विहिंप जैसे संघ परिवार के संगठनों ने दंगों का आयोजन किया

 सच्चाई: वर्ष २००२ के दंगों के समय गुजरात के १८,६०० गाँवों में से १०,००० गाँवों में विश्व हिंदू परिषद की शाखाएँ थी। अगर वे चाहते तो इन १०,००० गाँवों में से कई गाँवों में आसानी से प्रतिक्रियात्मक दंगे भड़का सकते थे। इसके उलट, वास्तव में १८,६०० गाँवों में से मात्र अधिकतम ५० गाँवों में दंगे भड़के थे। विहिंप के तत्कालीन अंतरराष्ट्रीय महासचिव (जो बाद में कार्याध्यक्ष बने) डॉ. प्रवीण तोगड़िया, पटेल समुदाय से हैं, और श्री केशुभाई पटेल की तरह वे भी गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र से हैं। लेकिन सौराष्ट्र में दंगे हुए ही नहीं!

 

   इसके विपरीत २८ फरवरी को अहमदाबाद में बड़े पैमाने पर भड़के दंगों को विहिंप या संघ परिवार का कोई भी संगठन आयोजित नहीं कर सकता था। गोधरा हत्याकांड की यह एक उत्स्फूर्त सामाजिक प्रतिक्रिया थी। वरिष्ठ राजनैतिक विश्लेषक श्री अरविंद बोस्मिया ने भी यही कहा है।

 

   कुछ लोगों ने सवाल किया हैं कि, “एक ओर आप कहते हैं कि कुछ भी घटित नहीं हुआ, मात्र ४०-५० गाँवों में दंगे हुए। दूसरी ओर आप कहते हैं कि दंगे इतने बड़े पैमाने पर थे कि किसी एक अकेले संगठन द्वारा इन दंगों को किया जाना संभव नहीं है”।

 

   ये दोनों बातें एकसाथ सच हैं। अहमदाबाद में २८ फरवरी को एक समय ऐसा आया जब कम-से-कम ५०,००० (पचास हज़ार) लोगों ने एक साथ एक ही समय में विभिन्न मुस्लिम बस्तियों पर धावा बोल दिया। ‘द हिंदू’ ने अगले दिन अपनी ख़बर में कहा कि स्थिति नियंत्रण से बाहर लग रही थी। अहमदाबाद पुलिस को औसतन २०० कॉल प्रतिदिन आते थे, लेकिन उस दिन यह संख्या ३,५०० से अधिक थी। ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने इन दंगों का वर्णन करते हुए लिखा कि, ‘उस समय पुलिस की उपस्थिति हिंसाचार के महासागर में एक बूँद की तरह थी’। अहमदाबाद में महज २४ घंटों में इतनी बड़ी भीड़ जुटाना संघ परिवार या अन्य किसी संगठन की पहुँच से बाहर था।

 

   लेकिन गुजरात में २८ फरवरी को या उसके बाद, विहिंप अगर चाहती तो उन दस हज़ार गाँवों में दंगे आसानी से भड़का सकती थी जहाँ उसकी शाखाएँ कार्यरत थीं।

 

   गोधरा हत्याकांड २७ फरवरी को घटित हुआ, उसी दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने एक बयान जारी करके कहा, “संघ इस हत्याकांड का निषेध करता है और संयम बरतने की अपील करता है”। ‘हिंदू’ अख़बार ने भी २८ फरवरी के अंक में यह ख़बर दी थी, और उसमें कहा कि “(२७ फरवरी को) रा.स्व. संघ ने लोगों से संयम बनाए रखने की अपील की है”। इस अपील की, और संघ के तत्कालीन सरकार्यवाह मोहन भागवत ने ‘ऑर्गनाइज़र’ के १० मार्च २००२ के अंक में प्रकाशित २७ फरवरी को की अपील की स्कैंड-प्रतिलिपियों को हमने दूसरे अध्याय में देखा है। ‘टेलिग्राफ़’ ने अपने २८ फरवरी २००२ के अंक में कहा: रा.स्व.संघ संयम बरतने की अपील करके प्रधानमंत्री के साथ मज़बूती से खड़ा रहा। सहसरकार्यवाह श्री मदनदास देवी ने कहा, ‘यह हिंदू समाज की सहिष्णुता की परीक्षा का समय है। क़ानून अपने हाथों में लेने के बजाय गंभीर परिस्थिति को संभालने के लिए जनता को राज्य सरकार का सहयोग करना चाहिए’।

(संदर्भ:https://web.archive.org/web/20130204004811/http://www.telegraphindia.com:80/1020228/front_pa.htm#head1)

 

   रेडिफ़ डॉट कॉम ने वृत्त संस्थाओं के हवाले से २ मार्च २००२ को दी ख़बर थी: 

 

   “संघ और विहिंप की ओर से गुजरात में शांति बनाए रखने की अपील 

   गुजरात में हिंसा भड़कने के बाद संघ और विहिंप ने शनिवार (२ मार्च २००२) को अपने कार्यकर्ताओं से अपील की कि देश में शांति भंग करने वाले किसी भी कृत्य से बचें और आशा व्यक्त की कि ‘गुजरात में समझदारी आएगी’। 

   संघ के सरकार्यवाह श्री मोहन भागवत ने दिल्ली में जारी किए गए एक बयान में कहा कि: ‘हिंदुत्व पर विश्वास रखने वाले सभी संघ स्वंयसेवकों, शुभचिंतकों, और मित्रों से मैं अपील करता हूँ कि देश की विक्षुब्ध (disturbed) स्थिति को देखते हुए शांति भंग करने वाले किसी भी कृत्य जैसे नारेबाज़ी और पत्थरबाज़ी से दूर रहें, क्योंकि इससे केवल राष्ट्रविरोधी आतंकी तत्त्वों को बल मिलेगा’। 

   अन्य मज़हब के लोगों से भी उन्होंने अपील करते हुए कहा, ‘आतंकियों के उकसावे के झाँसे में न आएँ और अपने हिंदू भाइयों के साथ इस देश की संतान के रूप में व्यवहार करें।’

   इस बीच, विहिंप ने भी गुजरात की हिंसा को रोकने की अपील करते हुए कहा कि ‘किसी के खिलाफ़ किसी भी प्रकार का हिंसाचार चिंताजनक है’। नई दिल्ली में पत्रकारों से बात करते हुए विहिंप के प्रवक्ता श्री वीरेश्वर द्विवेदी ने कहा, ‘गोधरा की घटना और उसके बाद की हिंसा दुर्भाग्यपूर्ण है और किसी के खिलाफ़ किसी भी प्रकार का हिंसाचार चिंताजनक है’।

   उन्होंने गुजरात में हो रही हत्याओं को रोकने की अपील करते हुए कहा कि ‘गुजरात में समझदारी आनी चाहिए’। दंगों में मारे गए लोगों के प्रति शोक व्यक्त करते हुए श्री द्विवेदी ने राज्य में हिंसाचार के शिकार लोगों के प्रति अपनी संवेदनाएँ व्यक्त कीं।

   लेकिन विपक्षी दलों ने स्थिति की जाँच के लिए गुजरात में अब प्रतिनिधि मंडल भेजने का निर्णय लिया है, लेकिन विपक्षी पार्टियों को गोधरा हत्याकांड के बाद ऐसा करना उचित नहीं लगा, इस बारे में उन्होंने खेद व्यक्त किया। उन्होंने कहा कि ‘यह वोटबैंक की राजनीति को ध्यान में रखकर किया जा रहा है’।– समाचार एजेंसी”

(संदर्भ: https://www.rediff.com/news/2002/mar/02train10.htm)

 

   श्री मोहन भागवत द्वारा यह बयान २७ फरवरी को ही दिया गया था। किसी बड़े दंगे की शुरूआत होने से पहले ही ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने २८ फरवरी को दी खबर हमने पहले देखी हैं जिसमें विहिंप के वरिष्ठ उपाध्यक्ष आचार्य गिरिराज किशोर ने कहा कि ‘हिंदुओं को शांति और संयम बनाए रखना चाहिए’।

 

   ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने २७ फरवरी २००२ को ऑनलाइन दी ख़बर में कहा कि गुजरात विहिंप ने दूसरे दिन (२८ फरवरी) बंद के दिन सभी हिंदुओं से अपने घरों के अंदर रहने की अपील की थी। स्वाभाविक है कि यदि हिंदू अपने घरों में ही रहते तो उन्हें हिंसक प्रतिक्रिया करना संभव नहीं होता।

मनगढ़ंत कथा

नरेंद्र मोदी ने कहा, ‘प्रत्येक क्रिया की समान और विरुद्ध प्रतिक्रिया होती है’ 

सच्चाई: श्री बलबीर पुंज ने ‘आउटलुक’ में अपने लेख में मई २००२ में लिखा– “ज़बरदस्त मनगढ़ंत कहानियों के कारण गुजरात का सत्य पूरी तरह पंगु हो गया है। ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने ३ मार्च के अंक की ख़बर में मोदी पर आरोप लगाया कि उन्होंने न्यूटन के तीसरे नियम ‘प्रत्येक क्रिया की समान और विरुद्ध प्रतिक्रिया होती है’ का उल्लेख किया। वास्तव में मुख्यमंत्री (मोदी) ने इस तरह का कोई बयान नहीं दिया था। ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ को छोड़कर अन्य किसी भी अख़बार ने अपनी मूल ख़बरों में इस तरह की ख़बर प्रकाशित नहीं की थी (३ मार्च को)। लेकिन इसके बाद लिखे गए कई संपादकीयों और लेखों में इस आधार पर विषवमन किया गया। श्री मोदी के सभी खंडनों को कूड़े के ढेर में फेंक दिया गया।…”

 

   ‘सायबरनून’ के १९ मार्च २००२ के अंक में श्री वीरेंद्र कपूर ने लिखा:

   “उनके मुँह में ‘उस’ वाक्य को रखने वाले अंग्रेज़ी अख़बार को श्री मोदी ने अपनी संतप्त प्रतिक्रिया और निषेध दर्ज करने वाला पत्र भेजा जिसमें उन्होंने कहा कि वे (मोदी) कभी ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ के उस संवाददाता से नहीं मिले, और न ही कहीं भी उस तरह का वाक्य बोलने का उन्हें कोई अवसर मिला। इसीलिए उस ‘खोजी वार्तांकन’ में की गई ग़लती तत्काल ठीक की जाए। लेकिन अख़बार के संपादकों ने ग़लती को ठीक करने से इनकार कर दिया और श्री मोदी की चिट्ठी पर दो हफ़्ते तक बैठे रहे। इस अंग्रेज़ी अख़बार में यदि सबसे वरिष्ठ संपादक की मर्ज़ी चलती तो शायद वे श्री मोदी का पत्र छापते, परंतु वरिष्ठ संपादक की अकेले की वहाँ कुछ चलती नहीं। ‘संघ परिवार से संबंधित सभी ख़बरों को दबाकर रखने’ की खुले तौर पर बात करने वाले नव संपादकों से वह पूरा अख़बार भरा है, और अख़बार के प्रबंधन को तो विज्ञापन से होने वाले राजस्व के अलावा कुछ दिखता ही नहीं है, इसीलिए श्री मोदी का पत्र अब तक प्रकाशित नहीं हुआ है। अतः श्री मोदी का यह कहना कि, मीडिया उनके बारे में पूर्वाग्रह-दूषित भावना रखता है और उनकी छवि को धूमिल करने का प्रयास करता है, संपूर्णतः ग़लत नहीं है। क्योंकि श्री मोदी का बताया वाक्य उस अख़बार में प्रकाशित होते ही अन्य सभी प्रसार-माध्यमों ने उसे बार-बार प्रकाशित किया। 

   अब जाँच के बाद बाहर आ गया हैं कि अहमदाबाद और राज्य के अन्य ठिकानों पर अल्पसंख्यकों से प्रतिशोध लेने के लिए किए गए जानलेवा हमलों को सही बताने के लिए मुख्यमंत्री ने जिस दिन न्यूटन के तीसरे सिद्धांत को बताने का दावा किया गया, उस दिन ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ अख़बार का कोई भी प्रतिनिधि मुख्यमंत्री से मिला ही नहीं था। उस अख़बार के संपादकों ने भी यह निष्कर्ष निकाला है कि ‘मोदी सरकार की मानसिकता को दर्शाने के लिए उनके पत्रकार ने ‘उस’ वाक्य को अपनी मर्ज़ी से आविष्कृत किया था’। दिल्ली में धर्मनिरपेक्षतावादी रिपोर्टरों के सम्मेलन में इस अख़बार के दिल्ली के डेप्युटी ब्यूरो चीफ़ ने कहा “फ़ासिस्ट ताक़तों से संघर्ष करें और उन्हें ‘अपने’ अख़बारों में कोई जगह न दें।” यह सब करने के लिए यह ख़बर पूरी तरह मनगढ़ंत थी और उसके बाद ग़लती सुधारी नहीं गई। 

   अपना ख़ुद का फ़ासीवादी ब्रांड चलाने वाले इस तरह के लोगों के व्यवहार के संबंध में अब अख़बारों के मालिकों का जाग्रत होना अति आवश्यक है। इस बीच श्री मोदी इस संदर्भ में प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया में अपनी शिकायत ले जाने का विचार कर रहे हैं।”

 

   नरेंद्र मोदी ने ‘इंडिया टुडे’ को दिए ८ अप्रैल २००२ के अंक में प्रकाशित इंटरव्यू में कहा, “दंगों की शुरूआत होने के बाद मैंने ‘प्रत्येक क्रिया की उतनी ही और विरोधी प्रतिक्रिया होती है’ कहे जाने की ख़बर प्रकाशित हुई। वास्तव में मैंने ऐसा कुछ भी नहीं कहा था। फिर भी एक अख़बार ने मेरे इस तथाकथित वाक्य को हेडलाइन बनाकर प्रकाशित किया गया। मैंने ऐसा कुछ भी नहीं कहा, ऐसा कहने वाला एक पत्र भी मैंने उस अख़बार को लिखा। मेरी उस पत्रकार परिषद में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी उपस्थित था। आप इसके वीडियो टेप्स पूरी तरह से चेक कर सकते है [हमारी टिप्पणी– कही भी वैसा वाक्य ‘‘प्रत्येक क्रिया के लिए विरोधी प्रतिक्रिया होती हैं” नहीं दिखेगा उन पूरे टेप्स में]।” 

(संदर्भ: https://www.indiatoday.in/magazine/interview/story/20020408-what-happened-in-godhra-and-afterwards-is-numbing-narendra-modi-795436-2002-04-08)

 

   नरेंद्र मोदी ने ‘द हिंदुस्तान टाइम्स’ को दिया इंटरव्यू १० मार्च २००२ के अंक में प्रकाशित हुआ था, जिसमें उन्होंने कहा, “मैंने इस तरह का कोई बयान नहीं दिया। एक बड़े अख़बार ने ‘प्रत्येक क्रिया की समान और विरुद्ध प्रतिक्रिया होती है’, न्यूटन के इस सिद्धांत को मेरे मुँह में रख दिया। स्कूल छोड़ने के बाद मैंने कभी न्यूटन का नाम नहीं लिया है। यदि किसी को अपनी कल्पना और ख़ुद की इच्छा के अनुसार कुछ करना हो तो मैं कुछ नहीं कर सकता। अगर इसका उपयोग समाज के भले के लिए हो रहा हो तो मैं दुःख सहन करने के लिए भी तैयार हूँ। मेरा सभी विरोधियों से अनुरोध है कि गुजरात में स्थिति सामान्य होने तक कृपया इंतज़ार करें।…”

   

   दिनांक १२ मई २००२ के ‘द वीक’ में मोदी के साथ एक साक्षात्कार था। उसके कुछ अंश थे:

“प्रश्न: गुजरात के घटनाक्रम के दौरान आपके द्वारा की गई कुछ टिप्पणियों ने काफी विवाद खड़ा कर दिया है। क्या अब आपको उन पर पछतावा है ?

उत्तर: मेरे द्वारा कथित तौर पर दिए गए बयानों पर कई लेख लिखे गए हैं। लेकिन न तो मैंने कभी ‘न्यूटन’ के नाम का उल्लेख किया है और न ही ‘एक्शन-रियाक्शन’ शब्दों का उच्चारण किया है। इस संबंध में ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ के मुख्य संपादक को कई पत्र भेजने के बावजूद, उन्होंने इस बारे में जनता को जागरूक नहीं किया है।”

 http://www.hvk.org/2002/0502/23.html 

   आधिकारिक रिकॉर्ड से यह दिखता है कि उस दिन ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ के किसी भी रिपोर्टर की नरेंद्र मोदी के साथ कोई अपॉइंटमेंट नहीं थी। आज तक कोई भी यह साबित नहीं कर सका है कि श्री मोदी ने ऐसा कुछ कहा। इस बारे में झूठ फैलाने के लिए माफ़ी माँगना तो दूर रहा, उन्होंने श्री मोदी का स्पष्टीकरण भी सही ढंग से प्रकाशित नहीं किया। 

 

   सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित एस.आई.टी. ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा कि ‘प्रत्येक क्रिया की समान और विरुद्ध प्रतिक्रिया होती है’, इस तरह का कोई भी बयान श्री मोदी ने देने का कोई सबूत नहीं है, और उनके वाक्य को ‘संदर्भ-से-बाहर’ उद्धृत किया गया लगता हैं। 

मनगढ़ंत कथा

कुतुबुद्दीन अंसारी की तस्वीर असली है 

 सच्चाई: देश और विदेश में इस फ़ोटो को बार-बार दिखाया गया है। कहा है कि पीड़ित कुतुबुद्दीन अंसारी इस फ़ोटो में दंगाइयों के सामने दया की भीख माँग रहे हैं। इससे अनेक सवाल खड़े होते हैं। (रा.स्व.संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री के.एस. सुदर्शन [१९३१-२०१२] ने नागपुर में अपने ४ अक्तुबर २००३ के भाषण में इनमें से कुछ प्रश्न पूछे थे।) वे प्रश्न इसप्रकार हैं: 

 

१. यह फ़ोटो नकली होने का, मतलब अंसारी वास्तव में इस स्थिति में थे, परंतु घटना के बाद भीड़ के निकल जाने पर यह फ़ोटो लिया गया हो [या इस बात की भी संभावना है कि घटना के बाद फ़ोटोग्राफ़र ने श्री अंसारी को उस पोज़ में फ़ोटो देने के लिए कहा होगा, लेकिन यह संभावना हमें नगण्य लगती है] एक बड़ा सुराग मिलता है इस फ़ोटो में अंसारी के चेहरे पर बंधे हुए बैंडेज सेघटना के बाद बैंडेज लगाकर फ़ोटो निकाला गया होगा यह स्पष्ट है। ख़ून की प्यासी संतप्त भीड़ यदि वास्तव में श्री अंसारी की ओर बढ़ रही होती और उसके द्वारा दया की भीख माँगते समय यह तस्वीर ली गई होती तो उन्हें बैंडेज बाँधने के लिए समय कैसे मिला?

२. इस बात पर विश्वास रखना मुश्किल हैं कि इस तस्वीर में श्री अंसारी इमारत की पहली मंज़िल पर दंगाइयों से दया की भीख माँग रहे हैं ऐसा कहते हैं, लेकिन तस्वीर में एक भी दंगाई नज़र नहीं आ रहा है, और फ़ोटोग्राफ़र आर्को दत्त उसी समय तस्वीर लेने के लिए वहाँ उपस्थित थे। 

३. दंगाइयों ने उनपर हमला किए बिना उन्हें कैसे छोड़ दिया?

४. दंगाइयों ने फ़ोटोग्राफ़र को इस तरह की तस्वीर कैसे खींचने दी? उनपर हमला क्यों नहीं किया?

५. कम-से-कम फ़ोटोग्राफ़र का कैमरा नष्ट क्यों नहीं किया?

६. क्या रॉयटर के फ़ोटोग्राफ़र श्री आर्को दत्त इनमें से एक भी सवाल का जवाब दे सकते हैं?

७. क्या इन सभी प्रश्नों का या इस घटनाक्रम से उत्पन्न होने वाले अन्य प्रश्नों के जवाब श्री अंसारी दे सकते हैं?

 

   इस मामलें पर समझा जाता हैं कि पीड़ित कुतुबुद्दीन अंसारी ने कहा, “लोगों की भीड़ मेरे मकान से चले जाने के बाद यह तस्वीर ली गई है, उस समय पुलिस वहाँ मौजूद थी और मैं बहुत डरा हुआ था, मैंने पुलिस से कहा कि मुझे बचा लो, इसी समय यह तस्वीर ली गई है”। यही जानकारी गुजरात के एक वरिष्ठ पत्रकार ने भी प्रस्तुत लेखक को [गुमनामी की शर्त पर] दी। हालाँकि इस लेखक को इंटरनेट पर इसप्रकार की कोई अखबार की ख़बर का पता नहीं चला। यह भी स्पष्ट किया जाना चाहिए कि ‘दंगाइयों से मैं दया की भीख माँग रहा था’, इस तरह का कोई बयान भी अंसारीने देने की कोई भी ख़बर किसी वेबसाइट पर प्रस्तुत लेखक को नहीं दिखी। इसलिए शायद यह भी हो सकता है कि स्वयं अंसारी ने ही इस बात को ख़ारिज कर दिया हो कि उन्होंने ख़ून की प्यासी भीड़ के सामने इस तरह की भीख माँगी। नीचे दिए हुई लिंक वाली रिपोर्ट में एक मुस्लिम वेबसाइट ही कहती है कि वे भीड़ के जाने के बाद सुरक्षाकर्मियों से विनती कर रहे थे, और न कि किसी भीड़ से।

http://www.indianmuslimobserver.com/2013/02/face-of-gujarat-riots-qutubuddin-ansari.html

 

  यदि श्री अंसारी यह दावा करते हैं कि उन्होंने भीड़ के सामने दया की भीख माँगी तो उनसे यह पूछा जाना चाहिए कि उनके चहरे पर बैंडेज कैसे आया। अपनी तस्वीर के बार-बार उपयोग किए जाने से हुई परेशानियों के कारण श्री अंसारी वर्ष २००३ से मीडिया से लगातार कह रहे थे कि ‘मुझे परेशान न करें और मुझे छोड़ दें’। (संदर्भ: https://web.archive.org/web/20130516050029/http://www.hindu.com/2003/08/08/stories/2003080806871100.htm

 

   श्री कुतुबुद्दीन अंसारी के प्रति हमें पूरी सहानुभूति है क्योंकि इसमें कोई संदेह नहीं है कि वे दंगा-पीड़ित हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि झूठी तस्वीरें दुनिया भर में प्रसारित करते हुए निर्दोष लोगों को आतंकी गतिविधियों के लिए उकसाने का लाइसेंस किसी को मिलता हैं

 

   दूसरे अध्याय में हमने गोधरा हत्याकांड की दिल दहला देने वाली तस्वीरों का लिंक देखा। हालाँकि ये तस्वीरें शतप्रतिशत असली हैं, फिर भी एन.डी.टी.वी. जैसे टी.व्ही. चेनेल इन तस्वीरों को दिखाने का सपनों में भी नहीं सोचेंगे। लेकिन लोगों की भावनाओं को भड़काने वाली श्री कुतुबुद्दीन अंसारी की तस्वीर सारी दुनिया में प्रचारित करेंगे। गोधरा में हिंदुओं को ज़िंदा जलाकर मार डालने के बाद मुस्लिमों के मन में निर्माण हुई अपराधबोध की भावना, उस हत्याकांड की तस्वीरें देखकर दूसरे मुस्लिमों तक यदि पहुँचती, तो गोधरा के बाद हुए दंगों पर वो (और शायद अपने तथाकथित उदारमतवादी भी) इतने बड़े पैमाने पर रुष्ट नहीं होते। (ये दंगे भी एकतरफ़ा नहीं थे।) 

मनगढ़ंत कथा

एहसान जाफ़री मामले में महिलाओं पर बलात्कार किए गए

सच्चाई: सुश्री अरुंधति रॉय ने ‘आउटलुक’ के ६ मई २००२ के अंक में लिखा–

   “कल रात वडोदरा से मुझे एक सहेली का फोन आया, वह रो रही थी। क्या हुआ यह बताने के लिए उसे १५ मिनट लगे। मामला विशेष जटिल नहीं था, सिर्फ़ उसकी सहेली सईदा एक भीड़ के हाथ लग गई। सिर्फ़ उसका पेट फाड़ा गया और पेट में कपड़ों के जलते हुए चीथड़े भर दिए गए। सिर्फ़ उसकी मौत के बाद किसी ने उसके माथे पर ॐ लिख दिया था…

   …भूतपूर्व कांग्रेस संसद सदस्य इक़बाल एहसान जाफ़री के मकान को भीड़ ने घेर लिया था। उन्होंने पुलिस महानिदेशक (डीजीपी), पुलिस आयुक्त (पी.सी. पांडे), मुख्य सचिव, अतिरिक्त मुख्य सचिव (गृह) को फोन लगाया, लेकिन इन सभी कॉल्स को नज़रअंदाज़ कर दिया गया। उनके मकान के बाहर की मोबाइल पुलिस गाड़ियों ने हस्तक्षेप नहीं किया। भीड़ जाफ़री के मकान में घुसी। भीड़ ने जाफ़री की बेटियों को निर्वस्त्र करके ज़िंदा जला दिया। इसके बाद श्री जाफ़री का सिर धड़ से अलग कर दिया गया। बेशक राजकोट में फरवरी में विधानसभा उपचुनाव में श्री जाफ़री ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की कठोर शब्दों मे आलोचना की थी, यह महज एक संयोग है…” 

(संदर्भ: https://magazine.outlookindia.com/story/democracy/215477)

 

   भाजपा के वरिष्ठ नेता और तत्कालीन राज्यसभा सदस्य श्री बलबीर पुंज ने अरुंधति रॉय को दिया जवाब ‘आउटलुक’ ने प्रकाशित किया। इस जवाब जिसका शीर्षक था ‘गुजरात जलने के दौरान तथ्यों से खिलवाड़’ (‘Fiddling with facts while Gujarat burns’) ने कहा:

 

   “शुरूआत: मीडिया में रॉय जैसे लोग अर्द्धसत्य तथा उससे भी बुरे का इस्तेमाल कर भारत का नुकसान कर रहे हैं। ‘(यहाँ पर श्री पुंज ने रॉय के लेख के कुछ वाक्यों का हवाला दिया है)’… 

   ‘डेमोक्रेसी: हू इज़ शी व्हेन शी इज़ एट होम?’ ‘आउटलुक’ (६ मे २००२) के अपने इस लेख में सुश्री अरुंधति रॉय, जिन्हें ‘द गॉडेस ऑफ़ स्मॉल थिंग्स’ कहा जा सकता हैं, ने गुजरात की एक तस्वीर पेश की है। सुश्री रॉय ने संघ परिवार के विरुद्ध लगभग सभी आरोपों को एक ही लेख में सिलसिलेवार ढंग से प्रस्तुत किया है।…उनका यह सचित्र विवरण देखिए– ‘भीड़ मकान में घुसी, उन्होंने जाफ़री की बेटियों को निर्वस्त्र किया और ज़िंदा जला दिया…’

   यह हृदयस्पर्शी तो है लेकिन प्रामाणिक नहीं है। श्री जाफ़री दंगों में मारे गए, लेकिन उनकी बेटियों को न तो ‘निर्वस्त्र’ किया गया और न ही ‘ज़िंदा जलाया’ गया। श्री जाफ़री के बेटे टी.ए. जाफ़री एक अख़बार के प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित एक इंटरव्यू में कहते हैं जिसका शीर्षक है– ‘मेरे पिताजी का मकान निशाना था, यह कोई नहीं जानता था’ (एशियन एज, दिल्ली संस्करण, २ मई २००२), ‘मेरे भाई और बहनों में मैं अकेला ही भारत में रहता हूँ। परिवार में मैं सबसे बड़ा हूँ। मेरा भाई और बहन अमेरिका में रहते हैं। मैं चालीस वर्ष का हूँ और मेरा जन्म तथा पूरी ज़िंदगी अहमदाबाद में हुई है।’

   इससे स्पष्ट है कि रॉय झूठ बोल रही हैं, क्योंकि जाफ़री निश्चित रूप से झूठ नहीं बोल रहे हैं। परंतु आज तक पर्दाफ़ाश न हुए मीडिया के उन सैकड़ों झूठों का क्या? उनके सात पृष्ठों वाले लंबे-चौड़े लेख (लगभग ६ हज़ार शब्द) में भारत और संघ परिवार के बारे नफ़रत का ही वमन किया गया है। इस लेख का आधार केवल दो विशिष्ट कहानियाँ थीं, जिसमें से एक कहानी अब हम सब जानते हैं कि झूठी और काल्पनिक है… 

   …वे कहती हैं कि गुजरात संघ परिवार की “प्रयोगशाला” है। वास्तव में पंथनिरपेक्ष-मूलतत्त्ववादियों (secular fundamentalists) ने गोधरा का इस्तमाल घडिया (crucible) के रूप में किया। इस बात में कोई आश्चर्य नहीं कि उन्होंने रामसेवकों को ज़िंदा जलाने की घटना का निषेध करते समय दोष मृत पीड़ितों पर थोप दिया। (गोधरा के) क्रूरतम भीषण अपराध के समर्थन के लिए उनमें से अनेक ने टपरी वालों के साथ विवाद, महिलाओं से दुर्व्यवहार और उत्तेजना पूर्ण घोषणा आदि काल्पनिक घटनाओं को खोज निकाला… 

   …मुग़ल काल में १७१४ में होली के मौक़े पर हुए दंगों से बड़े १० दंगों को अकेले अहमदाबाद शहर में दर्ज किया गया है।

   वर्ष १७१४ में संघ परिवार नहीं था, तथा १९६९ और १९८५ के दंगों के दौरान वह हावी ताक़त नहीं था। तो फिर गुजरात जब ‘संघ परिवार की प्रयोगशाला’ नहीं था, तब इन दंगों का क्या कारण था?…

   …गोधरा हत्याकांड के बाद गुजरात के विभिन्न भागों में मुस्लिमों के विरुद्ध उत्स्फूर्त हिंसक विस्फोट हुआ। ये दंगाई मुख्यतः हिंदू होने के कारण पहले तीन दिनों में पुलिस गोलीबारी में मारे गए लोगों में करीब ७५ फीसदी हिंदू थे। वास्तव में, १८ अप्रैल तक पुलिस गोलीबारी में मारे गए लोगों में हिंदुओं की संख्या अधिक थी।

   परंतु पिछले करीब तीन हफ़्तों से हिंसा मुस्लिमों द्वारा हिंदुओं पर घातक हमलों से की जा रही है, जिससे पुलिस गोलीबारी में मारे जाने वालों में स्वाभाविक रूप से उनकी संख्या अधिक है। पुलिस ने कुल ३४ हज़ार लोगों के ख़िलाफ़ दंगों के मामले दर्ज किए हैं, इनमें से अधिकांश हिंदू हैं। आगजनी और लूटपाट में दोनों समुदायों की संपत्ति और व्यवसाय का भारी नुकसान हुआ है। दंगाई अपने दिमाग़ में सांप्रदायिकता की भावना रखकर अपना लक्ष्य तय करते हैं, लेकिन लूटपाट करने वाले ऐसा नहीं करते, वे कहीं भी अंधाधुंध लूटपाट करते हैं। एक लाख मुस्लिम दंगा-पीड़ित के रूप में शिविर में रह रहे हैं, लेकिन ४० हज़ार हिंदुओं ने भी इन शिविरों में शरण ली है। ये दंगे भीषण और बेहद दुःखद हैं, लेकिन इन्हें ‘नरसंहार’ क्यों कहा जाए? इसका लाभ किसे होता है? दंगा-पीड़ितों को तो नहीं होता, इसका लाभ होता है केवल सीमापार के हमारे दुश्मनों को।

   अपनी नफ़रत का विषवमन करने वाले लेख की शुरूआत रॉय (जो कि अनेक ‘पंथनिरपेक्षता’वादियों की रोल मॉडल हैं) एक सईदा नामक महिला की कहानी बताती हैं, ‘जिसका पेट फाड़ दिया गया और पेट में कपड़ों के जलते हुए चीथड़े भर दिए गए’। मैंने इसी तरह की कई भीषण कहानियाँ संसद में भी सुनीं; उसमें कई बार महिलाओं पर बलात्कार की कहानियाँ थीं, कुछ घटनाओं में सामुदायिक बलात्कार की कहानियाँ, महिलाओं का पेट फाड़कर भ्रूण निकालने और त्रिशूल की नोक पर नचाने की कहानियाँ थीं। परंतु सभी विस्तृत विवरणों के साथ एक भी विशेष मामला मुझे कोई भी नहीं दे सका। रॉय ने एक मामला दिया, लेकिन वह पूरी तरह मनगढ़ंत साबित हुआ।…

   …गुजरात दंगों की रिपोर्टिंग के लिए ‘एडिटर्स गिल्ड’ ने अंग्रेज़ी अख़बारों की जमकर तारीफ़ की और गुजराती मीडिया की कठोर आलोचना की। हालाँकि गुजराती मीडिया अतिशयोक्ति के लिए दोषी हो सकता है, लेकिन मुझे यकीन है कि उसने रॉय की तरह अंग्रेज़ी मीडिया में प्रकाशित मनगढ़ंत कहानियाँ नहीं बनाईं। लेकिन यह आश्चर्यजनक है कि भारत को बदनाम करने, महत्त्वपूर्ण क्षणों में सांप्रदायिक तनाव बढ़ाने, अर्द्धसत्य और संपूर्ण झूठों का उल्लेख करके कुछ नागरिकों का दानवीकरण करने वाले सुश्री रॉय जैसे लोगों और टी.वी. माध्यमों के बारे में ‘गिल्ड’ ने आलोचना का एक शब्द भी नहीं कहा। कुछ अपराधियों ने बलात्कार किए होंगे तो उन्हें उसकी कठोर सज़ा मिलनी चाहिए, लेकिन उन लोगों का क्या जिन्होंने पिछले दो माह से सच्चाई और देश के संग बलात्कार किया है?”

(संदर्भ: https://magazine.outlookindia.com/story/fiddling-with-facts-as-gujarat-burns/215655)

 

   इसके बाद अरुंधति रॉय ने ‘आउटलुक’ के २७ मई २००२ के अंक में माफ़ीनामा लिखा। ‘टु द जाफ़री फ़ैमिली, एन एपॉलजी’ (जाफ़री परिवार को एक माफ़ीनामा) इस शीर्षक वाला माफ़ीनामा इसप्रकार से है:

 

   “पुलिस अपराधों को दर्ज करने के लिए इच्छुक नहीं है, प्रशासन सच्चाई की जानकारी लेने वालों के खुले विरोध में है और हत्याएँ बिना किसी विरोध के हो रही हैं, कुछ इसी तरह के हालात फ़िलहाल गुजरात में हैं, ऐसी स्थिति में भय और अफ़वाहें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। (देखिए, रॉय सारा दोष दूसरों को दे रही हैं!) लापता लोगों को मृत समझा जाता है, जिन्हें जलाकर या विखंडित कर मार डाला गया है उनकी पहचान नहीं हो पाती और सुन्न और घबराए हुए लोगोंका कहना समझा नहीं जा सकता।

   इसलिए हालाँकि जब हमारे जैसे लोग जो लिखते हैं वह अत्यंत विश्वासार्ह स्रोतों से प्राप्त जानकारी के आधार पर लेखन कार्य करने की कोशिश करते हैं, फिर भी ग़लतियाँ हो सकती हैं। लेकिन वर्तमान के इस हिंसाचार, दुःख और अविश्वास भरे माहौल में बताई गई ग़लतियों को ठीक करना महत्त्वपूर्ण है।

   मेरे ६ मई के निबंध ‘डेमोक्रेसी: हु इज शी, व्हेन शी इज एट होम’ (Democracy: Who is she when she is at home?) में एक तथ्यात्मक ग़लती है। एहसान जाफ़री की क्रूर हत्या का वर्णन करते हुए मैंने लिखा था कि पिता के साथ-साथ उनकी बेटियाँ भी मारी गई हैं। लेकिन बाद में मुझे बताया गया है कि यह ग़लत है। चश्मदीद गवाहों के अनुसार एहसान जाफ़री के साथ उनके तीन भाई और दो भतीजे मारे गए थे। उस दिन चमनपुरा क्षेत्र में बलात्कार करके मारी गईं दस महिलाओं में उनकी बेटियाँ नहीं थीं।

   मैं जाफ़री परिवार के दुःख में बढ़त करने के लिए उनसे क्षमा माँगती हूँ। आय एम ट्रूली सॉरी!

   मेरी जानकारी (जो वास्तव में ग़लत जानकारी निकली) की जाँच दो स्रोतों के ज़रिये की गई थी– ‘टाइम’ पत्रिका के ११ मार्च के अंक में मीनाक्षी गांगुली और एंथनी स्पीथ का लेख, और एक स्वतंत्र सत्यशोधक समिति की रिपोर्ट ‘गुजरात कार्नेज २००२– ए रिपोर्ट टु द नेशन’। इस समिति में त्रिपुरा के भूतपूर्व आई.जी.पी. श्री के.एस. सुब्रमण्यम् और भूतपूर्व वित्त सचिव श्री एस.पी. शुक्ला थे। इस ग़लती के बारे में मैंने श्री सुब्रमण्यम् से बात की, उन्होंने कहा कि एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी द्वारा उन्हें यह जानकारी दी गई थी। (उस ‘वरिष्ठ पुलिस अधिकारी’ का नाम क्या था? यह न तो श्री सुब्रमण्यम्, और न अरुंधती रॉय बताते हैं!) 

   गुजरात हिंसाचार का विवरण देते समय यह, या इसप्रकार की अन्य प्रामाणिक ग़लतियों से मेरे जैसे लेखक, सत्यशोधन समितियाँ या पत्रकार जो कह रहे हैं, उसके सारांश में किसी प्रकार का भी बदलाव नहीं होता।”

 

   सालों बाद श्री बलबीर पुंज ने ‘ऑर्गनाइज़र’ के ९ जुलाई २००६ के अंक में लिखा: 

 

   “कुछ चार वर्ष पहले अरुंधति रॉय के साथ मेरा मुद्रित पत्रिका में वाद-विवाद हुआ था। अवसर था गुजरात दंगे…। लेकिन आज डोडा में हिंदू मारे जाते हैं तब ये ‘सेक्युलर’ लोग कहीं भी दिखाई नहीं देते, यहाँ तक कि दूरबीन से भी नहीं…

   रॉय ने अपने विषैली नफ़रत की शुरूआत करते हुए एक विवरण दिया था ‘कल रात को वडोदरा से मेरी एक सहेली का फोन आया था, वह रो रही थी, क्या हुआ यह बताने के लिए उसे १५ मिनट लगे। यह इतना जटिल नहीं था। सिर्फ़ उसकी सहेली सईदा भीड़ के हाथ लगी थी। सिर्फ़ उसका पेट फाड़ा गया और पेट में कपड़ों के जलते हुए चीथड़े भर दिए गए। सिर्फ़ उसकी मौत के बाद किसी ने उसके माथे पर ॐ लिख दिया था…’

   इस घृणित ‘घटना’ से सदमाग्रस्त होकर मैंने गुजरात सरकार से संपर्क किया। पुलिस जाँचों से पता चला कि सईदा नामक महिला के साथ इस तरह की वारदात होने की ऐसी कोई रिपोर्ट न वडोदरा शहर, न वडोदरा ग्रामीण क्षेत्र में की गई है। इसके बाद इस सईदा नामक महिला की खोज के लिए पुलिस ने अरुंधति रॉय से संपर्क किया और गवाहों तक पहुँचने के लिए उनकी सहायता माँगी, जिससे वो अपराधियों तक पहुँच सके। लेकिन पुलिस को उनसे किसी प्रकार का सहयोग नहीं मिला। इसके उलट, रॉय ने अपने वकील के ज़रिये पुलिस को जवाब दिया कि पुलिस को उनपर समन जारी करने का कोई अधिकार नहीं है। इस तरह वो तकनीकी बहाने की आड़ में छुप गई। ‘आउटलुक’ में रॉय के लेख का जवाब देते समय मैंने ‘डिसिमुलेशन इन वर्ड एंड इमेजेस’ लेख में इसका उल्लेख किया (द आउटलुक, ८ जुलाई २००२)।”

 

   यहाँ कुछ बातें बताना ज़रुरी हैं, जिनका श्री बलबीर पुंज ने भी उल्लेख नहीं किया। रॉय का माफ़ीनामा भी झूठा है, क्योंकि इसमें रॉय ने दावा किया कि ‘उस दिन चमनपुरा में १० महिलाओं पर बलात्कार करके उन्हें मार डाला गया’। मार्च २००२ के पहले हफ़्ते के अख़बारों को पढ़ने के बाद एक बात स्पष्ट होती है कि किसी भी अख़बार में बलात्कार का कोई उल्लेख भी नहीं है। ‘टाइम’ पत्रिका के ११ मार्च २००२ के अंक में मनगढ़ंत कहानियों की ख़बरों के बाद मार्च के मध्य से बलात्कार की कहानियों का उल्लेख शुरू हुआ। जाफ़री की बेटियों पर बलात्कार की कहानी भी रॉय ने ‘टाइम’ पत्रिका से उठाई, कॉपी की थी। न रॉय और न ‘टाइम’ के प्रतिनिधि इस गुलबर्ग सोसायटी में बलात्कार का एक भी साबित मामला दिखा नहीं सके। रॉय ने सिर्फ जाफ़री परिवार से माफ़ी माँगी। झूठे दावे कर भाजपा और नरेंद्र मोदी की बदनामी के लिए उन्होंने उनसे माफ़ी नहीं माँगी उन्होंने भाजपा और मोदी के साथ-साथ पूरे देश से माफ़ी माँगनी चाहिए थी। परंतु रॉय माफ़ी माँगते समय इस बात की सावधानी बरतती हैं कि वह माफ़ीनामा केवल ‘जाफ़री परिवार के लिए’ हो।

 

   दूसरी ग़लती– उन्होंने दावा किया किया कि जाफ़री के मकान पर हमला करने वाली भीड़ को रोकने का पुलिस ने कोई प्रयास नहीं किया। रॉय के अनुसार “उन्होंने (श्री जाफ़रीने) डी.जी.पी., पुलिस कमिश्नर, मुख्य सचिव, अतिरिक्त मुख्य सचिव (गृह) को किए कॉल्स को नज़रअंदाज़ किया गया। उनके मकान के बाहर की पुलिस की मोबाइल गाड़ियों ने हस्तक्षेप नहीं किया”। वास्तव में उनके मकान के बाहर पुलिस ने न केवल हस्तक्षेप किया बल्कि ५ दंगाइयों को मकान के बाहर मार गिराया, और पुलिस ने अपनी जान जोखिम में डालकर १८० मुस्लिमों को बचाया। एस.आई.टी. की रिपोर्ट के अनुसार (पृष्ठ १) श्री जाफ़री के मकान के बाहर पुलिस ने आँसू गैस के १३४ गोले छोड़े और १२४ राउंड गोलियाँ चलाईं। ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने भी अपनी ऑनलाइन ख़बर में उस दिन ही कहा था कि पुलिस दल और अग्निशमन दल ने अत्यंत उत्कृष्ट कोशिश की; पुलिस निष्क्रिय थी, इस तरह का आरोप ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने उस दिन की ख़बरों में कहीं भी नहीं लगाया। 

 

   रॉय दावा करती हैं कि २८ फरवरी को श्री एहसान जाफ़री ने मुख्य सचिव जी. सुब्बाराव और श्री पी.सी.पांडे को फोन किया था! तत्कालीन पुलिस कमिश्नर श्री पी.सी.पांडे को २८ फरवरी २००२ को ३०२ फोन कॉल आए थे या उन्होंने किए थे, लेकिन श्री जाफ़री द्वारा कोई भी कॉल उन्हें नहीं किया गया था, ऐसा एस. आई .टी. ने श्री पांडे के कॉल-रिकॉर्ड की जाँच करके कहा (एस.आई.टी. अंतिम रिपोर्ट, पृष्ठ सं. २०४)। और उस दिन मुख्य सचिव श्री जी. सुब्बाराव छुट्टी पर विदेश में थे! [एस.आई.टी. ने अपनी रिपोर्ट के पृष्ठ सं. ४४८ पर यह कहा है।] तो जाफरी उन्हें कैसे कॉल कर सकते थे?

 

   राष्ट्रीय महिला आयोग ने भी उस समय कहा था कि मीडिया सांप्रदायिक दंगों में पीड़ित अल्पसंख्यक महिलाओं की यातनाओं को अनावश्यक रूप से बढ़ा-चढ़ाकर बता रहा है। तहलका की वेबसाइट ने २२ अप्रैल २००२ को कहा, “राष्ट्रीय महिला आयोग की सदस्या श्रीमती नफ़ीसा हुसैन ने दर्ज हुए बयान में कहा, गुजरात के सांप्रदायिक दंगों में पीड़ित अल्पसंख्यक समुदाय की महिलाओं के साथ हुई हिंसा को मीडिया और कई संगठनों द्वारा अतिरंजित तौर पर अनावश्यक तरीक़े से बताया जा रहा है।” यह कहना महिला आयोग की एक मुस्लिम सदस्या का था।   

मनगढ़ंत कथा

वर्ष २००२ में गुजरात में रहना ख़तरनाक हो गया था

  सच्चाई: ‘इंडिया टुडे’ ने २५ नवंबर २००२ के अंक में एक जनमत सर्वेक्षण प्रकाशित किया था, जिसमें एक प्रश्न पूछा गया था- ‘क्या इस समय गुजरात में रहते हुए आपको सुरक्षित महसूस होता है’? इस पर ६८ फीसदी लोगों ने जिसमें मुस्लिमों में से ५६ फीसदी लोगों ने ‘सुरक्षित महसूस होता है’ उत्तर दिया था। इस पूरे जनमत सर्वेक्षण पर अपनी राय देते हुए ‘इंडिया टुडे’ ने कहा: “मुख्यमंत्री (नरेंद्र मोदी) की आक्रामक भूमिका के साथ मतदाता दृढ़तापूर्वक उनके समर्थन में हैं। उनका मत कि राज्य के दंगे गोधरा की प्रतिक्रिया थी, इसका वे समर्थन करते हैं। गुजरात के बाहर रहने वालें लोगों ने राज्य को बदनाम किया है, उनके इस आरोप को भी सामान्य जनता का समर्थन है। और गुजरात राज्य रहने के लिए ख़तरनाक बन गया है, ऐसे सुझावों को वे तुच्छतापूर्वक ख़ारिज करते हैं।”

(संदर्भ:https://web.archive.org/web/2010613182633/http://archives.digitaltoday.in/indiatoday/20021125/cover2.html)

मनगढ़ंत कथा

गुजरात दंगे वर्ष १९८४ के सिक्ख-विरोधी दंगों की तरह थे

सच्चाई: इन दोनों दंगों में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ था। न सिर्फ़ दोनों दंगों के स्वरूप में काफ़ी बड़ा अंतर था, बल्कि इन दंगों से निपटने के सरकार के तरीक़े में भी बड़ा फ़र्क़ था। इनका अंतर क्या था, इसे हम विस्तृत रूप अगले अध्याय में विस्तार से देखेंगे।

मनगढ़ंत कथा

गुजरात सरकार दंगों में शामिल थी 

सच्चाई: पूरे राज्य में मशरूम की तरह बढ़ने वाले मदरसों की ओर नरेंद्र मोदी की गुजरात की भाजपा सरकार ने, पिछली केशुभाई पटेल सरकार की तरह, आँख मूँद ली थी। ‘इंडिया टुडे’ के १८ मार्च २००२ के अंक की रिपोर्ट से पता चलता है कि शायद भाजपा को अपनी नई ‘धर्मनिरपेक्ष’ छवि धूमिल होने का खतरा लगने कारण मदरसों पर नियंत्रण रखने के लिए कोई भी क़दम नहीं उठाया गया। इस अंक में कहा गया है: 

 

   “आम धारणा है कि धर्मांध विचार फैलाने वाले इस्लामी स्कूलों पर नियंत्रण न होने के कारण राज्य में मुस्लिमों के विरुद्ध नफ़रत की एक अव्यक्त भावना पनपने लगी थी, जिसका दंगों के रूप में विस्फोट हो गया। राज्य में मतांध मदरसों पर नियंत्रण रखने में अधिकारी क्यों असफल रहे, इस मुद्दे की राज्य में विशेष चर्चा है। क्या वह इसलिए था कि भाजपा को यह डर सता रहा था कि कट्टरपंथी मुसलमानों पर कड़ी कार्यवाही करने पर उसकी नई अर्जित ‘धर्मनिरपेक्ष’ छवि को धक्का लगेगा? या यह केवल सामान्य प्रशासनिक अक्षमता थी?”

 

   तो भाजपा को अपनी ‘पंथनिरपेक्ष’ छवि को धक्का लगने का डर था। शायद यदि ऐसा नहीं होता तो भी सरकार दंगों पर नियंत्रण करते समय निष्पक्ष और कार्यक्षम होती। लेकिन उस समय भाजपा की पंथनिरपेक्ष छवि और एन.डी.ए. में शामिल सहयोगी दल दाव पर लगे होने के कारण, सरकार दंगों को रोकने, या न होने देने के लिए निश्चय ही समर्पित व कटिबद्ध थी। सरकार ने किए कृत्यों को हमने तीसरे अध्याय में विस्तार से देखा है।

 

   आरोप है कि कांग्रेस पार्टी ने अपने ‘मोदी हटाओ’ आंदोलन में नरेंद्र मोदी को निशाना बनाने के लिए २१ अप्रैल २००२ के बाद दंगों को भड़काया; लगता हैं इस आरोप में आधार है। राज्यसभा में गुजरात दंगों पर ६ मई २००२ को बहस हुई थी। इस संबंध में आरोप है कि कांग्रेस चाहती थी कि दंगे चालू रहें, ताकि एन.डी.ए. के सहयोगी दल मोदी सरकर के ख़िलाफ़ हो जाएँ। शायद कांग्रेस को उम्मीद थी कि इन दंगों के कारण सहयोगी दल गठबंधन छोड़ेंगे और एन.डी.ए. सरकार गिर जाएगी। इसका विस्तृत विवरण हम आगे देखेंगे।

 

   गुजरात में पहले तीन दिनों के दंगे गोधरा हत्याकांड का परिणाम थे। लेकिन गोधरा हत्याकांड ही कुछ स्थानीय मुस्लिम कांग्रेस नेताओं का षड्यंत्र था। इसका विस्तृत विवरण भी हम आगे एक अध्याय में देखेंगे। गोधरा हत्याकांड घटित होने के बाद मीडिया और राजनैतिक नेताओं के उत्तेजनापूर्ण बयानों के कारण बाद के दंगे भड़के थे, उदा. तत्कालीन गुजरात कांग्रेस अध्यक श्री अमर सिंह चौधरी। 

मनगढ़ंत कथा

Only Muslims were rendered homeless and suffered economically

Myth

गुजरात के दंगे, भारत का ‘सबसे भीषण नरसंहार’ थे 

सच्चाई: वर्ष २००२ के गुजरात दंगे १९६९ के गुजरात दंगों की तुलना में या स्वतंत्रता से पहले वर्ष १९४० के दशक में अहमदाबाद के दंगों की तुलना में, जिनमें हिंदुओं ने बुरी तरह मार खाई थी, काफी कम गंभीर थे। गुजरात में १९८०, १९८२, १९८५ (लंबे व बड़े), १९९०, और १९९२ में भी बड़े दंगे हुए थे। 

 

   कांग्रेस के शासन में वर्ष १९८४ में नई दिल्ली में भीषण दंगे हुए। इन दंगों में अधिकारिक तौर पर तीन हज़ार लोग मारे गए। ये दंगे केवल नई दिल्ली तक ही सीमित नहीं थे, बल्कि नई दिल्ली से दूर त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में भी दंगे हुए। भारत में १९९२-९३ के बाबरी विध्वंस के बाद हुए दंगों में २ से ३ हजार लोग मारे गए थे। जम्मू और कश्मीर में वर्ष १९८९ से ४० हज़ार भारतीय मारे गए हैं। 

 

   गोधरा के बाद हुए दंगों को ‘देश का सबसे भीषण नरसंहार’ कहना तो दूर, ‘नरसंहार’ (massacre) भी नहीं कहा जा सकता। 

   

   सबसे भीषण हत्याकांड मध्य-युग में हिंदुओं का हुआ था। वर्ष १३९९ में तैमूर ने दिल्ली में एक दिन में ही एक लाख हिंदुओं का नरसंहार किया था। एक और आक्रमणकारी नादिरशाह ने वर्ष १७३९ में दिल्ली में बड़े पैमाने पर क़त्लेआम किया था। मध्य-युग के हिंदुओं के इन हत्याकांडों को देखने के बाद हिटलर ने १९३० के दशक में गैस चेंबरों में किया यहूदी समुदाय का हत्याकांड भी फीका लगता है। मध्य-युग में हिंदुओं के नरसंहार अकबर (जिसका शासनकाल १५५६-१६०५ था) सहित सभी महत्त्वपूर्ण मुस्लिम शासकों ने किए थे। फरवरी १५६८ में अकबर ने ३० हज़ार हिंदुओं की हत्या करने का आदेश दिया था, हालाँकि १५७० के बाद अकबर बदला। 

 

   पाकिस्तान और बांग्लादेश, ये दोनों देश भारत का हिस्सा थे, और पश्चिम पाकिस्तान में रहने वाले हिंदुओं की संख्या १९४७ में २० प्रतिशत थी, जो अब घटकर १ प्रतिशत रह गई है; शायद आधुनिक युग  का, लेकिन कहीं भी दर्ज न किया गया या न बताया गया, यह सबसे बड़ा नरसंहार, हत्याकांड है। इसी प्रकार आज के बांगलादेश में वर्ष १९०१ में ३४ प्रतिशत हिंदू थे, जो १९४७ में घटकर २९ प्रतिशत रह गए और २०११ में वहाँ पर हिंदुओं का प्रतिशत मात्र ८.६ हो गया है। केवल यही नहीं, भारत में वर्ष १९५१ में हिंदुओं की संख्या ८४ प्रतिशत थी जो घटकर वर्ष २०११ में ७९.८ प्रतिशत हुई।

 

   पाकिस्तान के सबसे प्रमुख हिंदू नेता श्री सुदामचंद चावला की २९ जनवरी २००२ को अपने राइस मिल से लौटते समय जकोबाबाद में दिन दहाड़े हत्या कर दी गई। उनके हत्यारों को कोई सज़ा नहीं हुई। ‘मेरी जान को ख़तरा है’, इस बारे में श्री चावला ने अनेक वर्षों तक बार-बार पकिस्तान मानवाधिकार समिति और नागरिक संगठनों से शिकायत की थी। यदि हिंदुओं के सबसे प्रमुख नेता की यह कथा थी, तो सामान्य हिंदुओं की क्या हालत होगी? (लिंक: http://www.sudhamchandchawla.com)

 

   स्वतंत्र भारत में भी, हिंसाचार की तुलना यदि अन्य अनेक घटनाओं के साथ करें तो २००२ के दंगे इनके सामने कुछ भी नहीं थे। वर्ष १९८९ में बिहार में कांग्रेस के शासनकाल में भागलपुर में हुए दंगों में एक हज़ार से अधिक लोग मारे गए थे, उनमें से अधिकांश मुस्लिम थे। इस मामले में पहले मुस्लिमों ने हिंदुओं की बस्तियों पर बम फेंकने का आरोप है, जिसके बाद प्रतिकार हुआ। वर्ष १९८३ में असम में (कांग्रेस शासन में) दंगे के केवल एक मामले में २१०० लोग मारे गए थे।   

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गुजरात पुलिस मुस्लिम-विरोधी थी 

सच्चाई: इसके विपरीत, मीडिया ने ‘मुस्लिम-विरोधी’ होने का आरोप लगाने के डर से पुलिस मुस्लिम कट्टरपंथियों पर कृती करने में देरी कर रहीं थी। पहले तीन दिनों में पुलिस गोलीबारी में मारे गए लोगों में अधिकांश हिंदू थे (९८ में से ६०)। ६ अप्रैल २००२ तक पुलिस गोलीबारी में कुल १२६ लोग मारे गए जिसमें से ७७ हिंदू थे। ७४ दिनों के दंगों के दौरान हिंदू शायद पहले तीन दिनों में आक्रामक थे, जबकि ७४ दिनों में से ७३ दिन शायद मुस्लिम आक्रामक रहे। 

 

   वास्तव में नरोड़ा पाटिया, गुलबर्ग सोसायटी, सदरपुरा, पांडरवाड़ा जैसे ४-५ ठिकानों पर मुस्लिमों पर बड़े पैमाने पर हमले किए गए, जिसमें कई मुस्लिम मारे गए, और हिंसक भीड़े बेकाबू थी, उनकी तुलना में पुलिस बल अत्यंत कम होने के कारण पुलिस गोलीबारी में इन हमलों में ज़्यादा लोग मारे नहीं जा सके। १ मार्च २००२ को सेना उपस्थित होते हुए, और ‘देखते ही गोली मारने’ के आदेश शुरू होते हुए मुस्लिमों ने प्रतिकारी आक्रमण करने के कारण पुलिस गोलीबारी में मुस्लिम भी मारे गए, क्योंकि उस समय स्थिति नियंत्रण के बाहर नहीं थी। २८ अप्रैल २००२ तक पुलिस गोलीबारी में ७७ से ८० हिंदू, तथा ९३ मुस्लिम मारे गए। पुलिस गोलीबारी में मारे गए मुस्लिमों की संख्या अधिक होने के बारे में स्पष्टीकरण ऊपर आ चुका है। 

   

    ‘इंडिया टुडे’ ने अपने २० मई २००२ के अंक में स्पष्ट रूप से इस बात को माना है कि पुलिस ने मुस्लिम कट्टरपंथियों के विरुद्ध कार्यवाही करने में देरी की, क्योंकि उन्हें उनपर ‘मुस्लिम-विरोधी’ मुहर लगने का डर सता रहा था। 

(संदर्भ:https://web.archive.org/web/20131013212042/http://archives.digitaltoday.in/indiatoday/20020520/states2.html)

 

   ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ की २८ अप्रैल २००२ की ख़बर के अनुसार पुलिस ने तब तक प्रतिबंधात्मक उपाय के रूप में लगभग १८ हज़ार हिंदुओं को गिरफ़्तार किया, जबकि दंगों के आरोप में १० हज़ार हिंदुओं को गिरफ़्तार किया। इन सारे दंगों की घटनाओं में कुल ४२७४ मामले यानी एफ.आय.आर. दर्ज किए गए। २०१२ साल तक १९२०० हिंदू और ७७९९ मुस्लिमों को गिरफ़्तार किया गया, यह कुल संख्या २६९९९ अर्थात् क़रीब २७००० है। अक्तूबर २००५ तक २५,२०४ लोगों को गिरफ़्तार किया गया था, गिरफ़्तारी की अंतिम संख्या में इससे थोड़ा इज़ाफ़ा हुआ है। पुलिस ने मामलों को दर्ज करने और उन्हें अंतिम रूप देने में पूरी सक्षमता से कार्य किया, परिणामस्वरूप गोधरा और बाद के दंगों में विभिन्न मुक़दमों में मार्च २०२० तक कम-से-कम ४८८ लोगों को दोषी क़रार दिया गया, जिसमें ३७४ हिंदू और ११४ मुस्लिम थे, जो की एक रिकॉर्ड हैं।

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