२८ फरवरी २००२ को दंगों में मारे गए स्व. एहसान जाफ़री की पत्नी श्रीमती ज़ाकिया जाफ़री ने नरेंद्र मोदी और अन्य ६२ लोगों के ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज कराई थी। इस शिकायत के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय ने इन आरोपों की जाँच के लिए एक विशेष जाँच दल (स्पेशल इंवेस्टिगेटिंग टीम – एस.आई.टी.) का गठन किया। मीडिया व तथाकथित स्वयंसेवी संस्थाओं, और शायद केंद्र की यू.पी.ए. सरकार के नरेंद्र मोदी को फँसाने के लिए भारी दबाव होते हुए भी इस एस.आई.टी. ने नरेंद्र मोदी को ‘पूरी तरह क्लीन चिट’ दी। इस समिति के गठन की पृष्ठभूमि कालक्रमानुसार आगे दी जा रही है।
८ जून २००६ को श्रीमती ज़ाकिया जाफ़री ने एक चिट्ठी के माध्यम से गुजरात के डी.जी.पी. (डायरेक्टर-जनरल ऑफ़ पुलिस) को २००२ के दंगों के पीछे षड्यंत्र के आरोप के लिए गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और अन्य ६२ लोगों के ख़िलाफ़ एफ़.आई.आर. (फ़र्स्ट इन्फ़ॉर्मेशन रिपोर्ट) दर्ज करने की माँग की। पुलिस ने शिकायत दर्ज करने से इनकार कर दिया। इसके बाद उनकी शिकायत को डी.जी.पी. ने नामंजूर किए जाने के कारण श्रीमती ज़ाकिया १ मे २००७ को गुजरात उच्च न्यायालय में गई। २ नवंबर २००७ को गुजरात उच्च न्यायालय ने भी उनकी याचिका को ख़ारिज कर दिया। इसके बाद श्रीमती ज़किया सर्वोच्च न्यायालय में गईं।
बाद में सुप्रीम कोर्ट ने २६ मार्च २००८ को गुजरात दंगों से जुड़े ९ मामलों की फिर से जाँच के आदेश दिए, जिसमें गुलबर्ग सोसायटी की घटना भी शामिल थी। सर्वोच्च न्यायालय ने सी.बी.आई. के भूतपूर्व संचालक श्री आर.के. राघवन की अध्यक्षता में एक विशेष जाँच समिति (एस.आई.टी.) का गठन किया, पुन: जाँच के लिए। और मार्च २००९ में एस.आई.टी. को श्रीमती ज़किया की शिकायत पर नरेंद्र मोदी और अन्य लोगों की भूमिका कि जाँच के निर्देश दिए। नवंबर २०१० में एस.आई.टी. ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसका एमिकस क्यूरी (सुप्रीम कोर्ट के सलाहकार) श्री राजू रामचंद्रनने अध्ययन किया। जनवरी २०११ में उसपर अपनी राय व्यक्त करने वाली रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को सौंपी और उस एस.आय.टी. रिपोर्ट में जबरन ग़लतियाँ निकालने की कोशिश की, और उसके निष्कर्षो से असहमति व्यक्त की, क्योंकि इस रिपोर्ट में मोदी को ‘क्लीन चिट’ दी गई थी, जो राजू रामचंद्रन को मान्य नहीं था (वो कट्टर मोदी-विरोधी थे और हैं)।
श्री राजू रामचंद्रन द्वारा व्यक्त किए गए संदेहों पर सर्वोच्च न्यायालय ने एस.आय.टी. को फिर से ध्यान देने के निर्देश १५ मार्च २०११ को दिए। एस.आई.टी. ने यह भी किया। और श्री रामचंद्रन द्वारा व्यक्त की गई राय कैसे ग़लत है यह अप्रैल २०११ में दिखाया। फिर श्री रामचंद्रन ने अपनी अधिकांश ग़लतियों को मान लिया, लेकिन मोदी को फँसाने के लिए जबरन कुछ ढूंढने के इरादे से २५ जुलाई २०११ को प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में एक–दो मुद्दों पर असहमति जताई। एस.आई.टी. ने उनके जबरन और ग़लत निष्कर्षों का विरोध किया; और सर्वोच्च न्यायालय ने एस. आई.टी. और श्री रामचंद्रन दोनों को सुनने के बाद एस.आई.टी. को सही ठहराया, श्री रामचंद्रन की राय को नहीं माना। १२ सितंबर २०११ को सर्वोच्च न्यायालय ने इस विषय में अपनी देखरेख बंद की, और इस प्रकरण को निचली अदालत में भेजा।
एस.आई.टी. ने अपनी अंतिम रिपोर्ट फरवरी २०१२ में एक स्थानीय न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत की थी। एस.आई.टी. रिपोर्ट ने मोदी को ‘पूरी तरह क्लीन चिट’ दी। मोदी को क्लीन चिट दिए जाने के ख़िलाफ़ श्रीमती ज़किया ने अर्ज़ी दाख़िल कर दी। लेकिन ज़किया की इस अर्ज़ी को पहले गुजरात की निचली अदालत ने दिसंबर २०१३ में, और बाद में गुजरात उच्च न्यायालय ने भी ५ अक्तूबर २०१७ को ख़ारिज कर दिया, और एस.आई.टी. द्वारा मोदी को क्लीन चिट देने के निर्णय का समर्थन किया। इसके खिलाफ ज़ाकिया ने सुप्रीम कोर्ट में केस किया, जिसने इस एस.आय.टी. क्लीन चिट के खिलाफ सारे तर्क सुनने के बाद इस विषय पर अपना फैसला ९ दिसम्बर २०२१ को सुरक्षित रखा, और फिर २४ जून २०२२ को दिए अंतिम फैसले में एस.आय.टी. क्लीन चिट को सही ठहराया और ज़ाकिया की अर्जी को खारिज़ कर दिया। इस फैसले में तीस्ता सीतलवाड, आर. श्रीकुमार और संजीव भट्ट इन पर झूठे सबूत बनाने के लिए मुकदमा चलाने की भी अनुमति दी।
एस.आई.टी. की अंतिम रिपोर्ट में अनेक महत्त्वपूर्ण निष्कर्षों पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है, क्योंकि इन्हें जान-बूझकर दबाया गया है।
एस.आई.टी. की रिपोर्ट के पृष्ठ ९ के अनुसार श्रीमती ज़किया ने अपनी याचिका में आरोप लगाया था कि ‘पाँच दिनों में २५०० लोग मारे गए’, जो कि संपूर्णतः गलत है। हमने इस पुस्तक में मृतकों की संख्या का सच पहले ही देखा है। एस.आई.टी. अपनी रिपोर्ट के पृष्ठ ५ पर कहती हैं :
“श्रीमती ज़किया द्वारा ८ जून २००६ को की गई शिकायत में आरोपों का स्वरूप साधारण था (‘general in nature’), और मुख्य रूप से मीडिया की ख़बरों और आर.बी. श्रीकुमार ने दाख़िल किए शपथ-पत्रों जैसे दस्तावेजों पर आधारित था, जिनके बारे में उन्हें स्वयं (श्रीमती ज़किया को) कोई जानकारी नहीं थी…”
एस.आई.टी. अपनी रिपोर्ट के पृष्ठ १६ से १९ पर कहती हैं:
“श्रीमती ज़किया नसीम की स्थानीय पुलिस द्वारा पहली बार पूछताछ ६ मार्च २००२ को की गई थी और सी.आर.पी.सी. की धारा १६१ के तहत उनके बयान को दर्ज किया था, लेकिन अब उनके द्वारा दाख़िल शिकायत (८ जून २००६) में की कोई भी जानकारी उन्होंने प्रस्तुत नहीं की थी। उस समय पुलिस के समक्ष दिए गए बयान में उन्होंने कहा था कि गुलबर्ग सोसायटी से जेल की गाड़ियों में उनको ले जाते समय वहाँ मौजूद भीड़ द्वारा उन सबकी हत्या की जाती, परंतु पुलिस ने समय पर किए हस्तक्षेप के कारण वे स्वयं और अन्य लोग बच गए। इसके बाद श्रीमती ज़किया नसीम २९ अगस्त २००३ को नानावटी आयोग के समक्ष उपस्थित हुईं, लेकिन उन्होंने इस बार अपनी इस शिकायत के मुद्दों के बारे कुछ नहीं कहा। श्रीमती ज़किया नसीम ने सितंबर २००३ में सर्वोच्च न्यायालय में शपथ-पत्र दाख़िल किया था, लेकिन उसमें भी इन मुद्दों का उल्लेख नहीं किया। इसके बाद वो ८ जून २००६ को, अर्थात् घटना के चार वर्षों के दीर्घ-अंतराल के बाद, अपने लंबे शिकायत पत्र के साथ सामने आईं। ७ नवंबर २००८ को एस.आई.टी. ने ज़किया नसीम से पूछताछ की, लेकिन इस तारीख़ की पूछताछ में वे स्वयं ८ जून २००६ को दर्ज शिकायत में से एक भी मुद्दे को नहीं बता सकी। [हमारी टिप्पणी-एस.आय.टी. ने अन्य एक समय कहा कि यह तीस्ता सेतलवाड़ की शिकायत हैं, जिस पर ज़ाकिया ने सिर्फ हस्ताक्षर किए हैं] वर्ष २००२, २००४, और २००५ में श्री आर.बी. श्रीकुमार ने स्वयं दाख़िल किए शपथ-पत्रों के तथ्यों के बारे में श्रीमती ज़किया को कोई जानकारी नहीं है। इस शिकायत में निम्नलिखित विरोधाभास और त्रुटियाँ पाई गई हैं:
१) ये आरोप अस्पष्ट (vague), सामान्य (general), और प्रचलित तरीक़े के (stereotypical) हैं और निम्नलिखित आरोपियों के बारे में निश्चित ऐसा कुछ भी कहा नहीं गया है… आरोपी क्रमांक २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९, १०, ११, १२, १३, १४, १५, १६, २५, २६, २९, ३२, ३३, ३५, ३६, ४०, २७, २८, ३१, ३४, ३७, ४३, ४५, ४६, ४८, ६३, ३०, ४७, ४९, ५१, ५३, ५७, ५८, ५९, ५०, ५२ (आरोपियों के ख़िलाफ़ शिकायत के कुछ अंशों का हवाला देते हुए एस.आई.टी. ने शिकायत की संदिग्धता और सामान्यता के बारे में विस्तार से अपनी टिप्पणी यहाँ दी है)।
२) भूतपूर्व अतिरिक्त डी.जी. (आई.बी.) श्री आर.बी. श्रीकुमार ने नानावटी-शाह आयोग के समक्ष प्रस्तुत शपथ-पत्र क्रमांक १, २, ३, और ४ में दिए विवरणों की शब्दशः नकल शिकायत में अनुच्छेद क्रमांक २९ से ५७, ७७, ७९, ८०, ८१, ८२, और ८६ पर की गई है। आर.बी. श्रीकुमार ने अपने शपथ-पत्र में किए आरोपों के संबंध में श्रीमती ज़किया नसीम को कोई व्यक्तिगत जानकारी नहीं है।
३) आरोपी क्रमांक १७, १८, १९ और ६० के ख़िलाफ़ कोई निश्चित आरोप ही नहीं लगाए गए हैं।
४) आरोपी क्रमांक २४, श्री बाबूभाई राजपूत, उसके दिए हुए पते पर नहीं पाए गए, और यह पाया गया कि ऐसा कोई व्यक्ति उस समय अस्तित्व में ही नहीं था।
५) आरोपी क्रमांक ११, अनिल त्रिभुवनदास पटेल, दंगों के दौरान सार्वजनिक जीवन में नहीं था, और वह वर्ष २००२ के अंत में भाजपा में शामिल हुआ था। केवल दिसंबर २००२ में वह विधायक चुना गया था, और उसपर कोई निश्चित आरोप लगाए बग़ैर, शिकायत में झूठे तरीके (falsely) से उसका नाम शामिल किया गया है।
६) आरोपी क्रमांक ४५, राहुल शर्मा, और आरोपी क्रमांक ६३, सतीश वर्मा के नाम गवाह के साथ-साथ आरोपी के रूप में भी शामिल किए गए हैं। इस बारे में शिकायतकर्ता श्रीमती ज़किया नसीम और तीस्ता सीतलवाड़ ने बताया कि वे दोनों गवाह हैं, और आरोपी के रूप में उनके नाम ग़लती से शामिल किए गए हैं….” ऊपर उल्लिखित तथ्यों से स्पष्ट है कि की गई शिकायत प्रामाणिक नहीं है। इसके अलावा शिकायत में कई अन्य ग़लतियाँ भी हैं, उनमें से कुछ के बारे में हम बाद में देखेंगे, लेकिन उपर्युक्त मुद्दों से स्पष्ट है कि श्रीमती ज़किया को इस शिकायत की कोई जानकारी नहीं है, और उनके नाम से किसी और व्यक्ति/व्यक्तियों ने इस शिकायत को तैयार किया है। आरोपी क्रमांक २४ तो अस्तित्व में ही नहीं था, और शिकायतकर्ता ने अपने ही गवाहों के नामों को आरोपी के रूप में रखा था; इससे इस शिकायत के बचकानेपन की हद पता चलती है।
… (End of preview)
The above is the beginning of the Chapter “Findings of SIT”. To read the full chapter, read the book “Gujarat Riots: The True Story”
Leave A Comment