या बहुत अधिक १७,९४७ है, जबकि मुस्लिमों की संख्या ३,६१६ है।” हिंसाचार कुचलने के लिए: 1) गुजरात सरकार ने न केवल यथाशीघ्र सेना को बुलाया बल्कि सेना को बुलाने का निर्णय २८ फरवरी को दोपहर ४:३० बजे तक ही सार्वजनिक रूप से घोषित कर दिया। 2) पुलिस ने कुल मिलाकर १०,५५९ राउंड फ़ायरिंग की, इनमें से ५,४५० राउंड पहले तीन दिनों में फ़ायर किए गए, हालाँकि दंगों के कुल ७४ दिनों में से ७३ दिन सेना तैनात थी। 3) पुलिस ने आँसू गैस के कुल १५,३६९ गोले छोड़े। उनमें से ६५०० आँसू गैस के गोले पहले तीन दिनों में छोड़े गए। 4) दंगों की सम्पूर्ण अवधि के दौरान १९९ लोग पुलिस गोलीबारी में मारे गए; इनमें से १०१ लोग पहले हफ़्ते में मारे गए। 5) पुलिस ने २८ अप्रैल २००२ तक ३५,५५२ लोगों को गिरफ़्तार किया; उसमें से २७,९०१ हिंदू थे। इनमें से २१,००० लोगों की गिरफ़्तारी प्रतिबंधात्मक थी। कुछ लोग कहते हैं कि “‘आउटलुक’, ‘इंडिया टुडे’ जैसे साप्ताहिक, और ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’, ’द हिंदू’ जैसे अख़बार आज जब नरेंद्र मोदी पर आरोप लगाते हैं, तब आपको उनपर विश्वास नहीं होता; आप उन्हें ‘मोदी विरोधी’ कहते हैं। परंतु दंगों के बारे में तो आप इन्हीं समाचार पत्रों की ख़बरें बताकर उनपर विश्वास करते हैं।” इसका उत्तर सीधा है। जब भाजपा-विरोधी अख़बार या पत्रिका भाजपा के पक्ष में कोई समाचार देते हैं तो उसमें किसी झूठ की गुंजाइश होने की संभावना ही नहीं है। उसमें शायद पूर्ण सत्य नहीं होगा परंतु वह झूठ हो ही नहीं सकता। वही हमने देखा, कि किसी भी अख़बार या पत्रिका ने किसी भी दिन अपने समाचारों में पूरा सच एक ही दिन में नहीं बताया, केवल कुछ ही बातों को प्रकाशित किया गया। पूरे तथ्य जानने के लिए सभी समाचार पत्रों की ख़बरों को हमें एकत्रित करना पड़ा। उदाहरण के लिए, ‘द हिंदू’ ने अगले दिन बताया कि २८ फरवरी को पुलिस गोलीबारी में १० लोग मारे गए, और सेना को तत्काल (‘frantically’) बुलाया गया, परंतु जॉर्ज फर्नांडिस के आने, या ७०० लोगों की गिरफ़्तारी की जाने का उल्लेख उसने नहीं किया। ७०० लोगों की गिरफ़्तारी की ख़बर के लिए हमें दूसरे अख़बारों को पढ़ना पड़ा। हम ऐसा भी नहीं कहते हैं कि ये अख़बार जब भाजपा के विरोध में लिखते हैं तो उसे अपने-आप ‘ग़लत’/’झूठ’ कहना चाहिए; प्रत्येक कथन को उसकी गुणवत्ता के अनुसार मापा जाना चाहिए। इसके अलावा, गुजरात सरकार ने दंगा-पीड़ितों की सहायता के लिए काफ़ी बड़े पैमाने पर पैसा ख़र्च किया। इसकी विस्तृत जानकारी हम सातवें अध्याय में दंतकथा १६ में लेंगे। रा.स्व.संघ के तत्कालीन प्रवक्ता श्री मा.गो. वैद्य ने ‘तरुण भारत’ इस मराठी दैनिक में जुलाई २००२ में लिखा: “…यह घटना उत्तर गुजरात के हरीज नामक नगर की है। हिंदू बहुसंख्या वाले क्षेत्र में मुस्लिमों के केवल तीन घर हैं। दंगों के डर के कारण सभी निवासियों ने अपने घर खाली कर दिए थे। परंतु एक घर में सत्तर वर्ष की दो वृद्ध महिलाएँ, चार छोटे बच्चे और चार महिलाएँ रुकी हुईं थीं। सब डर से थर-थर काँप रही थीं। उसी समय संघ स्वयंसेवक वहाँ पहुँचे। उनमें से एक हरगोविंद भाई ठक्कर उस क्षेत्र के प्रख्यात वकील और संघ के स्थानीय संघचालक भी थे, उन्होंने अपनी जीप मँगवाकर सभी महिलाओं को बचाकर सुरक्षित स्थान पर भिजवाया। मेहसाणा ज़िले के उंझा गाँव में डॉ. महेश भाई पुरोहित के दवाख़ाने में एक मुस्लिम महिला कार्यरत थी। डॉ. पुरोहित संघ के सक्रिय कार्यकर्ता हैं। जब इस मुस्लिम महिला पर हमला करने के उद्देश्य से एक समूह ने डॉ. पुरोहित के घर पर हमला किया, श्री पुरोहित ने इस समूह का विरोध किया और उस मुस्लिम महिला की रक्षा की। इसप्रकार हिंदुओं की मानवता दिखाने वाली कई कहानियाँ बताई जा सकतीं हैं, परंतु किसी भी अंग्रेज़ी अख़बार ने ऐसी एक भी कहानी प्रकाशित नहीं की।…" (URL: http://hvk.org/2002/0702/99.html) इस तरह की ‘अनेक घटनाओं’ में से एक घटना ‘इंडिया टुडे’ के दिनांक १५ अप्रैल २००२ के अंक में प्रकाशित हुई- “आणन्द ज़िले के उमरेठ इस छोटे नगर को लीजिए, जिसने इससे पहले कभी भी सांप्रदायिक हिंसाचार नहीं देखा था। परंतु इस बार वहाँ हिंसाचार हुआ, और जब स्थानीय भाजपा नेता विष्णु पटेल ने एक हिंदू समूह को शांत करने का प्रयास किया, तब उस समूह ने उनपर ही धावा बोल दिया”। असली दंगे तीन दिनों में ही रुक गए थे, उसके और सबूतों के लिए नीचे दिए तथ्य देखिए: १) मार्च २००२ में होली और मोहर्रम दोनों त्योहार पूरे गुजरात में पारंपरिक ढंग से उत्साहपूर्वक मनाए गए। मोहर्रम के एक हज़ार से अधिक जुलूस निकाले गए, इनमें से क़रीब १०० जुलूस बड़े थे। २) २२ ज़िलों में ८०० से अधिक गाँवों और शहरों में सात हज़ार हज यात्रियों को सम्मानित किया गया। ३) पंचायत चुनाव में लगभग १७०० गाँवों में (वास्तविक आँकड़ा १६७७ गाँव) ७५ प्रतिशत मतदाताओं ने मतदान किया। ४) मुस्लिम विद्यार्थियों से की गई अपील ‘बोर्ड की परीक्षाओं का बहिष्कार करो’ असफल हो गई और मार्च/अप्रैल २००२ में ९८ प्रतिशत विद्यार्थी परीक्षाओं में उपस्थित रहे। वास्तव में नरेंद्र मोदी मुस्लिमों के हत्यारे नहीं थे बल्कि उनके ‘तारणहार’ थे। उनकी सरकार ने कम-से-कम २४ हज़ार मुस्लिमों के और अनेक हिंदुओं के भी प्राणों को बचाया। गोधरा के बाद भड़के हुए हिंसाचार को संक्षेप में तीन चरणों में विभाजित किया जा सकता है: 1) पहले तीन दिन—२८ फरवरी, १ मार्च और २ मार्च २००२ 2) ४ मार्च २००२ से १२ अप्रैल २००२ 3) २१ अप्रैल २००२ से २० मई २००२ पहला चरण हिंदुओं के गोधरा हत्याकांड के प्रतिरोध की अवधि का था। हालाँकि कुछ स्थानों पर [ख़ास कर अहमदाबाद में] मुस्लिम भी आक्रामक थे और उन्होंने हिंदुओं को मारा, और उन्हें उनके घरों से बाहर निकाला, परंतु यह अवधि वास्तविक रूप से मुस्लिम-विरोधी दंगों की थी। इस काल में गुलबर्ग सोसायटी, नरोड़ा-पाटिया आदि स्थानों पर मुस्लिमों पर हमले किए गए और वे मारे गए। दूसरे चरण में मुस्लिमों ने दंगों की शुरूआत की और उन्होंने हिंदुओं के प्रतिकार का बदला लिया। इसकी विस्तृत जानकारी आगे के कुछ अध्यायों में स्पष्ट होगी। तीसरा चरण २१ अप्रैल २००२ से शुरू हुआ, जो कि रामनवमी का दिन था। २२ अप्रैल २००२ को ‘रेडिफ़ डॉट कॉम’ वेबसाइट, ‘इंडिया टुडे’ साप्ताहिक २० मई २००२ का अंक, ‘द हिंदू’ का ७ मई २००२ का अंक, इनकी ख़बरों और न्या. तेवाटिया समिति की रिपोर्ट से सूचित होता है कि इस दौरान इन दंगों को आरोपानुसार कांग्रेस पार्टी ने भड़काया। उस समय संसद के अधिवेशन के दौरान गुजरात पर चर्चा होनी थी। विपक्ष मोदी सरकार को बरख़ास्त करने की माँग कर रहा था। उस समय गुजरात में शांति का माहौल था। आरोप है कि नरेंद्र मोदी पर हमला करने के लिए, और शायद केंद्र की एन.डी.ए. सरकार के सहयोगी दलों को समर्थन निकालने पर मजबूर कर केंद्र सरकार गिराने के लिए कांग्रेस पार्टी ने जान-बूझकर इन दंगों को भड़काया। इसकी विस्तृत जानकारी हम आगे के एक अध्याय में देखेंगे। ‘इंडिया टुडे’ और ‘आउटलुक’ ने २८ फरवरी को ही पूर्वानुमान लगाया था कि यह हिंसाचार कुछ महीने नहीं तो कम-से-कम कुछ हफ़्ते तो चलेगा। परंतु उसे केवल तीन दिनों में ही नियंत्रित कर लिया गया। बीते समय में गुजरात ने भयंकर दंगों का सामना किया है—जैसे वर्ष १९६९ और १९८५ में। रक्तरंजित इतिहास की पार्श्वभूमि और गोधरा हत्याकांड जैसी भीषण भड़काऊ घटना होते हुए भी सांप्रदायिक दृष्टी से संवेदनशील राज्य में मात्र तीन दिनों में ही दंगों को नियंत्रित करना, यह निश्चित रूप से दिखाता है कि प्रशासन ने अपने कर्त्तव्य अच्छे से निभाए।

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